Thursday, May 19, 2016

चुस्सू, दोतीनपांच और गंगा की सौगंध

लफत्तू की तबीयत सुधर रही थी और उसके परिवार के साथ उसके रिश्ते भी. यहाँ तक कि उसका जल्लाद भाई भी यदा-कदा उसकी मिजाजपुर्सी में लगा दिख जाया करता. मुझे और पूरे मित्रमंडल को उसके घर पर हिकारत से नहीं बल्कि बहुत सम्मान के साथ देखा जाने लगा था और हमें वहां कभी भी जाने की छूट मिल गयी थी. हम दिन भर लफत्तू के बिस्तर को अपना खेल का मैदान बनाए रखते – लूडोसांपसीढ़ीकैरमबोट जैसे सदाबहार खेलों के साथ-साथ उसके भाई ने हमें ताश की अब तक हमारे लिए वर्जित गड्डी के साथ जोड़पत्ती और पद जैसे खेल सिखा दिए. जोड़पत्ती बहुत बचकाना खेल था जबकि पद में सामने वाले को पूरी तरह चिलमनग्न बना देने का आकर्षण उसे एक महान खेल बनाता था. पद से चट चुकने के बाद हमने कोटपीस और दहल-पकड़ नामक राष्ट्रीय ख्याति के खेल भी सीख लिए जबकि रमी जैसे क्लासिक खेल के रामनगरीय संस्करण – चुस्सू – तक पहुँचने में हमें उसके बाद फ़क़त एक सप्ताह लगा और उसे बाकायदा जुए की सूरत देने में लफत्तू को चौबीस घन्टे.

चुस्सू के खेल में खिलाड़ियों की संख्या के मुताबिक़ नौ से लेकर सत्रह पत्ते हरेक खिलाड़ी के हिस्से आते और उन्हीं के हिसाब से तीन-तीन पत्तों के तीन से लेकर पांच हाथ बनाने होते थे. यह खासा चुनौतीपूर्ण खेल था और उसे खेलने में बहुत दिमाग लगाना पड़ता था. लफत्तू लेटा-लेटा कमेंट्री करता रहता और बेबात ठहाके मारा करता. अपने सबसे नज़दीक बैठे खिलाड़ी के लिए वह सलाहकार का काम भी करता था और दो ही दिनों में यह मान लिया गया कि उसकी बगल में बैठा खिलाड़ी हार ही नहीं सकता. हार जाने पर जगुवा पौंक रुआंसा हो जाता और लफत्तू पर बेमांटी करने का झूठा इलज़ाम लगाता. लफत्तू की तरह ही फुच्ची भी खेल को नहीं खेलता था. वह अपने शाश्वत कुटैव अर्थात कप्तानी करने की आदत से बाज़ नहीं आता था और अपने को लफत्तू के सामने बैठे दोस्तों की टीम का कप्तान बना लेता और बारी-बारी से सबके पत्ते देखा करता. तीसरे दिन ही लफत्तू ने आइडिया दिया कि क्यों न इस खेल के स्कोर बाकायदा कापी में लिखे जाएं ताकि हार-जीत का सही-सही पता चल सके. लफत्तू ने स्वयं ही स्कोरर का पद भी सम्हाल लिया और पहली शाम खेल ख़त्म होने पर जो नतीजा सामने आया उसके हिसाब से मुन्ना खुड्डी मुझ से तीन हाथ और जगुवा से सात हाथ आगे थाबंटू खेल के बीच में ही किसी बात पर खफा होकर अपने घर चला गया था.

लफत्तू ने अपने घायल हाथ वाली कोहनी को मुन्ना खुड्डी की कमर में खुभोते हुए चुहल की – “आत्तो भौत तीनदोपांत बना ला थे बे.
चुस्सू के स्थानीय नियमानुसार पत्तों के क्रम में सबसे ऊपर ट्रेल होती थी. ट्रेल के बाद दूसरे नंबर पर तीन दो पांच का नंबर आता था. यह तीन दो पांच टॉप यानी इक्का बाश्शा बेगम से भी बड़ा होता था. इक्का बाश्शा गुलाम को टिमटॉम कहते थे जबकि इक्का बेगम गुलाम को सिमसॉम. इक्का नहल दहल को लंगड़ी माना जाता था और इक्का दुग्गी तिग्गी को सबसे छोटी रन. ईंट की दुग्गी के बदले जोकर वाला पत्ता उठाया जा सकता था और सारे पत्ते जीतने पर फाड़ मानी जाती थी. किसी एक पत्ते के चारों रंग जैसे  चार सत्ते या चार पंजे आ जाने को चौरेल कहते थे. फाड़ और चौरेल करने वाले को विशिष्ट इनामात और सुविधाएं दिए जाने का प्रचलन था. सारे चव्वों को साहजी कहा जाता था जबकि चिड़ी के चव्वे को बिशम्भर साहजी के नाम से संबोधित कर विशिष्ट सम्मान दिया जाता. चिड़ी का गुलाम पद्मादत्त कहलाता था जबकि पान की बेगम हेलन. पान की बेगम का नाम हेलन से बदलकर मालासिन्ना रख दिया गया. दो तीन पांच के स्टेटस को लेकर अक्सर बंटू भड़क जाता था. उसके हिसाब से उसके इंग्लैण्ड-निवासी मामा ही इस खेल के जनक थे और वे दो चार पांच को ट्रेल के बाद मानते थे.

बंटू के मामा का नाम जब-जब आता लफत्तू बड़ी हिकारत से उसे देखता हुआ कहता – “तेला मामा गया बेते बित्तोलिया के यहाँ झालू लगाने. गब्बल के यहाँ खेलना ऐ तो गब्बल का ई लूल मानना पलेगा. बत्तों की तले लो मत बेते. खेलना ऐ तो खेल बलना लामनगल के धाम पे कू निकल्ले.” वह थोरी मास्साब की बढ़िया नक़ल बना लेता था. रामनगर के धामों का ज़िक्र चलने पर हम सब थोरी मास्साब की इकठ्ठे नक़ल बनाने लगते – “और रामनगर के चार धाम सुन लो बे! इस तरफ़ कू खताड़ी और उस तरफ़ कू लखुवा. तीसरा धाम हैगा भवानीगंज और सबसे बड़ा धाम हैगा कोसी डाम.” हमारी समवेत हंसी फूटने को ही होती कि लफत्तू जोर से चेताता - "औल जो थुत्ला तिवाली मात्ताब की नजल में इन चाल धाम पल आ गयाउतको व्हंईं थलक पे जिन्दा गाल के लात्ता हुवां से बना दूंवां ..." बंटू रुआंसा पड़ जाता और हम सब बेकाबू होकर अपने पेट थामे हंसी से दोहरे हो जाते.

खैर मुन्ना खुड्डी उस दिन मुझसे तीन हाथ से जीता था और लफत्तू ने तय किया कि अगले दिन का खेल मुन्ना के पक्ष में क्रमशः तीन और सात हाथ के एडवान्टेज से शुरू होगा और गर्मी की छुट्टियां ख़तम होने तक हर रोज़ का स्कोर इसी तरह लिख कर अन्त में चुस्सू चैम्पियन को उचित पारितोषिक दिया जाएगा. पारितोषिक की बाबत कोई ठोस सूरत पेश न किये जाने पर खुड्डी उखड़ गया और बोला – “मने जीतने वाले को पतई नहीं कि उसने क्या जीता. ये तो बेमांटी है.” बात सही थी. लफत्तू ने कुछ देर सोचा और तय किया कि चार हाथ को एक बमपकौड़े के बाराबर माना जाएगा. यानी छुट्टी ख़त्म होने पर अगर कोई चालीस हाथ से आगे रहता है तो उसे दस बमपकौड़ों का इनाम मिलेगा. यह एक ललचाने वाला प्रोस्पेक्ट था जिसके नतीजे में हम सब उन गर्मियों में चुस्सू में इतने पारंगत हो गए थे कि उसके बाद दीवाली वगैरह के टाइम बड़ों के असली यानी जुए वाले चुस्सू में खिलाड़ी कम हो जाने पर हम में से किसी को भी सुविधा के मुताबिक़ ससम्मान तलब कर लिया जाता और हमारे पैसे भी भरे जाते.  

चुस्सू की बमपकौड़ा ट्रॉफी की डीटेल्स तय हो जाने पर लफत्तू बोला – “वो कां ग्या थाला तीनदोपांत?”

मैंने नासमझी में उसकी तरफ देखा तो उसने अपनी आँख को चौथाई दबाते हुए कमीनगी के साथ कहा – “बोई तेला इंग्लैंदिया मुग्लेआदम. ऑल कौन.

इस तरह मई-जून के उन गर्म महीनों के एक ऐतिहासिक दिन बंटू के दो-दो नामकरण किये गए. उसके बाद से उसे इंग्लैडिया मुग्लेआजम और तीनदोपांच के अलावा किसी और नाम से नहीं पुकारा गया. तीनदोपांच का नाम उस पर बुरी तरह फबता भी था क्योंकि उसका कद हम सब में छोटा था और अपनी शातिर हरामियत के चलते वह बड़े-बड़े इक्के बाश्शे बेगमों को उल्लू बना सकने में पारंगत था और मैंने गौर किया कि वह दीखता भी तीन दो पांच जैसा ही था.

बनवारी मधुवन पिक्चर हॉल से आगे थोड़ी सी उतराई थी जिसके बाद कोसी डाम से आने वाली नहर मिलती थी. नहर के ऊपर एक चौड़ी पुलिया थी जिस पर हमें लफत्तू ने बिना गाड़ी की गाड़ी चलाना सिखा रखा था. इस कार्यक्रम के लिए आपको पुलिया के किनारे पर लगी रेलिंग से लग खड़े हो कर अपनी निगाहों को बहते पानी पर एकटक लगा देना होता था. थोड़ी देर में पुलिया गाड़ी बन जाती थी और आप रफ़्तार के मज़े ले सकते थे. गाड़ी की रफ्तार डाम से उस दिन छोड़े गए पानी की मात्रा पर निर्भर करती थी. कम पानी छोड़े जाने पर रफ़्तार बढ़ जाती थी क्योंकि नहर में पानी का स्तर छिछला होता था और उसकी रफ़्तार ज्यादा. जिस दिन लबालब पानी छोड़ा गया होतानहर पुलिया कि तकरीबन छूती हुई बह रही होती और ऐसे में मंद-मंद रफ़्तार पर गाड़ी चलाना एक दिव्य अनुभव होता था. लफतू ने हमें उस उम्र में मेडिटेशन करते हुए गाड़ी चलाना सिखा दिया था जब किसी के पास गाड़ी होने को विस्मय और तनिक ईर्ष्या के साथ देखा जाता था. पुलिया और उसके नीचे बहने वाली नहर हम सब की गाड़ी थी जिसे उस दिन चलाता हुआ मैं मुन्ना खुड्डी की प्रतीक्षा कर रहा था. हमने दिन भर लफत्तू के घर मौज की थी और शाम के सामय मुन्ना ने मुझसे एक नई जगह दिखाने का वायदा किया था.

मेरे घर से यह पुलिया काफी आगे पड़ती थी और मैं पहली बार इतनी दूर अकेला आया था.

गाड़ी का भरपूर लुत्फ़ उठा चुकने के बाद मैंने आँखें उठाकर बनवारी मधुवन की तरफ देखा तो बड़ा टायर चलाता मुन्ना खुड्डी तेज़-तेज़ आता दिखा. उसके हाथ में लकड़ी का छोटा सा अटल्ला था जिसे वह एक्सीलेटर की तरह इस्तेमाल कर रहा था. टायर चलाने के बारे में मैंने कभी सोचा नहीं था क्योंकि वह रतीपइयां के मुकाबले बहुत गंवार और घामड़ लगा करता था लेकिन जिस कौशल के साथ मुन्ना खुड्डी टायर का संचालन कर रहा थामुझे वह थोड़ा आकर्षक लगा.

बहुत नक्शेबाजी और अदा के साथ टायर को मेरे नज़दीक लाकर तीन-चार बार टेढ़ा घुमाने के बाद वह स्थिर हुआ तो बहुत देशी टाइप के अंदाज़ में बोला – “और गुरुमजा?”

मैं भी उसी स्टाइल में बोला – “हां गुरुमजा. मने भौते मजा.

मुन्ना मुझसे लिपटने को सा हुआ पर उसकी गंदी बनियान देखकर मैं थोड़ा पीछे हट गया. उसने बुरा नहीं माना. हमने पुलिया पार की और नहर की बगल वाली मुख्य चौड़ी सड़क पर आ गए. मैं सड़क पर पहुँचते ही डाम की दिशा में जाने को हुआ तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोला – “गुरुउधर नहींइधर ... इधर.

उधर मतलब पाकिस्तानियों के बगीचे में! मेरी फूंक सरक गयी.

अरेआप मने डरिये मत. हम आपको वहां थोड़े ही ले जा रहे हैं. आप डरते बहुत हैं.” वह अपनी सुपरिचित टेरिटरी में ले जाने की धौंस से मुझे आतंकित करने का प्रयास कर रहा था. डाम की और जाने के बजाय हम थोड़ी दूर तक उल्टी दिशा में भवानीगंज की तरफ चले और बाईं तरफ नहर की उल्टी तरफ सीढियां आने पर नीचे उतर गए. ऊपर सड़क से यह हिस्सा नज़र नहीं आता था. बीसेक सीढ़ी उतरने के बाद एक रौखड़नुमा मैदान आया. बाँध का गेट बंद था और सारा पानी नहर में छोड़े जाने के कारण रौखड़ से थोड़ी दूरी पर नदी की दुबली सी धारा बह रही थी. धारा के थोड़ा सा आगे एक ऊंचा सा टीला था. मुन्ना ने मुझे अपने पीछे आने का संकेत किया और उसी पतली धारा की तरफ बढ़ने लगा. उसने अपना टायर शिवजी के सांप की तरह गले में डाल लिया था और अपने धारीदार पजामे के पांयचे आधी जाँघों तक खींच लिए थे. हाफपैंट और पौलिएस्टर की कमीज़ पहने बाबूसाहब बना हुआ मैं उसके पीछे चल रहा था. मुन्ना की देह थोड़ी बेडौल थी -  उसके कूल्हे उसकी मरगिल्ली टांगों के अनुपात के हिसाब से काफी स्थूल थे और उसकी चाल में एक नैसर्गिक लेकिन भौंडी लचक थी.

मैंने पलटकर देखा – नहर वाली सड़क काफी पीछे जा चुकी थी जिनमें इक्का-दुक्का लोग टहलते दिखाई दे रहे थे.  बाईं तरफ निगाह डालने पर ज्याउल के घर वाली कॉलोनी की छतें नज़र आ रही थीं और उनकी और बाईं तरफ डाम. मेरे सामने रूखी पथरीली ज़मीन थी और मैं मुन्ना खुड्डी के नेतृत्व में कहीं जा रहा था. मुझे अचानक डर लगना शुरू हुआ और शर्म भी आने लगी कि मैं कल ही रामनगर आये इस छोकरे के कहने पर अनजान जगह पर जा रहा हूँ. घर में इस बाबत पूछे जाने पर मैं क्या उत्तर दूंगा – इस सवाल से भी मुझे भय लग रहा था. मैं ठिठक गया मगर जब मुन्ना ने मुझे रुका हुआ देखकर अपनी दो उँगलियों से मुझे अपमानित करने की कोशिश करता परिचित रामनगरी इशारा कियामैंने फैसला कर लिया कि चाहे जो होखुड्डी से पहले टीले तक पहुँच जाऊंगा. आगे जो होगा देखा जाएगा.

मैंने अपनी चप्पलें हाथों में थामे और धारा की तरफ दौड़ चला. मैं मुन्ना के पास पहुंचा तो उसने भी दौड़ना शुरू कर दिया. धारा में बस टखनों की ऊंचाई तक का बहुत शीतल पानी था जिसे पार करने में हमें कोई आधा मिनट लगा. अब हम दोनों हंस रहे थे और धारा के उस तरफ थे. टीले की जड़ हमारे सामने थी. एक ठूंठनुमा पेड़ के तने के निचले हिस्से पर किसी ने काजल जैसी कोई चीज़ पोत दी थी. नियमित रूप से धूप-अगरबत्तियां जलाए जाने के अवशेष और दर्ज़नों हुक्केचिलमें और मिट्टी की बहुत छोटी सुराहियाँ इधर-उधर बिखरी हुई थीं. यह थोड़ा आकर्षक और पर्याप्त रहस्यमय माहौल था. नाटकीय अंदाज़ में मुन्ना ने पेड़ के तने पर लगे काजल पर अपना काला अंगूठा फिराया और उससे लगी कालिख को अपने काले ही माथे पर किसी टीके की तरह लगा लिया. वह अजीब हौकलेट नज़र आने लगा था. उसकी देहभाषा अचानक बदली और वह पास में ही पड़े एक बड़े से पत्थर पर जांघ पर जांघ धरे उसी तरह बैठ गया लिस तरह लफत्तू रामलीला में रावण का पाट खेलता ढाबू की छत पर बैठा करता था.

चम्बल क्या करने आये हो ठाकुरये जीवा का इलाका है! जीवा ने गंगा की सौगंध खाई है कि जसवंत सिंह की बोटी-बोटी चील-कौवों को खिला कर ही अपनी माँ का बदला लेगा.

मुन्ना खुड्डी लुफ्त की मौज के चरम पर आकर किसी पिक्चर के डायलॉग की कॉपी कर रहा है - इतना तो समझ में आया पर यह पता नहीं चला कि किस पिक्चर की.

मैंने आपका नमक खाया है मालिक!” और गोली खाने का इंतज़ार करता हुआ मैं गब्बर का नालायक-निखिद्द डाकू बन गया.

खुड्डी पाए से उखड़ता बोला – “मने आप रामनगर वाले हर बात में गब्बर सिंह को पेल देते हैं. हम अमीताबच्चन का डायलॉग कह रहे हैं तो आपको चाहिए कि आप पराण नहीं तो कम से कम शेट्टिया तो बन ही न सकते हैं. हैं मने ...

अपने को रामनगर वालों से श्रेष्ठ समझने की उसकी इस फौंस पर मैंने उससे वापस लौटने की बात करना शुरू कर दिया. इस पर गब्बर और शेट्टी की बात तुरन्त  भुलाकर वह मेरा हाथ थामे टीले के उस पार लेकर गया.

एक पथरीला मैदान था जो टीले की बनावट के कारण किसी भी और जगह से नज़र नहीं आता था. मैदान पर डाम बनाते समय की बची खुची सामग्री बिखरी पड़ी थी – खस्ता हो चुकीं पत्थर ढोने वाली दसियों छोटी-छोटी दुपहिया गाड़ियांसीढ़ियाँसीमेंट के विशालकाय चौकोर स्लैब और सीमेंट की परत लगी बाल्टियाँ और भी जाने क्या-क्या.    

ये है हमारा चम्बल गुरु. यहीं ठोका था टुन्ना झर्री ने उनको. तब से यहाँ आने की अपने अलावा किसी की हिम्मत नहीं होती.” उंगली की कैंची बनाकर आँख मारते मुन्ना ने कहा.

मैंने ढंग से जगह का मुआयना किया. जगह अद्भुत गलैमर से भरपूर थी. शोले के गब्बर के अड्डे से किसी भी सूरत में कम नहीं. लेकिन देर हो रही थी. मुझे शाम ढलने से पहले घर पहुंचना होता था – यह बात मुन्ना को भी मालूम थी. जल्द ही फिर सारी टीम के साथ यहाँ आने की योजना बनाते हम वापस लौटे. बनवारी मधुवन तक आते-आते मुन्ना खुड्डी ने मुझे हिमालय में लगी नई पिक्चर ‘गंगा की सौगंध’ की पूरी कहानी सुना दी थी.  

कल सुबे चलते देखने यार मुन्ना. पैसे नहीं हैं मगर मेरे पास.” – मुझे बौने के चालीस पैसे के उधार की बात भी याद थी.

अरे पैसे की अपन को कब कमी हुई उस्ताद! ... चलिए थोड़ा सा काम निबटा लेटे हैं घर जाने से पहले पंडिज्जी!” मुन्ना मुझे ठेलते हुए दाईं तरफ कटने वाली गली में घुस गया. एक चहारदीवारी के अन्दर गेरुवा पुते हुए बरगद के पेड़ को देखते ही मालूम पड़ जाता था कि वह कोई मंदिर है. मैंने इस वाले मंदिर को पहले कभी नहीं देखा था.

मुन्ना और मैं मंदिर के अहाते में थे. एक छोटे से मकाननुमा मंदिर के अहाते में घुटने टेढ़े किये हुए अधलेटा एक दढ़ियल बुड्ढा बांस का बना पंखा झल रहा था. गेरुवा कपड़े धारे एक बूढ़ी अम्मा बर्तन मांज रही थी. जहाँ-तहां घन्टे टंगे हुए थे. बाहर खुले बरामदे में बरगद के पेड़ के नीचे खूब कालिख और तेल-सनी गाद दिखती थी जिसके बीचोबीच एक दिया जल रहा था.

मुन्ना उस जगह के जुगराफिए से परिचित था. वह सीधा बुढ्ढे के पास गया और उसके पैर छूकर बोला – “पांय लागी बाबाजी.” वहां से उड़ता हुआ सा वह बर्तन धोती माई के पास पहुंचा और वहां भी उसने पांयलागी किया और बुढ़िया को माई कहकर पुकारा. सेकेण्ड से पहले वह फिर से बुढ्ढे के पास था. मैं वहीं चहारदीवारी के पास ठिठका खड़ा था. मैं हैरान था कि बुढ्ढे-बुढ़िया ने अब तक मुझे देखकर कोई प्रतिक्रया नहीं दी थी.

बैठो भगत! बहुत दिनों बाद आये भगत! जय जय गर्जिया माता! जय भोले! जय बम! बम बम! जय जय! हरिओम हरिओम ... ” ऊटपटांग बातें कहताडकार लेटा बुढ्ढा अपने हाथों से जिस तरह सामने की ज़मीन टटोल रहा था मुझे तुरंत पता चल गया कि वह अंधा है. यही बात मैंने बुढ़िया को गौर से ताड़ते ही समझ ली. वह भी अंधी थी. बाबा मुन्ना के सर पर हाथ रखकर उसे आशीष देता और डकारें लेता जाता था. बुढ़िया भी अब तक वहां आ  चुकी थी और मुन्ना पर लाड़ से हाथ फेर रहे थी.

पांचेक मिनट बाद “घर पर परसाद दे देना भगत!” कहते हुए बुढ्ढे ने अपने सर के नीचे धरी पोटली की गाँठ खोलकर उसमें से थोड़े से परवल के दाने और गुड़ का एक टुकड़ा निकालकर मुन्ना के हाथ में थमा दिए. “अब घर जाओ भगतसंध्या की वेला हो गयी!

मैं तब तक बरगद की छाँह में आ गया था. मैंने चोर निगाह से पेड़ के तले रखे दिए के नीचे पड़े कुछ सिक्के ताड़ लिए थे. लेकिन वह भगवानजी का घर था.

मुन्ना ने सधे हुए तरीके से दुबारा चरण-स्पर्श कार्यक्रम किया और मेरे पास आ गया. बिजली की फुर्ती से उसने वे सारे सिक्के अपनी नन्ही हथेली में दबोचे और कुशल चोर की तत्परता से मंदिर कॉम्प्लेक्स से बाहर निकल गया.  

बाहर निकला तो भगवान जी घर में किये गए पाप में ट्वेंटी परसेंट की हिस्सेदारी कर चुकने के अपराध की वजह से मेरी घिग्घी बंधी हुई थी. मुन्ना की अलबत्ता बत्तीसी खिली हुई थी और वह सिक्के गिन रहा था – “गंगा मैया की सौगंधआज खजाना लूट लिया जीवा ने! 

Wednesday, May 18, 2016

भोर सुहानी चंचल बालक और जैहनूमान

लफ़त्तू अब भी मुरादाबाद में भर्ती था और उसकी सलामती की बाबत न लालसिंह के पास कोई सूचना थी न फ़ुच्ची के पास. मेरी बहनें लफ़त्तू की बहनों की दोस्त थीं और उनसे कुछ पूछना मुझे गवारा न था क्योंकि लफ़त्तू को हमारे घर पर बहुत बड़ा चोट्टा समझा जाता था. जब-तब उसके पापा गांठ-लगा थैला किए मुरादाबाद जाने वाली बस के इन्तज़ार में बस अड्डे पर खड़े नज़र आते और मेरा कलेजा गले में किसी फांस की तरह अटक जाया करता. कायपद्दातैराकीबैटमिन्डल और क्रिकेट वगैरह सारी गतिविधियों पर विराम लग चुका था और मेरा मन लगातार किसी आसन्न बुरी ख़बर से कांपा करता.

गर्मियां आया चाहती थीं और लम्बी छुट्टियां भी. गर्मियों का मतलब होता था जुल्मी की बक्से वाले वाली कुल्फीलाला की पिस्ते वाली लस्सीपोदीने वाला गन्ने का रसआमतरबूजलम्बी दोपहरियाँ और घर आने वाले मेहमानों की बाढ़ का बंद हो जाना. मेरे घर पर जाड़ों भर रिश्तेदार-मेहमानों का तांता लगा रहता जो पता नहीं कहाँ-कहाँ से आकर हमारे घर के अलग-अलग कमरों में अपनी-अपनी सुविधा के हिसाब से नत्थी होते रहते थे – चूंकि घर से नेरा ताल्लुक सिर्फ खाने और सोने तक महदूद हुआ करता थाइन अतिथियों के समय-समय आते रहने से मुझे बहुत दिक्कत नहीं होती थी. बस माँ और बहनों को बुरादे की अंगीठी के सामने बैठे-बैठे हर रात एक करोड़ रोटियाँ बेलते-सेंकते देखना मुझे नहीं भाता था.

हमारे एक दद्दा थे जिनकी खुराक अड़तीस-चालीस रोटी की हुआ करती थीएक चचा कहीं से आते थे और बड़े भाई को अहर्निश बस त्रिकोण-वर्ग-आयत कराते रहते थेएक मामू थे जिनकी पीठ सदैव फोड़े-फुंसियों की कॉलोनी बनी रहती थी जिनके इलाज के लिए वे हर साल हफ्ता-दस दिन रामनगर के हर डाक्टर-वैद्य-हकीम के दर पर सवाली बने रहने के उपरान्त थैला भर ट्यूबेंलेपगोलियांकाढ़े वगैरह लेकर वापस अपने घर जाते थेबाबू के बचपन के एक दोस्त थे जो हर होली से हफ्ते भर पहले घर के बैठकखाने पर पड़े तखत को अपना अड्डा बना लेते – इस तखत पर वे दिन भर अधमरे पड़े-लेटे रहते लेकिन शाम होने से लेकर सोने तक उनके भीतर पता नहीं कहाँ से के. एल. सहगल की आत्मा घुस जाती और वे अपनी तनिक नक्कू और अचारी आवाज़ में ‘भोर सुहानी चंचल बालक’ और ‘एक राजे का बेटा’ जैसे सड़ियल क्लासिक गाने गाते रहते. पिताजी वक्त पर घर आ चुके होते तो उनके साथ बैठे ‘वाह साब’ का जाप करते अपनी फाइलें निपटाते रहते वरना सहगल साब खुली खिड़की से बाहर बस अड्डे-खेल मैदान और आटे की चक्की का विहंगम दृश्य देखते ‘प्रीतम आन मिलो’ करते रहते. इस दौरान उन्हें लगातार पानी सी सप्लाई करते रहना होती थी क्योंकि उन्हें पानी की प्यास केवल शाम के बाद से लगना शुरू होती थी. स्टील के बिना हैंडल वाले जग में भर-भर कर पानी उन तक पहुंचाने की जिम्मेदारी बड़े भाई की हुआ करती. लफत्तू उन्हें लगातार तखत पर बैठे देखता तो अपने पापा से सीखी हुई एक कविता फुसफुसाकर बेकाबू हंसता हुआ दोहरा हो जाया करता था-

आइये हुजूर
खाइए खजूर
बैठिये तखत पर
पादिये बखत पर

एक बाबाजी आते थे जिनके आने पर हमें अपनी अंग्रेज़ी ग्रामर की किताबें निकाल कर उनके सामने बैठ जाना होता था. वे घंटों हमें आई एन जी लगाने के नुस्खे सिखाया करते और टाफियां देते जाते. वे कभी-कभार बांसुरी निकाल लेते और उससे कुत्ते के रोने की जैसी आवाजें निकाला करते और हमसे साथ-साथ ‘गोपालागोपाला’ गाने को कहते. टाफी और बांसुरी के इस बेढब सामंजस्य का आकर्षण एक बार लफत्तू को भी मेरे घर बाकायदा कापी-किताब समेत लेकर आया लेकिन उसी शाम को कायापद्दा खेलते हुए उसने बाबाजी को हॉकलेट घोषित करते हुए मुझे चेताया कि बुढ्ढा बाबा हमारे घर पर डकैती डालने की योजना बना रहा है. 

लफत्तू का बीमार होकर यूं मेरे संसार से मुरादाबाद चले जाना बहुत कचोटा करता और उसके बिना रामनगर की हर शै आकर्षणविहीन हो गयी थी. फुच्ची ने मेरे घर पर आकर मुझे अपने साथ ले जाने को कुछ दिनों से नियम बना लिया था. मैं उसके साथ केवल इस वजह से चला जाया करता कि उसके पास पैसे होते थे और मौका-बेमौका गम गलत करने को वह बमपकौड़ा खिलवा दिया करता था. लफत्तू के घर के सामने वाले मकान में नए किरायेदार आ गए थे जिनकी कॉलेजगामिनी मुटल्ली लड़की का नाम फुच्ची ने प्रत्यक्ष कारणों से जीनातमान रख दिया था.

इस मुटल्ली जीनातमान की दोस्ती रामनगर आते ही उसके घर के सामने वाले पप्पी मांटेसरी स्कूल वाली मेरी और फुच्ची की पुरानी लौ अर्थात मधुबाला मास्टरानी से ही गयी थी और ये दोनों हीरोइनें यदा-कदा साथ-साथ जुल्मी के बक्से की कुल्फी खातींफिक्क-फिक्क हंसतीं अपने दुपट्टे संभालतीं नज़र आ जाया करतीं. फुच्ची मुझे हर शाम लफत्तू के घर के सामने से होकर ही कहीं ले जाया करता. कई बार तो एक ही शाम हम उसके सामने से छः-सात बार तक गुज़रा करते. फुच्ची को जीनातमान में न जाने क्या नज़र आता था कि लार टपकाता वह उसके घर की तरफ इतनी बार देखने की नीयत से उसी रास्ते पर से गुज़रता हुआ भी बोर नहीं होता था. एक दिन जब हम साह जी की चक्की से फुच्ची के घर का आटा पिसवा कर लौट रहे थेचौराहे के उस तरफ हाथीखाने की तरफ से जीनातमान और मधुबाला आती नज़र आईं . उनके आगे-आगे हाथी चल रहा था.  फुच्ची ने धप से आटे का थैला नीचे धरा और मेरा हाथ थामकर हाथीखाने की राह लग लिया. हाथी हमसे करीब बीस मीटर दूर था और उसकी टांगों के बीच से दोनों हीरोइनों को देखा जा सकता था. वे बेमतलब मटकती हुईं ,गपियाती हमारी तरफ को आ रही थीं. मैंने एक निगाह फुच्ची के चेहरे पर डाली तो पाया कि उसकी वाकई में लार टपक रही थी. मुझे हंसी आने को हुई कि हाथी अचानक  रुका और उसने बीच सड़क पर ढेर सारा गोबर कर दिया. फुच्ची का सारा रोमांस हाथी के गोबर ने गोबर बना दिया और अचानक हुए इस सार्वजनिक गजगोबरीकरण से हकबकाया नायिकाद्वय अपने होंठों को दुपट्टे से ढांपता वहीं बगल में रहनेवाले पुरिया चोर के घर घुस गया.

नसीम अंजुम का मेरे और मेरी बहनों की जिंदगानियों में आना किसी तिलिस्म की तरह घटा. उसके पापा जंगलात के बहुत बड़े अफसर थे और लखीमपुर से हमारे पड़ोस में हाल ही में शिफ्ट हुए थे. नसीम अंजुम मेरी मंझली बहन की क्लास में पढ़ती थी और हमारे घर पहली बार आने के पंद्रह मिनट के भीतर ही उसने अपनी ठसकेदार भाषा और मुस्कान से घर के हर सदस्य को अपना बना लिया था. वह खुद को कभी भी केवल नसीम कहकर नहीं बल्कि नसीम अंजुम कहकर संबोधित करती थी और अपने बारे में इस तरह बोलती थी जैसे वह खुद कोई और हो – “तो आन्टी अम्मी ने हमसे कहा कि नसीम अंजुम आपका दिमाग खराब हो गया है. अब नसीम अंजुम किसी को कैसे बताएं कि हुआ क्या था. आप ही बताइये आन्टी घर पर जब कोई मेहमान आया हो तो उसे बिना कुछ खिलाये-पिलाए कैसे जाने दे सकते हैं. तो अम्मी घर पे थी नहीं और हमने जोशी अंकल को चाय के साथ वो रात वाले समोसे गरम करके परोसने की ठान ली. अब नसीम अंजुम को क्या पता कि बिजली का हीटर कैसे चलता है. बस लग गया करंट. ये देखिये कित्ता तो बड़ा दाग लगा था.” ऐसा कहकर उसने अपनी नन्हीं सी कलाई को उघाड़कर लखीमपुर में तीन साल पहले लगे करंट के निशान को उरियां किया. “तो जब नसीम अंजुम अब्बू के साथ अस्पताल से वापस घर पहुँचीं तो अम्मी बोलीं नसीम अंजुम आपका दिमाग खराब हो गया है. बताइये ऐसे कोई बोलता है आन्टीतो नसीम अंजुम ने फैसला किया ...” खिलखिलाती हुई वह बकबक करती जाती थी और सामने रखे बिस्कुटों को एक के ऊपर एक रखकर पहले कुतुबमीनार सी बनाती फिर गिराती जाती. उसकी पतली-पतली सुन्दर उँगलियों में से एक पर लगी चमचम करती छोटी सी अंगूठी के नगीने पर जब-जब शाम की धूप सीधी पड़ जातीउसकी नाक के नुकीले छोर पर पर सतरंगी दिपदिप झलमलाने लगती. वह उस वक़्त मुझे अप्रतिम सुन्दर लगी लेकिन बाहर से फुच्ची का “बीयो ... ओ ... ओ ... ई ...” वाला आमंत्रण संकेत दूसरी दफ़ा आते ही मुझे निकलना पड़ा.

फुच्ची के कोयला चेहरे पर पसीने की मोटी-मोटी बूँदें थीं और वह काफी उत्तेजित और व्यग्र लगता था. वह मुझे देखते ही सीधा लालसिंह की दुकान की दिशा में बढ़ चला. पीछे-पीछे मैं पहुंचा तो लालसिंह पहले से ही बाहर खड़ा होकर बस अड्डे की तरफ निगाहें गड़ाए थे. मैंने भी उस तरफ देखा. पहलवान के ठेले पर लफत्तू के माँ-बाप लाल कम्बल में लपेटे लफत्तू को लिटा रहे थे.

मेरे ख़याल से लफत्तू लिकल्लिया!” लालसिंह ने बेहद खतरनाक आवाज़ निकालते हुए थूक गटका.

क्या मतलब बे!” यह फुच्ची था.

मेरी ईजा को भी बाबू ऐसे ही लाये थे मुरादाबाद से.

तेरी ईजा तो बुढ्ढी थी बे. लफत्तू ऐसे कैसे ...

वही तो मैं कह रहा हूँ फुच्चन बेटे. देख कम्बल ज़रा भी हिल नहीं रहा. गया लफत्तू ...” 

लालसिंह दुकान के बाहर धरी बेंच पर अधपसर सा गया. इस वार्तालाप को आगे सुनने की मेरे भीतर ताकत नहीं बची थी और मैं खेलमैदान की तरफ भाग गया. मेरी रुलाई फूट रही थी जबकि चारों तरफ बच्चे साइकिल चला रहे थे. अभी लफत्तू होता तो उस छोटे से बच्चे को साइकिल सिखाने लगता जिससे गद्दी पर नहीं बैठा जा रहा था. मैं भागता भागता बौने के ठेले तक पहुँच गया जहाँ उसके दोनों अधनंगे बच्चे अखबार के टुकड़ों से नाव और जहाज़ बनाने का खेल खेल रहे थे. बौना एक और अखबार का पंखा झल रहा था और उसकी मैली बनियान पसीने से भीगकर भूरी पड़ चुकी थी. उसने मुझे देखा तो तुरंत हरकत में आ गया मसालेदार आलू का गोला बनाने लगा.

जैसे ही मैं उसके ऐन सामने आया उसने मेरी बहती हुई आँखें ताड़ लीं और खुशामदी लहजे में बोला – “सब ठीक तो है ना बाबूजी!

वो लफत्तू ...

इतनी बड़ी त्रासदी घट गयी थी और बौना आलू के गोले को बेसन के घोल में डुबो रहा था.

बहुत दिनों से बड़े वाले बाबूजी नहीं आ रहे ...

उसी की बात तो बता रहा हूँ. लफत्तू मर गया आज ...” यह कहते कहते मैं इतनी जोर जोर से रोने लगा कि साइकिल चला रहे एकाध बच्चों तक ने मेरी तरफ निगाह डाली अलबत्ता वे अपने काम में लगे रहे. बमपकौड़े अब गरम तेल की कढ़ाई में खदबदाने लगे थे और आसपास की हवा सुपरिचित गंध से भारी होती जा रही थी.

ऐसे थोड़े ही होता है बाबूजी. बड़े बाबूजी के घरवाले हनूमान जी के भगत हैं. हनूमान जी ऐसे ही थोड़ी होने दे सकते हैं. बड़े बाबूजी को कुछ नहीं होगा. मुझे पता है ...” बौना ज्ञान गाँठ रहा था और पत्तल बना रहा था.

मेरा रोना अब तकरीबन बंद हो चुका था और बौने के हाथों में धरा पत्तल मेरे सामने था : “खाइए बाबूजी ... पैसे की कोई बात नहीं ...

एक पल को असमंजस हुआ कि दोस्त के मरने पर इतना बेशर्म कैसे हुआ जा सकता है लेकिन बमपकौड़े की महक के आगे मेरी हार हुई और बौना जीत गया. इस फ़ोकट पार्टी के बाद मेरा चित्त थोड़ा शांत हुआ. मैंने पहली बार अकेले बौने के ठेले पर यह कारनामा अंजाम दिया था. अब मुझे दुःख भी कम हो रहा था. पिक्चर देखने का मन कर रहा था. बौने ने एक बार उकसाया तो मैंने फ़ौरन फर्श पर अपना गाल टिकाया और हॉकलेट धरमेंदर की कोई पिक्चर देखने लगा. पिक्चर बीसेक मिनट में धरमेंदर और मुच्छड़ पुलिसवाले के बीच हुई लम्बी वार्ता और जीनातमान के साथ उसके गाना गाने के साथ ख़तम हो गयी.

मैं कपड़े सही करने लगा तो बौना बोला : “चालीस पैसे हुए बाबूजी. अगली बार दे दीजियेगा. अब घर जाइए. हनूमान जी भली करेंगे.” बौने ने अपना सफल व्यापारी रूप दिखाया और जैहनूमान ग्यानगुनसागर गुनगुनाने लगा. दोस्त की मौत के बाद बमपकौड़ा खाना और पिक्चर देखना और वो भी उधार में – अपराधबोध से अटा हुआ मैं जब घर के दरवाज़े पर पहुंचा तो शाम धुंधला चुकी थी. एक निगाह लालसिंह की दुकान की दिशा में डाली तो वहां कुछ भी उल्लेखनीय होता नज़र नहीं आया. मुंह में बीड़ी चिपकाए लालसिंह के बाबू चाय की केतली के मुंह पर फंसे अदरक के टुकड़े को निकाल रहे थे और मेरे दोस्तों का नामोनिशान तक नहीं था. मैं समझ गया वो लफत्तू के घर गए होंगे.

मैं जीना चढ़ ही रहा था कि माँ और मेरी दोनों बहनें एक साथ दरवाज़े से बाहर निकले.

तू था कहाँ ... हर जगह देख आये तुझे. चल अंकल जी के घर चलना है. लफत्तू की मम्मी बुला रही तुझको.

लफत्तू के घर छोटा-मोटा मजमा लगा हुआ था जैसा बंटू के दादाजी के मरने पर लगा था. लफत्तू की बहनें एक कोने में खड़ी थीं और उसका जल्लाद भाई सियाबर बैद जी के कानों में मुंह सटाए जोर-जोर से कुछ कह रहा था. परसूराम मास्साब और विलायती सांड भी नज़र आ रहे थे. माँ ने मेरा और छोटी बहन का हाथ थामा हुआ था और वह वैसे ही हमें घसीटते हुए लफत्तू के घर के भीतर ले गयी. बाहर के कमरे की कुर्सियों पर लफत्तू के पापा और कुछ पड़ोसी विराजमान थे. माँ हमें भीतर के कमरे में ले गयी.

लफत्तू जिंदा था और उसकी नाक बह रही थी. उसकी मम्मी उसे मुसम्मी का शरबत पिला रही थी.   

लफत्तू मरा नहीं था क्योंकि उसको बौने के हनूमानजी ने बचा लिया था.

लफत्तू बहुत बीमार और दुबला दिख रहा था पर मुझ पर निगाह पड़ते ही उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ गयी. उसकी मम्मी के इशारे पर मैं आगे बढ़कर लफत्तू की बगल में बिस्तर पर बैठ गया. मैं उसे गले लगा कर और खूब रोना-पीटना करके अपना जी हल्का कर लेना चाहता था. मैं अपने मन की सारी भावनाएं उसके उसके सामने उड़ेल कर उसका हाथ भी थामे रहना चाहता था लेकिन मैं पैदाइशी घुन्ना था और चुपचाप फर्श पर निगाहें लगाए औरतों की बातें सुनता दुखी होता रहा.

लफत्तू को अगले छः महीने तक स्कूल जाने की इजाजत नहीं थी. उसे हर पंद्रह दिन पर मुरादाबाद ले जाया जाना था. उसके भोजन और दवा में हज़ार तरह की सावधानियां बरती जानी थीं.

दो दिन की देर हुई होती तो हमारा बच्चा तो ...” लफत्तू की मम्मी मेरी माँ को बता रही थीं. “अब की सोमवार को गर्जिया माता के दरबार में हाजिरी लगानी है दिदी! अब तो माता का ही सहारा हुआ हमें ...

कम्बल के नीचे से लफत्तू ने अपना हाथ बाहर निकाला तो कलाई पर चिपकी हुई प्लास्टिक की एक मशीननुमा चीज़ ने मुझे आकर्षित किया.

इसी में डाल के हज़ारों इंजेक्सन लगाए मेरे बच्चे को जल्लादों ने ... इसी में डाल के दिदी ...” लफत्तू की माँ ने अब रोना शुरू कर दिया था. देखादेखी मेरी माँ ने भी वही काम शुरू कर दिया. ज़मीन पर बैठी दो मुटल्ली औरतों ने भी इस कार्यक्रम में शरीक होना अपना फ़र्ज़ समझा और मिनट के भीतर-भीतर कमरे में बकौल लफत्तू मोर्रम का जल्सा शुरू हो गया. बस औरतों के छाती पीटने की कमी बची थी. औरतों की इस बेपरवाह नाटकीयता के चक्कर में मैं लफत्तू को सीधे देख सकने की हिम्मत जुटा सका. मैं उसे देखता हुआ अपने चेहरे को भरसक मनहूस बनाने की कोशिश कर रहा था कि मौके का फायदा उठाकर उसने इंजेक्सन से जख्मी अपने हाथ से मेरी पिद्दी पिछाड़ी पर जोर की चिकोटी काटी और आँख मार कर मंद-मंद मुस्कराने लगा. उसने उंगली से मेरी कमीज़ के आगे के उस हिस्से को छुआ जिस पर मेरे द्वारा अभी अभी किये गए अपराध का सबूत चस्पां था. कमीज़ पर गिरी हुई मिर्चीदार हरी चटनी अब तक सूखी नहीं थी जिसे देखकर उसने अपना पुराना डायलॉग फुसफुसाया “थाले गब्बल के बिना मौद कात लए तुम थब.

अब मुझे सच्ची मुच्ची का रोना आ गया.  

तू जल्दी से ठीक हो जा यार लफत्तू. मेरा कहीं भी मन नहीं लगता.” ऐसे ही एकाध वाक्य मेरे मुंह से निकल सके. लफत्तू ने अपने घायल हाथ से मेरा हाथ थामा और कम्बल के भीतर कर लिया. उसकी हथेली पसीने से भीग गयी थी लेकिन उसने एकाध मिनट तक मेरा हाथ नहीं छोड़ा. उसकी पलकों के कोरों पर भी एक नन्हा सा आंसू ठिठक सा गया था. यह उस्ताद और शागिर्द के दरम्यान लम्बे अरसे बाद हो रहा मूक लेकिन भावपूर्ण संवाद था जिसने आगे के दिनों में हमारी गर्मी की छुट्टियों और नए मोहब्बतनामों की दिशा तय करनी थी. 


लफत्तू की तबीयत का हाल जानने को हमारी समूची मंडली कितनी व्याकुल थी इसका पता दूधिये वाली गली से लगातार आ रही "बीयोओओओई ..." की बेचैन आवाजों से चल रहा था जो बताती थीं कि फुच्ची, मुन्ना खुड्डी, बंटू, लालसिंह, जगुवा पौंक और बागड़बिल्ला वगैरह व्याकुल होकर लफंडर-यूथ बनाए मेरे बाहर आने की प्रतीक्षा कर रहे थे.