पापा के दोस्त इंजीनियर साब का लड़का ज्याउल सिर्फ़ कायपद्दा खेलने हर शाम को आया करता था. पदता था और कटुवा होने के बावजूद हमें प्यारा था. पढ़ने में भौत होस्यार ज्याउल मुझे तब अच्छा लगता था जब वह क्लास में पूछे जाने वाले किसी मुश्किल सवाल का हल मुझसे पहले बतला कर मात्तरों की नकली और थोथी ही सही शाबासी पा लिया करता.
जायदेतर पार्टटाइम करते थे ये मात्तर. जायदेतर मात्तरों की दुकानें थीं और वे इस्लाम, मैमूद, मोम्मद, फ़ैजू, रज्जाक जैसे नाम वाले बच्चों से इतनी हिकारत से पेश आते थे कि उनके मुंह पे थूक देने की इच्छा होती थी. रामनगर आए जितना भी टाइम बीता था हर बखत हिन्दू-मुसलमान हिन्दू-मुसलमान सुनते सुनते हम अघा गए थे. हमें ये बात समझ में भी आने लगी थी कि मैमूद मैमूद होता है और अरविन्द अरविन्द. मैमूद गन्दा होता है. गाय खाता है. नहाता नहीं है. हम उसके घर जाएंगे तो शरबत पिलाएगा मगर पहले उसमें थूकेगा. इसी वजह से शायद लफ़त्तू ने भी ज्याउल को पसंद करना शुरू कर दिया था.
एक बार हमेशा की तरह जब शाम को वह कायपद्दा खेलने आया और बागड़बिल्ले ने उसे चोर बना दिया तो लफ़त्तू ने विरोध जताते हुए कहा: "द्याउल नईं बनेगा आद तोल. आत का तोल मैं". ज्याउल ने तनिक हैरत और संशय में सभी उपस्थित खिलाड़ियों को पल भर देखा पर तुरन्त आम के पेड़ पर चढ़ गया. और क्या मज़ाल कि ज्याउल की रफ़्तार का कोई सामना कर पाता. बाद के दिनों में जब जगुवा पौंक एक बार चोर बना तो ज्याउल की रफ़्तार के आगे रोने रोने को हो गया था. असल में उस दिन के बाद ज्याउल कभी चोर बना ही नहीं. लफ़त्तू उसे अपनी वाली डाल पर बुला लिया करता. यह मेरे लिए कुछ दिन डाह का कारण बना रहा.
अलबत्ता लफ़त्तू और मैं अभी ज्याउल के दोस्त नहीं बने थे पर यह एक तरह का आपसी समझदारी का मसला बना ही चाहता था.
एक रोज़ ज्याउल ने हमें अपने घर पे आने का न्यौता दिया बाकायदा हम दोनों के घर आ कर "आंटी, आंटी" कह कर. ज्याउल का बड्डे था.
घर पर उस रात एक महाधिवेशन हुआ जिसमें भाई ने बताया कि साले मुसलिये हर साल ईद से एक महीना पहले किसी हिन्दू के बच्चे को उठा ले जाते हैं. उसे खूब खिला पिला कर मोटा बनाते हैं. ठीक ईद के दिन बच्चे को चावल से भरे एक तसले में लिटाते हैं और तलवार से उसके टुकड़े कर खून रंगे चावलों को पूरे शहर में बाकायदे प्रसाद बांटते हैं. इस से उनका अल्ला खुस होता है. और यह भी कि किसी कीमत पर मैं उस बड्डे पाल्टी में नहीं जा सकता. बहनों के चेहरे हैरत और हिकारत से सन गए थे.
तय यह पाया गया कि मैं तो नहीं जा सकता मुसलिये के घर में. हां बौड़म लफ़त्तू के जो मन आए सो करे. मैंने असहायता में अपनी आंखें भरी भरी महसुस कीं पर उस्ताद लफ़त्तू की बात याद आई कि बेते जो दला वो मला. बेहतरी इसी में थी कि चुप्पा लगा लिया जाए और यह भी कि देखें कौन रोकता है.
घर पे झूठ बोला गया कि आज लच्छमी पुस्तक भन्डार से पेन्सिलें और कि सिलाई क्लास के वास्ते टंडन इश्टोर से नया अंगुस्ताना लाना है. अंगुस्तानों के लिए मांगे गए पैसों के ऐवज़ में किराये पे साइकिल ली और चल पड़े ज्याउल की कालोनी की तरफ़. बड्डे गिट्ट के पैसे नहीं थे लफ़त्तू ने अपने घर से अपनी बहन की लेडीज घड़ी पार कर ली थी जिसे सत्तार मैकेनिक को बेचने की हम दोनों की हिम्मत नहीं पड़ी. "द्याउल को दे देंगे याल. कौन थाला उछे पूत लिया ऐ कि कित ने दी. तेला मेला बद्दे गिट्ट ऐ."
लफ़त्तू की बड़ी बहन की घड़ी उसकी जेब में पड़ी ही रही. क्या अजब मंजर उस घर में था. हर कोई एक दूसरे को आप आप कह रहा था. घर भर में कैसी कैसी तो दिलफ़रेब खाने की ख़ुशबुएं और क्या लकदक लकदक चमचम औरतें लड़कियां.
"आइये आइये!" कह कर एक हम उम्र लड़की ने हमारा स्वागत किया. हल्का आसमानी तारों भरा लिबास ही बहुत था हमें अधमरा कर देने को. "आप ज़िया भाई के दोस्त हैं ना?" हमारा उत्तर आने से पहले ही "ज़िया भाई ज़िया भाई आपके दोस्त आए हैं! ..." कहता हुआ आसमानी लिबास उंगलियों के पोरों से अपने को समेटता भाग चला.
ज्याउल ने हमें काजू पड़ी सिवइयां सुतवाईं, और जाने क्या नमकीन नमकीन भी. अन्दर ले जा कर अपने मां बाप से मिलवाया. न सूरत याद रही किसी की न लिबास. बस "अम्मी, अब्बू, बाजी, खाला" वगैरह सुनाई देता रहा. न केक था न प्लेटों में कुन्टल भर चाट भरने वाली गमलू कुच्चू के घर उनके बड्डे वाली वो मुटल्ली औरतें. हां खुसफ़ुस बहुत हो रही थी पर किसी ने हमारी तरफ़ ध्यान तक नहीं दिया. ज्याउल की अम्मी ने हमारे सिरों पर हाथ फेरा और कुछ अल्ला अल्ला कहा और चाबी-ताला जैसा भी.
साइकिल आधे घन्टे के किराए पे थी और यह बात लफ़त्तू ने जल्दी जल्दी ज्याउल को बता दी.
ज्याउल कुछ रेयेक्ट करता इस के पहले ही लफ़त्तू बोल पड़ा: " द्याउल तू मेला बाई ऐ याल. तेले मम्मी पापा कित्ते अत्ते ऐं याल. कल ..."
कुछ कहता कहता लफ़त्तू रुक गया.
"तल बेते" कह कर उसने मुझे डंडे पे बिठाया और हम हवा बन कर बजाजा लाइन के नज़दीक मौजूद साइकिल वाले के ठीहे तक पहुंचे. हम शायद थोड़ा लेट थे पर साइकिल वाले ने जायदे तबज्जो नहीं दी.
घर पास आने को हुआ तो लफ़त्तू को अपनी जेब में पड़ी घड़ी याद आई.
"अले याल द्याउल का गिट्ट रै गया" उसने मुझे हमेशा की तरह एक बार फिर बच्चा जाना और बोला: "अपने घल दा तू."
मेरे पूछने पर कि वो कहां जा रहा है उसने आंख मारी और सद्यःपारंगत उंगलियों को ख़ास अन्दाज़ में मोड़ते हुए बोला: "वईं! क्वीन कबल कलने! थाले द्याउल का गिट्ट तो रै गया. अब कल देंगे तू औल मैं. बलिया वाला."
मैं असमंजस में घासमंडी के मुहाने पर खड़ा था जब उस ने कहा: "किती ते कैना नईं बेते!
(जारी)
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3 comments:
इंतजार बहुत लंबा करवाया इस बार आपने अशोक जी....
मनीष जी
अब आपको ज़्यादा इन्तज़ार नहीं करना पड़ेगा. देखिये ना अगली किस्त लगा दी है. शाम तक एक और लीजिये.
मेहरबानी!
After a long wait an extreamly interesting post.
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