लफत्तू की तबीयत सुधर
रही थी और उसके परिवार के साथ उसके रिश्ते भी. यहाँ तक कि उसका जल्लाद भाई भी
यदा-कदा उसकी मिजाजपुर्सी में लगा दिख जाया करता. मुझे और पूरे मित्रमंडल को उसके
घर पर हिकारत से नहीं बल्कि बहुत सम्मान के साथ देखा जाने लगा था और हमें वहां कभी
भी जाने की छूट मिल गयी थी. हम दिन भर लफत्तू के बिस्तर को अपना खेल का मैदान बनाए
रखते – लूडो, सांपसीढ़ी, कैरमबोट
जैसे सदाबहार खेलों के साथ-साथ उसके भाई ने हमें ताश की अब तक हमारे लिए वर्जित
गड्डी के साथ जोड़पत्ती और पद जैसे खेल सिखा दिए. जोड़पत्ती बहुत बचकाना खेल था
जबकि पद में सामने वाले को पूरी तरह चिलमनग्न बना देने का आकर्षण उसे एक महान खेल
बनाता था. पद से चट चुकने के बाद हमने कोटपीस और दहल-पकड़ नामक राष्ट्रीय ख्याति
के खेल भी सीख लिए जबकि रमी जैसे क्लासिक खेल के रामनगरीय संस्करण – चुस्सू – तक पहुँचने में हमें उसके बाद
फ़क़त एक सप्ताह लगा और उसे बाकायदा जुए की सूरत देने में लफत्तू को चौबीस घन्टे.
चुस्सू के खेल में
खिलाड़ियों की संख्या के मुताबिक़ नौ से लेकर सत्रह पत्ते हरेक खिलाड़ी के हिस्से
आते और उन्हीं के हिसाब से तीन-तीन पत्तों के तीन से लेकर पांच हाथ बनाने होते थे.
यह खासा चुनौतीपूर्ण खेल था और उसे खेलने में बहुत दिमाग लगाना पड़ता था. लफत्तू लेटा-लेटा
कमेंट्री करता रहता और बेबात ठहाके मारा करता. अपने सबसे नज़दीक बैठे खिलाड़ी के
लिए वह सलाहकार का काम भी करता था और दो ही दिनों में यह मान लिया गया कि उसकी बगल
में बैठा खिलाड़ी हार ही नहीं सकता. हार जाने पर जगुवा पौंक रुआंसा हो जाता और
लफत्तू पर बेमांटी करने का झूठा इलज़ाम लगाता. लफत्तू की तरह ही फुच्ची भी खेल को
नहीं खेलता था. वह अपने शाश्वत कुटैव अर्थात कप्तानी करने की आदत से बाज़ नहीं आता
था और अपने को लफत्तू के सामने बैठे दोस्तों की टीम का कप्तान बना लेता और
बारी-बारी से सबके पत्ते देखा करता. तीसरे दिन ही लफत्तू ने आइडिया दिया कि क्यों
न इस खेल के स्कोर बाकायदा कापी में लिखे जाएं ताकि हार-जीत का सही-सही पता चल
सके. लफत्तू ने स्वयं ही स्कोरर का पद भी सम्हाल लिया और पहली शाम खेल ख़त्म होने
पर जो नतीजा सामने आया उसके हिसाब से मुन्ना खुड्डी मुझ से तीन हाथ और जगुवा से सात हाथ आगे था. बंटू खेल के बीच में ही
किसी बात पर खफा होकर अपने घर चला गया था.
लफत्तू ने अपने घायल हाथ वाली कोहनी को मुन्ना
खुड्डी की कमर में खुभोते हुए चुहल की – “आत्तो भौत तीनदोपांत बना ला थे बे.”
चुस्सू के स्थानीय
नियमानुसार पत्तों के क्रम में सबसे ऊपर ट्रेल होती थी. ट्रेल के बाद दूसरे नंबर
पर तीन दो पांच का नंबर आता था. यह तीन दो पांच टॉप यानी इक्का बाश्शा बेगम से भी
बड़ा होता था. इक्का बाश्शा गुलाम को टिमटॉम कहते थे जबकि इक्का बेगम गुलाम को
सिमसॉम. इक्का नहल दहल को लंगड़ी माना जाता था और इक्का दुग्गी तिग्गी को सबसे
छोटी रन. ईंट की दुग्गी के बदले जोकर वाला पत्ता उठाया जा सकता था और सारे पत्ते
जीतने पर फाड़ मानी जाती थी. किसी एक पत्ते के चारों रंग जैसे चार सत्ते या चार
पंजे आ जाने को चौरेल कहते थे. फाड़ और चौरेल करने वाले को विशिष्ट इनामात और
सुविधाएं दिए जाने का प्रचलन था. सारे चव्वों को साहजी कहा जाता था जबकि चिड़ी के
चव्वे को बिशम्भर साहजी के नाम से संबोधित कर विशिष्ट सम्मान दिया जाता. चिड़ी का
गुलाम पद्मादत्त कहलाता था जबकि पान की बेगम हेलन. पान की बेगम का नाम हेलन से
बदलकर मालासिन्ना रख दिया गया. दो तीन पांच के स्टेटस को लेकर अक्सर बंटू भड़क
जाता था. उसके हिसाब से उसके इंग्लैण्ड-निवासी मामा ही इस खेल के जनक थे और वे दो
चार पांच को ट्रेल के बाद मानते थे.
बंटू के मामा का नाम जब-जब आता लफत्तू बड़ी
हिकारत से उसे देखता हुआ कहता –
“तेला मामा गया बेते बित्तोलिया के यहाँ झालू लगाने. गब्बल के यहाँ
खेलना ऐ तो गब्बल का ई लूल मानना पलेगा. बत्तों की तले लो मत बेते. खेलना ऐ तो खेल
बलना लामनगल के धाम पे कू निकल्ले.” वह थोरी मास्साब की
बढ़िया नक़ल बना लेता था. रामनगर के धामों का ज़िक्र चलने पर हम सब थोरी मास्साब
की इकठ्ठे नक़ल बनाने लगते – “और रामनगर के चार धाम सुन
लो बे! इस तरफ़ कू खताड़ी और उस तरफ़ कू लखुवा. तीसरा धाम हैगा भवानीगंज और सबसे
बड़ा धाम हैगा कोसी डाम.” हमारी समवेत हंसी फूटने को ही
होती कि लफत्तू जोर से चेताता - "औल जो थुत्ला तिवाली मात्ताब की नजल में इन
चाल धाम पल आ गया, उतको व्हंईं थलक पे जिन्दा गाल के
लात्ता हुवां से बना दूंवां ..." बंटू रुआंसा पड़ जाता और हम सब बेकाबू होकर
अपने पेट थामे हंसी से दोहरे हो जाते.
खैर मुन्ना खुड्डी उस दिन मुझसे तीन हाथ से जीता
था और लफत्तू ने तय किया कि अगले दिन का खेल मुन्ना के पक्ष में क्रमशः तीन और सात
हाथ के एडवान्टेज से शुरू होगा और गर्मी की छुट्टियां ख़तम होने तक हर रोज़ का
स्कोर इसी तरह लिख कर अन्त में चुस्सू चैम्पियन को उचित पारितोषिक दिया जाएगा.
पारितोषिक की बाबत कोई ठोस सूरत पेश न किये जाने पर खुड्डी उखड़ गया और बोला – “मने जीतने वाले को पतई
नहीं कि उसने क्या जीता. ये तो बेमांटी है.” बात सही
थी. लफत्तू ने कुछ देर सोचा और तय किया कि चार हाथ को एक बमपकौड़े के बाराबर माना
जाएगा. यानी छुट्टी ख़त्म होने पर अगर कोई चालीस हाथ से आगे रहता है तो उसे दस बमपकौड़ों
का इनाम मिलेगा. यह एक ललचाने वाला प्रोस्पेक्ट था जिसके नतीजे में हम सब उन
गर्मियों में चुस्सू में इतने पारंगत हो गए थे कि उसके बाद दीवाली वगैरह के टाइम
बड़ों के असली यानी जुए वाले चुस्सू में खिलाड़ी कम हो जाने पर हम में से किसी को
भी सुविधा के मुताबिक़ ससम्मान तलब कर लिया जाता और हमारे पैसे भी भरे जाते.
चुस्सू की बमपकौड़ा ट्रॉफी की डीटेल्स तय हो
जाने पर लफत्तू बोला – “वो कां ग्या थाला तीनदोपांत?”
मैंने नासमझी में उसकी
तरफ देखा तो उसने अपनी आँख को चौथाई दबाते हुए कमीनगी के साथ कहा – “बोई तेला इंग्लैंदिया
मुग्लेआदम. ऑल कौन.”
इस तरह मई-जून के उन
गर्म महीनों के एक ऐतिहासिक दिन बंटू के दो-दो नामकरण किये गए. उसके बाद से उसे
इंग्लैडिया मुग्लेआजम और तीनदोपांच के अलावा किसी और नाम से नहीं पुकारा गया.
तीनदोपांच का नाम उस पर बुरी तरह फबता भी था क्योंकि उसका कद हम सब में छोटा था और
अपनी शातिर हरामियत के चलते वह बड़े-बड़े इक्के बाश्शे बेगमों को उल्लू बना सकने
में पारंगत था और मैंने गौर किया कि वह दीखता भी तीन दो पांच जैसा ही था.
बनवारी मधुवन पिक्चर
हॉल से आगे थोड़ी सी उतराई थी जिसके बाद कोसी डाम से आने वाली नहर मिलती थी. नहर
के ऊपर एक चौड़ी पुलिया थी जिस पर हमें लफत्तू ने बिना गाड़ी की गाड़ी चलाना सिखा
रखा था. इस कार्यक्रम के लिए आपको पुलिया के किनारे पर लगी रेलिंग से लग खड़े हो
कर अपनी निगाहों को बहते पानी पर एकटक लगा देना होता था. थोड़ी देर में पुलिया
गाड़ी बन जाती थी और आप रफ़्तार के मज़े ले सकते थे. गाड़ी की रफ्तार डाम से उस
दिन छोड़े गए पानी की मात्रा पर निर्भर करती थी. कम पानी छोड़े जाने पर रफ़्तार
बढ़ जाती थी क्योंकि नहर में पानी का स्तर छिछला होता था और उसकी रफ़्तार ज्यादा.
जिस दिन लबालब पानी छोड़ा गया होता, नहर पुलिया कि तकरीबन छूती हुई बह रही होती
और ऐसे में मंद-मंद रफ़्तार पर गाड़ी चलाना एक दिव्य अनुभव होता था. लफतू ने हमें
उस उम्र में मेडिटेशन करते हुए गाड़ी चलाना सिखा दिया था जब किसी के पास गाड़ी
होने को विस्मय और तनिक ईर्ष्या के साथ देखा जाता था. पुलिया और उसके नीचे बहने
वाली नहर हम सब की गाड़ी थी जिसे उस दिन चलाता हुआ मैं मुन्ना खुड्डी की प्रतीक्षा
कर रहा था. हमने दिन भर लफत्तू के घर मौज की थी और शाम के सामय मुन्ना ने मुझसे एक
नई जगह दिखाने का वायदा किया था.
मेरे घर से यह पुलिया
काफी आगे पड़ती थी और मैं पहली बार इतनी दूर अकेला आया था.
गाड़ी का भरपूर लुत्फ़
उठा चुकने के बाद मैंने आँखें उठाकर बनवारी मधुवन की तरफ देखा तो बड़ा टायर चलाता
मुन्ना खुड्डी तेज़-तेज़ आता दिखा. उसके हाथ में लकड़ी का छोटा सा अटल्ला था जिसे
वह एक्सीलेटर की तरह इस्तेमाल कर रहा था. टायर चलाने के बारे में मैंने कभी सोचा
नहीं था क्योंकि वह रतीपइयां के मुकाबले बहुत गंवार और घामड़ लगा करता था लेकिन
जिस कौशल के साथ मुन्ना खुड्डी टायर का संचालन कर रहा था, मुझे वह थोड़ा आकर्षक लगा.
बहुत नक्शेबाजी और अदा
के साथ टायर को मेरे नज़दीक लाकर तीन-चार बार टेढ़ा घुमाने के बाद वह स्थिर हुआ तो
बहुत देशी टाइप के अंदाज़ में बोला – “और गुरु, मजा?”
मैं भी उसी स्टाइल में
बोला – “हां गुरु, मजा. मने भौते मजा.”
मुन्ना मुझसे लिपटने को
सा हुआ पर उसकी गंदी बनियान देखकर मैं थोड़ा पीछे हट गया. उसने बुरा नहीं माना.
हमने पुलिया पार की और नहर की बगल वाली मुख्य चौड़ी सड़क पर आ गए. मैं सड़क पर
पहुँचते ही डाम की दिशा में जाने को हुआ तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोला – “गुरु, उधर नहीं, इधर ... इधर.”
उधर मतलब पाकिस्तानियों
के बगीचे में! मेरी फूंक सरक गयी.
“अरे, आप मने डरिये मत. हम आपको वहां थोड़े ही ले जा रहे हैं. आप डरते बहुत हैं.” वह अपनी सुपरिचित टेरिटरी में ले जाने की धौंस से मुझे आतंकित करने का
प्रयास कर रहा था. डाम की और जाने के बजाय हम थोड़ी दूर तक उल्टी दिशा में
भवानीगंज की तरफ चले और बाईं तरफ नहर की उल्टी तरफ सीढियां आने पर नीचे उतर गए.
ऊपर सड़क से यह हिस्सा नज़र नहीं आता था. बीसेक सीढ़ी उतरने के बाद एक रौखड़नुमा
मैदान आया. बाँध का गेट बंद था और सारा पानी नहर में छोड़े जाने के कारण रौखड़ से
थोड़ी दूरी पर नदी की दुबली सी धारा बह रही थी. धारा के थोड़ा सा आगे एक ऊंचा सा
टीला था. मुन्ना ने मुझे अपने पीछे आने का संकेत किया और उसी पतली धारा की तरफ
बढ़ने लगा. उसने अपना टायर शिवजी के सांप की तरह गले में डाल लिया था और अपने
धारीदार पजामे के पांयचे आधी जाँघों तक खींच लिए थे. हाफपैंट और पौलिएस्टर की
कमीज़ पहने बाबूसाहब बना हुआ मैं उसके पीछे चल रहा था. मुन्ना की देह थोड़ी बेडौल
थी - उसके कूल्हे उसकी मरगिल्ली टांगों के अनुपात
के हिसाब से काफी स्थूल थे और उसकी चाल में एक नैसर्गिक लेकिन भौंडी लचक थी.
मैंने पलटकर देखा – नहर वाली सड़क काफी
पीछे जा चुकी थी जिनमें इक्का-दुक्का लोग टहलते दिखाई दे रहे थे. बाईं तरफ निगाह डालने पर ज्याउल के घर वाली कॉलोनी की छतें नज़र आ रही थीं
और उनकी और बाईं तरफ डाम. मेरे सामने रूखी पथरीली ज़मीन थी और मैं मुन्ना खुड्डी
के नेतृत्व में कहीं जा रहा था. मुझे अचानक डर लगना शुरू हुआ और शर्म भी आने लगी
कि मैं कल ही रामनगर आये इस छोकरे के कहने पर अनजान जगह पर जा रहा हूँ. घर में इस
बाबत पूछे जाने पर मैं क्या उत्तर दूंगा – इस सवाल
से भी मुझे भय लग रहा था. मैं ठिठक गया मगर जब मुन्ना ने मुझे रुका हुआ देखकर अपनी
दो उँगलियों से मुझे अपमानित करने की कोशिश करता परिचित रामनगरी इशारा किया, मैंने फैसला कर लिया कि चाहे जो हो, खुड्डी से पहले
टीले तक पहुँच जाऊंगा. आगे जो होगा देखा जाएगा.
मैंने अपनी चप्पलें
हाथों में थामे और धारा की तरफ दौड़ चला. मैं मुन्ना के पास पहुंचा तो उसने भी
दौड़ना शुरू कर दिया. धारा में बस टखनों की ऊंचाई तक का बहुत शीतल पानी था जिसे
पार करने में हमें कोई आधा मिनट लगा. अब हम दोनों हंस रहे थे और धारा के उस तरफ
थे. टीले की जड़ हमारे सामने थी. एक ठूंठनुमा पेड़ के तने के निचले हिस्से पर किसी
ने काजल जैसी कोई चीज़ पोत दी थी. नियमित रूप से धूप-अगरबत्तियां जलाए जाने के
अवशेष और दर्ज़नों हुक्के, चिलमें
और मिट्टी की बहुत छोटी सुराहियाँ इधर-उधर बिखरी हुई थीं. यह थोड़ा आकर्षक और
पर्याप्त रहस्यमय माहौल था. नाटकीय अंदाज़ में मुन्ना ने पेड़ के तने पर लगे काजल
पर अपना काला अंगूठा फिराया और उससे लगी कालिख को अपने काले ही माथे पर किसी टीके
की तरह लगा लिया. वह अजीब हौकलेट नज़र आने लगा था. उसकी देहभाषा अचानक बदली और वह
पास में ही पड़े एक बड़े से पत्थर पर जांघ पर जांघ धरे उसी तरह बैठ गया लिस तरह
लफत्तू रामलीला में रावण का पाट खेलता ढाबू की छत पर बैठा करता था.
“चम्बल
क्या करने आये हो ठाकुर? ये जीवा का इलाका है! जीवा ने
गंगा की सौगंध खाई है कि जसवंत सिंह की बोटी-बोटी चील-कौवों को खिला कर ही अपनी
माँ का बदला लेगा.”
मुन्ना खुड्डी लुफ्त की
मौज के चरम पर आकर किसी पिक्चर के डायलॉग की कॉपी कर रहा है - इतना तो समझ में आया
पर यह पता नहीं चला कि किस पिक्चर की.
“मैंने
आपका नमक खाया है मालिक!” और गोली खाने का इंतज़ार करता
हुआ मैं गब्बर का नालायक-निखिद्द डाकू बन गया.
खुड्डी पाए से उखड़ता
बोला – “मने आप रामनगर वाले हर बात में गब्बर सिंह को पेल देते हैं. हम अमीताबच्चन
का डायलॉग कह रहे हैं तो आपको चाहिए कि आप पराण नहीं तो कम से कम शेट्टिया तो बन
ही न सकते हैं. हैं मने ...”
अपने को रामनगर वालों
से श्रेष्ठ समझने की उसकी इस फौंस पर मैंने उससे वापस लौटने की बात करना शुरू कर
दिया. इस पर गब्बर और शेट्टी की बात तुरन्त भुलाकर वह मेरा हाथ थामे टीले के उस पार लेकर
गया.
एक पथरीला मैदान था जो
टीले की बनावट के कारण किसी भी और जगह से नज़र नहीं आता था. मैदान पर डाम बनाते
समय की बची खुची सामग्री बिखरी पड़ी थी – खस्ता हो चुकीं पत्थर ढोने वाली दसियों
छोटी-छोटी दुपहिया गाड़ियां, सीढ़ियाँ, सीमेंट के विशालकाय चौकोर स्लैब और सीमेंट की परत लगी बाल्टियाँ और भी
जाने क्या-क्या.
“ये है
हमारा चम्बल गुरु. यहीं ठोका था टुन्ना झर्री ने उनको. तब से यहाँ आने की अपने
अलावा किसी की हिम्मत नहीं होती.” उंगली की कैंची बनाकर
आँख मारते मुन्ना ने कहा.
मैंने ढंग से जगह का
मुआयना किया. जगह अद्भुत गलैमर से भरपूर थी. शोले के गब्बर के अड्डे से किसी भी
सूरत में कम नहीं. लेकिन देर हो रही थी. मुझे शाम ढलने से पहले घर पहुंचना होता था – यह बात मुन्ना को भी
मालूम थी. जल्द ही फिर सारी टीम के साथ यहाँ आने की योजना बनाते हम वापस लौटे.
बनवारी मधुवन तक आते-आते मुन्ना खुड्डी ने मुझे हिमालय में लगी नई पिक्चर ‘गंगा की सौगंध’ की पूरी कहानी सुना दी थी.
“कल सुबे
चलते देखने यार मुन्ना. पैसे नहीं हैं मगर मेरे पास.” – मुझे बौने के चालीस पैसे के उधार की बात भी याद थी.
“अरे
पैसे की अपन को कब कमी हुई उस्ताद! ... चलिए थोड़ा सा काम निबटा लेटे हैं घर जाने
से पहले पंडिज्जी!” मुन्ना मुझे ठेलते हुए दाईं तरफ
कटने वाली गली में घुस गया. एक चहारदीवारी के अन्दर गेरुवा पुते हुए बरगद के पेड़
को देखते ही मालूम पड़ जाता था कि वह कोई मंदिर है. मैंने इस वाले मंदिर को पहले
कभी नहीं देखा था.
मुन्ना और मैं मंदिर के
अहाते में थे. एक छोटे से मकाननुमा मंदिर के अहाते में घुटने टेढ़े किये हुए
अधलेटा एक दढ़ियल बुड्ढा बांस का बना पंखा झल रहा था. गेरुवा कपड़े धारे एक बूढ़ी
अम्मा बर्तन मांज रही थी. जहाँ-तहां घन्टे टंगे हुए थे. बाहर खुले बरामदे में बरगद
के पेड़ के नीचे खूब कालिख और तेल-सनी गाद दिखती थी जिसके बीचोबीच एक दिया जल रहा
था.
मुन्ना उस जगह के
जुगराफिए से परिचित था. वह सीधा बुढ्ढे के पास गया और उसके पैर छूकर बोला – “पांय लागी बाबाजी.” वहां से उड़ता हुआ सा वह बर्तन धोती माई के पास पहुंचा और वहां भी उसने
पांयलागी किया और बुढ़िया को माई कहकर पुकारा. सेकेण्ड से पहले वह फिर से बुढ्ढे
के पास था. मैं वहीं चहारदीवारी के पास ठिठका खड़ा था. मैं हैरान था कि
बुढ्ढे-बुढ़िया ने अब तक मुझे देखकर कोई प्रतिक्रया नहीं दी थी.
“बैठो
भगत! बहुत दिनों बाद आये भगत! जय जय गर्जिया माता! जय भोले! जय बम! बम बम! जय जय!
हरिओम हरिओम ... ” ऊटपटांग बातें कहता, डकार लेटा बुढ्ढा अपने हाथों से जिस तरह सामने की ज़मीन टटोल रहा था मुझे
तुरंत पता चल गया कि वह अंधा है. यही बात मैंने बुढ़िया को गौर से ताड़ते ही समझ
ली. वह भी अंधी थी. बाबा मुन्ना के सर पर हाथ रखकर उसे आशीष देता और डकारें लेता
जाता था. बुढ़िया भी अब तक वहां आ चुकी थी और
मुन्ना पर लाड़ से हाथ फेर रहे थी.
पांचेक मिनट बाद “घर पर परसाद दे देना भगत!” कहते हुए बुढ्ढे ने अपने सर के नीचे धरी पोटली की गाँठ खोलकर उसमें से
थोड़े से परवल के दाने और गुड़ का एक टुकड़ा निकालकर मुन्ना के हाथ में थमा दिए. “अब घर जाओ भगत, संध्या की वेला हो गयी!”
मैं तब तक बरगद की छाँह
में आ गया था. मैंने चोर निगाह से पेड़ के तले रखे दिए के नीचे पड़े कुछ सिक्के
ताड़ लिए थे. लेकिन वह भगवानजी का घर था.
मुन्ना ने सधे हुए
तरीके से दुबारा चरण-स्पर्श कार्यक्रम किया और मेरे पास आ गया. बिजली की फुर्ती से
उसने वे सारे सिक्के अपनी नन्ही हथेली में दबोचे और कुशल चोर की तत्परता से मंदिर
कॉम्प्लेक्स से बाहर निकल गया.
बाहर निकला तो भगवान जी घर में किये गए पाप में ट्वेंटी परसेंट की
हिस्सेदारी कर चुकने के अपराध की वजह से मेरी घिग्घी बंधी हुई थी. मुन्ना की अलबत्ता
बत्तीसी खिली हुई थी और वह सिक्के गिन रहा था – “गंगा मैया की सौगंध, आज खजाना लूट लिया जीवा ने!”