Thursday, July 30, 2009

ज्याउल, उरस की मूफल्ली, मोर्रम और ब्रिच्छारौपड़ - ६

लफ़त्तू और मैं हरिया हकले की छत फांद ही रहे थे जब पीछे से बन्टू की आवाज़ आई: "रुको मैं भी आ रहा हूं यार." ज़ीना उतर कर हम दूधिये वाली संकरी गली में थे. सरदारनी का स्कूल की तरफ़ जाने के बजाए हम बाईं तरफ़ वाली गली में मुड़ गए जहां से हमें सीधे घासमंडी पहुंच जाना था. घासमंडी की तमाम दुकानों के आगे लोग मोर्रम के जुलूस के वहां तक पहुंच जाने की प्रतीक्षा में थे. हम लालसिंह की दुकान पर पहुंचे ही थे कि बन्टू पर भय का दौरा सा पड़ा. वह वापस घर जाने की बात करने लगा तो लफ़त्तू ने थूकते हुए कहा: "दलपोक थाला."

डरपोक कहे जाने से बन्टू का स्वाभिमान आहत हुआ और उसने वापस जाने की योजना मुल्तवी कर दी.

"अब यईं पल लुके लओ" लफ़त्तू साधिकार बोला.

जुलूस हमारे घर से आगे निकल रहा था और हम तक पहुंचा ही चाहता था. रात घिर आने के बावजूद बैन्डगाड़ी के आगे सीना पीट रहे छोटे बच्चों में से कुछ के परिचित चेहरे पहचाने जा सकते थे. मोर्रम के जुलूस को छत से देखना और बात थी यहां उसे रू-ब-रू अपने नज़दीक आते देखना और. ढोलों की धमक जैसे हमारे पेटों से उठती हुई दिमाग तक पहुंचती लग रही थी. यह रोंगटे खड़े कर देने वाली आवाज़ें थीं.

बैन्डगाड़ी के एक तरफ़ दो बड़ी बड़ी देगचियां रखी हुई थीं. बच्चे देगची-इन्चार्ज के पास जाते, उसकी चिरौरी करते और मुठ्ठी भर कुछ माल पा-खा कर पुनः सीनाफोड़ीकरण में लग जाते.

बैन्डगाड़ी हमारे ऐन सामने थी. देगची-इन्चार्ज को मैंने पहचान लिया. बन्टू ने भी. वह बन्टू लोगों के घर चलती रहने वाली शाश्वत मरम्मतों का निर्देशन करने वाला बहरा मिस्त्री था जो बार-बार बताए जाने के बावजूद कुछ न कुछ ऐसी वास्तुशिल्पीय गड़बड़ कर दिया करता था कि घर लौटने पर बन्टू के पापा उसे काला चश्मा लगाए लगाए ही डांटना शुरू कर दिया करते थे.

देगची-इन्चार्ज ने भी हमें दूर से ताड़ लिया और इशारे से अपने नज़दीक बुलाया. बन्टू ने एक पल की भी देर नहीं लगाई और हम बैन्डगाड़ी के ऐन बगल में थे. बहरे मिस्त्री ने खूब बड़े बड़े तीन पत्तलों में माल भर कर हमें थमाया और हम बिजली की गति से घासमंडी के उस तरफ़ पसू अस्पताल से सटे एक टीले की तरफ़ भाग चले.

पत्तलों में जलेबी वाली गरम गरम बूंदियां भरी हुई थीं. बन्टू ने बूंदी के मुसलमान होने का ज़िक्र किया तो लफ़त्तू ने हिकारत से उस से कहा : "मैंने का ता तुदते अपने थात आने को? तुदे वापत दाना ऐ तो दा. हता थाले को!"

बन्टू वाकई डरपोक निकला और भागता हुआ वापस अपने घर चला गया. हम बूंदी के मज़े लेने की प्रोसेस के चरम पर पहुंचने को ही थे जब अचानक एक कर्रा तमाचा खोपड़ी पर पड़ा. जब तक मैं इस प्रहार से सम्हल पाता दूसरा तमाचा पड़ा. दो सेकेन्ड के भीतर हम दोनों बांकुरे ज़मीन पर थे. दो जोड़ी बड़े बड़े हाथों ने हमारे पत्तल समेट कर कूड़े की तरह उछाल दिए.

एक लफ़त्तू का बड़ा भाई था एक उसका बीड़ीखोर दोस्त.

हमारे कान दूधिये वाली गली तक नहीं छोड़े गए. छत पर की भीड़ आखिरी ताजियों को निकलता देखने में मशगूल थी. दूधिये वाली गली के मुहाने पर हमारे कान छोड़े गए जो लगता था दो-दो हिस्सों में बंट चुके थे. लफ़त्तू के भाई ने मुझे चेताते हुए कहा कि मुझ होस्यार बच्चे को उसके भाई जैसे हौकलेट से दूर रहना चाहिये. यह भी मुसलियों के हाथ की बनी मिठाई खा चुकने के बदले में शायद कल सुबह तक हमारे हाथ झड़ जाएंगे. और यह भी कि लफ़त्तू को तो अब घर पर देखा जाएगा.

दर्द, अपमान और छोटा होने की विवशता के बावजूद मुझे लफ़त्तू के बड़े भाई के अज्ञान और गधेपन पर तरस आया. हाथ झड़ने होते तो अब तक झड़ चुके होते. मुझे भाषण दिया ही जा रहा था जब अचानक बिजली की तेज़ी से लफ़त्तू अपने भाई की गिरफ़्त से निकला और "हत थाले!" कह कर आगे अन्धेरों की तरफ़ भागता चला गया. दोनों बड़े उसे पकड़ने भागे तो मैंने अपने दुखते कान पर हाथ लगाया. वह सलामत था. जुलूस की आवाज़ अब उतनी कानफोड़ू नहीं रही थी. मैं चोरों की तरह हरिया हकले का ज़ीना चढ़कर ढाबू की छत फलांगता अपनी छत के क्रिकेट मैदान वाले हिस्से की तरफ़ आ कर टंकी की ओट हो गया. रात के खाने की योजनाएं बनाती आपस में बतियातीं मन्थर कदमों से नीचे उतरती औरतें थीं. मैदान साफ़ था. मैंने थोड़ा ऊंची आवाज़ में कुछ गाना सा गुनगुनाना शुरू कर दिया ताकि वे मेरी उपस्थिति से वाकिफ़ हो रहें

"अब कब तक छत पर रहेगा. चल हाथ मुंह धो के किताब हिताब पढ़! बहुत हो गया मुसलियों का ताजिया फाजिया. कल से स्कूल भी है."

नींद रह रह कर टूटती रही रात भर . मुझे सपना दिखता था कि लफ़त्तू की धुनाई हो रही है और वह "बचाओ बचाओ" की गुहार लगा रहा है. लेकिन सुबह वह अपना बस्ता थामे लफ़ंडरसंकेत "बी...यो...ओ...ओ...ई.." के साथ मुझे बुला रहा था.

उसका चेहरा सूजा हुआ सा लग रहा था. मैंने उसके भाई द्वारा बाद में किये गए व्यवहार के बारे में जानना चाहा पर झेंप महसूस हुई. उसने मेरा हाथ पकड़कर आंख मारते हुए कहा: "हात तो नईं धला यार तेला मुछलियों के हात की बूदी खा के बी!"

स्कूल में असेम्बली के समय प्रिंसीपल साहब के साथ एक सज्जन खड़े थे. खाकी वर्दी पहने ये सज्जन पुलिस तो कतई नहीं लग रहे थे. पर एक तरह की अफ़सरी धज उनके भीतर से ज़रूर टपक रही थी. राष्ट्रगान के बाद प्रिंसीपल साहब ने कहना शुरू किया: "बच्चो आज आप को जंगलात विभाग से पधारे सिरी जोसी जी कुछ अच्छी अच्छी बातें बताएंगे. पहले उनके स्वागत में आप लोग गीत गाएं." मुर्गादत्त मास्टर ने हारमोनियम सम्हाल लिया. इस तरह अचानक गीत गाने की हम में से किसी की तैयारी न थी. नतीज़तन मास्टर देबानन मुर्गादत्त की कर्कश ध्वनि सबसे अलग सुनाई दे रही थी. हार्मोनियम जैसे रेलगाड़ी की बग़ल में रेंग रही मालगाड़ी जैसा अलग स्वरमंजरियों का खौफ़नाक समां बांधे था. हवा में करीब तीन हज़ार बच्चों के तीन हज़ार आरोह अवरोह एक दुसरे को काट-पीट-खसोट-नोच रहे थे "आपि का सुआगत है सिरीमान. आपि का सुआगत है सिरीमान ..."

इस भीषण राग नोचखसोट के बारहताला द्रुततम ताल पर आने के उपरान्त खाकी जोसी जी ने एक एक कर पहले तो सारे मास्टरों का नाम ले ले कर धन्यवाद कहा. उसके बाद गला खंखार कर करीब आधे घन्टे हमारी ऐसी तैसी की. हमारी समझ में इतना ही आया कि हमें पेड़ लगा कर धरा को बचाना है. और पेड़ लगाने का यह काम चौबीस घन्टे, ताज़िन्दगी करते जाना है जभी धरा बचेगी.

खाकी जोसी के माइक से हटने पर एक बार पुनः प्रिंसीपल साहब ने मोर्चा सम्हाला. "जोसी साहब के निर्देशन में आज कच्छा छै और सात के बच्चे ब्रिच्छारौपड़ हेतु कोसी डाम पे जाएंगे. ब्रिच्छारौपड़ के उपरान्त बच्चे चाएं तो स्कूल आ जावें चाएं अपने घर चले जावें. कल को कच्छा आठ और नौ के बच्चे यही कारजक्रम करेंगे ..."

यानी छुट्टी. ब्रिच्छारौपड़ शब्द का मतलब लफ़त्तू की समझ में नहीं आया तो उसने मुझ से पूछा. मैंने उसे बतलाया तो वह बोर होता हुआ बोला: "इत्ता सा पौदा लगाने का इत्ता बला नाम. बली नाइन्तापी है."

चीखते, चिल्लाते धूल उड़ाते हमारा काफ़िला डाम पर पहूंचा. डाम के बगल में बने बच्चा पार्क के बगल से एक रास्ते पर हमें ऊपर चढ़ने को कहा गया. आगे लकड़ी का एक गेट था. गेट पर करीब पांच मनहूस आदमी खड़े थे जो सूरत से ही कामचोर और चपरासी लग रहे थे. उन्होंने डपटकर हमें "एक-एक कर के सालो!" कह कर एक-एक पौधा थमाया. ज़्यादातर पौधों की पत्तियां सूखी हुई थीं और वे भयानक तरीके से मरगिल्ले लग रहे थे.

आधे पौन घन्टे में इन पौधों को जैसे-तैसे ज़मीन में दफ़ना कर हम नीचे पार्क में थे जहां खाकी जोसी, मुर्गादत्त मास्टर और नेस्ती मास्टर उर्फ़ विलायती सांड कहीं से ले आई गई कुर्सियों पर विराजमान हो चुके थे. उनके सामने एक मेज़ धरी हुई थी. और आगे हम बच्चों के बैठने को दरी बिछा दी गई थी. जब सारे बच्चे सैटल हो गए और हल्लागुल्ला कम हुआ तो विलायती सांड खड़ा हुआ और प्रारम्भिक अनुष्ठान के तौर पर उसने पहले ख्वाक्कध्वनि के साथ थूक का गोला अपने पीछे की धरा पर उछाला, एक डकार जैसी ली और हमें सूचना दी - "अब सारे बच्चों को ब्रिच्छारौपड़ कारजक्रम के सटफिकट बांटे जाएंगे."

दो घन्टे तक नाम पुकारे जाते रहे. हर बच्चा मेज़ पर जाता और खाकी जोसी से सटफिकट ग्रहण करता. शुरू के चालीस पचास बच्चों तक तो उत्साह बना रहा उसके बाद बच्चे धीरे धीरे अधमरे होना शुरू हो गए. धूप अलग थी. मेज़ पर लगातार चाय की सप्लाई जारी थी.

जब मेज़ पर धरी सटफिकटों की गड्डी खत्म होने को थी, एक जीप बगल में आ रुकी. जीप से पेटियां निकाली गईं और बच्चों को एक एक कर एक केला और एक समोसा थमाते हुए अपना मुंह काला कर घर फूट लेने का आदेश दिया गया.

लफ़त्तू इस सब से इस कदर चट चुका था कि उसने पार्क से बाहर आते ही समोसा और केला नहर की तरफ़ "हता थाले को!" कहते हुए उछाल दिये.

और दिन होते तो लफ़त्तू ने मेज़ कुर्सी पर बैठी सतत चाय सुड़कती त्रयी की कितनी ही मज़ाकें उड़ा ली होतीं लेकिन वह पिछले कुछ दिनों से किसी दूसरी आकाशगंगा के किसी दूसरे सौरमन्डल के सुदूरतम ग्रह में जा बसा था.

ब्रिच्छारौपड़ कारजक्रम के चौथे दिन असेम्बली में गोबरडाक्टर की उपस्थिति ने हमारी दिलचस्पी को ज़रा सा हवा दिखाई. उस दिन बारहवीं क्लास ने ब्रिच्छारौपड़ करने जाना था. गोबरडाक्टर ने भी पेड़, पानी, धरती वगैरह के बारे में अपना ज्ञान बघारते हुए ब्रिच्छारौपड़ कारजक्रम की महत्ता को रेखांकित किया. नकली तालियों के बाद प्रिंसीपल साहब ने बच्चों को सूचित किया कि गोबरडाक्टर का स्थानान्तरड़ हो गया है और यह कि सारा शहर उनकी याद में आने वाले कई सालों तक रोता रहेगा. पंडित रामलायक 'निर्जन' ने अपनी रची एक गीत-श्रॄंखला सुनाई जिसका आशय यह निकलता था कि चांद सूरज तो तब भी रोज़ आते रहेंगे लेकिन रामनगर की सड़कें गोबरडाक्टर के बिना कब्रिस्तान में तब्दील जाएंगी क्योंकि वे अब कभी यहां नहीं आएंगे.

रामलायक 'निर्जन' ने पहले से ही मनहूस इस असेम्बली को मनहूसतर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.

छुट्टी जल्दी घोषित कर दी गई. मैंने लफ़त्तू से बमपकौड़ा खाने चलने को कहा तो वह मान गया. मेरे पास थोड़े पैसे थे. बमपकौड़ा खा कर हम मन्थर गति से घर की तरफ़ जा रहे थे जब सामने से दौड़ता हुआ लालसिंह हम तक पहुंचा.

"तुम साले मौज काट रहे हो वहां तुम्हारे माल हल्द्वानी जा रहे हैं. एक बार देख तो लो हरामियो उन को!"

अजीब सी नासमझ बदहवासी में हम भागते हुए पसू अस्पताल के गेट पर पहुंचे. ट्रक में सामान लादा जा चुका था और गोबरडाक्टर की गाड़ी की गतिमान झलक भर 'असफाक डेरी केन्द्र और सेन्टर' के मोड़ पर नज़र आई.

हम दोनों वहीं बैठ गए. लफ़त्तू का चेहरा सफ़ेद पड़ा हुआ था और ऐसा लग रहा था कि वह अब रोया तब रोया. मैं तो नकली आसिक था सो मुझे कुच्चू गमलू के चले जाने का ऐसा कोई अफ़सोस नहीं हो रहा था. मुझे लफ़त्तू की चिन्ता हुई.

घरघर करता ट्रक जब चल दिया तो हम हारे जुआरियों की तरह पसू अस्पताल के अहाते में प्रविष्ट हुए. वहां श्मशान जैसी मुर्दनी छाई हुई थी. गोबरडाक्टर के घर के अन्दर कोई झाड़ू कर रहा था. अगले डाक्टर के रहने के लिए घर तैयार किये जाने की तैयारी शुरू हो चुकी थी.

घर के बाहर पुरानी पेटियां, एकाध दरियां और कूड़ा कचरा बिखरा था. लफ़त्तू ने अचानक कुछ देखा और भागकर कूड़े से उसने अपना रत्तीपइयां बाहर निकाला. ये वही रत्तीपइयां था जिसे उसने उस दिन कार की सवारी खाने के बाद "हाउ क्यूट! हाउ क्यूट!" कहती हमारी एक स्कर्टधारिणी भाबी पर न्यौछावर कर दिया था.

"हता थाले को! हता थाले को! ... हता! " कहते आवेग में लफ़त्तू ने रत्तीपइयां के तार को बुरी तरह टेढ़ामेढ़ा बना दिया. रत्तीपइयां को लेकर वह नहर की दिशा में भागा. मैंने उसका अनुसरण किया. वह मेरे पहुंचने से पहले ही रत्तीपइयां को नहर के हवाले कर चुका था. उसने एक रुंआसी निगाह मुझ पर डाली और भागता हुआ भवानीगंज की तरफ़ निकल पड़ा.

अगले दिन इतवार था. हमारा दिगम्बरदल तैराकी कार्यक्रम के उपरान्त कायपद्दा भी खेल चुका था. यानी घर जाकर कुछ खाने का समय हो गया था. लफ़त्तू पानी के भीतर नंगा निश्चेष्ट लेटा था. सब जा चुके तो मैंने उस से घर चलने को कहा.

"तू दा याल. मैं कुत थोत रा ऊं." कह कर उसने तेज़-तेज़ तैरना शुरू कर दिया जब तक कि वह मेरी निगाहों से ओझल न हो गया.

Wednesday, July 29, 2009

ज्याउल, उरस की मूफल्ली, मोर्रम और ब्रिच्छारौपड़ - ५

ज्याउल के घर का खाना याद आते ही मुंह में पानी भर आता. एक बार मैंने ज्याउल से ऐसा कहा तो वह मेरे और लफ़त्तू के लिए अलग से प्लास्टिक के डब्बे में मटर की तहरी बनवा कर लाया और अपनी अम्मी का सन्देशा भी कि हम जब चाहें तहरी खाने उनके घर आ सकते हैं. बल्कि इसी इतवार को क्यूं नहीं आ जाते.

इन्टरवल में जब सारे बच्चे खेलमैदान की तरफ़ भाग चले हम तीनों ने क्लासरूम में रहकर ही अपना गुप्त लंच कार्यक्रम आयोजित किया. छोटा सा प्लास्टिक का डब्बा और खाने वाले दो भुखाने सूरमा. न पेट भरा न मन. पर लुफ़्त आ गई.

अगले दो इतवार हमने ज्याउल के घर इस लुफ़्त का क्लाइमेक्स भी महसूस किया. इस में बाधा बन कर आईं कुछ छुट्टियां. ज्याउल अपने नानाजान के घर फ़रुक्खाबाद चला गया था इन छुट्टियों में.

हमारा दिगम्बर तैराकी और पॉलियेश्टराम्बर कायपद्दा कार्यक्रम अपने उरूज पर आ जाता था इस तरह की छुट्टियों में. एक बार थक कर चूर हम लोग घरों को लौट रहे थे तो ऐसे ही बातों बातों में इस बात पर बहस चल निकली कि छुट्टियां किस बात की चल रही हैं. गोलू ने अपने पापा के हवाले से बतलाया कि कुछ त्यौहार एक साथ पड़ गए और बीच में इतवार भी. एक दिन बाद मोर्रम था. मोर्रम माने कोई मुसलमान त्यौहार. पिछली बार मोर्रम के टाइम हम लोग रानीखेत किसी शादी में गए हुए थे. उस मोर्रम के ताजियों और ढोल-दमामों वगैरह की बाबत लफ़त्तू और बन्टू ने मुझे इतने किस्से सुनाए थे कि इस त्यौहार का नाम आने से मुझे कुछ उत्साह महसूस हुआ.

इधर लफ़त्तू के व्यवहार में धीरे धीरे कुछ परिवर्तन आने शुरू हो गए थे. उसने कायपद्दा खेलना बन्द कर दिया था. हम आम की डालियों पर चढ़े रहते और वह पानी में डूबा अधडूबा रहता. बहुत बोलता भी नहीं था. न शामों को क्रिकेट खेलने आता. हां हर शाम लालसिंह की दुकान पर हम ज़रूर जाते थे. मेरी निगाहें पसू अस्पताल के गेट से लगी रहा करतीं पर लफ़त्तू किसी दूसरे ग्रह पर पहुंच चुका था. यदा कदा वह कोई अश्लील गाना सुनाता या किसी पिक्चर के डायलाग ताकि लालसिंह उसकी उदासी को ताड़ न ले.

मुझे उस्ताद का यह रूप कतई पसन्द नहीं आ रहा था. लेकिन मैं असहाय था. मेरी इतनी ताब न थी कि उस के लिए कुछ भी कर सकूं. मैं हिम्मत कर के गमलू कुच्चू का नाम ले लेता तो वह "हता थाले को याल" कहता सड़क पर पड़े पत्थरों को लतियाता दूर तक ठेलता ले जाता. कभी कभी वह बिला वजह अपने आप से "हत थाले की" कहता.

लेकिन मोर्रम की सुबह वह "बी ... यो ... ओ ... ओ ... ई. .." करता सड़क पर से मुझे बुला रहा था. मैंने झटपट चप्पल पहनी और अपने शान्तिवन अर्थात बौने के ठेले की तरफ़ चल पड़े.

"बेते पितले छाल इत्ते बले बले धोल बज रये थे मोर्रम पे कि कान फूत गए ते. औल इते बले ऊंते उंते तादिये ... आप छमल्लेवें ... तेले घल की थत तक. बन्तू ते पूत लेना. मैं तो तुदे ये कैने आया ऊं कि तू दलना मत धोल छाले ऐते बदते ऐं ... "

हमने पेटों में प्रिय व्यंजन पिरोया और बहुत दिनों बाद फ़र्श से चिपक कर आधे घन्टे कोई पिक्चर देखी.

मोर्रम के जुलूस की आवाज़ें शाम चार बजे से पाकिस्तान के किसी सुदूर हिस्से से सुनाई देना शुरू हो गई थीं. समय बीतते बीतते ढोलों की थापें तेज़ होती गईं. करीब साढ़े छः बजे जुलूस पाकिस्तान सीमा पर था. हमारी छत पर दर्शकों का मजमा लगा हुआ था.

बहुत दूर तक लोगों का हुजूम नज़र आ रहा था. जुलूस में बीच बीच में बड़े बड़े शानदार ताजिये नज़र आ रहे थे. बेहतरीन कलाकारी के नमूने ये चमचमाते ताजिये मैं पहली बार देख रहा था. जुलूस में सबसे आगे बैन्डवाली एक गाड़ी पर दो बड़े बड़े ढोल बजाए जा रहे थे. गाड़ी के आगे अपनी छातियां पीटते करीब सौ बच्चे थे. वे बार बार गाड़ी के पास जाते है वहां से उन्हें कुछ मिलता जिसे अपने मुंहों में ठूंसकर वे सीना फ़ोड़ने में जुट जाते. पीछे पता नहीं कितने सारे तो ताजिये थे और कितने लोग. बैन्डगाड़ी हमारे घर से दसेक मीटर दूर रह गई होगी जब ढोल बजाने वालों के भीतर जैसे कोई देवता घुस गया. खुले सीनों वाले चार-चार हट्टे कट्टे आदमी ढोल पीट रहे थे और सचमुच घर की दीवारों की एक एक ईंट बजती महसूस हो रही थी. ताजिये वाकई बहुत ऊंचे थे और लगता था कि ऊपर टंगे बिजली के तारों में लिपझ जाएंगे.

ढोलों की आवाज़ बिल्कुल कानफोड़ू थी. ऐसी उत्तेजना मुझे कभी महसूस नहीं हुई थी. बैन्डगाड़ी के पीछे बड़ी उम्र के पगलाए से लड़कों-आदमियों को अपने सीनों और पीठों पर रस्सियां-सोंटियां बरसाते हुए "या अली या अली" कहते देखना अजब सनसनी भर देने वाला था. इस सारे कोलाहल को देखते कुछ भी सुनाई दे रहा था. मुझ से सट कर खड़े बन्टू की लगातार कमेन्ट्री चालू थी. अलबत्ता लफ़त्तू ने जब कान से अपना मुंह सटाकर "तल बेते" कहा तो उस पागलपन के बीच भी मैंने उसकी आवाज़ सुन ली. उसने आंख मार कर मुझे अपने पीछे आने को कहा.

(जारी - कल अगली लास्ट किस्त. हर हाल में. अभी कहीं जाना पड़ रहा है.)

Tuesday, July 28, 2009

ज्याउल, उरस की मूफल्ली, मोर्रम और ब्रिच्छारौपड़ - ४

हालांकि ज्याउल के घर हम उसके बड्डे पर जा चुके थे, यह बात मेरे परिवार में किसी को मालूम न थी. रात को खाना खाते वक्त जब मैंने अगले दिन ज्याउल के घर जाने की अनुमति मांगी तो उसे मिल ही जाना था क्योंकि पिताजी पहले ही मुझे उसके साथ दोस्ती बढ़ाने को कह चुके थे. मां ने थोड़ा सा मूंह बनाया और बोली : "यहीं क्यूं नहीं बुला लेता है उस को? कोई जरूरी है उस के यहां जाना?"

"अरे जाने दो यार बच्चों को ऐसे ही दुनियादारी पता चलती है" कह कर फ़ैसला मेरे पक्ष में सुना दिया गया.

अगले दिन मैं तैयार हो कर ज्याउल के घर जाने ही को था कि मां ने कहा: "रुक एक मिनट को."

वह भाग कर मन्दिर वाले कोने में गई और वहां कुछ देर रूं-रूं जैसा करती रही. वापस आ कर उसने मेरे माथे पर भभूत का टीका लगाया और काला धागा मेरी गरदन के गिर्द बांध दिया: "वहां खाना हाना मत कुछ. और डर लगेगा तो हनुमान चालीसा का जाप कर लेना. एक बजे तेरे बाबू आ के ले जाएंगे तुझे."

पूर्वनिश्चित कार्यक्रमानुसार लफ़त्तू मुझे बस अड्डे के पीछे खड़ा मिला. मेरे माथे पर भभूत लगी देख कर बोला: "अबी तू बत्ता ऐ बेते. थोता ता बत्ता." उसकी मंशा मुझे अपमानित करने की नहीं थी पर मुझे अपमानित महसूस हुआ. मैंने झटके में माथा रूमाल से साफ़ किया और अपनी मां के उक्त कृत्य को डिफ़ेन्ड करते हुए कहा कि मां ने अपना काम किया मैंने अपना.

उसने मेरा हाथ थाम के कहा: "बुला नईं मानते याल!"

हिमालय टाकीज़ पार करते न करते उस पर पुरानी रौ छा गई. उसने दो उंगलियां मुंह में घुसेड़कर सीटी बजाना भी सीख लिया था. सत्तार मैकेनिक की दुकान के बाहर उसने इस कला का प्रदर्शन किया और जल्द ही "...उहूं ... उहूं ...दान्त तत ... दान्त तत ..." की मटकदार चाल में पहुंच गया. मैं हैरान हो जाता था उसे देख कर. अभी अभी इसके पापा ने इसकी चमड़ी उधेड़ी है मगर ये किसी से डरता ही नहीं. उसके मुझ पर ऐसे ऐसे अहसानात थे मगर उसने एक बार भी किसी का हवाला देकर मेरी बेज्जती खराब नहीं की थी जैसा बन्टू हर दूसरी बार किया करता था.

ज्याउल के घर पर हमारा इन्तज़ार हो रहा था. आसमानी लिबास ने आज गुलाबी रंग चढ़ा लिया था. उसने हमें दूर से देख लिया और हमें उसका "ज़िया भाई! ज़िया भाई!" कहते हुए भीतर जाते बोलना सुनाई दे गया. ज्याउल की अम्मी ने हमारे सिरों पर हाथ फिराये और अल्ला-अल्ला चाबी-ताला जैसा कुछ कहा. गुलाबी लिबास ने हमें "आदाब भाईजान" कहा और अन्दर कहीं चला गया. ज्याउल हमें अपने कमरे में ले जाते हुए बोला "ये हमारी बाजी हैं"

'बाजी' शब्द का मतलब पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी - बस मन में दस-बीस सवाल भर उमड़े. ज्याउल के पास बहुत सारी किताबें थीं. मैंने इतनी किताबें दुकान को छोड़कर कभी-कहीं नहीं देखी थीं - किताबें कुच्चू गमलू के पास भी थीं पर ज्याउल का कलेक्शन अविश्वसनीय था. ज्याउल ने हमें स्पैलिंग वाला खेल खेलने का प्रस्ताव दिया. लफ़त्तू ने एक लोटपोट निकाल ली थी और वह किसी भी तरह का खेल खेलने के मूड में न था. "तुम दोनो खेलो याल. मुदे नईं आती इंग्लित फ़िंग्लित! ..."

हमारा स्क्रैबल करीब एक घन्टा चला. इस दरम्यान शरबत, सिंवई, समोसे इत्यादि का भोग लग चुका था. हमारे स्क्रैबल को गुलाबी पोशाक बाजी के रूप में एक उम्दा दर्शक मिल गया था. बाजी शायद ज्याउल से एकाध साल बड़ी थीं. हर नए शब्द पर "बहुत अच्छे भाईजान!" कहना उनका ताज़ा तकिया कलाम था शायद.

लोटपोट में नकली व्यस्त लफ़त्तू ने अपना चेहरा इस कदर छुपाया हुआ था कि अगर आधे घन्टे वहां रहने पर बाजी "आप नहीं खेलेंगे?" नहीं पूछती तो हम उसे भूल ही जाते. "लफ़त्तू को खेल पसन्द नहीं हैं. उसे कॉमिक अच्छे लगते हैं." मैंने लफ़त्तू का बचाव करते हुए कहा. "कोई बात नहीं, कोई बात नहीं" कहकर उन्होंने हमारे उत्साहवर्धन में जुट जाना बेहतर समझा.

स्क्रैबल के बाद हम लोग बाहर बरामदे में आ गए. सामने नहर बहती थी और दूर टुन्नाकर्मस्थली यानी कोसी डाम की झलक दिख रही थी. "आओ बच्चो! खाना लग गया!" अन्दर से ज्याउल की मम्मी की आवाज़ आई तो मेरी फूंक सरक गई.

सिंवई, समोसे, शरबत तक तो ठीक था पर पूरा खाना. अगर घर में मां को पता लग गया तो? और मान लिया खाने को गाय-हाय हुई तब? ... मैं कोई बहाना सोच ही रहा था कि लफ़त्तू ने मेरी बांह थामी और आश्वस्त करते हुए अपने साथ भीतर डाइनिंग टेबल पर ले चला. बढ़िया साफ़ सफ़ेद तश्तरियां करीने से लगी हुई थीं. ज्याउल की अम्मी ने मटर की खुशबूदार तहरी और दही के डोंगे खोले और बोली "बच्चों के हिसाब से मिर्च बिल्कुल नहीं डाली है बेटे. लो."

जीवन में मैंने तब तक नहीं जाना था कि मटर की तहरी जैसी सादा चीज़ इस कदर स्वादिष्ट भी हो सकती है. उसे सूतते हुए न तो मां की बातें याद आईं न तहमत से ढंके मीट से लदे हाथठेले की. खाना खा चुकने के बाद मुरादाबादी घेवर मिला बतौर स्वीटडिश.

हमारे जाने का समय होने को था और मैं पिताजी का इन्तज़ार कर रहा था जब ज्याउल की अम्मी ने बताया कि ऑफ़िस से चपरासी आकर बता गया था कि पिताजी व्यस्त होने के कारण नहीं आ सकेंगे. मुझे थोड़ा तसल्ली हुई कि वापसी में लफ़त्तू और मैं कुछ देर और मौज कर सकेंगे.

ज्याउल, उसकी अम्मी और बाजी हमें कालोनी के गेट तक छोड़ने आए. "आते रहना बेटा! वरना ज़िया तो अकेले में हर बखत किताबों में ही मुंह डाले रहते हैं. घर पर सब को हमारा सलाम कहना."

मुसलमान घर में लंच कर चुकने जैसा अविश्वसनीय कारनामा कर चुकने का सदमा एकाध मिनट रहा जब लफ़त्तू बोला: "द्‍याउल कित्ता अत्त ऐ ना. और उतकी मम्मी बी." वह विचारमग्न होने को था जब मैंने मुसलमान घर में लंच करने के बाबत उसके विचार पूछे. "अले हता याल! इत्ते प्याल छे तो मेली मम्मी ने मुदे कबी नईं खिलाया. कुत नईं होता मुछलमान हुछलमान! बत घल पे मत कैना. द्‍याउल ते मैं कै दूंगा कि तेले घल पे नईं कएगा."

घर पर छोटी बहनों के सिवा कोई न था. वे अपनी गुड़ियों के बचकाने खेलों में मुब्तिला थीं. मैंने इत्मीनान की सांस ली कि तुरन्त खाना खाने को कोई नहीं कहेगा. देह में गरदन गरदन तलक स्वाद अटा हुआ था.

एक शाम हम क्रिकेट खेल रहे थे. लफ़त्तू हरिया हकले की छत पर पहुंचा दी गई गेंद लाने गया. इस बार गेंद असल में दूधिये वाली गली में चली गई थी. इन्हीं दिनों फ़ील्डिंग में यह नियम लागू किया गया था कि सड़क या दूधिये वाली गली में गेंद पहुंचाने वाले को ही उसे लाना होगा. लफ़त्तू ने अपनी स्वयंसेवी फ़ील्डिंग संस्था बन्द कर दी थी.

बन्टू नीचे गया तो मैं और लफ़त्तू छत की मुंडेर पर अपनी मुंडियां टिकाए नीचे झांक कर देखने लगे. बन्टू को गेंद नज़र नहीं आ रही थी और वह इधर उधर खोज रहा था. अचानक हमारे ऐन नीचे हरिया के घर का दरवाज़ा खुला और हमारी उम्मीदों को ग्रहण लगाता कुच्चू-गमलू का खिलखिल करते बाहर आना घटित हुआ. उनके पीछे पीछे हरिया निकला और उसके बाद हरिया की बहन और उसकी मां.

"हो गई बेते तेली भाबी की थादी फ़ित्त हलिया के तात. मैं कै ला था ना थाले ने फंता लिया ऐ उतको."

जब तक बन्टू गेंद लाता, हम दोनों बौने के ठेले की तरफ़ निकल चुके थे. इधर मेरे मामा आए थे. और जाने से पहले सब से छिपा के मुझे पांच का नोट दे गए थे सो पैसे की इफ़रात थी. बमपकौड़ा पेट में जाते ही हमारे दिमाग थोड़ा स्थिर हो जाया करते और तब ऐसी संकटपूर्ण वेलाओं में हम किसी भी विषय पर लॉजिकली सोच पाते थे.

"तल. लालछिंग के पात तलते ऐं."

लालसिंह किस्मत से दुकान पर अकेला बैठा माचिस की तीली की मदद से कनगू निकाल रहा था. हमें देखा तो उसका चेहरा अचानक खिल गया. "इत्ते टैम से कां थे बे हरामियो."

दूध-बिस्कुट की मौज काटी गई. लालसिंह ने तड़ से हमारे सामने सवाल उछाला: "गोबरडाक्टर तो जा रहा हल्द्वानी. ट्रान्सफ़र हो गया बता रहे थे. अब तेरा क्या होगा कालिया?" उसने प्यार से लफ़त्तू की ठोड़ी सहलाई.

"होना क्या ऐ. आपका नमक खाया है छलकाल" अप्रत्याशित रूप से कालिया बन गया लफ़त्तू. फ़िर जल्दी से पाला चेन्ज कर के गब्बर बन कर बोला: "ले बेते अब गोली खा!"

अपने नन्हे हाथों को जोड़कर उसने पिस्तौल की सूरत दी और अपनी ही कनपटी पर लगा कर कहा: "धिचक्याऊं! धिचक्याऊं! धिचक्याऊं!" और मर गया. लालसिंह हंसते हंसते पगला गया था. "सालो जल्दी जल्दी आया करो यहां. इत्ती बोरियत होती है साली."

लालसिंह लफ़त्तू की ऐक्टिंग से इम्प्रेस्ड था पर मुझे पता था यह लफ़त्तू की डिफ़ेन्स मैकेनिज़्म काम कर रही थी अपने ऊपर आए ऐसे व्यक्तिगत विषाद के अतिरेक से लड़ने को. लफ़त्तू तो तब भी नहीं रोया था जब उसके पापा उसे सड़क पर नंगा कर के जल्लादों की तरह थुर रहे थे.

नहीं. लफ़त्तू तब भी नहीं रोया.

न तब. न बाद में.

(जारी - कल अगली लास्ट किस्त)

पिछली कड़ियां:

पहला हिस्सा

दूसरा हिस्सा

तीसरा हिस्सा

ज्याउल, उरस की मूफल्ली, मोर्रम और ब्रिच्छारौपड़ - ३

डबल डेकर डब्बे को छुपाना अगले कई दिन का सबसे मुश्किल काम रहा. सबसे पहली बात तो यह थी कि वह डब्बा मुझे बहुत पसन्द था पर हर साल लिया जाने वाला जौमेट्री बॉक्स मेरे लिए लच्छमी पुस्तक भण्डार से कुछ माह पहले लिया जा चुका था और सलामत था. एक बार मैंने उस डबल डेकर डब्बे का घर पर ज़िक्र क्या किया सारे लोग झिड़कियों का झाड़ू ले कर मुझ पर पिल पड़े थे. लफ़त्तू जानता था कि मुझे वह डब्बा अच्छा लगता है. उसे यह बात याद रही और जेब में रकम आते ही वह मेरे वास्ते उसे खरीद लाया. यह तथ्य मेरे लिए गौरवान्वित करने वाला होने के साथ साथ इमोशनल बना देने वाला भी था. अलबत्ता अगर लफ़त्तू के घरवालों को किसी भी सूत्र से पता लग जाता कि उसने अपनी बहन की घड़ी सत्तार मैकेनिक को बेच दी है तो उसका क्या हाल होना था यह सोच सोच कर मैं थर्रा जाया करता.

घर की दुछत्ती में एक कबाड़ बक्सा धरा रहता था जिसके भीतर पुरानी फ़ाइलें, टूटे हत्थों वाली एक कढ़ाई, कुछेक पोटलियां और बिना ट्यूब वाला साइकिल का पुराना पम्प जैसी अंडबंड चीज़ें रखी रहती थीं. दुछत्ती में जाने के लिए खास मेहनत नही करती पड़ती थी. इस दुछत्ती का दरवाज़ा छत तक जाने वाली सीढ़ियों से लगा हुआ था . क्रिकेट खेलने जाते वक्त मैंने डब्बे को उसी बक्से के एक कोने में पोटलियों के नीचे छिपा दिया. हर सुबह शाम एक बार अपने ख़ज़ाने की सलामती चैक कर लेने पर ही इत्मीनान मिलता.

कुछ दिन बाद वह स्थान भी असुरक्षित लगने लगा तो मैंने उसे ढाबू की छत पर बने आले के नीचे धरी ईंट-रेत के पीछे वाली अपनी प्राइवेट सेफ़ को ही सबसे मुफ़ीद पाया जहां पिछले पांच छः माह से कर्नल रंजीत वाली वह फटी किताब अब तक सुरक्षित धरी हुई थी जिसे परजोगसाला से लफ़त्तू ने मेरे लिए चाऊ किया था.

ढाबू की छत का नामकरण बन्टू, उसकी बहन और मैंने किया था. ढाबू का मकान असल में एक बूढ़े आदमी की सम्पत्ति था. चूंकि मकान अक्सर खाली रहा करता, उसकी छत पर हम अपना एकाधिकार समझा करते थे. एक बार हम तीनों वहां धरे रेत के टीले पर लकड़ियां खुभा कर किला बनाने का खेल खेल रहे थे जब बुड्ढा पता नहीं कहां से आ गया. उसने हमें बहुत धमकाया. बन्टू ने अपने पापा से शिकायत की कि बुड्ढा आ कर हमें डांट गया. बन्टू के पापा ने उल्टे बन्टू को थप्पड़ जड़ा और कहा कि खबरदार किसी बुज़ुर्ग को बुड्ढा कहा तो. छत पर वापस आकर गुस्साप्रेरित रचनात्मक अतिरेक के किसी एक क्षण हम तीनों ने फ़ैसला किया कि बाकी बुड्ढों से हमें कोई आपत्ति नहीं है पर इस वाले से है और हम उसे अपने हिसाब से बुड्ढा कहेंगे. इस तरह बूढा का उल्टा बना ढाबू. आस पड़ोस में आज भी रामनगर में वह छत ढाबू की छत के नाम से विख्यात है.

घर से घड़ी गायब हो चुकने का समाचार मिलते ही लफ़त्तू के पापा उस की तीन चार दफ़ा भीषण धुनाई कर चुके थे. लफ़त्तू को अपने घर में ही चोट्टा या हद से हद बौड़म कह कर सम्बोधित किये जाने का रिवाज़ था. इतनी मारें खा चुकने के बाद लफ़त्तू अब ढीठ और हद दर्ज़े का बहादुर बन चुका था. वह मार खाता रहा और चूं तक न बोला. तीसरी बार तो उसे इतना ज़्यादा मारा गया कि पड़ोस में रहने वाली क्रूर सरदारनी को उसे बचाकर अपने घर ले जाना पड़ा.

लफ़त्तू का बड़ा भाई हाकी वगैरह ले कर मैकेनिक गली में "एक एक को देख लूंगा सालो" कह कर एक चक्कर काट आया पर न सत्तार कुछ बोला न कोई और मैकेनिक. जाहिर तौर पर सत्तार के हाथ बढ़िया सौदा लगा था और वह अगले बिज़नेस की राह देख रहा था.

मैं दिन में दो बार ढाबू की छत पर जाता और डब्बे को छू कर देख लेता. एक नज़र कर्नल रंजीत की किताब पर डालता और किसी के आ जाने से पहले पहले वहां से हट जाता. पर कोई चोर निगाह मुझे लगातार देखे जाती थी. एक दिन वहां से डब्बा गायब था. किताब की चिन्दियां की जा चुकी थीं. तब तक के जीवन का यह सबसे बड़ा आघात था. दुर्घटना घटते ही मेरा शक सत्तू पर गया क्योंकि उसकी छत ढाबू और हरिया हकले की छतों के एक तरह से बीच में पड़ती थी. लेकिन क्या तो किसी से पूछा जाता और किस आधार पर. ज़रा सी लापरवाही से लफ़त्तू की जान को ख़तरा था. और मेरी जो सुताई होती सो अलग.

तिमाही का रिजल्ट आ चुका था और पहली बार मैं क्लास में दूसरे नम्बर पर आया. ज्याउल ने टॉप किया था. घर पर हल्का फ़ुल्का मातम मनाया जा रहा था हालांकि मुझे पता था कि ज़रा सी मेहनत से मैं भी टॉप कर सकता था. पर ज्याउल के फ़र्स्ट आने का मुझे कोई दुख नहीं था. दुख तो तब होता जब प्याली मात्तर का नाती गियानेस अग्गरवाल संस्कृत और हिन्दी में बेमान्टी से सौ में सौ दिए जाने पर हमसे आगे निकल जाता.

घर पर पहली दफ़ा ज्याउल का पॉजीटिव ज़िक्र हुआ और मेरे पिताजी ने उस से दोस्ती करने को कहा. "रहमान साब भी इतने बढ़िया पढ़े लिखे आदमी हैं बेटा. पढ़े लिखों की संगत करोगे तो कभी पछताओगे नहीं." गड़त में सौ में सौ लाने के ऐवज़ में मुझ से कोई भी चीज़ मांगने को कहा गया तो मैंने झट से उसी डबल डेकर की मांग की. भाई के साथ मुझे भेजा गया और डबल डेकर के अलावा कोई किताब लेने को भी कह दिया गया. यूं पहली बार राजन इकबाल नाम के दो जासूसों से अन्तरंग परिचय की राह बनी. जब-जब कर्नल रंजीत उस फटी किताब के पन्नों में अकेला किसी होटल में किसी महिला के साथ होता था तो भीगी बिल्ली बन जाता था और अजीब अबूझ शब्दो में उनके प्राइवेट कारनामों का ज़िक्र होता. राजन इकबाल जो कुछ करते थे वह हम भी कर सकते थे. बल्कि अगर उन्हें टुन्ना झर्री का नाम मालूम होता तो वे शायद बेताबी से उसका शिष्यत्व ग्रहण कर रामनगर आ बसते.

तिमाही की छुट्टियां होने के साथ ही धूल मैदान से बस अड्डे का टैम्प्रेरी विस्थापन हुआ और मुन्ने फ़कीर के सालाना उरस के मौके पर कव्वाली और मेला आयोजन की तैयारी चालू हो गई. उरस के लिए क्या हिन्दू क्या मुसलमान सारे बड़े पुरुष टोलियां बनाकर घर-घर दुकान-दुकान जा कर चन्दा इकट्ठा किया करते थे.

इधर ज्याउल दो दफ़ा मेरे घर आ चुका था. उसकी सलीकेदार भाषा सुनकर मेरी मां हैरत में रह जाती थी. उसे यकीन ही नहीं होता था कि वह मुसलमान है. उसके लिए तो मुसलमान का मतलब शरीफ़ या जब्बार भर होता था. जब वह उनके पैर छूकर गया तो उसने दार्शनिक आवाज़ निकाल कर कहा: "पिछले जन्म में हिन्दू रहा होगा बिचारा!"

पापा से पिटाई खाने के एक हफ़्ते तक लफ़त्तू को कहीं देखा नहीं गया. सारा मोहल्ला उसके पापा की थूथू करता रहा क्योंकि यह तय माना जा रहा था कि लफ़त्तू को गहरी गुम चोटें आई हैं. शुरू के दो-तीन दिन अपने सामने लगा खाना देख कर मेरे गले में जैसे कोई सूखा पत्थर फंस जाता. एक दिन मेरी बहन जो लफ़त्तू की बहन की दोस्त थी, ने घर पर सब को और खासतौर से मुझे सुनाते हुए सूचना दी कि दो तीन दिन में लफ़त्तू बिल्कुल ठीक हो जाएगा. वह खुद अपनी आंखों देख कर आई है.

उरस से पहले दरगाह में जाकर मिन्नत मांगने का रिवाज़ था. उरस के पहले दिन ज्याउल अपनी अम्मी के साथ दरगाह जाने वाला था. मैंने पिछली शाम उस से तकरीबन भर्राए गले से गुज़ारिश की कि मेरी तरफ़ से दुआ मांग ले कि मेरा दोस्त, मेरा उस्ताद लफ़त्तू जल्दी ठीक हो जाए.

उरस की शाम से क्या कव्वालियों का समां बंधा. समझ में न तो बोल आते न संगीत पर अन्दर तक कोई चीज़ प्रवेश कर जाती और मन आह्लाद से लबालब हो जाता. मैं खिड़की पर बैठा सामने शामियाने के भीतर मेले की चहलपहल का जायजा लेता जाता और कव्वाली अपना काम करती रहती.

दूसरे दिन मुझे ज्याउल के साथ उरस के मेले में जाने की इजाज़त मिल गई. अन्दर तमाम बच्चे ही बच्चे थे. वो भी थे जो कुछ माह पहले सब्ज़ी मन्डी में मस्जिद से लगी दीवार से सटाकर लगाई अपनी बच्चा दुकानों पर कटारी-सफ़री बेचते मुझे डराया करते थे. उत्सव के इस माहौल में उनके तेवर भी बदले हुए थे. मेरी चोर निगाहें सकीना को खोजती थीं अलबत्ता अब उस का चेहरा भी मुझे ठीक से याद नहीं रहा था.

"अस्सलाम" "तस्लीम" "भाईयान" वगैरह शब्द बहुतायत में हवा में उड़ रहे थे और ये हिन्दू मुसलमान दोनों मुखारविन्दों से बाहर आ रहे थे. एक कोने पर कव्वाली का पंडाल लगा हुआ था जिस के भीतर फ़िलहाल तम्बू कनात वाले थके मजदूर इत्यादि विभिन्न मुद्राओं में विराजमान थे. बस अड्डे वाले हिस्से पर खाने पीने की चीज़ों के ठेले, दुकानें सजाई गई थीं. जगुवा पौंक और मास्टरपुत्र गोलू भी हमें वहीं मिल गए. कुछ देर में बन्टू और सत्तू भी. मौके का दस्तूर था कि घर से मिले पैसों को तुरन्त तबाह कर दिया जाए. बमपकौड़े वाला बौना हमें देख बहुत उत्साहित हुआ. और बिना पूछे पत्तल बनाने लगा. पत्तल बनाते बनाते उसने बिना मेरी तरफ़ देखे पूछा: "बाबूजी नहीं आ रहे आजकल. लगता है बाहर गए हैं. आएंगे तो कहियेगा नया खेल लगा है अबकी धरमेन्दर का!" मैंने खुद को शर्म, दुःख और असहायता में डूबा पाया और मेरी आंखें ज़मीन से लग गईं.

ज्याउल ने पत्तल बौने से लेकर मेरी तरफ़ बढ़ाया ही था कि "धिचक्याऊं! धिचक्याऊं! धिचक्याऊं!" की तोतली आवाज़ मेरे कानों में पड़ी और लफ़त्तू धीमे धीमे दौड़ता सा हमारे ऐन बगल में आ खड़ा हुआ. "थाले अकेले अकेले खा लये हो हलामियो!"

मैं उसके गले लग गया पर उस ने मुझे आराम से दूर किया: "थूने में अबी दलद होता है याल अतोक!"

इस तरक का हर माहौल लफ़त्तू के लिए ही रचा गया लगता था. सदियों से. सारी मनहूसियत एक सेकेन्ड में गायब हो गई. बौने ने बाबूजी का आत्मीय इस्तकबाल किया. पहली बार उसके बमपकौड़े के पैसे मैंने दिए. हमारा पिद्दी टोला अब अपने मरियल सीनों को भरसक बाहर निकालने की कोशिश करता तनिक घिसटते चल रहे लफ़त्तू का अनुसरण करते दुकानों के मुआयने पर निकल चला.

एक कोने पर कुछ छोटे बच्चों की भीड़ लगी हुई देखी तो हम इन्स्टिंक्टिवली वहीं चल दिए. एक कोने में पट्टे का पाजामा और फ़टी बंडी पहने एक बारह पन्द्रह साल का लड़का रुंआसा खड़ा था. वह सूरत से ही किसी पहाड़ी गांव से आया लगता था. लफ़त्तू ने हमें पांचेक मीटर दूर रुक जाने का आदेश दिया.

बच्चे उस लड़के से पूछ रहे थे: "क्या बेच रिया भैये?"

"का ना मूफल्ली है. कितनी बार पूछोगे?" उसका धैर्य टूटता सा दिख रहा था और वह बस रोने को ही था.

"अबे मूफल्ली नईं कैते मूमफ़ली कैते हैं!" कहती हुई बच्चा पार्टी हंस कर दोहरी हो गई.

"बता ना क्या भाव लगा रिया?"

"भैया बार आने की पाव भर मूफल्ली."

"मूफल्ली ..." उसी की टोन में इस शब्द का उच्चारण करते बच्चों पर पुनः हंसी का दौरा पड़ा.

लफ़त्तू मामला समझ गया. हमें साथ आने को कह कर वह वहां पहुंचा और बच्चों को हड़काते हुए बोला: "थालो एक एक की हद्दी तोल दूंगा. फूतो थालो! फूतो!" एक बच्चे की पिछाड़ी पर उसकी लात भी पड़ी.

अब मूफल्ली विक्रेता छोकरा और हमारा पिद्दीदल आमने सामने थे.

"कां थे आया ऐ?" अपने को बॉस दिखाने की मुद्रा में लफ़त्तू ने पूछा.

"भतरौंजखान से."

"ये प्लेन्त ऐ बेते. यां नईं तलती मुपल्ली. मूम्पली नईं कै तकता?" उसके बोरे से दो-चार मूंगफलियां साधिकार निकालते उसने हिकारत से कहा.

"मुम्फल्ली."

"हां" कुछ सोच कर लफ़त्तू ने कहा "ये तलेगा." फिर पूछा "यां अकेला आया ऐ?"

"नईं बाबू साथ आए रहे मुझ को यहां बैठा गए कि अभी आ रहा हूं कह के. पता नईं कां गए. लौंडों ने इतना दिक कर दिया. मैं जाता हूं अब." वह अपना बोरा उठाने को हुआ तो लफ़त्तू ने उसे डपटा "थाला बला आया बिदनत कलने वाला. गब्बल का नाम नईं छुना तैने. जो दल ग्या बेते वो मल ग्या. अब बैत के बेत मूमफली. कोई तंग नईं कलेगा. गब्बल की गालन्ती ऐ."

लफ़त्तू ने मुझ से चवन्नी मांगी और उस से मूंगफली खरीदी. उसकी तरफ़ आंख मारी और कहा "दलना मती."

मेले में घूमते काफ़ी देर हुई और हम मूंगफली टूंगते लगातार आपस में मूफल्ली मूफल्ली कर हंसते रहे और प्रफुल्लित हुआ किए.

घर लौटते लफ़त्तू से मैंने दबी ज़ुबान में पूछा: "बहुत मारा ना पापा ने तुझे."

"अले हो ग्या याल. गब्बल को कौन माल छकता है." उसकी आवाज़ में पुराना आत्मविश्वास तनिक कम था. उसने मुझ से भी दबी ज़ुबान में मुझ से पूछा: "अपनी भाबी को देका तूने याल? कोई कै रा था गोबलदाक्तर का त्लांतपल हो ग्या."

मेरी ज़ुबान पर गोंद चिपका हुआ था.

पहली बार उदास आवाज़ में वह बोला: "याल कुत्तू गमलू लामनगर छे तले दाएंगे क्या?"

(जारी)

पिछली कड़ियां:

पहला हिस्सा

दूसरा हिस्सा

ज्याउल, उरस की मूफल्ली, मोर्रम और ब्रिच्छारौपड़ - २

बिला नागा हर सुबह पाकिस्तान की तरफ़ से दो हाथठेलों में लाल दाग लगी चारखाने की तहमतों से ढंका ढुलमुल ढुलमुल गाय-भैंस का मीट पता नहीं कहां ले जाया जाता था. पाकिस्तान की हमारी हद शरीफ़ सब्ज़ीवाले की दुकान से सटी जब्बार कबाड़ी की गुमटी थी. उस से आगे एक अनजाना अनदेखा रहस्यलोक था जहां किसी फ़कीर की दरगाह थी और उसके आगे कब्रिस्तान, मिट्टी के ढूह, जंगल और उसके ऊपर एक आसमान जो रातों को सियारों की हुवांहुवां से अट जाया करता.

मत्यु और अन्तिम संस्कार जाहिर है हमें सबसे ज़्यादा फ़ैसिनेट करते थे और इस बाबत अक्सर ही हम तमाम कयासों से भरी बहसों का आयोजन किया करते. लफ़त्तू जो किसी ज़माने में मुछलियों से दूर रहने की चेतावनियां दिया करता था, इधर लगातार उनके प्रति सहिष्णु और सदाशय होता जा रहा था. इस परिवर्तन के पीछे हो सकता है ज्याउल का साथ रहा हो या स्कूल के मात्तरों का मैमूदों के प्रति सौतेला व्यवहार. जो भी हो.

सत्तू और जगुवा ने एक दफ़ा छिप कर पाकिस्तानी अन्तिम संस्कार के प्रत्यक्षदर्शी होने का क्लेम किया पर लफ़त्तू उन्हें अपने एक सवाल से निरुत्तर बना दिया करता: "बेते ये बताओ लाछ को बैथा के गालते हैं या खला कल के?" झाड़ी के बहुत दूर होने से सब कुछ साफ़ नज़र नहीं आया के झूठमूठ बहाने से सत्तू और जगुवा इधर उधर देखने लगे. "मुदे द्‍याउल ने बताया था" कहकर लफ़त्तू इस तरह के सेमिनारों में एक तरह से अध्यक्ष की भूमिका में आ जाया करता. उसने कहीं से पता लगा रखा था कि लकड़ी के बक्से में रख कर लाश को दफ़नाते वक्त उसके साथ लोहे के पाइप का एक टुकड़ा भी रखा जाता है. मेरे इस बाबत सवाल पूछने पर उसने आंखें और छोटी बना कर कहा: "दमीन के नीते बौत अन्देला होता है बेते. मित्ती के अन्दल लाछ दुबाला दिन्दा ओ दाती है. इत्ते अन्देले में कोई देक तो कुत छकता नईं. इतलिए पाइप के तुकले को लकते हैं. लाछ ... आप छमल्लें लोए के तुकले को आंक पे लगाती है औल उत को को थब दिकने लगता है बेते. ..." वह रुक रुक कर रहस्यनामा बांधा करता.

लोहे के पाइप के टुकड़े वाली लफ़त्तू थ्योरी मुझे काफ़ी हद तक सही लगती थी. रातों को जब कभी कभी हम भाई बहन एक दूसरे को डराने के उद्देश्य से भूतप्रेत की कहानियां सुनाया करते थे. मेरे भाई ने कसम खा कर बताया था कि जब वह अपने एक दोस्त के दादाजी के दाह संस्कार में श्मशान गया था तो वहां उसने यहां वहां रखे लोहे के पाइप के कई टुकड़े देखे थे. जब मुर्दा जल रहा होता है तब अगर कोई भी आदमी पाइप के टुकड़े में आंख गड़ा कर देखे तो उसे श्मशान भर में रहने वाले सारे भूत दिख जाते हैं. "दद्दा तूने देखा था?" छोटी ने पूछा, तो उसने असमंजस में सिर डोलाते हुए हां-ना जैसा कुछ कहा. बहरहाल मेरे लिए मृत्यु के साथ लोहे का पाइप अपरिहार्य रूप से जुड़ गया था.

ज्याउल की बड्डे पाल्टी से लौटने के बाद मैं कीचड़ खा कर लौट रहे किसी मरियल पालतू कुत्ते की तरह चोरों जैसा घर में घुसा. पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया. आस पड़ोस की कुछेक औरतें अगले रोज़ 'जै सन्तोसी मां' पिच्चर देखने बनवारी मधुवन जाने का प्लान बना रही थीं. इन स्त्रियों ने इधर हर शुक्रवार को व्रत रखना और खट्टा न खाने का रिवाज़ बना लिया था. लफ़त्तू हर शुक्रवार को मुझे खूब चटनी डलाया बमपकौड़ा अवश्य खिलाया करता. बुध-शुक्र की किसे याद रहती थी. वो तो जब पहली बार ऐसा हो गया तब लफ़त्तू ने नकली शोक जताते हुए कहा कि अब सन्तोसी माता हमें सारे इम्त्यानों में फ़ेल कर देगी. पर रिजल्ट खराब नहीं आया. इस का तात्कालिक अर्थ यह निकाला गया कि शुक्रवार को बमपकौड़ा खाने से कुछ खास परेशानी नहीं होती. हालांकि थोड़ा बहुत डर लगता था कि अगर सन्तोसी माता सच में आ गई तो क्या होगा तो भी जानबूझ कर हर शुक्रवार को किया जाने वाला यह सत्कर्म काफ़ी एडवेन्चरस लगा करता था.

रात को खाना खाते वक्त मां ने पूछा कि मैंने अंगुस्ताना खरीद लिया है या नहीं. मैंने सिर हिलाकर हामी भरी.

अगली सुबह लफ़त्तू स्कूल देर से आया. इन्टरवल के समाप्त होने से मिनट भर पहले. उसका लाल पड़ा चेहरा बतला रहा था कि उसने कोई उल्लेखनीय सफलता अर्जित की है जिस की सूचना वह सार्वजनिक रूप से नहीं दे सकता. बहुत मुश्किल से बीता अगला पीरियड. मैं सबसे आगे बैठता था जबकि लफ़त्तू की शरारतें सबसे पिछली कतारों में बैठने पर ही सम्भव होती थीं. पीरियड के बाद हमें परजोगसाला के बगल वाले हॉल में जा कर सिलाई की कक्षा हेतु भूपेस सिरीवास्तव मास्साब के कमरे में जाना होता था. घन्टा बजते ही लफ़त्तू लपक कर मेरे पास आया और अपना बस्ता साइड से खोल कर उसने अपनी जेब से कुछ नोट निकाल कर दिखाए. "बारा रुपे में बेच दी दीदी की घली" - एक पल को उसका चेहरा दर्प से चमका. मुझे डर लगा.

छुट्टी होते ही हम ज्याउल वाले सैक्शन के बाहर जा कर खड़े हो गए. लफ़त्तू ने कस कर मेरा हाथ थामा हुआ था. ज्याउल बाहर आया तो लफ़त्तू ने ज़ोर की आवाज़ दे कर उसे पास बुलाया. उसके आते ही हम तेज़ तेज़ कदमों से धूल मैदान के एक निविड़ कोने पर हो गए. लफ़त्तू ने अपना बस्ता खोला और उसके अन्दर से चमचम करता लाल पीले रंग का जौमेट्री बक्सा बाहर निकाला. मेरी नज़र खुद गुप्ता पुस्तक भंडार के शोकेस में लगे उस डेबल डेकर को देख कर कई कई बार ललचा चुकी थी.

"ले. अतोक औल मेली तलप से ये तेला बड्डे गिट्ट ऐ याल द्‍याउल." लफ़त्तू की आवाज़ में अपनापा था. उसने एक बार दुबारा कहा : "हैप्पी बड्डे टुय्यू!" ज्याउल जब तक कुछ कहता हम जल्दी से कोना छोड़ सार्वजनिक हो गए और अपने अपने घरों की राह लग लिए. रास्ते में लफ़त्तू ने बताया कि सत्तार सिर्फ़ दस दे रहा था पर किस तरह वह बारा रुपे ले के ही माना. मैंने पूछा कि अगर किसी को पता लग गया तो क्या होगा तो उसने आंख मारते हुए बताया कि उसका नाम भी गब्बर है. घर आने को ही था कि उसने अपना बस्ता दुबारा खोला और ठीक वैसा ही डबल डेकर डब्बा बाहर निकाला और जबरिया मेरा बस्ता खोल कर उसमें ठूंस दिया.

" एक तेले लिए बी लिया मैंने!" मुझे खुशी और भय का संक्षिप्त जॉइंट दौरा पड़ा पर घर के सामने थे हम दोनों अब. जल्द ही छत पर क्रिकेट खेलने आने का वादा करने के उपरान्त "बीयो...ओ...ओ...ई..." कहता लफ़त्तू मटकता, गुनगुनाता अपने घर की तरफ़ चल दिया.

(जारी)

पहला हिस्सा

ज्याउल, उरस की मूफल्ली, मोर्रम और ब्रिच्छारौपड़ - १

पापा के दोस्त इंजीनियर साब का लड़का ज्याउल सिर्फ़ कायपद्दा खेलने हर शाम को आया करता था. पदता था और कटुवा होने के बावजूद हमें प्यारा था. पढ़ने में भौत होस्यार ज्याउल मुझे तब अच्छा लगता था जब वह क्लास में पूछे जाने वाले किसी मुश्किल सवाल का हल मुझसे पहले बतला कर मात्तरों की नकली और थोथी ही सही शाबासी पा लिया करता.

जायदेतर पार्टटाइम करते थे ये मात्तर. जायदेतर मात्तरों की दुकानें थीं और वे इस्लाम, मैमूद, मोम्मद, फ़ैजू, रज्जाक जैसे नाम वाले बच्चों से इतनी हिकारत से पेश आते थे कि उनके मुंह पे थूक देने की इच्छा होती थी. रामनगर आए जितना भी टाइम बीता था हर बखत हिन्दू-मुसलमान हिन्दू-मुसलमान सुनते सुनते हम अघा गए थे. हमें ये बात समझ में भी आने लगी थी कि मैमूद मैमूद होता है और अरविन्द अरविन्द. मैमूद गन्दा होता है. गाय खाता है. नहाता नहीं है. हम उसके घर जाएंगे तो शरबत पिलाएगा मगर पहले उसमें थूकेगा. इसी वजह से शायद लफ़त्तू ने भी ज्याउल को पसंद करना शुरू कर दिया था.

एक बार हमेशा की तरह जब शाम को वह कायपद्दा खेलने आया और बागड़बिल्ले ने उसे चोर बना दिया तो लफ़त्तू ने विरोध जताते हुए कहा: "द्‌याउल नईं बनेगा आद तोल. आत का तोल मैं". ज्याउल ने तनिक हैरत और संशय में सभी उपस्थित खिलाड़ियों को पल भर देखा पर तुरन्त आम के पेड़ पर चढ़ गया. और क्या मज़ाल कि ज्याउल की रफ़्तार का कोई सामना कर पाता. बाद के दिनों में जब जगुवा पौंक एक बार चोर बना तो ज्याउल की रफ़्तार के आगे रोने रोने को हो गया था. असल में उस दिन के बाद ज्याउल कभी चोर बना ही नहीं. लफ़त्तू उसे अपनी वाली डाल पर बुला लिया करता. यह मेरे लिए कुछ दिन डाह का कारण बना रहा.

अलबत्ता लफ़त्तू और मैं अभी ज्याउल के दोस्त नहीं बने थे पर यह एक तरह का आपसी समझदारी का मसला बना ही चाहता था.

एक रोज़ ज्याउल ने हमें अपने घर पे आने का न्यौता दिया बाकायदा हम दोनों के घर आ कर "आंटी, आंटी" कह कर. ज्याउल का बड्डे था.

घर पर उस रात एक महाधिवेशन हुआ जिसमें भाई ने बताया कि साले मुसलिये हर साल ईद से एक महीना पहले किसी हिन्दू के बच्चे को उठा ले जाते हैं. उसे खूब खिला पिला कर मोटा बनाते हैं. ठीक ईद के दिन बच्चे को चावल से भरे एक तसले में लिटाते हैं और तलवार से उसके टुकड़े कर खून रंगे चावलों को पूरे शहर में बाकायदे प्रसाद बांटते हैं. इस से उनका अल्ला खुस होता है. और यह भी कि किसी कीमत पर मैं उस बड्डे पाल्टी में नहीं जा सकता. बहनों के चेहरे हैरत और हिकारत से सन गए थे.

तय यह पाया गया कि मैं तो नहीं जा सकता मुसलिये के घर में. हां बौड़म लफ़त्तू के जो मन आए सो करे. मैंने असहायता में अपनी आंखें भरी भरी महसुस कीं पर उस्ताद लफ़त्तू की बात याद आई कि बेते जो दला वो मला. बेहतरी इसी में थी कि चुप्पा लगा लिया जाए और यह भी कि देखें कौन रोकता है.

घर पे झूठ बोला गया कि आज लच्छमी पुस्तक भन्डार से पेन्सिलें और कि सिलाई क्लास के वास्ते टंडन इश्टोर से नया अंगुस्ताना लाना है. अंगुस्तानों के लिए मांगे गए पैसों के ऐवज़ में किराये पे साइकिल ली और चल पड़े ज्याउल की कालोनी की तरफ़. बड्डे गिट्ट के पैसे नहीं थे लफ़त्तू ने अपने घर से अपनी बहन की लेडीज घड़ी पार कर ली थी जिसे सत्तार मैकेनिक को बेचने की हम दोनों की हिम्मत नहीं पड़ी. "द्‌याउल को दे देंगे याल. कौन थाला उछे पूत लिया ऐ कि कित ने दी. तेला मेला बद्दे गिट्ट ऐ."

लफ़त्तू की बड़ी बहन की घड़ी उसकी जेब में पड़ी ही रही. क्या अजब मंजर उस घर में था. हर कोई एक दूसरे को आप आप कह रहा था. घर भर में कैसी कैसी तो दिलफ़रेब खाने की ख़ुशबुएं और क्या लकदक लकदक चमचम औरतें लड़कियां.

"आइये आइये!" कह कर एक हम उम्र लड़की ने हमारा स्वागत किया. हल्का आसमानी तारों भरा लिबास ही बहुत था हमें अधमरा कर देने को. "आप ज़िया भाई के दोस्त हैं ना?" हमारा उत्तर आने से पहले ही "ज़िया भाई ज़िया भाई आपके दोस्त आए हैं! ..." कहता हुआ आसमानी लिबास उंगलियों के पोरों से अपने को समेटता भाग चला.

ज्याउल ने हमें काजू पड़ी सिवइयां सुतवाईं, और जाने क्या नमकीन नमकीन भी. अन्दर ले जा कर अपने मां बाप से मिलवाया. न सूरत याद रही किसी की न लिबास. बस "अम्मी, अब्बू, बाजी, खाला" वगैरह सुनाई देता रहा. न केक था न प्लेटों में कुन्टल भर चाट भरने वाली गमलू कुच्चू के घर उनके बड्डे वाली वो मुटल्ली औरतें. हां खुसफ़ुस बहुत हो रही थी पर किसी ने हमारी तरफ़ ध्यान तक नहीं दिया. ज्याउल की अम्मी ने हमारे सिरों पर हाथ फेरा और कुछ अल्ला अल्ला कहा और चाबी-ताला जैसा भी.

साइकिल आधे घन्टे के किराए पे थी और यह बात लफ़त्तू ने जल्दी जल्दी ज्याउल को बता दी.

ज्याउल कुछ रेयेक्ट करता इस के पहले ही लफ़त्तू बोल पड़ा: " द्‍याउल तू मेला बाई ऐ याल. तेले मम्मी पापा कित्ते अत्ते ऐं याल. कल ..."

कुछ कहता कहता लफ़त्तू रुक गया.

"तल बेते" कह कर उसने मुझे डंडे पे बिठाया और हम हवा बन कर बजाजा लाइन के नज़दीक मौजूद साइकिल वाले के ठीहे तक पहुंचे. हम शायद थोड़ा लेट थे पर साइकिल वाले ने जायदे तबज्जो नहीं दी.
घर पास आने को हुआ तो लफ़त्तू को अपनी जेब में पड़ी घड़ी याद आई.

"अले याल द्‍याउल का गिट्ट रै गया" उसने मुझे हमेशा की तरह एक बार फिर बच्चा जाना और बोला: "अपने घल दा तू."

मेरे पूछने पर कि वो कहां जा रहा है उसने आंख मारी और सद्यःपारंगत उंगलियों को ख़ास अन्दाज़ में मोड़ते हुए बोला: "वईं! क्वीन कबल कलने! थाले द्‍याउल का गिट्ट तो रै गया. अब कल देंगे तू औल मैं. बलिया वाला."

मैं असमंजस में घासमंडी के मुहाने पर खड़ा था जब उस ने कहा: "किती ते कैना नईं बेते!

(जारी)

Saturday, April 25, 2009

नेस्ती मास्टर,कैरमबोट की बारीकियां और जगुवा पौंक

बन्टू के एक मामा विदेश में रहा करते थे. उनका पूरा परिवार हफ़्ते-दस दिन के लिए रामनगर आया. इन दिनों में बन्टू ने मुझे और लफ़त्तू को अपनी अनदेखी से इस कदर जलील किया कि एक शाम घुच्ची-प्रतियोगिता के उपरान्त उचाट होकर खेल मैदान की चारदीवारी पर विचारमग्न लफ़त्तू ने बन्टू के परिवार की स्त्रियों को याद करते हुए आदतन ज़मीन पर थूकते हुए कहा: "थाला बन्तू अपने को ऐते छमल्लिया जैते तत्ती कलने बी कोत-पैन्त पैन के दाता होगा."

"तल" कह कर उसने मेरा हाथ थामा और मुझे खींचता हुआ बौने के ठेले की दिशा में ले चला. घुच्ची से बचे पैसों से उसने मुझे बमपकौड़ा सुतवाया. पहली बार बमपकौड़ा इस कदर बेस्वाद लगा था मुझे. मिर्चभरी चटनी के कारण बह आई अपनी पिचकी नाक को लफ़त्तू ने आस्तीन से पोंछा और बन्टू द्वारा हाल में प्रदर्शित की गई नक्शेबाज़ी को लानतें भेजते हुए घोषणा की: "कौन थाला बन्तू का मामा लामनगल में ई रैने वाला ऐ बेते! लात्त में लौतेगा तो गब्बल के पात ई ना बेते. तब देकना यां पे बिथाऊंगा थाले को!" कहकर लफ़त्तू ने अपनी नेकर के गुप्त स्थान की तरफ़ इशारा किया, मुझे आंख मारी और " ... दान्त तत ... उहुं ... उहुं ... " गाते, मटकते अपनी नैसर्गिक लय को प्राप्त कर लिया. मुझे मेरे घर के बाहर छोड़कर उसने बन्टू की खिड़की की तरफ़ मुंह उठाया और "ओबे मामू ... बीयो ... ओ ...ओ ...ओ... ई..." का नारा बुलन्द किया.

बन्टू के मामा उस के लिए एक फ़ैन्सी टाइप का कैरमबोट लाए थे - खरगोश-बिल्ली इत्यादि के आकर्षक काल्टूनों से सुसज्जित गोटियों का सैट और सुर्ख़ लाल श्टैकर. इस के अलावा बन्टू के लिए काला चश्मा- चाकलेट-जाकिट-लाल पाजामा-माउथऑर्गन और जाने क्या-क्या. बन्टू दिन के किसी एक पहर मेरे पास आता, इन में से किसी एक चीज़ को मुझे दिखा कर ललचाता और ज्यों ही मैं उसे छूने को होता, "न्ना! तू तोड़ देगा! भौत महंगा है बता रहे थे मामाजी!" कहकर छलांगें मारता वापस अपने घर बक़ौल लफ़त्तू अपने मामू के पास अपनी देह के क्षेत्रविशेष की हत्या करवाने चला जाता.

क्लास में अरेन्जमेन्ट में एक रोज़ नेस्ती मास्टर उर्फ़ विलायती सांड यानी टुन्ना झर्री के पिताश्री की बारी लगी. परम मनहूस नेस्ती मास्टर को देख कर लगता था जैसे एक करोड़ मक्खियों का अदॄश्य दस्ता उनके मुखमण्डल के चारों को भिन्नौटीकरण में लीन हो. नेस्ती मास्टर बम्बाघेर में रहा करते थे. जाहिर है उनका महान पुत्र टुन्ना भी वहीं रहता था. हमारा क्लासफ़ैलो जगदीस जोसी उर्फ़ जगुवा पौंक भी इसी मोहल्ले का बाशिन्दा था.क्लास में घुसते ही नेस्ती मास्टर ने जगदीस को ताड़ लिया और बिना अटैन्डेन्स लिए उस से पूछा: "टुन्ना को देखा तैने?"

"नईं मास्साब"

"अच्छा!" कहकर नेस्ती मास्टर ने एक कराह जैसी जम्हाई ली और कुर्सी पर लधर गए. लधरावस्था में ही उन्होंने जगुवा पौंक से कहा "ये रईश्टर में सब बच्चों के नाम के आगे उपस्थित लिख दीजो जगुवा" और आंखें मूंदे क्लास को निर्देशित करते हुए चेताया: "अब चुपचाप बैठे रइयो सूअरो! और खबरदार जो तंग करा तो!"

नेस्ती मास्टर को आलस्य के अलावे दो अन्य जैविक क्रियाओं में महारत हासिल थी. वे ख़र्राटे भरते हुए भी अपने स्थूल पृष्ठक्षेत्र को बांईं तरफ़ से ज़रा सा उठा कर करीब हर चौदह मिनट के उपरान्त संगीतमय वायु विसर्जन कर लेते थे और हर सोलहवें मिनट पर "ख्वाक्क" करते हुए थूक का एक परफ़ेक्ट गोला हवा में उछालते थे जिसकी ट्रैजेक्टरी उनकी वर्षों की तपस्या के बाद इतनी सध चुकी थी कि सीधी निकटतम नाली के बीचोबीच गिरती - हमेशा.

इस प्रकार थूकते, विसर्जित आवाज़ें निकालते विलायती सांड मास्साब दो पीरियड तक खर्राटे मारते रहे.

"इत्ते खतलनाक मुजलिम का बाप इत्ता तूतिया बेते! बली नाइन्तापी ऐ दद थाब, बली नाइन्तापी ऐ! तुन्ना पता नईं कैते पैदा कल्लिया इत थुकैन-गनैन मात्तल ने! हत थाले को!" लफ़त्तू ने खिड़की से बाहर फांदते हुए दबी आवाज़ में कहा.

बाहर से उसने मुझे भी कूद जाने का इशारा किया तो मैंने निगाहें फेर लीं. लफ़त्तू " ... दान्त तत ... उहुं ... उहुं ... " गुनगुनाता खेल मैदान से होता हुआ बमपकौड़े के ठेले तक पहुंच चुका था.

नेस्ती मास्टर के जाते ही घन्टा बजना शुरू हुआ तो बजता ही रहा. कुछ सीनियर लौंडे आकर बता गए कि परजोगसाला सहायक चेतराम की बीवी मर गई है और सारे बच्चों को असेम्बली मैदान पर जमा होना है.

धूल-हल्ले-चीखपुकार इत्यादि के बीच अन्ततः जब चीज़ें सामान्य हुईं तो गोल्टा मास्साब ने लौडश्पीकर पर एलौंस किया कि स्कूल के परजोगसाला सहायक सिरी चेतराम जी की जीबनसंगिनी जी उहलोक यात्रा पर निकल गईं हैं जिसकी एवज़ हम लोग दो मिनट का मौन रखेंगे.

ऐसा कहते ही गोल्टा मास्साब चुप हो गए और उनकी निगाहें जूतों से चिपक गईं. जाहिर है हम से भी यही उम्मीद की जाती थी. लफ़त्तू पता नहीं कब और किस रास्ते से वापस आकर मेरे ठीक पीछे खड़ा हो चुका था. मैंने निगाह उठाकर चारों तरफ़ देखा. ज़्यादातर लोग सिर झुकाए थे. कुछेक लड़के खीसें निपोरे अपनी शरारतों में व्यस्त थे. मगर बोल कोई नहीं नहीं रहा था - लफ़त्तू के सिवा. फ़ुसफ़ुस फ़ुसफ़ुस करते हुए उसने मुझे सूचित किया कि बन्टू का अंग्रेज़ मामा वापस चला गया है और यह भी कि मौन के बाद छुट्टी हो जानी है. छुट्टी के बाद उसने मेरी तरफ़ से भी यह तय कर लिया था कि हम लोग सीधे वापस घर न जा कर पहले जगदीस जोसी के साथ बम्बाघेर जाएंगे और हुआ तो टुन्ना दर्शन कर आएंगे. बन्टू को नहीं ले जाया जाएगा क्योंकि वह दगाबाज़ इन्सान है.

लफ़त्तू यह सब बता ही रहा था कि आसपास की एक कतार से किसी एक लड़के की हंसी छूटने की आवाज़ आई. उसका हंसना था कि तकरीबन आधे लड़के अपनी दबी हुई हंसी पर कन्टौल न कर सके. दो-चार सेकेन्ड बीते और सम्भवतः दो ऑफ़ीशियल मिनट पूरे हो गए. जैसे छापामार दस्ते पहाड़ों के बीच अवस्थित दर्रों के बीच से अचानक प्रकट होकर लापरवाह पुलिसवालों की ठुकाई कर जाया करते हैं उसी अन्दाज़ में सारे मास्टरों ने दो मिनट का मौन ख़त्म होते ही असेम्बली मैदान को जलियांवालाबाग में तब्दील कर दिया. मुर्गादत्त मास्साब ने जरनील डायर के रूप में अपने आप को स्वतः नियुक्त कर लिया था. बच्चों की धुनाई चल रही थी और स्वर्ग से इस दॄश्य का अवलोकन कर रही परजोगसालासहायकार्धांगिनी की आत्मा को शान्ति प्राप्त हो रही थी.

लफ़त्तू और मुझे भी बेफ़िजूल बिलावजह कुछेक सन्टियां खानी पड़ीं.

जलियांवालाबाग काण्ड की वजह से लगी चोटों और दर्द के बावजूद लफ़त्तू द्वारा निर्धारित कार्यक्रम में कोई तब्दीली नहीं आई. जगदीस जोसी उर्फ़ जगुवा पौंक के नेतृत्व में मैं और लफ़त्तू बम्बाघेर में प्रवेश कर चुके थे. किसी पिक्चर में देखे गए राजकुमार जानी की अदा से मैं अपनी निगाहें किसी जासूस की भांति भरसक चौकस बनाए हुए था कि कहीं ऐसा न हो टुन्ना सामने से गुज़र जाए और हम उसके दर्शन भी न कर सकें.

जगुवा बहुत उत्साहपूरित था. वह रास्ते भर हमें टुन्ना के ऐतिहासिक कारनामों और उसकी अकल्पनीय उपलब्धियों के बारे में तीन-चार महाग्रन्थों की सर्जना कर चुका था. जीनातमान के नाच के बाद मुसलिए लौंडों द्वारा टुन्ना को पीटे जाने की ख़बर उसे थी पर उस बाबत उसने ज़्यादा बातें नहीं कीं क्योंकि इस में बम्बाघेर मोहल्ले की बेज्जती खराब होने का चान्स था. हम खुद इस बारे में बहुत ऑथेन्टिक कुछ नहीं जानते थे. ऊपर से हम टुन्ना की कर्मस्थली में पर्यटक बन कर जा रहे थे सो चुप लगा जाने में ही हमारी बेहतरी थी.

लफ़त्तू के घर पर एक शानदार कैरमबोट था. सप्ताह-दो सप्ताह में एक बार हम बच्चों को उस पर हाथ साफ़ करने का मौका मिलता था. लफ़त्तू कमेन्टेटर सलाहकार का काम किया करता था. जगदीस जोसी से हमारी निकटता इसी कैरमबोट से जुड़ी हुई थी. एक दफ़ा वह अपने किसी रिश्तेदार के घर अपने परिवार के साथ आया था जब हमें सड़क पर कैरम खेलता देख कर उसने अपनी माता से रिश्तेदार के घर जाने के बजाय हमारे साथ खेलने की इजाज़त ले ली. दयावान लफ़त्तू ने उसे एक टीम का मेम्बर बना लिया. खेल शुरू होते ही न खेलता हुआ भी लफ़त्तू क्यून को लेकर खस तरह से संजीदा और इमोशनल हो जाया करता. जिसके हाथ में श्टैकर होता, वह अपरिहार्य रूप से उसे "ओबे क्यून कबल कल्ले!" की सलाह देने में ज़रा भी देर नहीं लगाता. इस से होता यह था कि खिलाड़ियों का कन्सन्ट्रेशन भंग होता और खेल बहुत लम्बा खिंच जाता.

जगदीस बहुत तेज़ी से गोटियां पिल कर रहा था और अप्ने कैरम कौशल से हमारे कॉन्फ़ीडेन्स की ऐसीतैसी किये हुए था. जगदीस की टीम की एक गोटी बची हुई थी और हमारी सात या आठ. क्यून अभी कबल होना बाकी थी. "हनुमान्दी का नाम ले के क्यून कबल कल्ले बेते" कहता हुआ लफ़त्तू उत्साहातिरेक में उछल रहा था.

जगदीस ने श्टैकर जमाया, कैरमबोट के कोने पर से फूंक मार कर पौडर उड़ाया और निगाहें पिल से तकरीबन चिपकी हुई क्वीन पर लगाईं. इन फ़ैक्ट कोई बच्चा भी उसे भीतर डाल सकता था और इसके अलावा कवर वाली गोटी भी पिल में ढुलक पड़ने को तैयार थी. जगदीस ने निशाना साधकर शॉट मारा पर श्टैकर फ़ुस्स पटाखे जैसा रपटा और आधे कैरमबोट की दूरी भर पार कर सका. जगदीस की खूब थूथू हुई. एक राउन्ड के बाद श्टैकर पुनः जगदीस के पास था और खेल की हालत कमोबेश वही थी. "पौंकना मत बेते" कहकर लफ़त्तू ने उसका हौसला बढ़ाया. किसी भी काम की मंज़िल पर पहुंचने से ऐन पहले नर्वस होकर घुस जाने को रामनगर में "पौंक जाना" कहते थे. इस बार भी जगदीस का श्टैकर फ़ुस्सा गया. अगली पांच-छः बार भी. राउन्ड हम लोग जीते और जगदीस जोसी जगुवा पौंक की उपाधि से सम्मानित हो गया.

क्वीन कवर करने को लफ़त्तू एक दूसरे अर्थ में प्रयुक्त किया करता. मुझे मेरी मोहब्बतों के लिए लाड़ से छेड़ता वह अपनी दो उंगलियों को एक खास अंदाज़ में मोड़कर मुझसे कहता: "मदुबाला मात्तरानी की क्यून कबल कलेगा बेते." फिर कमीनी हंसी हंसकर आगे जोड़ता "जगुवा की तरै पौंकना मती बेते!"

जगुवा पौंक हमें ज़िद कर के अपने घर ले गया. उसकी माता ने हमें परांठे और पालक की सब्ज़ी खिलाई. जगदीस का छोटा भाई भी था - परकास. परकास तरबूज़े का एक बहुत बड़ा टुकड़ा भकोसने में लगा हुआ था और हमें ताक रहा था. लफ़त्तू ने इशारा कर के उसे अपने पास बुलाया तो जगदीस बोला "उसके पैर खराब हैं. चल नहीं सकता परकास."

न मुझसे उसके बाद पराठा खाया गया न परकास की तरफ़ देखा गया. बाहर आए तो जगुवा ने करीब बीस मीटर दूर से हमें एक घर दिखाते हुए कहा: "वां रैता है टुन्ना झर्री!"

नेस्ती मास्टर बरामदे में बैठे थे. स्कूल से वापस आकर वे रामनगर के अधेड़ नागरों की औपचारिक राष्ट्रीय पोशाक अर्थात पट्टे का धारीदार घुटन्ना और दर्ज़ी द्वारा सिली गई तिरछी जेब वाली बण्डी धारण कर चुके थे. वे बीड़ी पी रहे थे और प्रिंसीपल साहब के दफ़्तर के बाहर लगे 'प्रैक्टिस मेक्स अ मैन परफ़ैक्ट' के नारे से प्रेरित होकए नाली में थूकने की विधा के रियाज़ में व्यस्त थे. उनकी पिछाड़ी यदा कदा एक तरफ़ को ज़रा सा उठती थी और आसपास के माहौल थोड़ा सा आयुर्वेदिक हो जाता.

"हत! थाला पादू मात्तर" कहकर लफ़त्तू ने जवाबी थूक निकाला और करते हुए कहा: "तुन्ना के छामने इत मात्तर की हिम्मत ना होती होगी पादने की! थाला थुकैन मात्तर!"

इतने मे टुन्ना सिर झुकाए घर के भीतर से बाहर अहाते में आया. हम पानी के पब्लिक नल की आड़ में हो गए. टुन्ना के हाथ में गिलास या कटोरी जैसा कोई बर्तन था जिसे उसने नेस्ती मास्टर को प्रस्तुत किया. नेस्ती मास्टर ने उसे टुन्ना के हाथ से तकरीबन छीनकर झपटा और झटके से ज़मीन पर दे मारा. टुन्ना उसे उठाने नीचे झुका तो उसके पिताश्री ने उसकी पिछाड़ी पर दुलत्तीनुमा लात धरी और "ख्वाक्क!" कर के नाली की दिशा में थूक का गोला प्रक्षेपित किया.

महानायक टुन्ना अपने घर में कुत्ते से गई गुज़री ज़िन्दगी बिताने को विवश था. और यह दॄश्य हम से आगे नहीं देखा जा सका.

"पिछले साल टुन्ना की भैन खलील नाई के साथ भाग गई थी. कटुवों ने उसका नाम भी बदल दिया था कह रहे थे. एक महीना पहले टुन्ना की मां भी मर गई. जभी से नेस्ती मास्साब पागल टाइप हो गए हैं. टुन्ना बिचारे को खाना भी बनाना पड़ता है. अब टुन्ना खाना बनाए या मुसलियों को ठोकने डाम पे जाए. तू ई बता यार लफ़त्तू!"

Monday, March 30, 2009

हुसन की मलका दीलफरैब जीनातमान का नाच और टुन्ना झर्री के कारनामे

टुन्ना झर्री रामनगर हम से एक पीढ़ी आगे वाले लफाड़ी समुदाय का सर्वमान्य ख़लीफ़ा माना जाता था. कोसी डाम पर एक दफ़ा हिन्दू लड़कियों के ताड़ीकरण-कर्म की नीयत से टहल रहे दो पाकिस्तान निवासी लौंडों को अकेले ठोक दिया था टुन्ना ने. यह अलग बात है कि टुन्ना स्वयं उसी प्रयोजन से वहां टहलने गया था. इस उपलब्धि के ऐवज़ में ख़ुद की अपनी पीढ़ी में वह नायक के और हमारी अप्रेन्टिसरत पीढ़ी में महानायक के तौर पर स्थापित हो गया.

टुन्ना के इस शौर्य की गाथा हमें नेचुरली लफ़त्तू ने ही सुनाई. टुन्ना भी फ़ुच्ची की तरह कलूटा था. उसके पापा हमारे कालेज में सीनियर बच्चों को कुछ पढ़ाया करते थे. लेकिन टुन्ना ने स्कूल जाना आठवीं क्लास के बाद बन्द कर दिया था. टुन्ना के पापा को समूचा शहर नेस्ती मास्टर के नाम से जाना करता था. यदि नागरजनों को उन पर अधिक लाड़ आ जाता तो उन्हें विलायती सांड़ नाम से भी संबोधित किया जाता.

रामनगर की शब्दावली में झूठ्मूठ गप्प मारने की क्रिया के लिए अपना स्वायत्त शब्द-पद था - 'झर पेलना'. टुन्ना के आगे झर्री शब्द लगाए जाने की उत्पत्ति भी इसी क्रियापद में पोशीदा थी. टुन्ना के बारे में यह बात सारे रामनगर के लौंडजगत में विख्यात थी कि वह अपने काम से काम रखता है और झर कभी नहीं पेलता. दर असल कोसी डाम पर पाकिस्तानी लड़कों की पिटाई के प्रकरण को रामनगर के इतिहास में एक क्रान्तिकारी और परिवर्तनकारी घटना माना गया जिसके न मालूम कितने संस्करण गली-मोहल्लों में उपलब्ध थे. टुन्ना प्रेरणा का झरना बन गया था जिसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने की नीयत से टुन्ना भक्तों और अघोषित टुन्ना फ़ैन्स क्लब द्वारा डाम-घटना को लेकर इतनी बेशुमार झरें पेली गईं कि टुन्ना से अगली पीढ़ी के लफंडरों ने टुन्ना के प्रति बहुत हिकारत और संभवतः उस से भी ज़्यादा ईर्ष्या भी महसूस करते हुए टुन्ना के आगे झर्री विशेषण फ़िट कर दिया.

मिसाल के तौर पर एक बार क्लास में दो पीरियडों के बीच के अन्तराल में बम्बाघेर नम्बर दो में रहने वाले हमारे सहपाठी जगदीस जोसी उर्फ़ जगुवा पौंक ने एक बार टुन्ना को हिमालय टाकीज से बाहर निकलते हुए दिखाते हुए हमें गर्व से बताया कि टुन्ना बम्बाघेर में उनका पड़ोसी है. टुन्ना और कोसी डाम अपरिहार्य रूप से एक दूसरे से सम्बद्ध हो चुके थे. जगुवा पौंक ने टुन्ना का पड़ोसी होने का गर्व बहुत देर तक महसूस करते हुए झर पेली कि टुन्ना ने उस ऐतिहासिक दिन बारह मुसलियों को अकेले सूत डाला था. बागड़बिल्ला इस संख्या को हमें इम्प्रेस करने की नीयत से पन्द्रह तक पहुंचा दिया करता था. इन गड़बड़ आंकड़ों का लफ़त्तू पर कोई असर नहीं होता. वह कहता था : "एक कतुवा दत-बीत हिन्दू के बलाबल होता ऐ बेते ... तुन्ना धल्ली ने दोई कतुवों को माला होगा ... छमल्लेवैं आप ... एक तुन्ना धल्ली और दो-दो कतुवे ..."

लफ़त्तू की टोन बताती थी कि टुन्ना के प्रति उसके दिल में असीम सम्मान ठुंसा हुआ है.

धूल मैदान से आगे खेल मैदान पर किराये की साइकिलें चलाते वक्त हम किंचित ईर्ष्या और भय से उस कोने को ताका करते जहां टुन्ना अपनी कैबिनेट मीटिंगें लिया करता था. लफ़त्तू ने बाद में मेरा ज्ञानवर्धन करते हुए बताया कि टुन्ना चाहे तो उन मीटिंगों को कहीं भी ले ले पर पाकिस्तान निवासी लौंडे अक्सर हिन्दुस्तानी लौंडों की साइकिलें छीन लिया करते थे. कोसी डाम पर परमवीर चक्र प्राप्त कर चुकने के बाद टुन्ना ने अपना सायंकालीन दफ़्तर इसी बात के चलते खेल मैदान पर शिफ़्ट कर लिया था कि देखें कौन भूतनी का छीनता है साइकिलें.

निमाइस जाने की इजाज़त देने के लिए मैं अपने परिवार वालों को राजी करने में आख़िरकार सफल हो गया. घर से बहुत सारी हिदायात और बहुत कम पैसे देकर लफ़त्तू और बन्टू के साथ भेजा गया. सबसे ज़रूरी हिदायत थी आग के दरिया और बिजली वाले झूले से दूर रहना और कच्चर-बच्चर न खाना.

शाम हो आई थी. निमाइस की बत्तियां जल गई थीं. करीब दस लाउडस्पीकरों को कुछ न कुछ एलौन्स चल रहे थे और कुछ भी साफ़ नहीं सुनाई दे रहा था. धूल-गर्द-हल्ला-हड़बड़ी का ये आलम था कि हम निमाइस में घुसे और एक दूसरे से बिछड़ गए. एक पल को घबराहट महसूस हुई तो मैंने पलटकर देखा. घर की खिड़की नज़र आ रही थी और वहां भी बत्ती जल चुकी थी यानी खो जाने का कोई डर न था. कॉन्फ़ीडेन्स लौटा तो लफ़त्तू और बन्टू की तलाश में इधर उधर निगाह डालना शुरू किया. थोड़ी मशक्कत के बाद बन्टू की लाल हाफ़ पैन्ट नज़र आ गई. मैं भाग कर उस तक पहुंचा. वह भी हकबकाया खड़ा था. हमने एक दूसरे के हाथ थाम लिए और मिलकर लफ़त्तू की खोज में जुट गए. आख़ीरकार हमें वह दिखाई दे गया. अपने से दो हाथ लम्बी बन्दूक थामे वह एक खोखे पर गुब्बारे फोड़ने की मौज लूट रहा था. हम तनिक नाराज़ होते हुए उस तक पहुंचे तो उसने हमसे डिस्टर्ब न करने को कहा.

ख़ुद को जिम कॉर्बेट से बड़ा शिकारी समझता हुआ वह अपने कन्धे, हाथों और आंखों का अचूक संयोजन करने में लगा था. मरियल बल्ब की रोशनी में सामने लगे गत्ते के बोर्ड पर चिपकाए गए सौ एक गुब्बारे एक ही रंग का होने का आभास दे रहे थे.

"अब देकना बेते ... बो पीला वाला फोल्दूंगा ..."

कट्‌ की आवाज़ आई फिर मरियल सी फट्‍ की और शायद एक गुब्बारा फूटा. "... देका बेते मेला तौंता..."

अगले पांचेक मिनट तक आत्मलीन होकर वह अपना टौंचा सैट करता रहा और आत्ममुदित होता रहा. अपना पेमेन्ट कर चुकने के बाद उसने प्रस्ताव दिया कि हम भी उक्त खेल उसके खर्चे पर खेल कर देखें पर हमें निमाइस घूमने की जल्दी थी सो प्रस्ताव को मुल्तवी कर दिया गया. मेरा मन तो आग का दरिया देखने का था. गुबारे का निशाना लगाने वाले के बाद हग्गू सिपले की दूध-जलेबी की दुकान लगी हुई थी. अगले खोखे पर लालसिंह के पापा को चाय बनाते देख कर मेरे मन में आया कि लालसिंह भी आसपास ही होगा. वह था भी. "अबे हरामियो!" उसने अपने प्रिय सम्बोधन से हमें पुकारा. वह चाय के खाली गिलास इकठ्ठा कर के ला रहा था.

"यहीं रुको तुम" कह कर वह अपनी दुकान के पिछवाड़े गायब हो गया. मिनट बीतने से पहले वह हमारे साथ था.

"डान्स देखोगे हरामियो? जीनातमान जैसा माल आया है इस साल निमाइस में."

प्रस्ताव बहुत चैलेंजिंग था और पौरुष को ललकारने वाला. "इन बत्तों ते पूत ले याल लालछिंग ... मैं तो देकियाया दीनातमान को पैले ई .."

लफ़त्तू के इस डायलॉग के बाद नहीं कहने का कोई मतलब नहीं था. लम्बू लालसिंह आगे आगे और हम तीन नन्हे हरामी पीछे-पीछे. लोहे की एक बहुत बड़ी बाड़ के अन्दर गोल टैन्ट लगा हुआ था. चारों तरफ़ से बन्द इस तम्बू की सज्जा हेतु उरोजा-दल का वही पोस्टरनुमा पैनल लगाया गया था जिसे ठेले पर रख कर निमाइस का परचार किया जाता था. मेरी चोर निगाह ने ज़मीन पर धरे ब्लैकबोर्डनुमा पैनल पर लिखा पढ़ लिया: 'हुसन की मलका दीलफरैब हैलन का नाच. २ रु.' - हुसन, दिलफ़रैब. मोब्बत, बफा-जफा, आसिक इत्यादि अल्फ़ाज़ अब समझ में आने ही लगे थे. २ रु. देखते ही मैंने लालसिंह से कहा कि मेरे पास तो कुल इतनी ही रकम है और अभी मैंने अपनी शॉपिंग करना बाकी है.

"बड़ा आया पैसा देने वाला हरामी" लालसिंह ने लाड़ से दुत्कार लगाई. वह डान्स वाली दुकानवाले का दोस्त था. हम चार टोटल फिरी-फोकट में पिछवाड़े वाले मार्ग से तम्बू के अन्दर थे. अन्दर बीड़ी-सिगरेटों का नीला धुंआ तैर रहा था और बेशुमार भीड़ थी. और अच्छा खासा अन्धेरा भी. एक तनिक ऊंचे प्लेटफ़ॉर्म पर मंच बनाया गया था. मंच के बैकग्राउन्ड के परदे पर एक अधनंगी तस्वीर बनी हुई थी - ठीक जैसी दुर्गादत्त मास्साब की किताबों के कवर पर हुआ करती थीं. अचानक एक पल को मंच की बत्ती बुझी और फिर तुरन्त बाद सारा मंच चटख नीली रोशनी से नहा गया. एक कलूटा आदमी हाथ में माइक लिए स्टेज पर आया तो भीड़ से एक समूहगान सरीखी गूंज उभरी "... ओबे काणे sssss ... ओबे काणे बेsss ..." इस सस्वर प्रोत्साहन ने सारे दर्शकों को बतला-जतला दिया कि कलूटे को ऐरा-गैरा न समझा जाए - उसका नाम है, ख़ूब नाम है और उसके अपने फ़ैन्स भी हैं.

कलूटे ने कुछ चुटकुला सा सुनाया जो मेरी समझ में नहीं आया. अलबत्ता भीड़ एक अश्लील हंसी में फटकर दोहरी हो गई. काने ने करीब दस मिनट तक यह सांस्कृतिक कार्यक्रम चलाया जिसके बाद मंच पर बत्ती बुझने और जलने का पिछला सिलसिला दोहराया गया. बत्ती का जलना और कर्कश लाउडस्पीकर पर 'साकिया आज तुझे नींद नईं आएगी' बजना शुरू हो गया. सीटियां बजनी चालू हो गईं. बन्टू मेरे कान में चिल्ला रहा था कि इस के पहले कोई हमें देखे हमें फूट लेना चाहिये

मंच पर जीनातमान के आते ही दर्शक पागल हो गए. जीनातमान ने फ़िल्मों में मुजरा करने वालियों की लाल-नीली चमचम ड्रेस पहनी हुई थी. उसने झुक कर सलाम जैसा कुछ किया. हम बहुत दूर थे और ज़्यादा डिटेल्स देख पाने की इच्छा पूरी करने में असमर्थ भी. 'सुना है तेरी मैफ़िल में रतजगा है' की टेक से उसने बेहद भौंडा नृत्य शुरू किया. लफ़त्तू ने मेरी बांह पर हल्की चिकोटी काटी तो मैंने पलट कर देखा. उसने मुझे आंख मारी जिसका तात्कालिक अभिप्राय यह था कि बेते मौज काटो जीनातमान के. नाच में बस ये हो रहा था कि एक लाल-नीली ड्रेस के यदा-कदा हवा में ज़रा सा उछलती सी नज़र आती और एडल्ट सीटियां और डायलाग विसर्जित करता रामनगर का कलापारखी वर्ग पूर्णमुदित हो जाता. बस दो तीन मिनट का नाच देखा ही था बस कि लालसिंह ने हमें तकरीबन घसीटते हुए तम्बू से बाहर निकाल लिया. लफ़त्तू और मैं और बन्टू जो भी हो डान्स के मज़े लेने का एडल्ट अनुभव तो जी ही रहे थे; अचानक यूं घसीट कर बाहर निकाल लिया जाना थोड़ा नागवार गुज़रा तो लालसिंह ने ज़रा आगे जा कर हमारे लिए रंधे से बनाई जा रही तीन तिरंगी चुस्की आइसक्रीमें ऑर्डर करते हुए बताया कि ऐसा उसने हमारी बेज्जती खराब ने होने देने के लिहाज़ से किया.

हमें बेमन से चुस्कियां चूसते देख कर लालसिंह ने कहा "डान्स छूट गया है अब देखना कौन कौन बाहर निकलेगा."

बाहर आने वाले तनिक झेंप के साथ जल्दी जल्दी डान्स-तम्बू की सीमा से परे जाने की कड़ी मेहनत कर रहे थे. उन में से कुछ को हम ने पहले भी कहीं न कहीं देखा हुआ था. आख़िर में निकलने वालों में हमारे कालिज का आधे से ज़्यादा स्टाफ़ था. पान की पीक का महासागर मुंह में भरे होने के बावजूद बोल पाने में सफलता प्राप्त कर ले रहे मुर्गादत्त मास्साब के नेतृत्व में दड़ी मास्साब, भगवानदास मास्साब, गोल्टा मास्साब और रामलायक 'निर्जन' बाहर आ रहे थे. वे इतने आत्मविश्वास से आस्पास देखते बाहर आ रहे थे मानो उनका समूचा जीवन यही पुण्यकर्म करने हेतु बना हो और उसी में व्यतीत हुआ हो.

मेरे लिए यह सदमा इस वजह से था कि मैं कम से कम गोल्टा मास्साब को अच्छा समझता था. मैं इस हादसे पर विचार कर ही रहा था कि तम्बू के भीतर से गंगापुत्र उर्फ़ प्याली मात्तर नमूदार हुए. उनके चश्मे की सुतली खुल गई थी और उसकी इकलौती कमानी को कान से लगए वे "अले लुको बाई, लुको, लुको ..." कहते हुए अपने मित्रों के नज़दीक जाने का प्रयास कर रहे थे. चश्मे की खुली हुई सुतली दूसरी तरफ़ लटक रही थी.

"अगर मास्साब लोग देख लेते कि तुम लोग डान्स देख रहे हो तो वो तुम्हारे घरों में शिकायत कर देते. घर वाले तुम्हारा बनाते हौलीकैप्टर अलग और मास्साब लोग तुमें इमत्यान में फ़ेल करते अलग. बेज्जती खराब होती नफ़े में."

लालसिंह सच कह रहा था. बन्टू और लफ़त्तू के साथ मैंने भी हामी में सिर हिलाया. हमारे पैसे अभी बचे हुए थे और आग का दरिया देखने की इच्छा भी. लालसिंह ने कहा कि वह हमें फ़िरी में अन्दर बिठा देने के बाद दुकान पर चला जाएगा क्योंकि उसके पापा अकेले होंगे. लालसिंह निमाइस के स्टाफ़ का आदमी था और उसे सारी चीज़ें फ़ोकट उपलब्ध हैं - यह जानकारी मेरे लिए बड़ी डाह का विषय बन गई थी.

धूल-गर्द-हल्ला-हड़बड़ी अब और ठोस होकर निमाइस के आसमान पर जम चुके थे. दूर बिजली वाले झूले की बत्तियां जलबुझ रही थीं और आकर्षित कर रही थीं.

हाथों में चुस्कियां थामे पहला एडल्ट काम कर चुकने का गर्व महसूस करते हम आग के दरिया की तरफ़ धीमे कदमों से बढ़ रहे थे. लालसिंह ने ठिठोली करते हुए हमसे जीनातमान के हुसन के मुताल्लिक कुछ अश्लील सवालात पूछे. प्रफुल्लित होने के बाजवूद बन्टू और मैं जवाब देने की हिम्मत नहीं जुटा पाये अलबत्ता लफ़त्तू बोला : "किलमित की बौल दैते उतल लई ती याल दीनातमान ... भौछ्‍छई लौंदिया है... भौछ्छई ..."

... अचानक बिना किसी पूर्वसूचना के चीख पुकार मच गई. हमसे ज़रा अगे धूल का हल्का बादल सा उठने को था. पांच सात लड़के अचानक सीरियस मारपीट शुरू कर चुके थे. लालसिंह ने हमसे वहीं खड़े रहने को कहा और घटनास्थल की तरफ़ भाग चला.

वह उसी रफ़्तार से वापस हम तक पहुंचा: "आग का दरिया बन्द हो गया आज. तुम लोग घर जाओ. पांच पांच मुसलिये आग के दरिये से भार लिकाल के टुन्ना झर्री को सूत रहे हैं ...!"

(निमाइस गाथा जारी है)

Tuesday, March 24, 2009

कायपद्‌दा, पुगत्तम और रत्तीपइयां

धूल मैदान पर से नौटंकी पाल्टी का जाना और वहां निमाइस का लगना एक साथ घटित हुआ. छुट्टियां चल रही थीं. छत पर क्रिकेट खेलना थोड़ा कम हो गया था. निमाइस की रौनक शाम को गुलज़ार हुआ करती थी. इधर हम लोगों ने लफ़त्तू की अगुवाई में घर के पिछवाड़े स्थित पीताम्बर उर्फ़ पितुवा लाटे के आम के बगीचे के भी पीछे बहने वाली छोटी नहर में दोपहरें गुज़ारने का कार्यक्रम चालू कर दिया था.

घर पर सुबह के किसी वक्त पूरा खाना खा चुकते ही मैं नेकर-कमीज़ पहनकर घासमंडी पहुंच जाता. वहां बंटू, बागड़बिल्ला, लफ़त्तू इत्यादि के साथ जल्दी ही पूरी टीम जुट जाती और कुछ भी अश्लील गाना गाते, कूल्हे मटकाते लफ़त्तू का अनुसरण करते हम नहर पहुंचते. काफ़ी खोज बीन के बाद हम लोगों ने नहर के एक हिस्से को अपने तरणकर्म हेतु सबसे मुफ़ीद पाया था. उस जगह नहर के दोनों तरफ़ आम के घने पेड़ थे और थोड़ा सा अन्दर चले जाने पर हमें सड़क पर चल रहा कोई भी आदमी नहीं देख सकता था.

नहर पहुंचते और बहता पानी देखते ही हमारी सारी शर्म-ओ-हया काफ़ूर हो जाती और हम सेकेंड से कम समय में पूरे दिगम्बर होकर पानी में कूद पड़ते. बंटू थोड़े ठसकेदार घर का था सो वह नेकर के नीचे बाकायदा चड्ढी पहने रहा करता था. पूरे कपड़े वह कभी नहीं उतारा करता. हम लोग इस कार्यक्रम विषेष के लिए चड्ढी घर पर ही फेंक आया करते थे. बंटू को इस नक्शेबाज़ी के ऐवज़ में एक्स्ट्रा काम करना पड़ता था. तैराकी समाप्त होने पर वह किसी झाड़ी की ओट में पहले चड्ढी उतारता, नेकर पहनता और चड्ढी को सुखाने हेतु किसी पत्थर पर फैला देता. पहली बार जब वह गीली चड्ढी के ही ऊपर नेकर पहनकर घर चला गया था तो गीली नेकर को जस्टीफ़ाई करने के लिए उसे कई सारी कथाओं का निर्माण करना पड़ा था, जो झूठ पर झूठ साबित होती गईं और उसके पापा ने उसे आगे से लफ़त्तू के साथ देखे जाने की सूरत में ज़िन्दा गाड़ देने की चेतावनी दी और झाड़ू से उसकी पिछाड़ी को लाल बना दिया. लेकिन लफ़त्तू का ग्लैमर अकल्पनीय था और लात-घूंसे-झाड़ू वगैरह से उसकी संगत का लुत्फ़ उठाने से देवताओं तक को नहीं रोका नहीं जा सकता था, यह तो फ़क़त बंटू था.

पानी के बहाव की रफ़्तार बहुत दोस्ताना होती थी और हम घन्टों उसमें छपछप किया करते. लफ़त्तू ख़ूब सारे मेढक पकड़ कर एक जगह इकठ्ठा कर लेता और उन्हें डरा कर नीमबेहोश बना चुकने के उपरान्त हम पर निशाना लगा लगा कर फेंका करता. गमलू-कुच्चू और मधुबाला को लेकर कई सम्मेलन तैरते-तैरते पूरे हो जाया करते थे. लफ़त्तू का दिल अभी तक उन्हीं में से एक को हमारी भाबी बनाने की टेक पर फंसा हुआ था जबकि बड्डे पाल्टी में गोबर डाक्टर द्वारा हमारे भइयानिर्मितीकरण के पश्चात मेरा जी दोनों से उखड़ गया था और मैं दुबारा से मन लगाकर मधुबाला से आशिकी में मुब्तिला हो चुका था. लफ़त्तू का तर्क यह था कि गोबरडाक्टर द्वारा हमें गमलू-कुच्चू का भइया कह कर पुकारा जाना उसका हरामीपन था और यह कि हर ज़िम्मेदार बाप अपनी लड़कियों की सेफ़्टी के लिए ऐसे बाबा-आदम ब्रांड नुस्ख़े अपनाता ही है. रक्षाबन्धन के दिन उसने घासमंडी का मुंह तक न देखने का प्लान बड्डे पाल्टी की रात ही वापस लौटते बना लिया था. "मुदे पागल छमल्लिया गोबल दाक्तल! मेला नाम बी गब्बल ऐ बेते गब्बल! दलता नईं किछी के बाप थे!" ' ... उहुं उहुं ... दान्त तत ... ' गुनगुनाते हुए उसने मेरा हाथ थाम कर उसने मुझे अपनी स्ट्रेटेजी और आसन्न अवश्यंभावी विजय के प्रति आश्वस्त किया था.

तैराकी के मज़े लूटने के बाद पीताम्बर उर्फ़ पितुवा लाटे के आम के बगीचे की तनिक नीची दीवार फांद कर वहां कायपद्‌दा नामक महान खेल खेला जाता. कायपद्‌दा में खिलाड़ियों में सबसे पहले एक चोर का चुनाव किया जाता था. चोर के चुनाव हेतु काम लाई जाने वाली टैक्नीक पुगत्तम कहलाती थी. यह चोर आम के किसी सघन और ढेर सारी टहनियों से भरपूर पेड़ के नीचे मिट्टी पर लकड़ी की मदद से एक गोल घेरा बनाता था. उसके बाद आम सहमति से करीब हाथ भर लम्बी लकड़ी को अड्डू बनाया जाता. चोर को छोड़कर सारे बच्चे पेड़ की टहनियों पर चढ़ जाते. खेल की शुरुआत में चोर को अपनी एक टांग उठाकर उठी हुई और स्थिर वाली दो टांगों के बीच निर्मित हवा के भीतर से अड्डू नामक लकड़ी को जितनी दूर संभव होता फेंक दिया करता.

अब चोर ने जल्दी से पेड़ पर चढ़कर किसी एक खिलाड़ी को छूना होता था. छू कर वापस ज़मीन पर कूदना होता था और भाग कर अड्डू को वापस गोल घेरे में प्रतिष्ठित कर देना होता था. ऐसा करके ही वह चोरयोनि से मुक्त होकर खिलाड़ीयोनि में वापस लौट सकता था. इसमें पेंच यह होता था कि अगर इस दौरान कोई खिलाड़ी कूद कर चोर से पहले अड्डू को घेरे में रख देता तो चोर चोर ही बना रहता और सारा अनुष्ठान एक बार और पूरा किया जाना होता था.

कायपद्‌दा खेलते हुए थकान जल्दी लग जाया करती. एक तो सारे नियम खिलाड़ियों की सुविधा से बनाए गए थे, न कि चोर की सो जो एक बार चोर बन गया वह तकरीबन सारे खेल भर चोर बना रहता था. बाद के दिनों में जब हमारा पहला मुसलमान दोस्त ज्याउल इस खेल को खेलने हमारी टीम में शामिल हुआ, किसी साज़िश के तहत हर बार वही चोर बना दिया जाता. ज्याउल रामनगर का नहीं था, मुरादाबाद से आया था. उसके पिताजी बिजली डिपार्टमेन्ट में इंजीनियर थे और मेरे पिताजी के दोस्त. उन्हीं के कहने पर ज्याउल को हमने इतना दुर्लभ विशेषाधिकार दिया हुआ था कि वह लगातार चोर बने और पदता रहे. कभी कभार लफ़त्तू उस पर दया करता और वालंटियर चोर बन जाता.

कायपद्‌दा खेलने के बाद भूख से भुखाने और प्यास से तिसाने हम अपने अपने घरों की तरफ़ एक छोटे ब्रेक के वास्ते चल पड़ते.

अल्मोड़ा, जहां हम लोग रामनगर आने से पहले रहा करते थे, पहाड़ी कस्बा था. बड़े भाई ने वहां मेरे वास्ते कहीं से एक बड़े टायर का जुगाड़ किया हुआ था. छोटी सी एक लकड़ी लेकर मैं उसे ठेलता हुआ इस ढाल से उस ढाल चलाया करता था. रामनगर मैदानी कस्बा था सो यहां ढालों पर टायर चलाने का रिवाज़ नहीं था. यहां हमारे पास ट्रकों के बैरिंगों से बने छोटे गोले थे जिन्हें रत्तीपइयां कहा जाता था. रत्तीपइयां को चलाने हेतु लोहे के मज़बूत तार का एक लम्बा और सीधा टुकड़ा इस्तेमाल में लाया जाता था. इस तार के एक सिरे को इस तरह से मोड़ा जाता था कि रत्तीपइयां उसमें खड़ी अवस्था में फ़िट हो जाए. अपार कौशल और प्रतिभा चाहिये होती थी रत्तीपइयां चलाने में. किसी बहुत जटिल मशीन से जूझने जैसा अनुभव होता था. जाहिर है मौज तो आती ही थी.

तैराकी और कायपद्‌दा के बाद का समय रत्तीपइयां चलाते हुए सब्ज़ीमंडी तक का चक्कर काटना धर्म बन गया था. यहां भी लफ़त्तू हमारा नेतृत्व किया करता हालांकि उसके पीछे-पीछे रत्तीपइयां चलाते जाना मोहल्ले और बाज़ार के लोगों की निगाह में अपनी बचीखुची इज़्ज़त का भुस भरा लेने का सबसे आसान तरीका माना जा सकता था पर मैंने कहा न कि लफ़त्तू के अकल्पनीय ग्लैमर के आगे क्या तो बेज्जती और क्या बेज्जती का ख़राब होना.

उस रोज़ हम लोग रत्तीपइयां कार्यक्रम निबटाने के बाद तार और ररत्तीपइयां को कन्धों पर गदा की तरह लटकाए घर लौट रहे थे जब कहीं से बदहवास सा भागता लालसिंह हमारे सामने आ गया. आते ही उसने "तुम थे कहां बे हरामियो?" पूछा.

पता यह चला कि दो घंटों से गोबरकुटुम्ब शहर में अपनी नई कार का प्रदर्शन करता घूम रहा है. और "क्या माल लग रये बेटा तुम्हारे दोनों माल!"

लालसिंह आगे कुछ बताता न बताता हमारे ठीक सामने गोबरडाक्टर ने अपनी गाड़ी रोकी. सतत खिलखिल करतीं कुच्चू-गमलू ने अपने गुलाबी रिबन लगे सिर बाहर निकाले और हमें पुकारा. रामनगर में कुल चार या पांच कारें थीं. पहली बार कार में बैठ कर किसी ने हमें पुकारा था. यह सनसनीख़ेज़ तो था ही, चेतना को शिथिल बना देने वाला भी था. इस हतप्रभावस्था में हमें यह भी भान न रहा कि हमने अपने-अपने रत्तीपइयां गदा की तरह ही थामे हुए थे.

कुच्चू-गमलू वाक़ई में माल लग रहे थे और एक पल को मेरी मधुबालाकेंद्रित मोहब्बत डगमग होने को हुई. नीमबेहोशी की सूरत में कब हम दोनों पीछे की सीटों पर हमें अपनी बग़ल में बिठा चुकी थीं, याद नहीं पड़ता. होश आने पर अपनी हवाई चप्पलों, गन्दी पड़ चुकी नेकरों पर उतनी शर्म नहीं आई, जितनी अपनी गदाओं पर. बावजूद इसके स्कर्टधारिणियां हमें ताके जा रही थीं - मुझे लगा उनकी निगाह में थोड़ी सी आसक्ति नज़र आ रही थी या शायद मेरा भरम रहा हो. दो-तीन मिनट की सैर खिलाने के बाद गोबरडाक्टर ने गाड़ी अपने घर के अहाते में पार्क की और "आ जाओ बाहर बच्चो!" कह कर कार का दरवाज़ा खोल दिया. "कैसे हो बेटे?" कहकर गोबरडाक्टरानी ने आदतन हमारे गाल दुलराए और अपनी पुत्रियों से मुख़ातिब होकर कहा "बेटा, भइया लोगों के लिए केक ले कर आओ फ़्रिज से."

या ख़ुदा! फिर से भइया! मेरा मधुबाला-प्रेम एक झटके में वापस पटरी पर आ गया. लफ़त्तू अलबत्ता अब बेशर्म बन चुका था और हौले हौले मुस्काता, केक सूतता मालताड़ीकरण में ईमानदारी से लगा हुआ था. मैंने उसे थोड़ा लिहाज़ बरतने के उद्देश्य से चेताने हेतु ठसकाया तो उसने मेरी तरफ़ आंख मारी.

"ये अपना सामान ले लो बेटा!" कहकर गोबरडाक्टर ने गाड़ी की पिछली सीटों के नीचे पड़े हमारे रत्तीपइयां बाहर निकाले. हमने चोरों की तेज़ी से उन्हें अपने कब्ज़े में किया और खिसक पड़ने की जुगत देखने लगे.

"ये क्या चीज़ है?" एक स्कर्टधारिणी ने उत्सुकतावश पूछा तो मैंने थोड़ा शर्म महसूसते हुए कहा "रत्तीपइयां"

"मगर ये है क्या?"

इस सवाल का जवाब देने के बजाय लफ़त्तू ने अपने रत्तीपइयां - कौशल का नमूना दिखाते हुए बरामदे का एक चक्कर काट कर दिखाया.

"ग्रेट! और नाम भी कितना क्यूट है इस का!" वे उत्साह में बोलीं. "पापू से कहेंगे, हमें भी चाहिये ये चीज़."

"इत को ले लओ" कहकर लफ़त्तू ने अपना रत्तीपइयां वहीं ज़मीन पर रखा और मेरा हाथ थाम कर बाहर का रुख़ किया.

लालसिंह के पापा की दुकान के पास आकर मैंने लफ़त्तू के चेहरे पर नज़र डाली. वह सुर्ख़ पड़ा हुआ था. अपना रत्तीपइयां बलिदान कर चुकने का दर्प उस की रग-रग से टपक रहा था. और उम्मीदों से भरा एक चमकीला मुस्तकबिल भी. लफ़त्तू वाक़ई मोहब्बत में पड़ चुका था. सच्ची मुच्ची वाली लैला-मन्जूर वाली असल मोहब्बत. मुझे तनिक भय हुआ.

अचानक कहीं से निमाइस का विज्ञापन करता एक रंगबिरंगा ठेला सामने से गुज़रा. उरोजाओं की पूरी टीम उस पर लगे एक विशाल पैनल पर से आपको न्यौत रही थी कि निमाइस में आइये और देखिये मौत का कुंआ और आग का दरिया. बहुत सारे लौंडे-लफन्डर भीड़ बनाए ठेले का अनुसरण कर रहे थे.

लफ़त्तू ने आंख तक उठाकर नहीं देखा. वह ख़ुद आग के दरिया को पार करने की नामुमकिन जद्दोजहद में लगा हुआ था.

(यह पोस्ट मैख़ाने वाले मुनीश शर्मा के इसरार पर लिखी गई है जिन्होंने आज इस नाचीज़ ब्लॉग को अपनी पोस्ट का विषय बनाया है)

Monday, March 9, 2009

...उहुं ... उहुं .. दान्त तत माई बादी ... उहुं ... उहुं ...

कुच्चू और गमलू में से किसी एक पर मेरे और किसी दूसरी पर लफ़त्तू के दिल के आ जाने के दिनों मैं ख़ैर मनाया करता था कि कहीं ऐसा न हो कि हम दोनों के टारगेट अन्त में जाकर एक ही न निकल आवें. मैं तो पैदाइशी बेवफ़ा और मोहब्बत का मारा था सो मुझे खुद से ज़्यादा लफ़त्तू की चिन्ता होती थी. उन्हीं दिनों बस अड्डे के बाहर वाले धूलमैदान में नौटंकी लगी. पिछले साल की नौटंकी के गीतों को कंठस्थ कर चुकने और घर पर उन्हें गा बैठने का अक्षम्य अपराध करने के बाद हुई अपनी धुनाई मुझे अच्छे से याद थी, इसी वजह से "लौंडा पटवारी का बड़ा नमकीन" अब भी मेरा फ़ेवरेट बना हुआ था. इस दफ़ा नौटंकी पाल्टी वाले अपने साथ बड़े-बड़े होर्डिंगनुमा पोस्टर ले कर आए थे जिनमें एक बेहद भौंडा सा दिख रहा दढ़ियल फटा कुर्ता पहने नज़र आया करता था. दढ़ियल के मुंह के एक कोने से खून की लकीर निकला चाहती थी. पोस्टर का अलबत्ता सबसे आकर्षक हिस्सा वह था जिसमें लाल लिपिस्टिक और सुनहरे बेलबूटोंवाली लाल पोशाक धारण किए, गालों में लाली लगाए एक उरोजा देवी चस्पां थी. उरोजा देवी की आंखों की कोरों पर आंसुओं की एक-एक जोड़ी बूंदें थमी हुई थीं. लेकिन एक अदद डिटेल्ड चेहरा होने के बावजूद कलाकार ने ऐसा तिलिस्म तैयार किया था कि उक्त महिला सिर से कमर तक सिर्फ़ उरोजों की एक जोड़ी नज़र आती थी, दीगर है कि इस दर्ज़े की जोड़ी ने अभी हमारे तसव्वुरों पर उस तरह छा जाना बाकी था.

नौटंकी पाल्टी इस दफ़े लैला-मन्जूर का खेल ले कर आई थी और लाउडस्पीकर पर ख़ून-ए-दिल पीने और लख़्त-ए-जिगर खाने के बयानात लगातार जारी किये जाते थे. खेल के बीच में इन्टरवल होता तो एक मसख़रा "डान्ट टच माई बाडी मोहन रसिया" नामक अश्लील गान सुना कर श्रोताओं और दर्शकों की वाहवाही लूटा करता. लफ़त्तू ने इस सुपरहिट का "...उहुं ... उहुं .. दान्त तत ... उहुं ... उहुं ..." की टेक से शुरू होने वाला इम्प्रोवाइज़्ड संस्करण तैयार करने में फ़कत एक रात लगाई. हम दोस्त लोग शाम के शो के श्रोता होते थे.

एक शाम हम, हम माने लफ़त्तू बन्टू और मैं, घासमण्डी के कोने पर खड़े होकर पसू अस्पताल की दिशा में नज़रे गड़ाए थे. पसू अस्पताल के कम्पाउन्ड के भीतर ही कुच्चू-गमलूपिता गोबर डाक्टर को सरकारी क्वाटर मिला हुआ था. अचानक पीछे से किसी ने लफ़त्तू को नाम लेकर पुकारा. लालसिंह था. लालसिंह के पापा की घासमण्डी में चाय-बिस्कुट की दुकान थी - यह तथ्य हमारी नज़रों से न जाने कैसे छूट गया था. उसके पापा बीमार थे और इन दिनों दुकान का काम उसके सिपुर्द था. उसने करीब करीब बड़े भाई का सा लाड़ दिखाते हुए हमें दुकान में गल्ले वाली जगह पर बिठाया और दूध-बिस्कुट खाने को दिया. हमने मौज लूटना शुरू ही किया था कि नौटंकी चालू हो गई. इस घटना ने लफ़त्तू पर तुरन्त असर डाला और उसका "...उहुं ... उहुं .. दान्त तत ... उहुं ... उहुं ..." अपने नैसर्गिक लुच्चपने के साथ चालू हो गया. लालसिंह ने लफ़त्तू को देख कर ठहाका लगाया और बामोहोब्बत "साला हरामी" कहकर उसकी कला की दाद दी. बन्टू शरीफ़ बच्चा था सो वह "पापा आ गए होंगे" कहकर भाग लिया. मैं न सरीफ़ था न बदमास और मेरा स्टेटस मेरी अपनी निगाहों में लफ़त्तूशिष्य से ऊपर नहीं जा सका था सो जैसी वस्ताद की इच्छा.

लालसिंह ने आंख मार कर लफ़त्तू से पूछा: "पसू अस्पताल में क्या देख रया था?"

"अपने माल का इंत्दाल कल्लिया ता औल क्या!" वयस्क किस्म की बेपरवाही से लफ़त्तू ने जवाब दिया.

"कौन से वाले का: छोटे का या बड़े वाले का?" यह सवाल ट्रिकी था. कुछ दिन पहले लफ़त्तू क्लास में गोबर डाक्टर की एक लड़की से अपने वन साइडेड चक्कर की घोषणा कर चुका था. फ़ुच्ची कप्तान की टोन में उसने सबको चुनौती देते हुए कहा था: "तुम थब की भाबी बनाऊंगा उतको बेतो!"

लालसिंह के सवाल का जवाब देने हेतु आवश्यक पर्याप्त ज्ञान का अभाव था लफ़त्तू के पास. इस कदर जुड़वां दो लड़कियों में कैसे बताया जाए कि 'बड़ा' कौन सा वाला है और 'छोटा' कौन सा. जब लफ़त्तू उन सुन्दर लड़कियों को माल कहता था तो मुझे ऐसा-वैसा लगने लगता. अपनी मोहब्बत नम्बर तीन को मैं तब तक पोशीदा रखना चाहता था जब तक कि यह सर्टेन न हो जाए कि लफ़त्तू वाला माल कौन सा है. उसके बाद बचे हुए माल (किंवा कुच्चू/गमलू में से एक) के प्रति मुझे अपनी भावनाएं अभिव्यक्त कर पाने की वैधता हासिल हो जानी थी.

जब तक लफ़त्तू कोई जवाब सोचता, लालसिंह ने हरामीपने से हंसते हुए कहा: "हरिया हकले से फंसे हुए हैं दोनों माल!" लफ़त्तू ने हरिया हकले के प्रति एक बड़ी गाली हवा में विसर्जित करते हुए सड़क पर थूक दिया.

लफ़त्तू को यह परमज्ञान प्राप्त हुए अर्सा बीत चुका था कि हमारी भाबी हरिया हकले से फंसी हुई है पर मेरा चोर मन कहता था कि उनमें से एक अब भी ख़ाली है. और उस ख़ाली वाली को चाहने का मेरा पूरा अधिकार है.

जो भी हो यह सारा वार्तालाप मेरे लिए एक ऑलरेडी बड़ी पहेली को और भी बड़ा बना रहा था. लालसिंह और लफ़त्तू ने आपस में कानाफूसी करते हुए एडल्ट किस्म की बात करना शुरू कर दिया था. लालसिंह ने अपनी छाती पर दोनों हाथ ले जा कर कुछ इशारा किया जिसका मतलब भी एडल्ट रहा होगा क्योंकि उसके ऐसा करते ही लफ़त्तू परमानन्दावस्था को प्राप्त हो कर उठ बैठा और कूल्हे मटकाता हुआ "...उहुं ... उहुं .. दान्त तत माई बादी ... उहुं ... उहुं ..." करने लगा.

नौटंकी के शाम वाले शो के समय अगले तीन-चार दिन हमने लालसिंह की दुकान पर दूध-बिस्कुट का फ़ोकट लुत्फ़ काटने, और 'लैला-मन्जूर' के गीतों को कंठस्थ करने में व्यतीत किए. कुच्चू-गमलू केन्द्रित चर्चा के लिए भी समय निकाला जाता. एक दिन लफ़त्तू मालवार्ता का रस ले रहा था कि दोनों लड़कियां हमेशा की तरह एक ही रंग की छैलछबीली पोशाकें पहने दुकान के सामने आ गईं. वे मेरे घर की दिशा से आ रही थीं और अपने घर जा रही थीं. तमाम बातें करते हुए हमारी आंखें पसू अस्पताल की ही तरफ़ लगी हुई थीं. इन दो नायिकाओं ने विपरीत दिशा से आकर हमें एकबारगी हकबका दिया.

छिपने का जतन करता लफ़त्तू काउन्टर के पीछे नीचे ज़मीन पर बैठ गया. मेरा मन हुआ कि धरती में गड़ जाऊं. मुझे लग रहा था कि कुच्चू-गमलू ने हमारी सारी गन्दी बातें सुन ली हैं और अगर वे हरिया हकले से नहीं भी फंसी हैं तो हमारा चान्स अब तो नहीं ही बचा है.

"बाहर आ जा बे. गये माल." लालसिंह ने कहा तो लफ़त्तू बाहर आया. "इत्ते डरपोक साले बड़े मन्जूर बन्नए."

विदा करने से पहले लालसिंह ने हमें काफ़ी लताड़ लगाई और अन्ततः पढ़ाई में मन लगाने की नसीहत भी दी. उसने फ़रमान जारी किया कि ऐसा न करने की सूरत में हमारी हालत भी उस जैसी हो जाएगी. उसे यह नहीं मालूम था कि उसकी इन्डिपेन्डेन्स से मुझे कितना रश्क होता था. क्या खाक काम की ऐसी पढ़ाई जब इच्छा होने पर बमपकौड़ा तक खाने को न मिले.

लालसिंह की दुकान से निकल जाने के बाद, घर पहुंचने से पहले लफ़त्तू और मेरे बीच एक महाधिवेशन हुआ जिसमें अभी अभी घटित दुर्घटना पर चर्चा हुई. लफ़त्तू भी मेरी ही तरह सोच रहा था.

वह रात तब तक के प्रेमजीवन की सबसे मुश्किल रात साबित हुई मेरे लिए.

सुबह सोकर उठा तो लगा बहुत देर हो गई है. जब तक कुछ सोचता, लफ़त्तू ने नीचे सड़क से "बी...यो...ओ...ओ...ई..." का लफ़ंडरसंकेत दूसरी बार किया तो मैंने बड़ी बहन को खिड़की से बाहर झांक कर लफ़त्तू को बताते हुए सुना कि मैं आज स्कूल नहीं आने वाला हूं क्योंकि मैं बीमार हूं.

मुझे बताया गया कि मुझे बुखार था और यह भी कि मैं रात भर सपने में कुछ बड़बड़ कर रहा था. उस प्रलय सरीखी रात का गुज़रना फ़ाइनली पता नहीं कैसे हुआ होगा, मुझे याद नहीं पड़ता. दिन बेहिसी में कटा. मगर शाम का समय किसी सपने जैसा रहा. गोबरडाक्टर, गोबरडाक्टरानी और कुच्चू-गमलू मुझे देखने आए. "हैलो बेटे! अब कैसे हो?" कहकर गोबरडाक्टरानी ने मेरे गाल दुलराये. खिलखिल करती गमलू-कुच्चू मेरे लिए गेंदे के दो फूल ले कर आई थीं और कॉपी से फ़ाड़े गए एक पन्ने पर 'गेट वैल सून' लिख कर भी.

दो दिन बाद मुझे और लफ़त्तू को मालघर में आयोजित एक बड्डे पाल्टी में बाकायदा बुलाया जा रहा था. जाते-जाते गोबरडाक्टर ने आशा जताई कि मैं तब तक चंगा हो जाऊंगा.

गोबरकुटुम्ब के जाते ही मैं चंगा हो गया और जूता पहनकर यह समाचार लफ़त्तू के घर जाकर उसे देने की नीयत से भाग कर सड़क पर आ गया. लफ़त्तू ने मेरी बात का यकीन नहीं किया. लालसिंह ने भी नहीं. लेकिन उसी रात को लफ़त्तू की बड़ी बहन ने उसे बताया कि गोबरकुटुम्ब उसके घर भी तशरीफ़ लेकर गया था.

कुच्चू-गमलू की बड्डे पाल्टी हम दोनों के जीवन की पहली पाल्टी थी. पाल्टी में क्या-कैसे होना होता है इत्यादि तमाम प्रश्नों-जिज्ञासाओं से लैस बिना कोई तोहफ़ा लिए जब मैं पसू अस्पताल के गेट पर अचानक ग़ायब हुए लफ़त्तू का इन्तज़ार कर रहा था. लफ़त्तू कहीं से आया. उसके हाथ में बांसी कागज़ की दो थैलियां थीं. "ले एक तेली"

मैं थैली खोलने को हुआ तो उसने मुझे डांटा: "किती के बड्डे में खाली हात नईं दाते बेते. गिट्ट देते ऐं. मैंने पित्तल में देका ता. एक थैली तेला गिट्ट ऐ. अपनी भाबी ते कैना - हैप्पी बद्दे. थमदा बेते!" महापराक्रमी लफ़त्तू अपने पिताजी की जेब से कुछ नोट चुरा कर मेरी इज़्ज़त बचाने हेतु दो थैलियों में टॉफ़ियां भर कर बड्डे गिट्ट बना लाया था - मैं अहसान से दब गया.

बड्डे मनाने बहुत सारे लोग जमा थे. बहुत सारे बड़े. और बेशुमार बच्चे. गोबरकुटुम्ब एक मेज़ के एक तरफ़ खड़ा था. मेज़ पर केक, मोमबत्ती वगैरह धरे हुए थे. औरतें खुसफुस में और बच्चे चीखपुकार में व्यस्त थे. गोबर डाक्टर ने मुझे देखा तो अपने पास बुला लिया. और लफ़त्तू को भी. बहुत शर्म आ रही थी. बहुत ज़्यादा शर्म आ रही थी. लफ़त्तू का चेहरा शर्म से सुर्ख पड़ चुका था. यही मेरे चेहरे का रंग भी रहा होगा. हम दोनों की निगाहें ज़मीन से चिपकी हुई थीं जब अचानक सब ख़ामोश हुए फिर तालियां पिटीं और "हैप्पी बड्डेटुय्यू, हैप्पी बड्डेटुय्यू ..." हवा में तैरने लगा.

केक बंट रहा था. गमलू या कुच्चू, किसी एक ने हम पिटे आशिकों के हाथों में केक का लिथड़ा सा टुकड़ा थमा दिया था. हमारे हाथों में रखीं दरिद्र टॉफ़ी की थैलियां इतनी आउट ऑफ़ प्लेस महसूस हुईं कि वे अब जेबों में जा चुकी थीं. हरिया हकला जलडमरूमध्य बना हुआ पानी के जग और गिलास लिए "मानी ... मानी" कर रहा था. अचानक डोंगे लिए कुछ औरतें रसोई के भीतर से अवतरित हुईं और "लीजिए न, लीजिए न ..." के साथ डिनर शुरू हो गया.

यह सब भीषण द्रुत गति से हुआ.

महौल में चपचप की आवाज़ें भरना शुरू हुईं तब मैंने आसपास का डिटेल्ड जायज़ा लेना शुरू किया. लफ़त्तू के यहां हुई गीतों की संध्या के नायक मास्टर मुर्गादत्त, पंडित रामलायक निर्जन और दड़ी मास्साब एक गिरोह सा बनाए कमरे के एक कोने में खड़े होकर दूसरे कोने में खड़े गोबरडाक्टर को इशारा सा कर रहे थे जिसका मतलब था कि जो करना-कराना है, जल्दी कराओ, हम क्या यहां दही-भल्ले सूतने भर को आए हैं. मुटल्ली महिलाओं ने चाटेत्यादि की लूटखसोट मचा रखी थी. उनके बच्चे ज़मीन पर लोटे-रोते-खीझते कुछ भी कर रहे थे किन्तु वे निर्लिप्त थीं. चाट के उपलब्धतातिरेक ने उनकी नैसर्गिक प्रतिभा को भड़का दिया था.

इधर गमलू-कुच्चू हमारे नज़दीक आए. "कुछ खाओगे नहीं आप? अपने फ़्रेन्ड को भी खाने को बोलिये न! उस के बाद हम आपको अपने कमरे में बुक्स दिखाएंगे. जल्दी कीजिए. हम अभी आते हैं अपने रूम में जगह बना कर आते हैं."

अपना कमरा, रूम, बुक्स, आप, फ़्रेन्ड ... ये कैसे शब्द बोल कर डरा रही थीं हमें. लफ़त्तू के चेहरे पर पहली बार इत्मीनान आया दिखने लगा था. अधिकतर मेहमान खा-पी रहे थे सो आवाज़ें थोड़ा कम सी हो गई थीं. कोई दो-चार मिनट बाद स्कर्टधारिणी नायिकाएं हम तक पहुंची और "चलिए" कहकर हमें करीब करीब ठेलती हुईं अपने रूम में ले गईं.

रूम बहुत साफ़ सुथरा था. किताबें करीने से लगी हुई थीं. हम दोनों को कुर्सियों पर बिठाया जा चुका था. गमलू-कुच्चू बहुत उत्साह से हमें अपनी पसन्द की कॉमिक्स दिखाना शुरू कर चुकी थीं. कॉमिक्स में किसका मन लगना था. दिल का एक चोर कोना कहता था कि ये सम्भ्रान्त लड़कियां क्योंकर हरिया हकले से फंसने लगीं. लफ़त्तू के मुझे कोहनी से ठसका मारा और उनकी निगाह बचाकर मुझे आंख भी मारी. माल पट रहा है बेते! पकाए जाओ. भौत चान्स है अभी.

इधर नौटंकी में इन्टरवल वाला गाना चालू हुआ, उधर शराबमण्डल कमरे में प्रविष्ट होने की तैयारी कर रहा था. लफ़त्तू के चेहरे पर कमीनपन से भरपूर खुशी की आभा छा रही थी. दोनों लड़कियां उस से सट कर खड़ी थीं और मुझे मालूम था कि उसका दिल भीतर से गा रहा होगा:"...उहुं ... उहुं .. दान्त तत माई बादी ... उहुं ... उहुं ..."

मुर्गादत्त मास्टर के नेतृत्व में पेयदल ने कमरे में एन्ट्री ली और सबसे पीछे आए गोबरडाक्टर ने गमलू-कुच्चू से मुखातिब होकर आदेश दिया : "बेटा चलो, भैया लोगों को बिल्ली के बच्चे दिखाओ बाहर वाले बरामदे में ..."

Tuesday, January 20, 2009

मोम का ऐ तो मोमबत्ती बनाऊं थाले की

फ़ुच्ची के पापा की रेडीमेड कपड़ों की रेहड़ी एक रोज़ शहर में दिखनी बन्द क्या हुई कि लफ़त्तू अनन्त नोस्टैल्जिया में मुब्तिला हो गया. यह मनहूस बखत बहुत लम्बा खिंचा. मेरे मन में बौने के ठेले पर लिखित दोहे वाली उसकी प्रेमिका की असंख्य तस्वीरें बनती -बिगड़ती रहीं पर किसी भी तरह की लड़की की ठोस सूरत बना पाने में मेरा तसव्वुर नाकामयाब रहा. ये वही दिन थे जब गमलू और कुच्ची नाम्नी दो जुड़वां लड़कियां अपनी चर्चित नफ़ासत के कारण हमारी लौंडसुलभ क़स्बाई फ़ैन्टैसियों की नवनायिकाएं बना ही चाहती थीं.

अचानक किसी चमत्कार की तरह लफ़त्तू अपनी मनहूसियत से उबरा और उसने "झूम बराबर झूम शराबी" की पैरोडी "बाप छे जादा बेता हलामी" बना कर एक रोज़ क्रिकेट छत पर पेश की.

गोबर डाक्टर की ये बेटियां जब इकठ्ठे सुतली चोट्टे के नाम से मशहूर एक बूढ़े चाटवाले के ठेले पर से पानी के बताशे पैक करवा के ले जाती थीं तो वहां अपने पेट में चाट ठूंसती मुटल्ली स्त्रियों के पत्तल शर्माने लगते थे. ये दो लड़कियां उन से यह कहती नज़र आती थीं कि देखो भले सम्भ्रान्त घरों के लोग सब कुछ घर के भीतर करते हैं - चाहे वह पानी के बताशे खाने जैसा आमफ़हम और परम सार्वजनिक कृत्य के तौर पर स्वीकार कर लिया गया कर्म ही क्यों न हो.

सुतली चोट्टे का ठेला हमारे घर के बग़ल में रहने वाले हरिया हकले के साइड वाले छज्जे से लगता था. हर शाम. उसके पास एक पैट्रोमैक्स था और उसके यहां हर चीज़ बाज़ार से महंगी होती. हरिया हकले को फ़कत हकला कहना उसकी अन्य प्रतिभाओं का अपमान था. रामनगर के हमारे खताड़ी मोहल्ले में पानी बस शाम को आया करता था और तथाकथित बाथरूमों में सजे डामर के तीन-चार ड्रमों को इसी वक़्त भरा जाना होता था. पानी आते ही उस पर किसी जलडमरूमध्य में भटक रहे किसी पुरातन प्रेत की आत्मा एक्टिवेट हो जाती और वह जितने पड़ोसी घरॊं में सम्भव हो " ... मानी! ... मानी! ... मानी! ..." कहता पानी के आने की सूचना दे आता. हिन्दुस्तान के परिचित घरों में सूचित कर चुकने के बाद उसे " ... मानी! ... मानी! ... मानी! ..." कहते हुए पाकिस्तान निवासी जब्बार कबाड़ी की तरफ़ भागते उड़ते तैरते देखा जाता था.

पानी जाने वाला होता था जब सुतली चोट्टे के ठेले पर बहार आई होती थी. अपने घरों में ड्रमभरीकरण कर चुकने के बाद भरसक प्रेज़ेन्टेबल बन आई मुटल्ली स्त्रियां टिक्की, दही भल्ले, कचरी और पानी के बताशों पर हाथ साफ़ करने में तल्लीन रहा करती थीं जब हरिया हकला अपना पूरा ध्यान पानी की टोंटी से लगाए रखता और उसके सूंसूं करते ही तनिक भावपूर्ण उल्लास में कहा करता: "... मानी, मानी ... श्या..."

इधर गोबर डाक्टर की बेटियों को सुतली के बताशों की और हमें उन्हें ताड़ने की नैसर्गिक लत लग गई थी. हरिया हकला हमारे इस काम में एक अकल्पनीय बाधा बन कर आया. अक्सर जब वह "... मानी, मानी ... श्या..." कह रहा होता था कुच्चू-गमलू भी वहीं होते थे और वे दोनों स्कर्टधारी बच्चियां हरिया को देखकर यूं मुस्करातीं जैसे उन्हें ऐसी गुदगुदी कभी महसूस न हुई हो. हरिया सुतली से बच्चियों के घर ले जाया जाने वाला माल ले लेता और उनके घर की तरफ़ रवाना हो जाता. वह हाथों से इशारा भी करता जाता कि वे फ़िक्र न करें. हरिया हकला केवल तीन शब्द बोल पाता था जिन्हें ऊपर लिखा जा चुका है. इसके अलावा सारा संवाद वह अपने हाथों से किया करता.

मैं, लफ़त्तू, बन्टू और सत्तू ऊपर हरिया की छत से ताकीकरण में लगे रहते थे. उधर हकला गमलू-कुच्चू को "... मानी, मानी ... श्या..." कह कर रिझाया करता. करीब माह भर तक ऐसा चलता रहा. आख़िरकार एक दिन लफ़त्तू के सब्र का बांध टूट ही गया. एक वयस्क तोतली गाली दे कर उसने बहुत डिसाइसिव होकर कहा : " ये थाले हकले ने फांत लिया तुम थब की भाभी को!"

वाया फ़ुच्ची कप्तान भाभी-ज्ञान से मैं तो परिचित था पर बन्टू और सत्तू की समझ में कुछ ज़्यादा नहीं आया. बन्टू और सत्तू को वहीं छोड़ कर लफ़त्तू मुझे तकरीबन घसीटता हुआ बाहर सड़क पर ले गया. हरिया हकले द्वारा उन दो माडर्न लड़कियों में से एक को फंसा लिए जाने की लफ़त्तू की बात दो वजूहात से मेरे लिए जीवन का सबसे बड़ा सदमा थी. पहला तो यह कि कोई हकला किसी लड़की को क्या कहकर फंसा सकता है - पिक्चरों में तो सारे हीरो इसी काम में इन्टरवल तक का मामला निबटा दिया करते थे. दूसरा यह कि लफ़त्तू भी ... उफ़! यानी बाहर से इस कदर बदमाश दिखने वाला लफ़त्तू भी ...!

"यार लफ़त्तू, तेरा दिल तो मोम का है!" मैंने अभी अभी देखी गई किसी पिक्चर का आधा अधूरा वाक्यांश बोलने की कोशिश की.

"मोम का ऐ तो मोमबत्ती बनाऊं थाले की!" उसने किशमिश जैसा मुंह बनाया और बहुत ज़्यादा वयस्क गाली बकते हुए सड़क पर थूका. "हकले थे फंत गई कुत्तू!"

मेरा मन दहाड़ें मार कर रोने को हो रहा रहा था क्योंकि मैं ख़ुद उन में से पता नहीं किसी एक की मोहब्बत में गिरफ़्तार था. मोहब्बत तो मधुबाला से भी थी और सकीना से भी मगर उन स्कर्टधारिणियों का आसिक बनने का ख़्वाब इधर कुछ दिनों से विकल किये हुए था. तकलीफ़ ये थी कि वे दोनों बहुत ज़्यादा जुड़वां थीं. हमेशा एक से कपड़े पहनतीं एक से बस्ते लेकर स्कूल जातीं और उनकी आवाज़ भी एक सी लगती थी जब वे अपने मां बाप को "मम्मा ... पापू ..." कह कर पुकारा करतीं ...


(जारी ...)