बिला नागा हर सुबह पाकिस्तान की तरफ़ से दो हाथठेलों में लाल दाग लगी चारखाने की तहमतों से ढंका ढुलमुल ढुलमुल गाय-भैंस का मीट पता नहीं कहां ले जाया जाता था. पाकिस्तान की हमारी हद शरीफ़ सब्ज़ीवाले की दुकान से सटी जब्बार कबाड़ी की गुमटी थी. उस से आगे एक अनजाना अनदेखा रहस्यलोक था जहां किसी फ़कीर की दरगाह थी और उसके आगे कब्रिस्तान, मिट्टी के ढूह, जंगल और उसके ऊपर एक आसमान जो रातों को सियारों की हुवांहुवां से अट जाया करता.
मत्यु और अन्तिम संस्कार जाहिर है हमें सबसे ज़्यादा फ़ैसिनेट करते थे और इस बाबत अक्सर ही हम तमाम कयासों से भरी बहसों का आयोजन किया करते. लफ़त्तू जो किसी ज़माने में मुछलियों से दूर रहने की चेतावनियां दिया करता था, इधर लगातार उनके प्रति सहिष्णु और सदाशय होता जा रहा था. इस परिवर्तन के पीछे हो सकता है ज्याउल का साथ रहा हो या स्कूल के मात्तरों का मैमूदों के प्रति सौतेला व्यवहार. जो भी हो.
सत्तू और जगुवा ने एक दफ़ा छिप कर पाकिस्तानी अन्तिम संस्कार के प्रत्यक्षदर्शी होने का क्लेम किया पर लफ़त्तू उन्हें अपने एक सवाल से निरुत्तर बना दिया करता: "बेते ये बताओ लाछ को बैथा के गालते हैं या खला कल के?" झाड़ी के बहुत दूर होने से सब कुछ साफ़ नज़र नहीं आया के झूठमूठ बहाने से सत्तू और जगुवा इधर उधर देखने लगे. "मुदे द्याउल ने बताया था" कहकर लफ़त्तू इस तरह के सेमिनारों में एक तरह से अध्यक्ष की भूमिका में आ जाया करता. उसने कहीं से पता लगा रखा था कि लकड़ी के बक्से में रख कर लाश को दफ़नाते वक्त उसके साथ लोहे के पाइप का एक टुकड़ा भी रखा जाता है. मेरे इस बाबत सवाल पूछने पर उसने आंखें और छोटी बना कर कहा: "दमीन के नीते बौत अन्देला होता है बेते. मित्ती के अन्दल लाछ दुबाला दिन्दा ओ दाती है. इत्ते अन्देले में कोई देक तो कुत छकता नईं. इतलिए पाइप के तुकले को लकते हैं. लाछ ... आप छमल्लें लोए के तुकले को आंक पे लगाती है औल उत को को थब दिकने लगता है बेते. ..." वह रुक रुक कर रहस्यनामा बांधा करता.
लोहे के पाइप के टुकड़े वाली लफ़त्तू थ्योरी मुझे काफ़ी हद तक सही लगती थी. रातों को जब कभी कभी हम भाई बहन एक दूसरे को डराने के उद्देश्य से भूतप्रेत की कहानियां सुनाया करते थे. मेरे भाई ने कसम खा कर बताया था कि जब वह अपने एक दोस्त के दादाजी के दाह संस्कार में श्मशान गया था तो वहां उसने यहां वहां रखे लोहे के पाइप के कई टुकड़े देखे थे. जब मुर्दा जल रहा होता है तब अगर कोई भी आदमी पाइप के टुकड़े में आंख गड़ा कर देखे तो उसे श्मशान भर में रहने वाले सारे भूत दिख जाते हैं. "दद्दा तूने देखा था?" छोटी ने पूछा, तो उसने असमंजस में सिर डोलाते हुए हां-ना जैसा कुछ कहा. बहरहाल मेरे लिए मृत्यु के साथ लोहे का पाइप अपरिहार्य रूप से जुड़ गया था.
ज्याउल की बड्डे पाल्टी से लौटने के बाद मैं कीचड़ खा कर लौट रहे किसी मरियल पालतू कुत्ते की तरह चोरों जैसा घर में घुसा. पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया. आस पड़ोस की कुछेक औरतें अगले रोज़ 'जै सन्तोसी मां' पिच्चर देखने बनवारी मधुवन जाने का प्लान बना रही थीं. इन स्त्रियों ने इधर हर शुक्रवार को व्रत रखना और खट्टा न खाने का रिवाज़ बना लिया था. लफ़त्तू हर शुक्रवार को मुझे खूब चटनी डलाया बमपकौड़ा अवश्य खिलाया करता. बुध-शुक्र की किसे याद रहती थी. वो तो जब पहली बार ऐसा हो गया तब लफ़त्तू ने नकली शोक जताते हुए कहा कि अब सन्तोसी माता हमें सारे इम्त्यानों में फ़ेल कर देगी. पर रिजल्ट खराब नहीं आया. इस का तात्कालिक अर्थ यह निकाला गया कि शुक्रवार को बमपकौड़ा खाने से कुछ खास परेशानी नहीं होती. हालांकि थोड़ा बहुत डर लगता था कि अगर सन्तोसी माता सच में आ गई तो क्या होगा तो भी जानबूझ कर हर शुक्रवार को किया जाने वाला यह सत्कर्म काफ़ी एडवेन्चरस लगा करता था.
रात को खाना खाते वक्त मां ने पूछा कि मैंने अंगुस्ताना खरीद लिया है या नहीं. मैंने सिर हिलाकर हामी भरी.
अगली सुबह लफ़त्तू स्कूल देर से आया. इन्टरवल के समाप्त होने से मिनट भर पहले. उसका लाल पड़ा चेहरा बतला रहा था कि उसने कोई उल्लेखनीय सफलता अर्जित की है जिस की सूचना वह सार्वजनिक रूप से नहीं दे सकता. बहुत मुश्किल से बीता अगला पीरियड. मैं सबसे आगे बैठता था जबकि लफ़त्तू की शरारतें सबसे पिछली कतारों में बैठने पर ही सम्भव होती थीं. पीरियड के बाद हमें परजोगसाला के बगल वाले हॉल में जा कर सिलाई की कक्षा हेतु भूपेस सिरीवास्तव मास्साब के कमरे में जाना होता था. घन्टा बजते ही लफ़त्तू लपक कर मेरे पास आया और अपना बस्ता साइड से खोल कर उसने अपनी जेब से कुछ नोट निकाल कर दिखाए. "बारा रुपे में बेच दी दीदी की घली" - एक पल को उसका चेहरा दर्प से चमका. मुझे डर लगा.
छुट्टी होते ही हम ज्याउल वाले सैक्शन के बाहर जा कर खड़े हो गए. लफ़त्तू ने कस कर मेरा हाथ थामा हुआ था. ज्याउल बाहर आया तो लफ़त्तू ने ज़ोर की आवाज़ दे कर उसे पास बुलाया. उसके आते ही हम तेज़ तेज़ कदमों से धूल मैदान के एक निविड़ कोने पर हो गए. लफ़त्तू ने अपना बस्ता खोला और उसके अन्दर से चमचम करता लाल पीले रंग का जौमेट्री बक्सा बाहर निकाला. मेरी नज़र खुद गुप्ता पुस्तक भंडार के शोकेस में लगे उस डेबल डेकर को देख कर कई कई बार ललचा चुकी थी.
"ले. अतोक औल मेली तलप से ये तेला बड्डे गिट्ट ऐ याल द्याउल." लफ़त्तू की आवाज़ में अपनापा था. उसने एक बार दुबारा कहा : "हैप्पी बड्डे टुय्यू!" ज्याउल जब तक कुछ कहता हम जल्दी से कोना छोड़ सार्वजनिक हो गए और अपने अपने घरों की राह लग लिए. रास्ते में लफ़त्तू ने बताया कि सत्तार सिर्फ़ दस दे रहा था पर किस तरह वह बारा रुपे ले के ही माना. मैंने पूछा कि अगर किसी को पता लग गया तो क्या होगा तो उसने आंख मारते हुए बताया कि उसका नाम भी गब्बर है. घर आने को ही था कि उसने अपना बस्ता दुबारा खोला और ठीक वैसा ही डबल डेकर डब्बा बाहर निकाला और जबरिया मेरा बस्ता खोल कर उसमें ठूंस दिया.
" एक तेले लिए बी लिया मैंने!" मुझे खुशी और भय का संक्षिप्त जॉइंट दौरा पड़ा पर घर के सामने थे हम दोनों अब. जल्द ही छत पर क्रिकेट खेलने आने का वादा करने के उपरान्त "बीयो...ओ...ओ...ई..." कहता लफ़त्तू मटकता, गुनगुनाता अपने घर की तरफ़ चल दिया.
(जारी)
पहला हिस्सा
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3 comments:
लप्पूझना तो ऐसा है कि लगता है कि हार्ड कॉपी बनाकर अपने पास रखनी होंगी। जब भी मन उदास हो पढ़ लिया और मानो इलाज हो गया!
आज तक ऐसा नहीं हुआ कि केवल एक ही पोस्ट पढ़ी हो। हाथ अपने आप पुरानी पोस्ट खोल देता है।
घुघूती बासूती
लपूझन्ना*
घुघूती बासूती
अहा! परमानन्द!
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