लफ़त्तू की हालत देख कर मेरा मन स्कूल में कतई नहीं लगा. उल्टे दुर्गादत्त मास्साब की क्लास में अरेन्जमेन्ट में कसाई मास्टर की ड्यूटी लग गई. प्याली मात्तर ने इन दिनों अरेन्जमेन्ट में आना बन्द कर दिया था और हमारी हर हर गंगे हुए ख़ासा अर्सा बीत चुका था. कसाई मास्टर एक्सक्लूसिवली सीनियर बच्चों को पढ़ाया करता था, लेकिन उसके कसाईपने के तमाम क़िस्से समूचे स्कूल में जाहिर थे. कसाई मास्टर रामनगर के नज़दीक एक गांव सेमलखलिया में रहता था. अक्सर दुर्गादत्त मास्साब से दसेक सेकेन्ड पहले स्कूल के गेट से असेम्बली में बेख़ौफ़ घुसते उसे देखते ही न जाने क्यों लगता था कि बाहर बरसात हो रही है. उसकी सरसों के रंग की पतलून के पांयचे अक्सर मुड़े हुए होते थे और कमीज़ बाहर निकली होती. जूता पहने हमने उसे कभी भी नहीं देखा. वह अक्सर हवाई चप्पल पहना करता था. हां जाड़ों में इन चप्पलों का स्थान प्लास्टिक के बेडौल से दिखने वाले सैन्डिल ले लिया करते.
कसाई मास्टर की कदकाठी किसी पहलवान सरीखी थी और दसवीं बारहवीं तक में पढ़ने वाले बच्चों में उसका ख़ौफ़ था. थोरी बुड्ढे और मुर्गादत्त मास्टर के धुनाई-कार्यक्रम कसाई मास्टर के विख्यात किस्सों के सामने बच्चों के खेल लगा करते. बताया जाता था कि कसाई मास्टर की पुलिस और सरकारी महकमों में अच्छी पहचान थी और उसके ख़िलाफ़ कुछ भी कह पाने की हिम्मत किसी की नहीं हुआ करती थी. लफ़त्तू के असाधारण सामान्यज्ञान की मार्फ़त मुझे मालूम था कि अगर कभी भी कसाई मास्टर का अरेन्जमेन्ट में हमारी क्लास में आना होगा तो हमें बेहद सतर्क रहना होगा क्योंकि कसाई मास्टर का दिमाग चाचा चौधरी की टेक पर कम्प्यूटर से भी तेज़ चला करता था. यह अलग बात है कि कम्प्यूटर तब केवल शब्द भर हुआ करता था - एक असम्भव अकल्पनीव शब्द जिसके ओरछोर का सम्भवतः भगवान को भी कोई आइडिया नहीं था. लफ़त्तू के कहने का मतलब होता था कि कसाई मास्टर को स्कूल भर में पढ़ने वाले हर बच्चे के विस्तृत बायोडाटा ज़बानी याद थे. "बला खतलनाक इन्छान है कताई मात्तर बेते! बला खतलनाक! गब्बल थे बी खतलनाक!"
तो गब्बरसिंह से भी खतरनाक इस कसाई मास्टर की क्लास में एन्ट्री कोई ड्रामाई नहीं हुई. कसाई ने खड़े खड़े ही बहुत आराम से ख़ुद ही अटैन्डैन्स ली और जब "प्यारे बच्चो!" कहकर कुर्सी पर अपना स्थान ग्रहण किया, मुझे लफ़त्तू की बातों पर से अपना विश्वास एकबारगी ढहता सा महसूस हुआ. कसाईमुख को थोड़ा गौर से देखने पर पता चलता था कि उसकी दाईं आंख बागड़बिल्ले की भांति एलएलटीटी यानी लुकिंग लन्डन टॉकिंग टोक्यो यानी ढैणी थी. बाईं भौंह के बीचोबीच चोट का पुराना निशान उस मुखमण्डल को ख़ासा ख़ौफ़नाक बनाता था. सतरुघन सिन्ना टाइप की मूंछें धारण किये, ऐसा लगता था, मानो कसाई अपने आप को जायदै ही इस्माट समझने के कुटैव से पीड़ित था. कसाई के अधपके बाल प्रचुर मात्रा में तेललीपीकरण के बावजूद किसी सूअर के बालों की तरह कड़े और सीधे थे. उन दिनों पराग पत्रिका में एक उपन्यास धारावाहिक छप कर आ रहा था. उपन्यास का नायक भारत की राष्ट्रीय पोशाक यानी पट्टे के घुटन्ने के अतिरिक्त किसी भी तरह के मेक अप में विश्वास नहीं रखता था. कसाई के अटैन्डेन्स लेते लेते छिप कर देखते हुए एकाध मिनट से भी कम समय में मुझे यकीन हो गया कि उक्त उपन्यास के लेखक ने कसाई मास्टर के चेहरे का विषद अध्ययन करने के बाद ही उपन्यास के नायक का वैसा हुलिया खींचा होगा. मुझे यह कल्पना करना मनोरंजक लगा कि कसाई मास्टर केवल घुटन्ना पहने कैसा नज़र आएगा.
अटैन्डेन्स हो चुकी थी और "प्यारे बच्चो!" कहते हुए कुर्सी में बैठते ही कसाई मास्टर किसी ख्याल में संजीदगी से तल्लीन हो गया. क्लास के बाकी बच्चों की तरह मैं भी अगले दो पीरियड के दौरान किसी भी स्तर के कैसे भी हादसे का सामना करने को तैयार था. अचानक कुर्सी से एक अधसोई सी आवाज़ निकली: "पत्तल में खिचड़ी कितने बच्चों ने खाई है?"
कुछ समय से क्लास में बस कभी कभी ही आने वाले लालसिंह के सिवाय किसी भी बच्चे का हाथ नहीं उठा. लालसिंह के उठे हुए हाथ को ख़ास तवज्जो न देते हुए कसाई मास्टर ने कहा - "यहां से कुछ दूरी पर कालागढ़ का डाम हैगा. मैं सोच रहा हूं कि तुम सारे बच्चों को किसी इतवार को म्हां पे पिकनिक पे ले जाऊं. आशीष बेटे, ह्यां कू अईयो जरा!" आशीष क्लास में नया नया आया था और वह भी अपने आप को जायदै ही इस्माट समझने के कुटैव से पीड़ित था. उसका बाप रामनगर का एसडीएम टाइप का बड़ा अफ़सर था और यह तथ्य उसकी हर चालढाल में ठसका ठूंसने का वाज़िब और निहायत घृणास्पद कारण था. कि कसाई मास्टर आशीष को नाम से जानता है, हमारे लिए क्षणिक अचरज का विषय बना. आशीष कसाई मास्टर की बगल में खड़ा था. मास्टर का अभिभावकसुलभ प्रेम से भरपूर हाथ उसकी पीठ फेर रहा था. "आशीष के पिताजी रामनगर के सबसे बड़े अफ़सर हैंगे. कल मुझे इनके घर खाने पर बुलवाया गया था. व्हईं मुझे जे बात सूझी की आशीष की क्लास के सारे बच्चों को कालागढ़ डाम पे पिकनिक के बास्ते ले जाया जाबै. और साहब ने सरकारी मदद का मुझे कल ही वादा भी कर दिया है. तो बच्चो अपने अपने घर पे बतला दीजो कि आने बालै किसी भी इतवार को पिकनिक का आयोजन किया जावैगा. पिकनिक में देसी घी की खिचड़ी बनाई जाएगी और उसे पत्तलों में रखकर सारे बच्चे खावेंगे. खिचड़ी खाने का असल आनन्द पत्तल में है. ..."
खिचड़ी, पत्तल, देसी घी, कालागढ़, डाम, साहब, आशीष, पिकनिक इत्यादि शब्द पूरे पीरियड भर बोले गए और कसाई मास्टर का हाथ लगातार आशीष की पीठ को सहलाता रहा. घन्टी बजने ही वाली थी जब "ऐ लौंडे, तू बो पीछे वाले, ह्यां आइयो तनी!"
पैदाइशी बौड़म नज़र आने वाले इस लड़के का नाम ज़्यादातर बच्चे नहीं जानते थे. उसकी पहचान यह थी कि उसके एक हाथ में छः उंगलियां थीं. कसाई मास्टर की टोन से समझ में आया कि पैदाइशी बौड़म को कुछ खुराफ़ात करते हुए देख लिया गया था. वह मास्टर की मेज़ तक पहुंचा, कसाई ने एक बार उसे ऊपर से नीचे तक देखा. "जरा बाहर देख के अईयो धूप लिकल्लई कि ना." क्लास का दरवाज़ा खुला था और अच्छी खासी धूप भीतर बिखरी पड़ी थी. पैदाइशी बौड़म की समझ में ज्यादा कुछ आया नहीं लेकिन डर के मारे कांपते हुए कक्षा के बाहर जाकर आसमान की तरफ़ निगाह मारने अलावा उसके पास कोई चारा नहीं था. वापस लौटकर उसने हकलाते हुए कहा "न्न्निकल रही मास्साब..."
"तो जे बता कि धूप कां से लिकला करे?" पैदाइशी बौड़म ने फिर से हकलाते हुए कहा "स्स्सूरज से मास्साब ..."
"जे बता रात में क्या निकला करे?" पैदाइशी बौड़म के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना कसाई ने कहा: "रात में लिकला करै चांद. और चांद की वजै से रात में तारे भी लिकला करै हैं. तारे वैसे तो दिन में भी लिकला करै हैं पर सूरज की वजै से दिखाई ना देते."
पैदाइशी बौड़म के कन्धे पर हाथ रखकर क्रूर आवाज़ में कसाई मास्टर बोला: "इस बच्चे को दिन में तारे देखने का जादै सौक हैगा सायद जभी तो खीसें निपोर रिया था." इतना कहते कहते उसने अपनी कमीज़ की जेब से एक नई पेन्सिल निकाली और पैदाइशी बौड़म के छः उंगली वाले हाथ को ज़ोर से अपनी मेज़ पर रख दिया. किसी कुशल कारीगर की भांति उसने पैदाइशी बौड़म की उंगलियों के बीच एक ख़ास स्टाइल में पेन्सिल फ़िट की और अगले ही क्षण अपने दूसरे हाथ से पैदाइशी बौड़म के हाथ को इतनी ज़ोर से दबाया कि उसकी आंखें बाहर आने आने को हो गईं. उसकी बाहर निकलने को तैयार आंखों के कोरों से आंसू की मोटी धार बहना शुरू हो गई थी. करीब आधा मिनट चले इस जघन्य पिशाचकर्म को भाग्यवश पीरियड की घन्टी बजने से विराम मिला. मास्साब ने पेन्सिल वापस अपनी जेब में सम्हाली और वापस लौटते पैदाइशी बौड़म की पिछाड़ी पर एक भरपूर लात मारते हुए हमें चेताया: "सूअर के बच्चो! मास्साब की बात में धियान ना लगाया और जादै नक्सा दिखाया तो एक एक को नंगा कर के लटका दूंगा."
पैदाइशी बौड़म के प्रति किसी प्रकार की सहानुभूति व्यक्त करने का मौका नहीं मिल सका क्योंकि तिवारी मास्साब क्लास के बाहर खड़े थे. तिवारी मास्टर उर्फ़ थोरी बुड्ढे ने गुलाबी तोता बनाने में हमें पारंगत बना चुकने के बाद इधर दोएक महीनों से इस्कूल जाती लौण्डिया बनवाना चालू किया था. कन्धे पर बस्ता लगाए और दो हाथों में गुलदस्ता थामे स्कर्ट-ब्लाउज़ पहनने वाली घुंघराले बालों वाली यह बदसूरत लौण्डिया बनाना ज़्यादातर बच्चों को अच्छा लगता था. लफ़त्तू की रफ़ कॉपी इस्कूल जाती लौण्डिया के बेडौल अश्लील चित्रों से अटी पड़ी थी.
किसी तरह स्कूल खत्म हुआ. मैं मनहूसियत और परेशानी का जीता जागता पुतला बन गया था लफ़त्तू के बिना. घर पहुंच कर बेमन से मैंने कुछ दूध नाश्ता समझा और कपड़े बदल कर नहर की तरफ़ चल दिया. मैं नहर की दिशा में मुड़ ही रहा था कि घासमण्डी के सामने की अपनी दुकान से लालसिंह ने आवाज़ लगाकर मुझे बुलाया. अभी वह स्कूल की पोशाक में ही था. उसके पापा कहीं गए हुए थे और वह लफ़त्तू को लेकर चिन्तित था. उसने मुझे लफ़त्तू का सबसे करीबी दोस्त समझा, इतनी सी बात से ही मेरी मनहूसियत कुछ कम हो आई. सही बात तो यह थी कि मुझे पता ही नहीं था कि लफ़त्तू को असल में क्या हुआ था. वह बीमार था और बहुत बीमार था. बस. मैंने लालसिंह को सुबह वाली बात बता दी कि कैसे मैंने लफ़त्तू के मम्मी-पापा को उसे मुरादाबाद वाली बस की तरफ़ ले जाते देखा था और कैसे वह कांप रहा था गर्मी के बावजूद.
लफ़त्तू के बारे में दसेक मिनट बातें करने के बाद मेरे मन से जैसे कोई बोझा उतरा. लालसिंह ने दूध-बिस्कुट सुतवाया. पेट भरा होने के बावजूद लालसिंह की दुकान का दूध बिस्कुट कभी भी पिरोया जा सकता था. दूध-बिस्कुट सूतते हुए अचानक मेरी निगाह पसू अस्पताल की तरफ़ गई. जब से गोबरडाक्टर कुच्चू गमलू नाम्नी हमारी काल्पनिक प्रेयसियों के साथ हल्द्वानी चला गया था, मेरी उस तरफ़ देखने की इच्छा तक नहीं होती थी.
मुझे अनायास उस तरफ़ देखता देख लालसिंह कह उठा - "ये नया गोबरडाक्टर साला अपने बच्चों को लेकर नहीं आनेवाला है बता रहे थे. नैनीताल में पढ़ती है इसकी लौण्डिया. भौत माल है बता रहा था फ़ुच्ची ..."
फ़ुच्ची! यानी फ़ुच्ची कप्तान! नैनीतालनिवासिनी कन्या के बाबत चलने ही वाली मसालापूरित बातचीत को मैंने काटते हुए लालसिंह से पूछा कि फ़ुच्ची कप्तान कहां है. "अबे कल ही वापस आया है फ़ुच्ची रामनगर. साला और काला हो गया है. ..."
फ़ुच्ची के रामनगर पुनरागमन के समाचार ने मुझे काफ़ी प्रसन्न किया. फ़ुच्ची मेरे उस्ताद लफ़त्तू का भी उस्ताद था सो उसके माध्यम से लफ़त्तू के स्वास्थ्य के बारे में आधिकारिक सूचना प्राप्त कर पाने की मेरी उम्मीदों को बड़ा सहारा मिला. लालसिंह की दुकान से नहर की तरफ़ जाने के बजाय मैं अपने घर की छत पर पहुंच गया. दर असल मैं कुछ देर अकेला रहना चाहता था. बन्टू को वहां न पाकर मुझे तसल्ली हुई. अपनी छत फांदकर मैं ढाबू की छत पर मौजूद पानी की टंकी से पीठ टिकाए बैठने ही वाला था कि उधर हरिया हकले वाली छत की साइड से बागड़बिल्ला आ गया. लफ़त्तू और फ़ुच्ची जैसे घुच्ची-सुपरस्टारों की गैरमौजूदगी के कारण बागड़बिल्ला अब तकरीबन बेरोजगार हो गया था और दिन भर आवारों सूअरों की तरह यहां वहां भटका करता. नीचे सरदारनी के स्कूल में मधुबाला ट्य़ूशन पढ़ने आए बच्चों को कोई इंग्लिश पोयम रटा रही थी. कुछ देर इधर उधर की बातें करने के बाद बागड़बिल्ले ने असली बात पर आते हुए मुझसे आर्थिक सहायता का अनुरोध किया. दर असल उसे घर से अठन्नी देकर दही मंगवाया गया था. हलवाई की दुकान तक पहुंचने से पहले ही घुच्ची खेल रहे बच्चों को देख कर उससे रहा नहीं गया जहां वह पांच मिनट में सारे पैसे हार गया. बागड़बिल्ले जैसे टौंचा उस्ताद का घुच्ची में हारना आम नहीं होता था. मेरे पास पच्चीस तीस पैसे थे जो मैंने उसे अगले दिन वापस किये जाने की शर्त पर उसे दे दिये, हालांकि मैं जानता था कि बागड़बिल्ला किसी भी कीमत पर उन पैसों को वापस नहीं चुका सकेगा. वह बहुत गरीब परिवार से था और उसकी मां इंग्लिश मास्टरानी के घर बर्तन-कपड़े धोने का काम किया करती थी. जाते जाते उसने एक बात कहकर मुझे उत्फुल्लित कर दिया - "फ़ुच्ची तुझे याद कर रहा था यार!" मेरे यह पूछने पर कि फ़ुच्ची कहां मिलेगा उसने अपनी चवन्नी जैसी आधी आंख को चौथाई बनाते हुए दोनों हाथों की मध्यमा उंगलियों को मिला कर घुच्ची का सार्वभौमिक इशारा बनाते हुए कहा - "वहीं! और कहां!"
मैं नीचे उतर कर भागता हुआ साह जी की आटे की चक्की के आगे से होता हुआ घुच्चीस्थल पहुंचा पर खेल निबट चुका था और खिलाड़ियों के बदले वहां नाली पर पंगत बनाकर बैठे छोटे बच्चे सामूहिक निबटान में मुब्तिला थे. ये इतने छोटे थे कि उनसे अभी अभी सम्पन्न हुए खेल और उसके खिलाड़ियों के बारे में कोई जानकारी हासिल हो पाने का कोई मतलब नहीं था.
घुच्चीस्थल से आगे का जुगराफ़िया मेरे लिए ज़्यादा परिचित न था सो मैं मन मारे वापस घर की तरफ़ चल दिया. बस अड्डे पर आखिरी गाड़ी आ लगी थी. और दिन होता तो लफ़त्तू और मैं डिब्बू तलाशने वहां ज़रूर जाते. माचिस के लेबेल इकठ्ठा करने के शौक को किनारे कर हमने तीन चार महीनों से डिब्बू यानी सिगरेट के खाली डिब्बे इकठठा करने का शौक पाल लिया था. डिब्बू इकठ्ठा करना माचिस के लेबेल इकठ्ठा करने की बनिस्बत ज़्यादा एडल्ट माना जाता था क्योंकि डिब्बुओं के साथ भी घुच्ची जैसा एक जुए वाला खेल खेला जा सकता था.
इतने में मेरी निगाह बस से बाहर उतरते मनहूस सूरत बनाए लफ़त्तू के पापा पर पड़ी. बस से बाहर उतरने वाले वे आखिरी आदमी थे. यानी लफ़त्तू और उसकी मां वहीं हैं मुरादाबाद में. मेरा अनुमान गलत भी हो सकता था क्योंकि यह सम्भव था कि वे दोनों दिन के किसी पहर वापस लौट आए हों और ... और ...
गांठ लगा वही थैला लफ़त्तू के पापा के कन्धे पर टंगा था. दिन भर की पस्ती और थकान उनके चेहरे और देह पर देखी जा सकती थी. मेरे लिए यह निर्णायक क्षण था. मैं लपकता हुआ उनके सामने पहुंचा और "नमस्ते अंकल" कह कर उनके सामने स्थिर हो गया. उन्होंने अपना धूलभरा चश्मा आंखों से उतारा और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए मरियल आवाज़ में कहा "जीते रहो बेटे, जीते रहो."
"अंकल लफ़त्तू ..."
"भर्ती करा दिया बेटा मुरादाबाद में उसको. तेरी आन्टी भी वहीं है ..."
मुझे लफ़त्तू को अस्पताल में भर्ती कराए जाने की इमेज काफ़ी मैलोड्रैमैटिक और फ़िल्मी लगी और मुझे पिक्चरों में देखे गए सफ़ेद रंग से अटे अस्पतालों और मरीज़ों वाले सारे सीन याद आने लगे. मैं कुछ और पूछता, वे मेरे सामने से घिसटते से अपने घर की दिशा में चल दिए.
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Thursday, April 15, 2010
Thursday, April 8, 2010
बेते हाती हाती होता ऐ औल दानवल दानवल
लफ़त्तू की सतत उदासी और उसका ज़्यादातर ख़ामोश रहना मेरी बरदाश्त से बाहर हो गया था. तैराकी की मौज के बाद हम जब भी कायपद्दा खेलने की शुरुआत करते, लफ़त्तू बिना कोई नोटिस दिए नहर से बाहर आकर पिछले रास्ते से हाथीखाने की तरफ़ निकल जाया करता. हाथीखाना मुझे बहुत आकर्षित करता था लेकिन मुझे घर से वहां तक जाने की इजाज़त नहीं थी क्योंकि हाथीखाना पाकिस्तान के पिछवाड़े में स्थित था.
रोज़ सुबह हमारे स्कूल जाने से पहले एक हाथी अपने महावत के साथ घर के बाहर से गुज़रा करता. हाथी जाहिर है वैसा ही था जैसा कि हाथी होता है. रामनगर के अपने बिल्कुल शुरुआती दिनों में मेरे और मेरी बहनों के लिए वह दुनिया का सबसे बड़ा अजूबा था. एकाध किताबों में मैं उसे देख चुका था पर वह इतना बड़ा होगा, मेरी कल्पना से बाहर था. धीरे धीरे वह रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा बन गया और हमें उसकी ऐसी आदत पड़ गई थी कि अपने ऐन बगल में गुज़रते हाथी को देख कर भी हम कभी कभी उसे नहीं देखते थे. हां अगर चाचा या मामा वगैरह के बच्चे किन्हीं छुट्टियों में हमारे घर आते तो हम उन्हें सबसे पहले बताते कि हमारे घर के सामने से रोज़ सुबह हाथी गुज़रता है - सच्ची मुच्ची का हाथी. ऐसा बताते हुए हमें अपार गर्व महसूस होता और काफ़ी सारा सुपीरियोरिटी कॉम्प्लेक्स भी. तब लगता था जैसे वह हमारा अपना हाथी हो.
जंगलात डिपार्टमेन्ट के इस हाथी के मुतल्लिक मेरी चन्द ऑफ़ीशियल उत्सुकताओं के बाबत मुझे लफ़त्तू कई जीकेनुमा जानकारियां मुहैय्या करवा चुका था. मसलन "हाती एक बाल में इत्ती तत्ती करता ऐ बेते कि नगलपालिका का बमपुलिछ दो बाल भल जाए" या "छुबै नाछ्ते में एक पेल खाता ऐ हाती" "हाती का द्लाइबल हाती की पीथ पल ई तोता ऐ क्यूंकि दलाइबल के बिना उतको नींद नईं आ छकती." इस लास्ट वाली सूचना को लेकर एक दफ़ा बागड़बिल्ले और लफ़त्तू के बीच एक सेमिनार कायपद्दा खेलते वक़्त आयोजित किया जा चुका था. बागड़बिल्ले का विचार था कि हाथी पहली बात तो सोते ही नहीं और अगर सोते हैं तो लेट कर और वो भी उल्टा लेट कर. ऐसे में महावत के उसकी पीठ पर सोने की बात तर्कसंगत नहीं लगती थी. बागड़बिल्ला यह भी कहा करता था कि अगर महावत का दिमाग खराब होगा तभी वह बैठ कर सोने की नौकरी करेगा. वह भी एक जानवर की पीठ पर. लफ़त्तू हारने हारने को था जब उसने अपनी प्रत्युत्पन्नता का परिचय दिया. "बेते मैं तो बैथ के बी छो छकता ऊं औल खले हो के बी."
कायपद्दे को संक्षिप्त ब्रेक देकर उसने खड़े होकर आंखें मूंदीं और बाकायदा खर्राटे निकाले. मिनट भर यह ठेटर करने के उपरान्त वह एक पेड़ के ठूंठ पर बैठा और फिर से आंखें मूंद कर खर्राटे मारने लगा. जब तक बागड़बिल्ला कुछ तर्क सोच पाता लफ़त्तू चिल्लाकर आंख मारता हुआ बोला "औल बेते हाती हाती होता ऐ औल दानवल दानवल ... बी यो ओ ओ ओ ई ..."
लफ़त्तू के उदासीन हो जाने से बन्टू भीतर ही भीतर ज़्यादा प्रसन्न और सन्तुष्ट लगने लगा था. चूंकि मेरे पास लफ़त्तूसान्निध्यरहित समय कुछ ज़्यादा रहने लगा था, बन्टू मेरे जीवन में चरस बोने का काम ज़्यादा सिन्सियरिटी के साथ करने लगा था. अपने विदेशी मामा के लाए पुराने सामान में से उसने एक टूटा हुआ विदेशी परकार मुझे बतौर उपहार दिया. इस टूटे परकार में पेन्सिल फंसाने वाले हिस्से की कील टूट गई थी और किसी भी जुगाड़ टैक्नीक के प्रयोग से उसकी मदद से किसी भी तरह का गोला नहीं बनाया जा सकता था. इस टूटे परकार का यू एस पी यह था कि उसकी मूठ पर अंग्रेज़ी में साफ़ साफ़ ’मेड इन इंग्लैण्ड’ लिखा हुआ था. मेरे पर्सनल कलेक्शन में यह पहली इम्पोर्टेड चीज़ थी. तनिक झेंप और अस्थाई ग्लानि के बावजूद मुझे बन्टू का ऐसा करना अच्छा लग रहा था. मुझे पता था कि लफ़त्तू इस काम का हर हाल में सार्वजनिक विरोध करता.
बन्टू के संसर्ग में अजीब हॉकलेट टाइप की चीज़ों में मन लगाना पड़ता था. इधर कुछ दिनों से मेरी पेन्सिल की मांग ज़्यादा हो गई थी और मां हर रोज़ पेन्सिल मांगने पर सवालिया निगाहों से देखा करने लगी थी. मैं उसे पिछले ही दिन ली गई तकरीबन खत्म हो चुकी पेन्सिल दिखा कर कहता कि उनको बार बार छीलना पड़ रहा है क्योंकि उनकी नोंकें छीलते ही टूट जाया कर रही हैं.
दर असल बन्टू ने कहीं से यह वैज्ञानिक सूचना प्राप्त कर ली थी कि पेन्सिल की छीलन को दो हफ़्तों तक पानी में डुबो कर रखा जाए तो वे रबर में तब्दील हो जाती हैं. सो हम दिम भर अपनी पेन्सिलें छीलते और अपने अपने प्लास्टिक के टूटे डब्बों में छीलन को इकठ्ठा करते जाते. ये डब्बे ढाबू की छत के एक मुफ़ीद हिस्से में रखे जाते थे जहां जाकर हर शाम को अपने अपने छीलभण्डार का मुआयना किया जाता. दसेक दिन में हम दोनों के डब्बे तकरीबन भर गए. एक दिन बाकायदा नियत किया गया और इन डिब्बों में पानी डाला गया.
जैसा तैसा खेल वगैरह चुकने के बाद घर जाते समय हम इन डब्बों को नाक तक ले जाते और गहरी सांसों से सूंघा करते. दो तीन दिन तक तो कोई खास बू नहीं आई पर उसके बाद छीलन सड़ने लगी और डब्बों से गन्दी बास सी आने लगी. "मेरे मामा का लड़का बता रहा था कि शुरू में बदबू आएगी पर पन्द्रह दिन में वह मटेरियल खुशबूदार रबड़ में तब्दील हो जाएगा."
मैं असमंजस में रहता कि बन्टू की बात का यक़ीन करूं या नहीं.
इधर लफ़त्तूने न सिर्फ़ स्कूल आना बन्द कर दिया था, वह हमारे साथ तैरने आना भी बन्द कर चुका था. यह बदलाव मेरे लिए एक बहुत बड़ी पर्सनल ट्रैजेडी था.
एक दिन तैराकी के बाद जब हम कायपद्दा खेलने को पितुवा लाटे के आम के बगीचे का रुख कर रहे थे तो मैंने लफ़त्तू को धीमी चाल से हरिया हकले की छत की तरफ़ जाते देखा. वह खासा मरियल हो गया था या लग रहा था. न उसकी चाल में वह मटक बची थी न शरारतों में उसकी कोई दिलचस्पी.
अड्डू का पीछा करते दौड़ते हुए भी चोर निगाह से मैंने उसे हरिया हकले का ज़ीना चढ़ते हुए देख लिया. दसेक मिनट बाद मैंने बहाना बनाकर हरिया हकले के ज़ीने की राह ली. हरिया की छत पर पहुंचते ही मैंने जिस पहली चीज़ पर ग़ौर किया वह थी हवा में फैली टट्टी की मरियल सी गन्ध. उसके बाद मेरी निगाह लफ़त्तू पर गई जो हमारी छत पर जा चुकने के बजाय ढाबू की छत पर खड़ा बड़ी हिकारत से किसी चीज़ को ध्यान से देख रहा था. उसने मुझे देखा तो उसके चेहरे की हिकारत एक डिग्री बढ़ गई.
हमारी छत की तरफ़ कूदते हुए उसने मुझसे पूछा: "ये दब्बे में कुत्ते की तत्ती तूने लखी थी लबल बनाने को?"
मेरे दबी ज़ुबान में हां कहने पर उसने ज़मीन पर थूका और कहने लगा "तूतिया थाला! मैंने का ता ना कि ये बन्तू के चक्कल में पलेगा तो तूतिया बन दाएगा"
मैं ढाबू की छत पर था. हमारे दोनों डिब्बों के भीतर का बदबूदार गोबर सरीखा असफल वैज्ञानिकी उत्पाद बिखरा पड़ा था और वाक़ई बहुत बास मार रहा था.
मैं जब तक कुछ कहता मुझे अपने पीछे आ चुके बन्टू की आवाज़ सुनाई दी "ये किसने किया बे?"
बन्टू को सुनते ही लफ़त्तू पलटा. बन्टू बोल रहा था "आज रात की बात थी बे. मेरे मामा का लड़का बता रहा था कि कल से इसमें खुशबू आ जाती और बढ़िया रबर बन जाता." वह वहीं खड़ा हुआ था और बास के बावजूद गोबर के बगल में खड़ा बना हुआ था.
विदेशी मामा के बेटे का ज़िक्र आते ही लफ़त्तू फट पड़ा "तेले मामा के इंग्लैन्द में बनाते होंगे कुत्ते की तत्ती छे लबल छाले. गब्बल कोई तूतिया ऐ बेते! ... और छुन ..." इतने दिनों तक अदृश्य रहे लफ़त्तू का यह रूप मुझे बहुत अच्छा लग रहा था. मेरा मन कर रहा था कि उसका हाथ थाम कर सीधा बमपकौड़े वाले ठेले तक भाग चलूं. लफ़त्तू ने हाल में सीखा हुआ डायलाग जारी किया " बन्तू बेते वो दमाने लद गए दब गधे पकौली हगते थे."
लफ़त्तू द्वारा बन्टू को डांटे जाने का सिलसिला कोई दो मिनट और चला और ज़रा देर में हम दोनों वाकई बमपकौड़े के ठेले की तरफ़ जा रहे थे. मैं आश्वस्त था कि लफ़त्तू के पास पैसे ज़रूर होंगे. लफ़त्तू के सिर्फ़ एक बमपकौड़ा मंगवाया. मेरे वास्ते. "याल मुदे मना कला ऐ दाक्तल ने. तू खा."
पकौड़ा उसी दिव्य स्वाद से लबरेज़ था. लेकिन उस से मिली ऊर्जा के बावजूद मैं लफ़त्तू की बीमारी के बारे में उस से पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. मैं ’दोस्ती’ फ़िल्म का कोई डायलाग भी याद करने की कोशिश कर रहा था.
चुपचाप घर का रुख करते हुए लफ़त्तू ने बस अड्डे पर रुकी एक बस की ओट में पेशाब करते समय मुझे बताया कि उसे रोज़ रात को भयानक बुखार आता है और वह सो नहीं पाता और यह भी कि शायद कल उसे किसी बड़े डाक्टर को दिखाने मुरादाबाद ले जाया जाने वाला है.
मुझे रात को बहुत देर नींद नहीं आई. सुबह मैं स्कूल जाने को सड़क पर उतरा तो देखा कि एक हाथठेले पर लेटे लफ़त्तू को बस अड्डे की तरफ़ ले जाया जा रहा था. हाथ में गांठ लगा एक थैला थामे उसके पापा आगे आगे थे. ठेला धकेलने वाले पहलवान के पीछे सुबकती हुई उसकी दुबली मां थी और उसकी बड़ी बहन. उन के ठीक पीछे एक और ठेला चला अ रहा था जिसमें रोज़ की तरह भैंस का मीट ले जाया जा रहा था. शेरसिंह की दुकान के इस हिस्से से मन्द गति से आ रहे हाथी की सूंड़ दिखाई देने लगी थी.
मैंने असहाय निगाहों से लफ़त्तू की तरफ़ देखा. वह बुरी तरह कांप रहा था और गर्मी के मौसम के बावजूद उसने कम्बल ओढ़ा हुआ था. मुझ से और नहीं देखा गया. अपनी भर आई आंखों के किनारों को जल्दी जल्दी पोंछता हुआ मैं स्कूल की तरफ़ भाग चला.
रोज़ सुबह हमारे स्कूल जाने से पहले एक हाथी अपने महावत के साथ घर के बाहर से गुज़रा करता. हाथी जाहिर है वैसा ही था जैसा कि हाथी होता है. रामनगर के अपने बिल्कुल शुरुआती दिनों में मेरे और मेरी बहनों के लिए वह दुनिया का सबसे बड़ा अजूबा था. एकाध किताबों में मैं उसे देख चुका था पर वह इतना बड़ा होगा, मेरी कल्पना से बाहर था. धीरे धीरे वह रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा बन गया और हमें उसकी ऐसी आदत पड़ गई थी कि अपने ऐन बगल में गुज़रते हाथी को देख कर भी हम कभी कभी उसे नहीं देखते थे. हां अगर चाचा या मामा वगैरह के बच्चे किन्हीं छुट्टियों में हमारे घर आते तो हम उन्हें सबसे पहले बताते कि हमारे घर के सामने से रोज़ सुबह हाथी गुज़रता है - सच्ची मुच्ची का हाथी. ऐसा बताते हुए हमें अपार गर्व महसूस होता और काफ़ी सारा सुपीरियोरिटी कॉम्प्लेक्स भी. तब लगता था जैसे वह हमारा अपना हाथी हो.
जंगलात डिपार्टमेन्ट के इस हाथी के मुतल्लिक मेरी चन्द ऑफ़ीशियल उत्सुकताओं के बाबत मुझे लफ़त्तू कई जीकेनुमा जानकारियां मुहैय्या करवा चुका था. मसलन "हाती एक बाल में इत्ती तत्ती करता ऐ बेते कि नगलपालिका का बमपुलिछ दो बाल भल जाए" या "छुबै नाछ्ते में एक पेल खाता ऐ हाती" "हाती का द्लाइबल हाती की पीथ पल ई तोता ऐ क्यूंकि दलाइबल के बिना उतको नींद नईं आ छकती." इस लास्ट वाली सूचना को लेकर एक दफ़ा बागड़बिल्ले और लफ़त्तू के बीच एक सेमिनार कायपद्दा खेलते वक़्त आयोजित किया जा चुका था. बागड़बिल्ले का विचार था कि हाथी पहली बात तो सोते ही नहीं और अगर सोते हैं तो लेट कर और वो भी उल्टा लेट कर. ऐसे में महावत के उसकी पीठ पर सोने की बात तर्कसंगत नहीं लगती थी. बागड़बिल्ला यह भी कहा करता था कि अगर महावत का दिमाग खराब होगा तभी वह बैठ कर सोने की नौकरी करेगा. वह भी एक जानवर की पीठ पर. लफ़त्तू हारने हारने को था जब उसने अपनी प्रत्युत्पन्नता का परिचय दिया. "बेते मैं तो बैथ के बी छो छकता ऊं औल खले हो के बी."
कायपद्दे को संक्षिप्त ब्रेक देकर उसने खड़े होकर आंखें मूंदीं और बाकायदा खर्राटे निकाले. मिनट भर यह ठेटर करने के उपरान्त वह एक पेड़ के ठूंठ पर बैठा और फिर से आंखें मूंद कर खर्राटे मारने लगा. जब तक बागड़बिल्ला कुछ तर्क सोच पाता लफ़त्तू चिल्लाकर आंख मारता हुआ बोला "औल बेते हाती हाती होता ऐ औल दानवल दानवल ... बी यो ओ ओ ओ ई ..."
लफ़त्तू के उदासीन हो जाने से बन्टू भीतर ही भीतर ज़्यादा प्रसन्न और सन्तुष्ट लगने लगा था. चूंकि मेरे पास लफ़त्तूसान्निध्यरहित समय कुछ ज़्यादा रहने लगा था, बन्टू मेरे जीवन में चरस बोने का काम ज़्यादा सिन्सियरिटी के साथ करने लगा था. अपने विदेशी मामा के लाए पुराने सामान में से उसने एक टूटा हुआ विदेशी परकार मुझे बतौर उपहार दिया. इस टूटे परकार में पेन्सिल फंसाने वाले हिस्से की कील टूट गई थी और किसी भी जुगाड़ टैक्नीक के प्रयोग से उसकी मदद से किसी भी तरह का गोला नहीं बनाया जा सकता था. इस टूटे परकार का यू एस पी यह था कि उसकी मूठ पर अंग्रेज़ी में साफ़ साफ़ ’मेड इन इंग्लैण्ड’ लिखा हुआ था. मेरे पर्सनल कलेक्शन में यह पहली इम्पोर्टेड चीज़ थी. तनिक झेंप और अस्थाई ग्लानि के बावजूद मुझे बन्टू का ऐसा करना अच्छा लग रहा था. मुझे पता था कि लफ़त्तू इस काम का हर हाल में सार्वजनिक विरोध करता.
बन्टू के संसर्ग में अजीब हॉकलेट टाइप की चीज़ों में मन लगाना पड़ता था. इधर कुछ दिनों से मेरी पेन्सिल की मांग ज़्यादा हो गई थी और मां हर रोज़ पेन्सिल मांगने पर सवालिया निगाहों से देखा करने लगी थी. मैं उसे पिछले ही दिन ली गई तकरीबन खत्म हो चुकी पेन्सिल दिखा कर कहता कि उनको बार बार छीलना पड़ रहा है क्योंकि उनकी नोंकें छीलते ही टूट जाया कर रही हैं.
दर असल बन्टू ने कहीं से यह वैज्ञानिक सूचना प्राप्त कर ली थी कि पेन्सिल की छीलन को दो हफ़्तों तक पानी में डुबो कर रखा जाए तो वे रबर में तब्दील हो जाती हैं. सो हम दिम भर अपनी पेन्सिलें छीलते और अपने अपने प्लास्टिक के टूटे डब्बों में छीलन को इकठ्ठा करते जाते. ये डब्बे ढाबू की छत के एक मुफ़ीद हिस्से में रखे जाते थे जहां जाकर हर शाम को अपने अपने छीलभण्डार का मुआयना किया जाता. दसेक दिन में हम दोनों के डब्बे तकरीबन भर गए. एक दिन बाकायदा नियत किया गया और इन डिब्बों में पानी डाला गया.
जैसा तैसा खेल वगैरह चुकने के बाद घर जाते समय हम इन डब्बों को नाक तक ले जाते और गहरी सांसों से सूंघा करते. दो तीन दिन तक तो कोई खास बू नहीं आई पर उसके बाद छीलन सड़ने लगी और डब्बों से गन्दी बास सी आने लगी. "मेरे मामा का लड़का बता रहा था कि शुरू में बदबू आएगी पर पन्द्रह दिन में वह मटेरियल खुशबूदार रबड़ में तब्दील हो जाएगा."
मैं असमंजस में रहता कि बन्टू की बात का यक़ीन करूं या नहीं.
इधर लफ़त्तूने न सिर्फ़ स्कूल आना बन्द कर दिया था, वह हमारे साथ तैरने आना भी बन्द कर चुका था. यह बदलाव मेरे लिए एक बहुत बड़ी पर्सनल ट्रैजेडी था.
एक दिन तैराकी के बाद जब हम कायपद्दा खेलने को पितुवा लाटे के आम के बगीचे का रुख कर रहे थे तो मैंने लफ़त्तू को धीमी चाल से हरिया हकले की छत की तरफ़ जाते देखा. वह खासा मरियल हो गया था या लग रहा था. न उसकी चाल में वह मटक बची थी न शरारतों में उसकी कोई दिलचस्पी.
अड्डू का पीछा करते दौड़ते हुए भी चोर निगाह से मैंने उसे हरिया हकले का ज़ीना चढ़ते हुए देख लिया. दसेक मिनट बाद मैंने बहाना बनाकर हरिया हकले के ज़ीने की राह ली. हरिया की छत पर पहुंचते ही मैंने जिस पहली चीज़ पर ग़ौर किया वह थी हवा में फैली टट्टी की मरियल सी गन्ध. उसके बाद मेरी निगाह लफ़त्तू पर गई जो हमारी छत पर जा चुकने के बजाय ढाबू की छत पर खड़ा बड़ी हिकारत से किसी चीज़ को ध्यान से देख रहा था. उसने मुझे देखा तो उसके चेहरे की हिकारत एक डिग्री बढ़ गई.
हमारी छत की तरफ़ कूदते हुए उसने मुझसे पूछा: "ये दब्बे में कुत्ते की तत्ती तूने लखी थी लबल बनाने को?"
मेरे दबी ज़ुबान में हां कहने पर उसने ज़मीन पर थूका और कहने लगा "तूतिया थाला! मैंने का ता ना कि ये बन्तू के चक्कल में पलेगा तो तूतिया बन दाएगा"
मैं ढाबू की छत पर था. हमारे दोनों डिब्बों के भीतर का बदबूदार गोबर सरीखा असफल वैज्ञानिकी उत्पाद बिखरा पड़ा था और वाक़ई बहुत बास मार रहा था.
मैं जब तक कुछ कहता मुझे अपने पीछे आ चुके बन्टू की आवाज़ सुनाई दी "ये किसने किया बे?"
बन्टू को सुनते ही लफ़त्तू पलटा. बन्टू बोल रहा था "आज रात की बात थी बे. मेरे मामा का लड़का बता रहा था कि कल से इसमें खुशबू आ जाती और बढ़िया रबर बन जाता." वह वहीं खड़ा हुआ था और बास के बावजूद गोबर के बगल में खड़ा बना हुआ था.
विदेशी मामा के बेटे का ज़िक्र आते ही लफ़त्तू फट पड़ा "तेले मामा के इंग्लैन्द में बनाते होंगे कुत्ते की तत्ती छे लबल छाले. गब्बल कोई तूतिया ऐ बेते! ... और छुन ..." इतने दिनों तक अदृश्य रहे लफ़त्तू का यह रूप मुझे बहुत अच्छा लग रहा था. मेरा मन कर रहा था कि उसका हाथ थाम कर सीधा बमपकौड़े वाले ठेले तक भाग चलूं. लफ़त्तू ने हाल में सीखा हुआ डायलाग जारी किया " बन्तू बेते वो दमाने लद गए दब गधे पकौली हगते थे."
लफ़त्तू द्वारा बन्टू को डांटे जाने का सिलसिला कोई दो मिनट और चला और ज़रा देर में हम दोनों वाकई बमपकौड़े के ठेले की तरफ़ जा रहे थे. मैं आश्वस्त था कि लफ़त्तू के पास पैसे ज़रूर होंगे. लफ़त्तू के सिर्फ़ एक बमपकौड़ा मंगवाया. मेरे वास्ते. "याल मुदे मना कला ऐ दाक्तल ने. तू खा."
पकौड़ा उसी दिव्य स्वाद से लबरेज़ था. लेकिन उस से मिली ऊर्जा के बावजूद मैं लफ़त्तू की बीमारी के बारे में उस से पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. मैं ’दोस्ती’ फ़िल्म का कोई डायलाग भी याद करने की कोशिश कर रहा था.
चुपचाप घर का रुख करते हुए लफ़त्तू ने बस अड्डे पर रुकी एक बस की ओट में पेशाब करते समय मुझे बताया कि उसे रोज़ रात को भयानक बुखार आता है और वह सो नहीं पाता और यह भी कि शायद कल उसे किसी बड़े डाक्टर को दिखाने मुरादाबाद ले जाया जाने वाला है.
मुझे रात को बहुत देर नींद नहीं आई. सुबह मैं स्कूल जाने को सड़क पर उतरा तो देखा कि एक हाथठेले पर लेटे लफ़त्तू को बस अड्डे की तरफ़ ले जाया जा रहा था. हाथ में गांठ लगा एक थैला थामे उसके पापा आगे आगे थे. ठेला धकेलने वाले पहलवान के पीछे सुबकती हुई उसकी दुबली मां थी और उसकी बड़ी बहन. उन के ठीक पीछे एक और ठेला चला अ रहा था जिसमें रोज़ की तरह भैंस का मीट ले जाया जा रहा था. शेरसिंह की दुकान के इस हिस्से से मन्द गति से आ रहे हाथी की सूंड़ दिखाई देने लगी थी.
मैंने असहाय निगाहों से लफ़त्तू की तरफ़ देखा. वह बुरी तरह कांप रहा था और गर्मी के मौसम के बावजूद उसने कम्बल ओढ़ा हुआ था. मुझ से और नहीं देखा गया. अपनी भर आई आंखों के किनारों को जल्दी जल्दी पोंछता हुआ मैं स्कूल की तरफ़ भाग चला.
Tuesday, March 24, 2009
कायपद्दा, पुगत्तम और रत्तीपइयां
धूल मैदान पर से नौटंकी पाल्टी का जाना और वहां निमाइस का लगना एक साथ घटित हुआ. छुट्टियां चल रही थीं. छत पर क्रिकेट खेलना थोड़ा कम हो गया था. निमाइस की रौनक शाम को गुलज़ार हुआ करती थी. इधर हम लोगों ने लफ़त्तू की अगुवाई में घर के पिछवाड़े स्थित पीताम्बर उर्फ़ पितुवा लाटे के आम के बगीचे के भी पीछे बहने वाली छोटी नहर में दोपहरें गुज़ारने का कार्यक्रम चालू कर दिया था.
घर पर सुबह के किसी वक्त पूरा खाना खा चुकते ही मैं नेकर-कमीज़ पहनकर घासमंडी पहुंच जाता. वहां बंटू, बागड़बिल्ला, लफ़त्तू इत्यादि के साथ जल्दी ही पूरी टीम जुट जाती और कुछ भी अश्लील गाना गाते, कूल्हे मटकाते लफ़त्तू का अनुसरण करते हम नहर पहुंचते. काफ़ी खोज बीन के बाद हम लोगों ने नहर के एक हिस्से को अपने तरणकर्म हेतु सबसे मुफ़ीद पाया था. उस जगह नहर के दोनों तरफ़ आम के घने पेड़ थे और थोड़ा सा अन्दर चले जाने पर हमें सड़क पर चल रहा कोई भी आदमी नहीं देख सकता था.
नहर पहुंचते और बहता पानी देखते ही हमारी सारी शर्म-ओ-हया काफ़ूर हो जाती और हम सेकेंड से कम समय में पूरे दिगम्बर होकर पानी में कूद पड़ते. बंटू थोड़े ठसकेदार घर का था सो वह नेकर के नीचे बाकायदा चड्ढी पहने रहा करता था. पूरे कपड़े वह कभी नहीं उतारा करता. हम लोग इस कार्यक्रम विषेष के लिए चड्ढी घर पर ही फेंक आया करते थे. बंटू को इस नक्शेबाज़ी के ऐवज़ में एक्स्ट्रा काम करना पड़ता था. तैराकी समाप्त होने पर वह किसी झाड़ी की ओट में पहले चड्ढी उतारता, नेकर पहनता और चड्ढी को सुखाने हेतु किसी पत्थर पर फैला देता. पहली बार जब वह गीली चड्ढी के ही ऊपर नेकर पहनकर घर चला गया था तो गीली नेकर को जस्टीफ़ाई करने के लिए उसे कई सारी कथाओं का निर्माण करना पड़ा था, जो झूठ पर झूठ साबित होती गईं और उसके पापा ने उसे आगे से लफ़त्तू के साथ देखे जाने की सूरत में ज़िन्दा गाड़ देने की चेतावनी दी और झाड़ू से उसकी पिछाड़ी को लाल बना दिया. लेकिन लफ़त्तू का ग्लैमर अकल्पनीय था और लात-घूंसे-झाड़ू वगैरह से उसकी संगत का लुत्फ़ उठाने से देवताओं तक को नहीं रोका नहीं जा सकता था, यह तो फ़क़त बंटू था.
पानी के बहाव की रफ़्तार बहुत दोस्ताना होती थी और हम घन्टों उसमें छपछप किया करते. लफ़त्तू ख़ूब सारे मेढक पकड़ कर एक जगह इकठ्ठा कर लेता और उन्हें डरा कर नीमबेहोश बना चुकने के उपरान्त हम पर निशाना लगा लगा कर फेंका करता. गमलू-कुच्चू और मधुबाला को लेकर कई सम्मेलन तैरते-तैरते पूरे हो जाया करते थे. लफ़त्तू का दिल अभी तक उन्हीं में से एक को हमारी भाबी बनाने की टेक पर फंसा हुआ था जबकि बड्डे पाल्टी में गोबर डाक्टर द्वारा हमारे भइयानिर्मितीकरण के पश्चात मेरा जी दोनों से उखड़ गया था और मैं दुबारा से मन लगाकर मधुबाला से आशिकी में मुब्तिला हो चुका था. लफ़त्तू का तर्क यह था कि गोबरडाक्टर द्वारा हमें गमलू-कुच्चू का भइया कह कर पुकारा जाना उसका हरामीपन था और यह कि हर ज़िम्मेदार बाप अपनी लड़कियों की सेफ़्टी के लिए ऐसे बाबा-आदम ब्रांड नुस्ख़े अपनाता ही है. रक्षाबन्धन के दिन उसने घासमंडी का मुंह तक न देखने का प्लान बड्डे पाल्टी की रात ही वापस लौटते बना लिया था. "मुदे पागल छमल्लिया गोबल दाक्तल! मेला नाम बी गब्बल ऐ बेते गब्बल! दलता नईं किछी के बाप थे!" ' ... उहुं उहुं ... दान्त तत ... ' गुनगुनाते हुए उसने मेरा हाथ थाम कर उसने मुझे अपनी स्ट्रेटेजी और आसन्न अवश्यंभावी विजय के प्रति आश्वस्त किया था.
तैराकी के मज़े लूटने के बाद पीताम्बर उर्फ़ पितुवा लाटे के आम के बगीचे की तनिक नीची दीवार फांद कर वहां कायपद्दा नामक महान खेल खेला जाता. कायपद्दा में खिलाड़ियों में सबसे पहले एक चोर का चुनाव किया जाता था. चोर के चुनाव हेतु काम लाई जाने वाली टैक्नीक पुगत्तम कहलाती थी. यह चोर आम के किसी सघन और ढेर सारी टहनियों से भरपूर पेड़ के नीचे मिट्टी पर लकड़ी की मदद से एक गोल घेरा बनाता था. उसके बाद आम सहमति से करीब हाथ भर लम्बी लकड़ी को अड्डू बनाया जाता. चोर को छोड़कर सारे बच्चे पेड़ की टहनियों पर चढ़ जाते. खेल की शुरुआत में चोर को अपनी एक टांग उठाकर उठी हुई और स्थिर वाली दो टांगों के बीच निर्मित हवा के भीतर से अड्डू नामक लकड़ी को जितनी दूर संभव होता फेंक दिया करता.
अब चोर ने जल्दी से पेड़ पर चढ़कर किसी एक खिलाड़ी को छूना होता था. छू कर वापस ज़मीन पर कूदना होता था और भाग कर अड्डू को वापस गोल घेरे में प्रतिष्ठित कर देना होता था. ऐसा करके ही वह चोरयोनि से मुक्त होकर खिलाड़ीयोनि में वापस लौट सकता था. इसमें पेंच यह होता था कि अगर इस दौरान कोई खिलाड़ी कूद कर चोर से पहले अड्डू को घेरे में रख देता तो चोर चोर ही बना रहता और सारा अनुष्ठान एक बार और पूरा किया जाना होता था.
कायपद्दा खेलते हुए थकान जल्दी लग जाया करती. एक तो सारे नियम खिलाड़ियों की सुविधा से बनाए गए थे, न कि चोर की सो जो एक बार चोर बन गया वह तकरीबन सारे खेल भर चोर बना रहता था. बाद के दिनों में जब हमारा पहला मुसलमान दोस्त ज्याउल इस खेल को खेलने हमारी टीम में शामिल हुआ, किसी साज़िश के तहत हर बार वही चोर बना दिया जाता. ज्याउल रामनगर का नहीं था, मुरादाबाद से आया था. उसके पिताजी बिजली डिपार्टमेन्ट में इंजीनियर थे और मेरे पिताजी के दोस्त. उन्हीं के कहने पर ज्याउल को हमने इतना दुर्लभ विशेषाधिकार दिया हुआ था कि वह लगातार चोर बने और पदता रहे. कभी कभार लफ़त्तू उस पर दया करता और वालंटियर चोर बन जाता.
कायपद्दा खेलने के बाद भूख से भुखाने और प्यास से तिसाने हम अपने अपने घरों की तरफ़ एक छोटे ब्रेक के वास्ते चल पड़ते.
अल्मोड़ा, जहां हम लोग रामनगर आने से पहले रहा करते थे, पहाड़ी कस्बा था. बड़े भाई ने वहां मेरे वास्ते कहीं से एक बड़े टायर का जुगाड़ किया हुआ था. छोटी सी एक लकड़ी लेकर मैं उसे ठेलता हुआ इस ढाल से उस ढाल चलाया करता था. रामनगर मैदानी कस्बा था सो यहां ढालों पर टायर चलाने का रिवाज़ नहीं था. यहां हमारे पास ट्रकों के बैरिंगों से बने छोटे गोले थे जिन्हें रत्तीपइयां कहा जाता था. रत्तीपइयां को चलाने हेतु लोहे के मज़बूत तार का एक लम्बा और सीधा टुकड़ा इस्तेमाल में लाया जाता था. इस तार के एक सिरे को इस तरह से मोड़ा जाता था कि रत्तीपइयां उसमें खड़ी अवस्था में फ़िट हो जाए. अपार कौशल और प्रतिभा चाहिये होती थी रत्तीपइयां चलाने में. किसी बहुत जटिल मशीन से जूझने जैसा अनुभव होता था. जाहिर है मौज तो आती ही थी.
तैराकी और कायपद्दा के बाद का समय रत्तीपइयां चलाते हुए सब्ज़ीमंडी तक का चक्कर काटना धर्म बन गया था. यहां भी लफ़त्तू हमारा नेतृत्व किया करता हालांकि उसके पीछे-पीछे रत्तीपइयां चलाते जाना मोहल्ले और बाज़ार के लोगों की निगाह में अपनी बचीखुची इज़्ज़त का भुस भरा लेने का सबसे आसान तरीका माना जा सकता था पर मैंने कहा न कि लफ़त्तू के अकल्पनीय ग्लैमर के आगे क्या तो बेज्जती और क्या बेज्जती का ख़राब होना.
उस रोज़ हम लोग रत्तीपइयां कार्यक्रम निबटाने के बाद तार और ररत्तीपइयां को कन्धों पर गदा की तरह लटकाए घर लौट रहे थे जब कहीं से बदहवास सा भागता लालसिंह हमारे सामने आ गया. आते ही उसने "तुम थे कहां बे हरामियो?" पूछा.
पता यह चला कि दो घंटों से गोबरकुटुम्ब शहर में अपनी नई कार का प्रदर्शन करता घूम रहा है. और "क्या माल लग रये बेटा तुम्हारे दोनों माल!"
लालसिंह आगे कुछ बताता न बताता हमारे ठीक सामने गोबरडाक्टर ने अपनी गाड़ी रोकी. सतत खिलखिल करतीं कुच्चू-गमलू ने अपने गुलाबी रिबन लगे सिर बाहर निकाले और हमें पुकारा. रामनगर में कुल चार या पांच कारें थीं. पहली बार कार में बैठ कर किसी ने हमें पुकारा था. यह सनसनीख़ेज़ तो था ही, चेतना को शिथिल बना देने वाला भी था. इस हतप्रभावस्था में हमें यह भी भान न रहा कि हमने अपने-अपने रत्तीपइयां गदा की तरह ही थामे हुए थे.
कुच्चू-गमलू वाक़ई में माल लग रहे थे और एक पल को मेरी मधुबालाकेंद्रित मोहब्बत डगमग होने को हुई. नीमबेहोशी की सूरत में कब हम दोनों पीछे की सीटों पर हमें अपनी बग़ल में बिठा चुकी थीं, याद नहीं पड़ता. होश आने पर अपनी हवाई चप्पलों, गन्दी पड़ चुकी नेकरों पर उतनी शर्म नहीं आई, जितनी अपनी गदाओं पर. बावजूद इसके स्कर्टधारिणियां हमें ताके जा रही थीं - मुझे लगा उनकी निगाह में थोड़ी सी आसक्ति नज़र आ रही थी या शायद मेरा भरम रहा हो. दो-तीन मिनट की सैर खिलाने के बाद गोबरडाक्टर ने गाड़ी अपने घर के अहाते में पार्क की और "आ जाओ बाहर बच्चो!" कह कर कार का दरवाज़ा खोल दिया. "कैसे हो बेटे?" कहकर गोबरडाक्टरानी ने आदतन हमारे गाल दुलराए और अपनी पुत्रियों से मुख़ातिब होकर कहा "बेटा, भइया लोगों के लिए केक ले कर आओ फ़्रिज से."
या ख़ुदा! फिर से भइया! मेरा मधुबाला-प्रेम एक झटके में वापस पटरी पर आ गया. लफ़त्तू अलबत्ता अब बेशर्म बन चुका था और हौले हौले मुस्काता, केक सूतता मालताड़ीकरण में ईमानदारी से लगा हुआ था. मैंने उसे थोड़ा लिहाज़ बरतने के उद्देश्य से चेताने हेतु ठसकाया तो उसने मेरी तरफ़ आंख मारी.
"ये अपना सामान ले लो बेटा!" कहकर गोबरडाक्टर ने गाड़ी की पिछली सीटों के नीचे पड़े हमारे रत्तीपइयां बाहर निकाले. हमने चोरों की तेज़ी से उन्हें अपने कब्ज़े में किया और खिसक पड़ने की जुगत देखने लगे.
"ये क्या चीज़ है?" एक स्कर्टधारिणी ने उत्सुकतावश पूछा तो मैंने थोड़ा शर्म महसूसते हुए कहा "रत्तीपइयां"
"मगर ये है क्या?"
इस सवाल का जवाब देने के बजाय लफ़त्तू ने अपने रत्तीपइयां - कौशल का नमूना दिखाते हुए बरामदे का एक चक्कर काट कर दिखाया.
"ग्रेट! और नाम भी कितना क्यूट है इस का!" वे उत्साह में बोलीं. "पापू से कहेंगे, हमें भी चाहिये ये चीज़."
"इत को ले लओ" कहकर लफ़त्तू ने अपना रत्तीपइयां वहीं ज़मीन पर रखा और मेरा हाथ थाम कर बाहर का रुख़ किया.
लालसिंह के पापा की दुकान के पास आकर मैंने लफ़त्तू के चेहरे पर नज़र डाली. वह सुर्ख़ पड़ा हुआ था. अपना रत्तीपइयां बलिदान कर चुकने का दर्प उस की रग-रग से टपक रहा था. और उम्मीदों से भरा एक चमकीला मुस्तकबिल भी. लफ़त्तू वाक़ई मोहब्बत में पड़ चुका था. सच्ची मुच्ची वाली लैला-मन्जूर वाली असल मोहब्बत. मुझे तनिक भय हुआ.
अचानक कहीं से निमाइस का विज्ञापन करता एक रंगबिरंगा ठेला सामने से गुज़रा. उरोजाओं की पूरी टीम उस पर लगे एक विशाल पैनल पर से आपको न्यौत रही थी कि निमाइस में आइये और देखिये मौत का कुंआ और आग का दरिया. बहुत सारे लौंडे-लफन्डर भीड़ बनाए ठेले का अनुसरण कर रहे थे.
लफ़त्तू ने आंख तक उठाकर नहीं देखा. वह ख़ुद आग के दरिया को पार करने की नामुमकिन जद्दोजहद में लगा हुआ था.
(यह पोस्ट मैख़ाने वाले मुनीश शर्मा के इसरार पर लिखी गई है जिन्होंने आज इस नाचीज़ ब्लॉग को अपनी पोस्ट का विषय बनाया है)
घर पर सुबह के किसी वक्त पूरा खाना खा चुकते ही मैं नेकर-कमीज़ पहनकर घासमंडी पहुंच जाता. वहां बंटू, बागड़बिल्ला, लफ़त्तू इत्यादि के साथ जल्दी ही पूरी टीम जुट जाती और कुछ भी अश्लील गाना गाते, कूल्हे मटकाते लफ़त्तू का अनुसरण करते हम नहर पहुंचते. काफ़ी खोज बीन के बाद हम लोगों ने नहर के एक हिस्से को अपने तरणकर्म हेतु सबसे मुफ़ीद पाया था. उस जगह नहर के दोनों तरफ़ आम के घने पेड़ थे और थोड़ा सा अन्दर चले जाने पर हमें सड़क पर चल रहा कोई भी आदमी नहीं देख सकता था.
नहर पहुंचते और बहता पानी देखते ही हमारी सारी शर्म-ओ-हया काफ़ूर हो जाती और हम सेकेंड से कम समय में पूरे दिगम्बर होकर पानी में कूद पड़ते. बंटू थोड़े ठसकेदार घर का था सो वह नेकर के नीचे बाकायदा चड्ढी पहने रहा करता था. पूरे कपड़े वह कभी नहीं उतारा करता. हम लोग इस कार्यक्रम विषेष के लिए चड्ढी घर पर ही फेंक आया करते थे. बंटू को इस नक्शेबाज़ी के ऐवज़ में एक्स्ट्रा काम करना पड़ता था. तैराकी समाप्त होने पर वह किसी झाड़ी की ओट में पहले चड्ढी उतारता, नेकर पहनता और चड्ढी को सुखाने हेतु किसी पत्थर पर फैला देता. पहली बार जब वह गीली चड्ढी के ही ऊपर नेकर पहनकर घर चला गया था तो गीली नेकर को जस्टीफ़ाई करने के लिए उसे कई सारी कथाओं का निर्माण करना पड़ा था, जो झूठ पर झूठ साबित होती गईं और उसके पापा ने उसे आगे से लफ़त्तू के साथ देखे जाने की सूरत में ज़िन्दा गाड़ देने की चेतावनी दी और झाड़ू से उसकी पिछाड़ी को लाल बना दिया. लेकिन लफ़त्तू का ग्लैमर अकल्पनीय था और लात-घूंसे-झाड़ू वगैरह से उसकी संगत का लुत्फ़ उठाने से देवताओं तक को नहीं रोका नहीं जा सकता था, यह तो फ़क़त बंटू था.
पानी के बहाव की रफ़्तार बहुत दोस्ताना होती थी और हम घन्टों उसमें छपछप किया करते. लफ़त्तू ख़ूब सारे मेढक पकड़ कर एक जगह इकठ्ठा कर लेता और उन्हें डरा कर नीमबेहोश बना चुकने के उपरान्त हम पर निशाना लगा लगा कर फेंका करता. गमलू-कुच्चू और मधुबाला को लेकर कई सम्मेलन तैरते-तैरते पूरे हो जाया करते थे. लफ़त्तू का दिल अभी तक उन्हीं में से एक को हमारी भाबी बनाने की टेक पर फंसा हुआ था जबकि बड्डे पाल्टी में गोबर डाक्टर द्वारा हमारे भइयानिर्मितीकरण के पश्चात मेरा जी दोनों से उखड़ गया था और मैं दुबारा से मन लगाकर मधुबाला से आशिकी में मुब्तिला हो चुका था. लफ़त्तू का तर्क यह था कि गोबरडाक्टर द्वारा हमें गमलू-कुच्चू का भइया कह कर पुकारा जाना उसका हरामीपन था और यह कि हर ज़िम्मेदार बाप अपनी लड़कियों की सेफ़्टी के लिए ऐसे बाबा-आदम ब्रांड नुस्ख़े अपनाता ही है. रक्षाबन्धन के दिन उसने घासमंडी का मुंह तक न देखने का प्लान बड्डे पाल्टी की रात ही वापस लौटते बना लिया था. "मुदे पागल छमल्लिया गोबल दाक्तल! मेला नाम बी गब्बल ऐ बेते गब्बल! दलता नईं किछी के बाप थे!" ' ... उहुं उहुं ... दान्त तत ... ' गुनगुनाते हुए उसने मेरा हाथ थाम कर उसने मुझे अपनी स्ट्रेटेजी और आसन्न अवश्यंभावी विजय के प्रति आश्वस्त किया था.
तैराकी के मज़े लूटने के बाद पीताम्बर उर्फ़ पितुवा लाटे के आम के बगीचे की तनिक नीची दीवार फांद कर वहां कायपद्दा नामक महान खेल खेला जाता. कायपद्दा में खिलाड़ियों में सबसे पहले एक चोर का चुनाव किया जाता था. चोर के चुनाव हेतु काम लाई जाने वाली टैक्नीक पुगत्तम कहलाती थी. यह चोर आम के किसी सघन और ढेर सारी टहनियों से भरपूर पेड़ के नीचे मिट्टी पर लकड़ी की मदद से एक गोल घेरा बनाता था. उसके बाद आम सहमति से करीब हाथ भर लम्बी लकड़ी को अड्डू बनाया जाता. चोर को छोड़कर सारे बच्चे पेड़ की टहनियों पर चढ़ जाते. खेल की शुरुआत में चोर को अपनी एक टांग उठाकर उठी हुई और स्थिर वाली दो टांगों के बीच निर्मित हवा के भीतर से अड्डू नामक लकड़ी को जितनी दूर संभव होता फेंक दिया करता.
अब चोर ने जल्दी से पेड़ पर चढ़कर किसी एक खिलाड़ी को छूना होता था. छू कर वापस ज़मीन पर कूदना होता था और भाग कर अड्डू को वापस गोल घेरे में प्रतिष्ठित कर देना होता था. ऐसा करके ही वह चोरयोनि से मुक्त होकर खिलाड़ीयोनि में वापस लौट सकता था. इसमें पेंच यह होता था कि अगर इस दौरान कोई खिलाड़ी कूद कर चोर से पहले अड्डू को घेरे में रख देता तो चोर चोर ही बना रहता और सारा अनुष्ठान एक बार और पूरा किया जाना होता था.
कायपद्दा खेलते हुए थकान जल्दी लग जाया करती. एक तो सारे नियम खिलाड़ियों की सुविधा से बनाए गए थे, न कि चोर की सो जो एक बार चोर बन गया वह तकरीबन सारे खेल भर चोर बना रहता था. बाद के दिनों में जब हमारा पहला मुसलमान दोस्त ज्याउल इस खेल को खेलने हमारी टीम में शामिल हुआ, किसी साज़िश के तहत हर बार वही चोर बना दिया जाता. ज्याउल रामनगर का नहीं था, मुरादाबाद से आया था. उसके पिताजी बिजली डिपार्टमेन्ट में इंजीनियर थे और मेरे पिताजी के दोस्त. उन्हीं के कहने पर ज्याउल को हमने इतना दुर्लभ विशेषाधिकार दिया हुआ था कि वह लगातार चोर बने और पदता रहे. कभी कभार लफ़त्तू उस पर दया करता और वालंटियर चोर बन जाता.
कायपद्दा खेलने के बाद भूख से भुखाने और प्यास से तिसाने हम अपने अपने घरों की तरफ़ एक छोटे ब्रेक के वास्ते चल पड़ते.
अल्मोड़ा, जहां हम लोग रामनगर आने से पहले रहा करते थे, पहाड़ी कस्बा था. बड़े भाई ने वहां मेरे वास्ते कहीं से एक बड़े टायर का जुगाड़ किया हुआ था. छोटी सी एक लकड़ी लेकर मैं उसे ठेलता हुआ इस ढाल से उस ढाल चलाया करता था. रामनगर मैदानी कस्बा था सो यहां ढालों पर टायर चलाने का रिवाज़ नहीं था. यहां हमारे पास ट्रकों के बैरिंगों से बने छोटे गोले थे जिन्हें रत्तीपइयां कहा जाता था. रत्तीपइयां को चलाने हेतु लोहे के मज़बूत तार का एक लम्बा और सीधा टुकड़ा इस्तेमाल में लाया जाता था. इस तार के एक सिरे को इस तरह से मोड़ा जाता था कि रत्तीपइयां उसमें खड़ी अवस्था में फ़िट हो जाए. अपार कौशल और प्रतिभा चाहिये होती थी रत्तीपइयां चलाने में. किसी बहुत जटिल मशीन से जूझने जैसा अनुभव होता था. जाहिर है मौज तो आती ही थी.
तैराकी और कायपद्दा के बाद का समय रत्तीपइयां चलाते हुए सब्ज़ीमंडी तक का चक्कर काटना धर्म बन गया था. यहां भी लफ़त्तू हमारा नेतृत्व किया करता हालांकि उसके पीछे-पीछे रत्तीपइयां चलाते जाना मोहल्ले और बाज़ार के लोगों की निगाह में अपनी बचीखुची इज़्ज़त का भुस भरा लेने का सबसे आसान तरीका माना जा सकता था पर मैंने कहा न कि लफ़त्तू के अकल्पनीय ग्लैमर के आगे क्या तो बेज्जती और क्या बेज्जती का ख़राब होना.
उस रोज़ हम लोग रत्तीपइयां कार्यक्रम निबटाने के बाद तार और ररत्तीपइयां को कन्धों पर गदा की तरह लटकाए घर लौट रहे थे जब कहीं से बदहवास सा भागता लालसिंह हमारे सामने आ गया. आते ही उसने "तुम थे कहां बे हरामियो?" पूछा.
पता यह चला कि दो घंटों से गोबरकुटुम्ब शहर में अपनी नई कार का प्रदर्शन करता घूम रहा है. और "क्या माल लग रये बेटा तुम्हारे दोनों माल!"
लालसिंह आगे कुछ बताता न बताता हमारे ठीक सामने गोबरडाक्टर ने अपनी गाड़ी रोकी. सतत खिलखिल करतीं कुच्चू-गमलू ने अपने गुलाबी रिबन लगे सिर बाहर निकाले और हमें पुकारा. रामनगर में कुल चार या पांच कारें थीं. पहली बार कार में बैठ कर किसी ने हमें पुकारा था. यह सनसनीख़ेज़ तो था ही, चेतना को शिथिल बना देने वाला भी था. इस हतप्रभावस्था में हमें यह भी भान न रहा कि हमने अपने-अपने रत्तीपइयां गदा की तरह ही थामे हुए थे.
कुच्चू-गमलू वाक़ई में माल लग रहे थे और एक पल को मेरी मधुबालाकेंद्रित मोहब्बत डगमग होने को हुई. नीमबेहोशी की सूरत में कब हम दोनों पीछे की सीटों पर हमें अपनी बग़ल में बिठा चुकी थीं, याद नहीं पड़ता. होश आने पर अपनी हवाई चप्पलों, गन्दी पड़ चुकी नेकरों पर उतनी शर्म नहीं आई, जितनी अपनी गदाओं पर. बावजूद इसके स्कर्टधारिणियां हमें ताके जा रही थीं - मुझे लगा उनकी निगाह में थोड़ी सी आसक्ति नज़र आ रही थी या शायद मेरा भरम रहा हो. दो-तीन मिनट की सैर खिलाने के बाद गोबरडाक्टर ने गाड़ी अपने घर के अहाते में पार्क की और "आ जाओ बाहर बच्चो!" कह कर कार का दरवाज़ा खोल दिया. "कैसे हो बेटे?" कहकर गोबरडाक्टरानी ने आदतन हमारे गाल दुलराए और अपनी पुत्रियों से मुख़ातिब होकर कहा "बेटा, भइया लोगों के लिए केक ले कर आओ फ़्रिज से."
या ख़ुदा! फिर से भइया! मेरा मधुबाला-प्रेम एक झटके में वापस पटरी पर आ गया. लफ़त्तू अलबत्ता अब बेशर्म बन चुका था और हौले हौले मुस्काता, केक सूतता मालताड़ीकरण में ईमानदारी से लगा हुआ था. मैंने उसे थोड़ा लिहाज़ बरतने के उद्देश्य से चेताने हेतु ठसकाया तो उसने मेरी तरफ़ आंख मारी.
"ये अपना सामान ले लो बेटा!" कहकर गोबरडाक्टर ने गाड़ी की पिछली सीटों के नीचे पड़े हमारे रत्तीपइयां बाहर निकाले. हमने चोरों की तेज़ी से उन्हें अपने कब्ज़े में किया और खिसक पड़ने की जुगत देखने लगे.
"ये क्या चीज़ है?" एक स्कर्टधारिणी ने उत्सुकतावश पूछा तो मैंने थोड़ा शर्म महसूसते हुए कहा "रत्तीपइयां"
"मगर ये है क्या?"
इस सवाल का जवाब देने के बजाय लफ़त्तू ने अपने रत्तीपइयां - कौशल का नमूना दिखाते हुए बरामदे का एक चक्कर काट कर दिखाया.
"ग्रेट! और नाम भी कितना क्यूट है इस का!" वे उत्साह में बोलीं. "पापू से कहेंगे, हमें भी चाहिये ये चीज़."
"इत को ले लओ" कहकर लफ़त्तू ने अपना रत्तीपइयां वहीं ज़मीन पर रखा और मेरा हाथ थाम कर बाहर का रुख़ किया.
लालसिंह के पापा की दुकान के पास आकर मैंने लफ़त्तू के चेहरे पर नज़र डाली. वह सुर्ख़ पड़ा हुआ था. अपना रत्तीपइयां बलिदान कर चुकने का दर्प उस की रग-रग से टपक रहा था. और उम्मीदों से भरा एक चमकीला मुस्तकबिल भी. लफ़त्तू वाक़ई मोहब्बत में पड़ चुका था. सच्ची मुच्ची वाली लैला-मन्जूर वाली असल मोहब्बत. मुझे तनिक भय हुआ.
अचानक कहीं से निमाइस का विज्ञापन करता एक रंगबिरंगा ठेला सामने से गुज़रा. उरोजाओं की पूरी टीम उस पर लगे एक विशाल पैनल पर से आपको न्यौत रही थी कि निमाइस में आइये और देखिये मौत का कुंआ और आग का दरिया. बहुत सारे लौंडे-लफन्डर भीड़ बनाए ठेले का अनुसरण कर रहे थे.
लफ़त्तू ने आंख तक उठाकर नहीं देखा. वह ख़ुद आग के दरिया को पार करने की नामुमकिन जद्दोजहद में लगा हुआ था.
(यह पोस्ट मैख़ाने वाले मुनीश शर्मा के इसरार पर लिखी गई है जिन्होंने आज इस नाचीज़ ब्लॉग को अपनी पोस्ट का विषय बनाया है)
Thursday, September 11, 2008
फ़ुच्ची कप्तान की आसिकी
लफ़त्तू के साथ पढ़ाई-लिखाई से सम्बन्धित बहुत ज़्यादा बातें नहीं होती थीं. हां, यदि घर से कोई चीज़ स्कूल ले कर जानी होती जैसे बारूदा एक्स्पेरीमेन्ट के लिए बीकर या सिरीवास्तव मास्साब की सिलाई-कक्षा हेतु पिलाश्टिक का अंगुस्ताना तो लफ़त्तू के लिए वे चीज़ें मैं लेकर जाया करता. इस कार्य को मैं मित्रतापूरित उत्साह के साथ अंजाम देता. हम दोनों के बीच इस तरह की कोई समझौता वार्ता नहीं हुई थी पर एक आपसी अंडरस्टैंडिंग थी कि लफ़त्तू की चीज़ें ख़रीदने के लिए मैं मां से झूठ बोल लेता था जबकि बौने के ठेले पर होने वाले हमारे बमपकौड़ायोजनों में अपने पापा की जेब से चुराए पैसों से लफ़त्तू पेमेन्ट किया करता.
इधर के दिनों में टौंचा-उस्ताद बागड़बिल्ले का कार्यक्षेत्र खताड़ी से आगे भवानीगंज तक पसर चुका था. बागड़बिल्ले के कुशल नेतृत्व और निर्देशन में वरिष्ठ-कनिष्ठ दोनों प्रकार के लफ़ंडर लौंडे घुच्ची के खेल को रामनगर की गली-गली में फैला देने के महती अनुष्ठान में जान दे देने के हौसले के साथ तन-मन और पांच पैसे के सिक्कों के साथ जुट चुके थे. बड़े भाइयों-चाचाओं-मामाओं इत्यादि द्वारा कभी किसी लड़के के साथ सद्यःघटित सार्वजनिक मारपीटीकरण और अपमानीकरण की अफ़वाहें तमाम मसालों मे लपेटकर हमारे इन्टरवल-सम्मेलनों का विषय बनतीं पर इन सब से उदासीन और अभूतपूर्व जिजीविषा से लबालब ये जांबाज़ जिस खेल पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का क़ौल उठा चुके थे, उस से उन्हें अब परमपिता भी विरत नहीं कर सकता था.
यही दिन थे जब अपने अनुभव-जगत की विस्तृतता के कारण लफ़त्तू मुझे, मेरा हमउम्र होने के बावजूद, अपने से बहुत-बहुत बड़ा लगने लगा था. इधर उसने नियमित रूप से क्लास गोल करने का रिवाज़ चलाया जो घुच्चीप्रेरित बच्चों में जल्दी पॉपुलर हो गया. लफ़त्तू बागड़बिल्ले का अच्छा दोस्त था और उसके कॉन्फ़ीडेन्स और तोतले किन्तु प्रभावकारी वाकचातुर्य के कारण उसकी उपस्थिति की क्लास में बास्पीकरण सीखने में नहीं बल्कि घुच्ची-अभियान के प्रचार-प्रसार में अधिक दरकार होती थी.
डरना लफ़त्तू ने अब और भी कम कर दिया था. अपने पापा की अंग्रेज़ी की उन्हीं के मुंह के सामने ऐसी-तैसी फेर चुकने के बाद से अब उसने गब्बर का डायलॉग मारना भी बन्द कर दिया था. वह इस मामले में अब बहुत कर्मठ हो चुका था.
छत पर क्रिकेट खेलते हुए लफ़त्तू की उपस्थिति लगातार कम होती जा रही थी और हमें उसमें मज़ा आना क़रीब-क़रीब बन्द हो गया था. कभी-कभी मैं और बंटू बैट-बल्ला छोड़ छत से भावपूर्ण मुद्रा में खेल मैदान को देखा करते और फिर किसी क्षण सड़क पर आकर घासमण्डी का रुख़ करते.शाम के समय घूमने जाने को घर से थोड़ा दूर अवस्थित घासमण्डी को बंटू के पापा ने हमारी लिमिट तय किया हुआ था. घासमण्डी की सरहद पर मरियल कुत्तों की तरह खड़े, मजबूत आवारा कुत्तों को बेख़ौफ़ लड़ते-भौंकते देखते हुए से हम 'असफाक डेरी सेन्टर और केन्द्र' के सामने वाली गली की तरफ़ निगाह चिपका लेते. बहुत संजीदगी से अपने हाथों से भंगिमाएं बनाते, नवघुच्चीवादियों के लैक्चर देते या स्वयं घुच्ची खेलते लफ़त्तू की झलक देखने को मिल जाती तो हमें अजीब-अजीब लगने लगता. हमारी मानसिक हालत किसी असहाय, विवश ग़ुलाम की सी होती और हम बहुत मनहूस चेहरों के साथ, क़रीब-क़रीब रोते हुए वापस लौटते.
जिस दिन हमारे लिए ख़ास फ़ुरसत निकालकर लफ़त्तू क्रिकेट खेलने आता, उसके पास हमें बताने को बेतहाशा क़िस्से होते. खताड़ी में अपना झंडा गाड़ चुकने के बाद कैसे उसने भवानीगंज में अपना सिक्का जमा लिया था, यह हमारे लिए रश्क का विषय होता. उसके चमत्कार-लोक में प्रवेश कर पाने की हमारी आकुलता से भरपूर उत्कंठा और भी बलवती हो जाया करती.
इधर लफ़त्तू की अंतरंग मित्रमंडली का विस्तार हो चुका था. उसकी बातों से ज्ञात होता था कि फ़ुच्ची कप्तान नामक एक नए आए लड़के का उसके जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ चुका था.
फ़ुच्ची के पापा रेडीमेड कपडों और प्लास्टिक के जूतों की रेहड़ी लगाते शहर-दर-शहर भटका करते थे. उसी क्रम में वे कुछ समय पहले रामनगर आ बसे थे. उनकी भाषा बहुत ज़्यादा देसी थी. फ़ुच्ची हमसे तीनेक साल बड़ा रहा होगा. शहर-शहर, नगर-नगर घूम चुकने के बाद उसका अनुभव-जगत बहुत संपन्न था और हम सबकी स्पृहा का बाइस भी. 'छठी फ़ेल' की उच्चतम शिक्षाप्राप्त फ़ुच्ची बहुत सांवला था और बात-बात पर "मने, मने" कहता था.
उसका नाम फ़ुच्ची धरे जाने का क़िस्सा लफ़त्तू ने हमें मौज ले ले कर सुनाया था. किसी गली में घुच्ची खेल रहे लौंड-समूह के पास जाकर उसने पूछा:"मने इस खेल की नाम बतइये तनिक!" नाम बताए जाने पर उसने किसी ख़लीफ़ा की तरह जेब से पांच के सिक्के निकालते हुए कहा: "हम भी खेलेंगे फ़ुच्ची!"
"अबे फ़ुच्ची नहीं घुच्ची! घुच्ची ... घुच्ची!" लौंडसमूह के अंतरंगतापूर्ण सामूहिक अट्टहास में इस कलूटे देसी लड़के को फ़ुच्ची नाम से आत्मसात कर लिया गया.
फ़ुच्ची के साथ 'कप्तान' की पदवी दिए जाने का कारण स्वयं फ़ुच्ची की एक आदत में छिपा हुआ था. अपनी वाकपटुता के कारण वह हर जगह दिखाई देने लगा था. बच्चे जहां कहीं कुछ भी खेल रहे होते थे, वह वहां पहुंच जाता और फट से दो टीमों का निर्माण कर देता. "अपनी टीम के कप्तान हम बन गए, बाकी वाले अपना छांट लें!" - यह उसका तकिया कलाम था और अन्ततः उसके नाम के साथ नेमेसिस की तरह जुड़ गया.
रामनगर में इतने समय से खेलते हुए हमें कभी कप्तानी जैसे विषय पर सोचने की प्रेरणा तक नहीं मिली थी और फ़ुच्ची ने आते ही खु़द को आधे बच्चों का कप्तान बना लिया. इस से उसका क़द, इज़्ज़त और नाम तीनों की लम्बाई बढ़ी. कप्तानी के साथ फ़ुच्ची ऑब्सेशन की हद तक जुड़ा हुआ था. हरिया हकले के मकान से होते हुए हमारी छत तक पहुंचने का रास्ता उसे लफ़त्तू बता चुका था. एकाध बार उसने मेरे साथ बैटमिन्डल भी खेली थी. छत पर हम दो ही थे. उसने कहा: "इधर वाले के कप्तान हम. और उधर वाले का मने आप छांट लें!" मेरा मन कुढ़न और खीझ से भर गया था पर मुझे चुप रहना पड़ा क्योंकि कुछ भी हो फ़ुच्ची उन दिनों मेरे उस्ताद लफ़त्तू का उस्ताद बना हुआ था.
एक दिन देर शाम को सियार की सी आवाज़ निकालते हुए लफ़त्तू ले घर के बाहर "बी ... यो ... ओ ... ओ ... ई" का लफ़ाड़ी-संकेत किया तो डरते-सहमते मैं ज़ीना उतर कर बाहर निकला. हांफ़ते हुए लफ़त्तू ने मुझे काग़ज़ का एक पर्चा थमाया और वापस भागता हुआ बोला: "इत को थीक कल देना याल. कल छुबै फ़ुत्ती को देना है!"
मैंने वापस आकर होमवर्क में मुब्तिला होने का बहाना बनाया और पर्चा किताब के बीच छिपा लिया. हालात सामान्य होते ही मैंने पर्चा खोला. लफ़त्तू की अद्वितीय हैंडराइटिंग सामने थी.
जैसे बचा खुचा ज़रा सा भात आवारा बिल्लियों के लिए धूप में रखे जाने और न खाये जाने पर टेढ़े-मेढ़े कणों में बदल जाता है, कुछ वैसी ही हैंडराइटिंग में लफ़त्तू ने फ़ुच्ची के बदले लिखा था:
"मेरी चीटडी पड के नराज न होना.
मे तुमरा आसिक हु.
सादी कर.
तुमरा
फुच्चि"
उफ़! यानी लवलैटर! मेरे सामने जीवन में देखा गया पहला प्रेमपत्र पड़ा हुआ था - यह दीगर बात थी कि वह प्रॉक्सी था और मुझे उसे "थीक" करना था.
पहले तो मैंने लफ़त्तू के प्रति ज़रूरत से ज़्यादा कृतज्ञताभाव महसूस किया कि उसने इस अतिमहत्वपूर्ण प्रोजेक्ट के लिए मुझे छांटा. उसके बाद मैं उस बदनसीब पर्चे को अपना लिखा पहला प्रेमपत्र बनाने के प्रयासों में जुट गया. मैंने अपने मन में तब तक देखी गई सारी फ़िल्मों और सुने गए सारे गानों की फ़ेहरिस्त बनाई और रात को ज़्यादा होमवर्क मिले होने का झूठ बोलते हुए देर तक जग कर अन्ततः एक आलीशान इज़हार-ए-मोहब्बत लिख मारा. शुरू में मैंने सकीना को संबोधित किया, पर उसके बहुत छोटी होने के कारण मेरी कल्पना सीमित हो जा रहि थी, सो बाद का हिस्सा मेरी नई प्रेमिका मधुबाला मास्टरानी से मुख़ातिब था. अन्त में "आपका अपना फ़ुच्ची" लिखने से पहले मैंने चांद-तारे तोड़ लाने की बात लिखी थी.
सुबह स्कूल जाते हुए कांपते हाथों से मैंने लफ़त्तू को उसकी "चीटडी" थमाई. उसने मुझे एक मिनट रुकने को कहा. वह भागता हुआ घासमंडी की तरफ़ गया और मिनट से पहले वापस आ गया. वापस भागते हुए वह बार-बार मुझे आंख मार रहा कि काम बन गया, चिट्ठी फ़ुच्ची को डिलीवर हो गई.
सांस थमने के बाद वह बोला "बले आतिक बन लए फ़ुत्ती! लौंदियाबाद छाले! तित्ती लिकाने को बोल्ल्या ता तो मैंने कया अतोक लिक देगा." उसने पहली बार अहसानमन्द होते हुए मेरा हाथ दबाया.
स्कूल आने पर उसने हाथी जैसा चेहरा बनाते हुए, ब्रह्मवाक्य जारी करते हुए कहा "बलबाद हो जागा फ़ुत्ती!"
असेम्बली के बाद इन्टरवल के बीच चार पीरियड काटना मेरे लिए एक युग बिताने जैसा हुआ. यानी कोई लड़की है जो फ़ुच्ची को भा गई है. फ़ुच्ची जैसे कलूटे कप्तान का प्यार में गिर पड़ना मेरे लिए अविश्वसनीय था. कौन-कैसी होगी वह - विषय पर सोचते हुए मुझे कई विचार आए.
कहीं ऐसा तो नहीं कि फ़ुच्ची मेरा पत्ता काट कर मधुबाला को चिट्ठी दे आने की फ़िराक में हो. आजकल बैटमिन्डल खेलने वो जभी आता है जब मास्टरनी ट्यूशन पढ़ा रही होती है. और मधुबाला क्या जाने कि चिट्ठी फ़ुच्ची ने नहीं मैंने लिखी है.
पछाड़ें मारती, बेकाबू रोती, गिरती-पड़ती, आत्महत्या का ठोस फ़ैसला ले चुकी हीरोइन का विम्ब अब मेरे मन में प्यार-मोब्बत की सघनतम इमेज के रूप में स्थापित हो चुका था. क्या मधुबाला वैसा कुछ करेगी?
मेरा मन फ़ुच्ची की शकल नोंच लेने का हो रहा था.
अगर मधुबाला तक वाक़ई फ़ुच्ची ने चिट्ठी पहुंचा दी और उसने ज़हर खा लिया तो लफ़त्तू इस सारे मामले पर कैसे रियेक्ट करेगा?
...
इन्टरवल का घन्टा बजते ही लफ़त्तू मुझे घसीट कर बौने के ठेले पर ले गया. फ़ुच्ची हमें प्रतीक्षारत मिला. बिना किसी दुआ सलाम के लफ़त्तू ज़ोर से बोला: "आत के पैते फ़ुत्ती देगा!" उसने पहले मुझे, फिर क्रमशः बौने और फ़ुच्ची को आंख मारी. बौना पत्तल बनाने लगा और हमारा महाधिवेशन चालू हो गया.
"दखिये, इतना तो हम समझ लिए कि आप को अच्छा लिखना आती है. मगर आप मने ये क्या आपका अपना ढिम्मक ढमकणा लिखे! अरे जिन्दगानी का बात है. हम तो फैसला किए हैं के आज चिट्ठी और कल सादी. ... अरे तनी कोई सेर-ऊर तो लिखिए न! ... सायरी-दोहा वगेरा ..."
उसने जेब से सलीके से मोड़ा हुआ पर्चा निकाला और वहीं नीचे बैठ कर अपनी जांघ पर फैला लिया.
मेरे पत्र में यह सुधार किया गया था कि सबसे ऊपर पानपत्रद्वय अंकित कर दिए गए थे - एक के भीतर लिखा था 'एफ़' दूसरे के भीतर 'टी'. एक टेढ़ा तीर दोनों पत्रों को जोड़ रहा था और 'टी' वाले जोड़बिन्दु से दो बूंदें टपक रही थीं. इन विवरणों को मैंने चोर निगाह से ताड़ लिया और मन अचानक टनों बोझ उतर जाने जितना हल्का हो गया. 'एफ़' माने फ़ुच्ची. और 'टी' माने कोई भी, मधुबाला नहीं.
"याल बलिया छायली लिक कोई फ़ुत्ती भाई की तरप से. भाबी खुत हो जाए कैते बी! क्यों फ़ुत्ती बाई?" लफ़त्तू 'टी' को भाभी कह रहा था - यानी मामला वाक़ई संजीदा था.
मैं भी फ़ुच्ची का लाया लाल कलम ले कर संजीदा हो गया. "आपका अपना फ़ुच्ची" के नीचे 'दोहा' लिख कर मैंने अंडरलाइन कर दिया. मैं मधुबाला की याद और प्रेरणा की प्रतीक्षा कर रहा था . लफ़त्तू और फ़ुच्ची झल्लाहट, उम्मीद और बेकरारी से मेरा मुंह ताक रहे थे. आख़िरकार वह क्षण आ ही गया. दोहा लिखने के बाद प्रसन्नता के अतिरेक में कांपते सद्यःप्रेमग्रस्त फ़ुच्ची ने हमें एक-एक बमपकौड़ा और टिकवाया.
दोहा था:
"अजीरो ठकर अब कां जाइयेगा
जां जाइयेगा मुजे पाइयेगा"
इधर के दिनों में टौंचा-उस्ताद बागड़बिल्ले का कार्यक्षेत्र खताड़ी से आगे भवानीगंज तक पसर चुका था. बागड़बिल्ले के कुशल नेतृत्व और निर्देशन में वरिष्ठ-कनिष्ठ दोनों प्रकार के लफ़ंडर लौंडे घुच्ची के खेल को रामनगर की गली-गली में फैला देने के महती अनुष्ठान में जान दे देने के हौसले के साथ तन-मन और पांच पैसे के सिक्कों के साथ जुट चुके थे. बड़े भाइयों-चाचाओं-मामाओं इत्यादि द्वारा कभी किसी लड़के के साथ सद्यःघटित सार्वजनिक मारपीटीकरण और अपमानीकरण की अफ़वाहें तमाम मसालों मे लपेटकर हमारे इन्टरवल-सम्मेलनों का विषय बनतीं पर इन सब से उदासीन और अभूतपूर्व जिजीविषा से लबालब ये जांबाज़ जिस खेल पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का क़ौल उठा चुके थे, उस से उन्हें अब परमपिता भी विरत नहीं कर सकता था.
यही दिन थे जब अपने अनुभव-जगत की विस्तृतता के कारण लफ़त्तू मुझे, मेरा हमउम्र होने के बावजूद, अपने से बहुत-बहुत बड़ा लगने लगा था. इधर उसने नियमित रूप से क्लास गोल करने का रिवाज़ चलाया जो घुच्चीप्रेरित बच्चों में जल्दी पॉपुलर हो गया. लफ़त्तू बागड़बिल्ले का अच्छा दोस्त था और उसके कॉन्फ़ीडेन्स और तोतले किन्तु प्रभावकारी वाकचातुर्य के कारण उसकी उपस्थिति की क्लास में बास्पीकरण सीखने में नहीं बल्कि घुच्ची-अभियान के प्रचार-प्रसार में अधिक दरकार होती थी.
डरना लफ़त्तू ने अब और भी कम कर दिया था. अपने पापा की अंग्रेज़ी की उन्हीं के मुंह के सामने ऐसी-तैसी फेर चुकने के बाद से अब उसने गब्बर का डायलॉग मारना भी बन्द कर दिया था. वह इस मामले में अब बहुत कर्मठ हो चुका था.
छत पर क्रिकेट खेलते हुए लफ़त्तू की उपस्थिति लगातार कम होती जा रही थी और हमें उसमें मज़ा आना क़रीब-क़रीब बन्द हो गया था. कभी-कभी मैं और बंटू बैट-बल्ला छोड़ छत से भावपूर्ण मुद्रा में खेल मैदान को देखा करते और फिर किसी क्षण सड़क पर आकर घासमण्डी का रुख़ करते.शाम के समय घूमने जाने को घर से थोड़ा दूर अवस्थित घासमण्डी को बंटू के पापा ने हमारी लिमिट तय किया हुआ था. घासमण्डी की सरहद पर मरियल कुत्तों की तरह खड़े, मजबूत आवारा कुत्तों को बेख़ौफ़ लड़ते-भौंकते देखते हुए से हम 'असफाक डेरी सेन्टर और केन्द्र' के सामने वाली गली की तरफ़ निगाह चिपका लेते. बहुत संजीदगी से अपने हाथों से भंगिमाएं बनाते, नवघुच्चीवादियों के लैक्चर देते या स्वयं घुच्ची खेलते लफ़त्तू की झलक देखने को मिल जाती तो हमें अजीब-अजीब लगने लगता. हमारी मानसिक हालत किसी असहाय, विवश ग़ुलाम की सी होती और हम बहुत मनहूस चेहरों के साथ, क़रीब-क़रीब रोते हुए वापस लौटते.
जिस दिन हमारे लिए ख़ास फ़ुरसत निकालकर लफ़त्तू क्रिकेट खेलने आता, उसके पास हमें बताने को बेतहाशा क़िस्से होते. खताड़ी में अपना झंडा गाड़ चुकने के बाद कैसे उसने भवानीगंज में अपना सिक्का जमा लिया था, यह हमारे लिए रश्क का विषय होता. उसके चमत्कार-लोक में प्रवेश कर पाने की हमारी आकुलता से भरपूर उत्कंठा और भी बलवती हो जाया करती.
इधर लफ़त्तू की अंतरंग मित्रमंडली का विस्तार हो चुका था. उसकी बातों से ज्ञात होता था कि फ़ुच्ची कप्तान नामक एक नए आए लड़के का उसके जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ चुका था.
फ़ुच्ची के पापा रेडीमेड कपडों और प्लास्टिक के जूतों की रेहड़ी लगाते शहर-दर-शहर भटका करते थे. उसी क्रम में वे कुछ समय पहले रामनगर आ बसे थे. उनकी भाषा बहुत ज़्यादा देसी थी. फ़ुच्ची हमसे तीनेक साल बड़ा रहा होगा. शहर-शहर, नगर-नगर घूम चुकने के बाद उसका अनुभव-जगत बहुत संपन्न था और हम सबकी स्पृहा का बाइस भी. 'छठी फ़ेल' की उच्चतम शिक्षाप्राप्त फ़ुच्ची बहुत सांवला था और बात-बात पर "मने, मने" कहता था.
उसका नाम फ़ुच्ची धरे जाने का क़िस्सा लफ़त्तू ने हमें मौज ले ले कर सुनाया था. किसी गली में घुच्ची खेल रहे लौंड-समूह के पास जाकर उसने पूछा:"मने इस खेल की नाम बतइये तनिक!" नाम बताए जाने पर उसने किसी ख़लीफ़ा की तरह जेब से पांच के सिक्के निकालते हुए कहा: "हम भी खेलेंगे फ़ुच्ची!"
"अबे फ़ुच्ची नहीं घुच्ची! घुच्ची ... घुच्ची!" लौंडसमूह के अंतरंगतापूर्ण सामूहिक अट्टहास में इस कलूटे देसी लड़के को फ़ुच्ची नाम से आत्मसात कर लिया गया.
फ़ुच्ची के साथ 'कप्तान' की पदवी दिए जाने का कारण स्वयं फ़ुच्ची की एक आदत में छिपा हुआ था. अपनी वाकपटुता के कारण वह हर जगह दिखाई देने लगा था. बच्चे जहां कहीं कुछ भी खेल रहे होते थे, वह वहां पहुंच जाता और फट से दो टीमों का निर्माण कर देता. "अपनी टीम के कप्तान हम बन गए, बाकी वाले अपना छांट लें!" - यह उसका तकिया कलाम था और अन्ततः उसके नाम के साथ नेमेसिस की तरह जुड़ गया.
रामनगर में इतने समय से खेलते हुए हमें कभी कप्तानी जैसे विषय पर सोचने की प्रेरणा तक नहीं मिली थी और फ़ुच्ची ने आते ही खु़द को आधे बच्चों का कप्तान बना लिया. इस से उसका क़द, इज़्ज़त और नाम तीनों की लम्बाई बढ़ी. कप्तानी के साथ फ़ुच्ची ऑब्सेशन की हद तक जुड़ा हुआ था. हरिया हकले के मकान से होते हुए हमारी छत तक पहुंचने का रास्ता उसे लफ़त्तू बता चुका था. एकाध बार उसने मेरे साथ बैटमिन्डल भी खेली थी. छत पर हम दो ही थे. उसने कहा: "इधर वाले के कप्तान हम. और उधर वाले का मने आप छांट लें!" मेरा मन कुढ़न और खीझ से भर गया था पर मुझे चुप रहना पड़ा क्योंकि कुछ भी हो फ़ुच्ची उन दिनों मेरे उस्ताद लफ़त्तू का उस्ताद बना हुआ था.
एक दिन देर शाम को सियार की सी आवाज़ निकालते हुए लफ़त्तू ले घर के बाहर "बी ... यो ... ओ ... ओ ... ई" का लफ़ाड़ी-संकेत किया तो डरते-सहमते मैं ज़ीना उतर कर बाहर निकला. हांफ़ते हुए लफ़त्तू ने मुझे काग़ज़ का एक पर्चा थमाया और वापस भागता हुआ बोला: "इत को थीक कल देना याल. कल छुबै फ़ुत्ती को देना है!"
मैंने वापस आकर होमवर्क में मुब्तिला होने का बहाना बनाया और पर्चा किताब के बीच छिपा लिया. हालात सामान्य होते ही मैंने पर्चा खोला. लफ़त्तू की अद्वितीय हैंडराइटिंग सामने थी.
जैसे बचा खुचा ज़रा सा भात आवारा बिल्लियों के लिए धूप में रखे जाने और न खाये जाने पर टेढ़े-मेढ़े कणों में बदल जाता है, कुछ वैसी ही हैंडराइटिंग में लफ़त्तू ने फ़ुच्ची के बदले लिखा था:
"मेरी चीटडी पड के नराज न होना.
मे तुमरा आसिक हु.
सादी कर.
तुमरा
फुच्चि"
उफ़! यानी लवलैटर! मेरे सामने जीवन में देखा गया पहला प्रेमपत्र पड़ा हुआ था - यह दीगर बात थी कि वह प्रॉक्सी था और मुझे उसे "थीक" करना था.
पहले तो मैंने लफ़त्तू के प्रति ज़रूरत से ज़्यादा कृतज्ञताभाव महसूस किया कि उसने इस अतिमहत्वपूर्ण प्रोजेक्ट के लिए मुझे छांटा. उसके बाद मैं उस बदनसीब पर्चे को अपना लिखा पहला प्रेमपत्र बनाने के प्रयासों में जुट गया. मैंने अपने मन में तब तक देखी गई सारी फ़िल्मों और सुने गए सारे गानों की फ़ेहरिस्त बनाई और रात को ज़्यादा होमवर्क मिले होने का झूठ बोलते हुए देर तक जग कर अन्ततः एक आलीशान इज़हार-ए-मोहब्बत लिख मारा. शुरू में मैंने सकीना को संबोधित किया, पर उसके बहुत छोटी होने के कारण मेरी कल्पना सीमित हो जा रहि थी, सो बाद का हिस्सा मेरी नई प्रेमिका मधुबाला मास्टरानी से मुख़ातिब था. अन्त में "आपका अपना फ़ुच्ची" लिखने से पहले मैंने चांद-तारे तोड़ लाने की बात लिखी थी.
सुबह स्कूल जाते हुए कांपते हाथों से मैंने लफ़त्तू को उसकी "चीटडी" थमाई. उसने मुझे एक मिनट रुकने को कहा. वह भागता हुआ घासमंडी की तरफ़ गया और मिनट से पहले वापस आ गया. वापस भागते हुए वह बार-बार मुझे आंख मार रहा कि काम बन गया, चिट्ठी फ़ुच्ची को डिलीवर हो गई.
सांस थमने के बाद वह बोला "बले आतिक बन लए फ़ुत्ती! लौंदियाबाद छाले! तित्ती लिकाने को बोल्ल्या ता तो मैंने कया अतोक लिक देगा." उसने पहली बार अहसानमन्द होते हुए मेरा हाथ दबाया.
स्कूल आने पर उसने हाथी जैसा चेहरा बनाते हुए, ब्रह्मवाक्य जारी करते हुए कहा "बलबाद हो जागा फ़ुत्ती!"
असेम्बली के बाद इन्टरवल के बीच चार पीरियड काटना मेरे लिए एक युग बिताने जैसा हुआ. यानी कोई लड़की है जो फ़ुच्ची को भा गई है. फ़ुच्ची जैसे कलूटे कप्तान का प्यार में गिर पड़ना मेरे लिए अविश्वसनीय था. कौन-कैसी होगी वह - विषय पर सोचते हुए मुझे कई विचार आए.
कहीं ऐसा तो नहीं कि फ़ुच्ची मेरा पत्ता काट कर मधुबाला को चिट्ठी दे आने की फ़िराक में हो. आजकल बैटमिन्डल खेलने वो जभी आता है जब मास्टरनी ट्यूशन पढ़ा रही होती है. और मधुबाला क्या जाने कि चिट्ठी फ़ुच्ची ने नहीं मैंने लिखी है.
पछाड़ें मारती, बेकाबू रोती, गिरती-पड़ती, आत्महत्या का ठोस फ़ैसला ले चुकी हीरोइन का विम्ब अब मेरे मन में प्यार-मोब्बत की सघनतम इमेज के रूप में स्थापित हो चुका था. क्या मधुबाला वैसा कुछ करेगी?
मेरा मन फ़ुच्ची की शकल नोंच लेने का हो रहा था.
अगर मधुबाला तक वाक़ई फ़ुच्ची ने चिट्ठी पहुंचा दी और उसने ज़हर खा लिया तो लफ़त्तू इस सारे मामले पर कैसे रियेक्ट करेगा?
...
इन्टरवल का घन्टा बजते ही लफ़त्तू मुझे घसीट कर बौने के ठेले पर ले गया. फ़ुच्ची हमें प्रतीक्षारत मिला. बिना किसी दुआ सलाम के लफ़त्तू ज़ोर से बोला: "आत के पैते फ़ुत्ती देगा!" उसने पहले मुझे, फिर क्रमशः बौने और फ़ुच्ची को आंख मारी. बौना पत्तल बनाने लगा और हमारा महाधिवेशन चालू हो गया.
"दखिये, इतना तो हम समझ लिए कि आप को अच्छा लिखना आती है. मगर आप मने ये क्या आपका अपना ढिम्मक ढमकणा लिखे! अरे जिन्दगानी का बात है. हम तो फैसला किए हैं के आज चिट्ठी और कल सादी. ... अरे तनी कोई सेर-ऊर तो लिखिए न! ... सायरी-दोहा वगेरा ..."
उसने जेब से सलीके से मोड़ा हुआ पर्चा निकाला और वहीं नीचे बैठ कर अपनी जांघ पर फैला लिया.
मेरे पत्र में यह सुधार किया गया था कि सबसे ऊपर पानपत्रद्वय अंकित कर दिए गए थे - एक के भीतर लिखा था 'एफ़' दूसरे के भीतर 'टी'. एक टेढ़ा तीर दोनों पत्रों को जोड़ रहा था और 'टी' वाले जोड़बिन्दु से दो बूंदें टपक रही थीं. इन विवरणों को मैंने चोर निगाह से ताड़ लिया और मन अचानक टनों बोझ उतर जाने जितना हल्का हो गया. 'एफ़' माने फ़ुच्ची. और 'टी' माने कोई भी, मधुबाला नहीं.
"याल बलिया छायली लिक कोई फ़ुत्ती भाई की तरप से. भाबी खुत हो जाए कैते बी! क्यों फ़ुत्ती बाई?" लफ़त्तू 'टी' को भाभी कह रहा था - यानी मामला वाक़ई संजीदा था.
मैं भी फ़ुच्ची का लाया लाल कलम ले कर संजीदा हो गया. "आपका अपना फ़ुच्ची" के नीचे 'दोहा' लिख कर मैंने अंडरलाइन कर दिया. मैं मधुबाला की याद और प्रेरणा की प्रतीक्षा कर रहा था . लफ़त्तू और फ़ुच्ची झल्लाहट, उम्मीद और बेकरारी से मेरा मुंह ताक रहे थे. आख़िरकार वह क्षण आ ही गया. दोहा लिखने के बाद प्रसन्नता के अतिरेक में कांपते सद्यःप्रेमग्रस्त फ़ुच्ची ने हमें एक-एक बमपकौड़ा और टिकवाया.
दोहा था:
"अजीरो ठकर अब कां जाइयेगा
जां जाइयेगा मुजे पाइयेगा"
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Thursday, September 4, 2008
इंग्लिछ मात्तर का बेता हो के लोता है बेते!
टोड मास्साब की पढ़ाई अंग्रेज़ी ज़्यादातर बच्चों की समझ में नहीं आती थी. क्लास के अधिकतर बच्चे नॉर्मल स्कूल या बम्बाघेर नम्बर दो के सरकारी प्राइमरी स्कूल से पांचवीं पास थे. इन स्कूलों में अंग्रेज़ी नहीं सिखाई जाती थी. लफ़त्तू, मैं और क़रीब बीसेक बच्चे मान्टेसरी स्कूल या शिशु मन्दिर से आए थे जहां पहली ही कक्षा से इसे सिखाए जाने पर ज़ोर था.
टोड मास्साब की कक्षा में अंग्रेज़ी वाली कापी में ए बी सी डी लिखाने से शुरुआत हुई. मास्साब का लड़का गोलू भी हमारे साथ था और उसकी पढ़ाई बम्बाघेर नम्बर दो में हुई थी. जाहिर है गोलू को भी ए बी सी डी नहीं आती थी. और यह सर्वज्ञात तथ्य टोड मास्साब के ग़ुस्से और झेंप का बाइस बना करता था.
लफ़त्तू को गोलू से संभवतः इसलिए सहानुभूति थी कि गोलू हकलाता था. पहली बार कक्षा में पिता द्वारा सबके सामने पीटे जाने और जलील किए जाने के बाद गोलू इन्टरवल में रो रहा था. अपने पापा की जेब पर सफलतापूर्वक हाथ साफ़ करके आया लफ़त्तू मुझे बौने का बमपकौड़ा खिलाने ले जा रहा था जब उसकी निगाह गोलू पर पड़ी.
"इंग्लिछ मात्तर का बेता हो के लोता है बेते!" कह कर उसने गोलू को मोहब्बतभरी तोतली डांट पिलाते हुए बमपकौड़ा अभियान का हिस्सा बना लिया. " मेले पापा तो मुदे लोज धूनते हैं, मैं कोई लोता हूं कबी! गब्बल छे छीक बेता गब्बल छे: जो दल ग्या वो मल ग्या बेते." किंचित सहमा हुआ, लार टपकाता गोलू कभी लफ़त्तू के कॉन्फ़ीडेन्स को देखता कभी हरे पत्ते में सजे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ, स्वादिष्टतम बम-पकौड़े को. कभी उसकी निगाह स्कूल की तरफ़ उठ जाती.
"ततनी दालियो हली वाली औल लाल मिल्चा" कहकर उसने अपना पत्तल बौने के सामने किया. "अभी लेओ बाबूजी" बौना सदा की तरह तत्परता से बोला. यह लफ़त्तू की ख़ास अदा थी जब वह मिर्चा खा पाने की अपनी कैपेसिटी से सामने वाले को आतंकित किया करता. उसकी तनिक पिचकी नाक से एक अजस्र धारा बह रही होती थी पर वह बौने से कहता: "औल दो!"
गोलू के हावभाव बता रहे थे कि वह पहली बार इस प्रकार के कार्यक्रम में हिस्सेदरी कर रह था. पिता की झाड़ और संटी की मार भूलकर वह ज्यों त्यों पकौड़ा निबटाने में लगा था. मैं और गोलू नए खेल के पोस्टर देखने में मशगूल थे.
"नया खेल लगा है बाबूजी! आज ही शुरू हुआ है." अपनी कलाई पर बंधी कोयले और धुंए जैसे डायल वाली, सुतली से कलाई में लपेटी घड़ी पर निगाह मारते हुए बौने ने आगामी बिज़नेस की प्रस्तावना बांधना चालू किया, "हैलन का डान्स हैगा इस में. अभी चल्लिया होगा. आपके इस्कूल में तो अभी टैम हैगा. देखोगे बाबूजी?" इस आश्वस्तिपूर्ण वक्तव्य में इसरार कम था नए ग्राहक को फंसाने की चालबाज़ी ज़्यादा. "नए वाले बाबूजी से क्या पैसा लेना."
लफ़त्तू ने जेब से दो का नोट निकाला और जब तक वह गोलू को पिक्चर देखने का तरीक़ा बताता, मेरी निगाह अपने घर की छत पर गई. मां कपड़े सुखाने डाल चुकने के बाद बाहर देख रही थी. मुझ डरपोक को लगा कि वह सीधा हमें ही देख रही है. मैं बिना बताए जल्दी-जल्दी क्लास की दिशा में बदहवास भाग चला. इस हड़बड़ी में कक्षा के दरवाज़े पर मैं सीधा अपने बड़े भाई से टकरा गया जो मुझे इन्टरवल के बाद घर बुलाने आया था. मेरे ध्यान में नहीं रहा था कि उस दिन हमें गर्जिया मंदिर लाना था. सामने से सिलाई वाले सिरीवास्तव मास्साब आते दिखे तो भाई ने उन्हें एक कागज़ दिखाया. उनके मुंडी हिलाने पर हम घर की दिशा में चल पड़े.
लफ़त्तू और गोलू के साथ क्या बीती होगी - यह मेरी कल्पना की उड़ान के लिए बहुत बड़ी थीम थी.
हम शाम को घर लौटे. थोड़ी ही देर बाद दरवाज़े पर लफ़त्तू के पापा मौजूद थे. मैं बेतरह डर गया और थरथर कांपने लगा. लेकिन वे मेरे लिए जोकर के मुंह वाला मीठी सौंफ़ का डिब्बा लाए थे. डब्बा लेकर मैं छत पर बंटू के साथ क्रिकेट खेलने चला गया. बंटू नई गेंद लाया था और हमारा स्वयंसेवक अम्पायर महान लफ़त्तू हरिया हकले की छत फांदता आ रहा था.
बहुत ही अनौपचारिक तरीके "क्या कैलये मेले पापा" पूछते हुए उसने बंटू से गेंद ली और "खेल इश्टाट" का ऑर्डर दिया. मैं बैटिंग कर रहा था पर मेरा मन बेहद व्याकुल था. जाहिर है लफ़त्तू जानता था कि उसके पापा मेरे घर में बैठे पिताजी से बात कर रहे थे. स्कूल में गोलू के अन्जाम की खौ़फ़नाक कल्पनाओं में मैं रामनगर-गर्जिया-रामनगर यात्रा में चिन्ताग्रस्त रहा था.
मैं पहली बॉल पर आउट होता रहा और बंटू ख़ुशी ख़ुशी मेरी गेंदों की धुनाई करता रहा. देर से शुरू हुआ खेल जल्दी निबट गया. घर जाने से पहले लफ़त्तू ने कमीज़ ऊपर की और पीठ पर पड़े नीले निशानों की मारफ़त सूचना दी कि उसकी और गोलू की टोड मास्साब ने संटी मार-मार कर खाल उधेड़ डाली थी. उसके बाद लफ़त्तू के पापा को स्कूल बुलाया गया. और यह भी कि उसके पापा ने उस से कुछ नहीं कहा बल्कि उसे भी जोकर के मुंह वाला मीठी सौंफ़ का डिब्बा दिया.
अगले दिन और उसके बाद के कई दिन तक न टोड मास्साब स्कूल आए न गोलू. कोई कहता था लफ़त्तू के पापा ने टोड मास्साब को जेल भिजवा दिया और गोलू को मरेलिया हो गया. हुआ जो भी हो, लफ़त्तू की और मेरी अपनी दिनचर्या में एक परिवर्तन यह आया कि हमें सुबह छः बजे लफ़त्तू के पापा ने अंग्रेज़ी पढ़ानी चालू कर दी. यह मेरे घर उनके आने के अगले दिन से शुरू हुआ.
मेरी ही तरह लफ़त्तू के भी बहुत सारे भाई-बहन थे और हमारी पढ़ाई के समय वे कभी-कभार परदों के पीछे नज़र आ जाया करते थे. इस पढ़ाई के दौरान उसकी बड़ी बहन हमें दूध-बिस्कुट भी परोसा करती थी. असल बात यह थी कि मैं एक ही दिन में ताड़ गया था कि लफ़त्तू के पापा की ख़ुद की अंग्रेज़ी कोई बहुत अच्छी नहीं थी. वे पिथौरागढ़ी कुमाऊंनी मिश्रित हिन्दी में हमें इंग्लिस पढ़ाते थे. 'वी' को 'भी' कहते थे, जो मुझे बहुत अटपटा लगता. लेकिन लफ़त्तू की दोस्ती के कारण मैं इस कार्यक्रम में बेमन से हिस्सा लेता और हां-हूं कहा करता.
बस अड्डे से माचिस की डिब्बियों के लेबल खोजने का प्रातःकालीन आयोजन बाधित हो गया था और कभी-कभार घुच्ची खेलने का भी. क़रीब एक हफ़्ता हुआ होगा जब एक रोज़ लफ़त्तू पर जैसे शैतान सवार हो गया. दूध-बिस्कुट आते ही लफ़त्तू ने कापी बन्द की, एक सांस में दूध पिया, जेब में चार बिस्कुट अड़ाए और कापी को ज़मीन पर पटक कर, बस अड्डे और उस से भी आगे भाग जाने से पहले अपने पापा से बोला: "वल्ब को तो भल्ब कहते हो आप! क्या खाक इंग्लिछ पलाओगे पापा?"
टोड मास्साब की कक्षा में अंग्रेज़ी वाली कापी में ए बी सी डी लिखाने से शुरुआत हुई. मास्साब का लड़का गोलू भी हमारे साथ था और उसकी पढ़ाई बम्बाघेर नम्बर दो में हुई थी. जाहिर है गोलू को भी ए बी सी डी नहीं आती थी. और यह सर्वज्ञात तथ्य टोड मास्साब के ग़ुस्से और झेंप का बाइस बना करता था.
लफ़त्तू को गोलू से संभवतः इसलिए सहानुभूति थी कि गोलू हकलाता था. पहली बार कक्षा में पिता द्वारा सबके सामने पीटे जाने और जलील किए जाने के बाद गोलू इन्टरवल में रो रहा था. अपने पापा की जेब पर सफलतापूर्वक हाथ साफ़ करके आया लफ़त्तू मुझे बौने का बमपकौड़ा खिलाने ले जा रहा था जब उसकी निगाह गोलू पर पड़ी.
"इंग्लिछ मात्तर का बेता हो के लोता है बेते!" कह कर उसने गोलू को मोहब्बतभरी तोतली डांट पिलाते हुए बमपकौड़ा अभियान का हिस्सा बना लिया. " मेले पापा तो मुदे लोज धूनते हैं, मैं कोई लोता हूं कबी! गब्बल छे छीक बेता गब्बल छे: जो दल ग्या वो मल ग्या बेते." किंचित सहमा हुआ, लार टपकाता गोलू कभी लफ़त्तू के कॉन्फ़ीडेन्स को देखता कभी हरे पत्ते में सजे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ, स्वादिष्टतम बम-पकौड़े को. कभी उसकी निगाह स्कूल की तरफ़ उठ जाती.
"ततनी दालियो हली वाली औल लाल मिल्चा" कहकर उसने अपना पत्तल बौने के सामने किया. "अभी लेओ बाबूजी" बौना सदा की तरह तत्परता से बोला. यह लफ़त्तू की ख़ास अदा थी जब वह मिर्चा खा पाने की अपनी कैपेसिटी से सामने वाले को आतंकित किया करता. उसकी तनिक पिचकी नाक से एक अजस्र धारा बह रही होती थी पर वह बौने से कहता: "औल दो!"
गोलू के हावभाव बता रहे थे कि वह पहली बार इस प्रकार के कार्यक्रम में हिस्सेदरी कर रह था. पिता की झाड़ और संटी की मार भूलकर वह ज्यों त्यों पकौड़ा निबटाने में लगा था. मैं और गोलू नए खेल के पोस्टर देखने में मशगूल थे.
"नया खेल लगा है बाबूजी! आज ही शुरू हुआ है." अपनी कलाई पर बंधी कोयले और धुंए जैसे डायल वाली, सुतली से कलाई में लपेटी घड़ी पर निगाह मारते हुए बौने ने आगामी बिज़नेस की प्रस्तावना बांधना चालू किया, "हैलन का डान्स हैगा इस में. अभी चल्लिया होगा. आपके इस्कूल में तो अभी टैम हैगा. देखोगे बाबूजी?" इस आश्वस्तिपूर्ण वक्तव्य में इसरार कम था नए ग्राहक को फंसाने की चालबाज़ी ज़्यादा. "नए वाले बाबूजी से क्या पैसा लेना."
लफ़त्तू ने जेब से दो का नोट निकाला और जब तक वह गोलू को पिक्चर देखने का तरीक़ा बताता, मेरी निगाह अपने घर की छत पर गई. मां कपड़े सुखाने डाल चुकने के बाद बाहर देख रही थी. मुझ डरपोक को लगा कि वह सीधा हमें ही देख रही है. मैं बिना बताए जल्दी-जल्दी क्लास की दिशा में बदहवास भाग चला. इस हड़बड़ी में कक्षा के दरवाज़े पर मैं सीधा अपने बड़े भाई से टकरा गया जो मुझे इन्टरवल के बाद घर बुलाने आया था. मेरे ध्यान में नहीं रहा था कि उस दिन हमें गर्जिया मंदिर लाना था. सामने से सिलाई वाले सिरीवास्तव मास्साब आते दिखे तो भाई ने उन्हें एक कागज़ दिखाया. उनके मुंडी हिलाने पर हम घर की दिशा में चल पड़े.
लफ़त्तू और गोलू के साथ क्या बीती होगी - यह मेरी कल्पना की उड़ान के लिए बहुत बड़ी थीम थी.
हम शाम को घर लौटे. थोड़ी ही देर बाद दरवाज़े पर लफ़त्तू के पापा मौजूद थे. मैं बेतरह डर गया और थरथर कांपने लगा. लेकिन वे मेरे लिए जोकर के मुंह वाला मीठी सौंफ़ का डिब्बा लाए थे. डब्बा लेकर मैं छत पर बंटू के साथ क्रिकेट खेलने चला गया. बंटू नई गेंद लाया था और हमारा स्वयंसेवक अम्पायर महान लफ़त्तू हरिया हकले की छत फांदता आ रहा था.
बहुत ही अनौपचारिक तरीके "क्या कैलये मेले पापा" पूछते हुए उसने बंटू से गेंद ली और "खेल इश्टाट" का ऑर्डर दिया. मैं बैटिंग कर रहा था पर मेरा मन बेहद व्याकुल था. जाहिर है लफ़त्तू जानता था कि उसके पापा मेरे घर में बैठे पिताजी से बात कर रहे थे. स्कूल में गोलू के अन्जाम की खौ़फ़नाक कल्पनाओं में मैं रामनगर-गर्जिया-रामनगर यात्रा में चिन्ताग्रस्त रहा था.
मैं पहली बॉल पर आउट होता रहा और बंटू ख़ुशी ख़ुशी मेरी गेंदों की धुनाई करता रहा. देर से शुरू हुआ खेल जल्दी निबट गया. घर जाने से पहले लफ़त्तू ने कमीज़ ऊपर की और पीठ पर पड़े नीले निशानों की मारफ़त सूचना दी कि उसकी और गोलू की टोड मास्साब ने संटी मार-मार कर खाल उधेड़ डाली थी. उसके बाद लफ़त्तू के पापा को स्कूल बुलाया गया. और यह भी कि उसके पापा ने उस से कुछ नहीं कहा बल्कि उसे भी जोकर के मुंह वाला मीठी सौंफ़ का डिब्बा दिया.
अगले दिन और उसके बाद के कई दिन तक न टोड मास्साब स्कूल आए न गोलू. कोई कहता था लफ़त्तू के पापा ने टोड मास्साब को जेल भिजवा दिया और गोलू को मरेलिया हो गया. हुआ जो भी हो, लफ़त्तू की और मेरी अपनी दिनचर्या में एक परिवर्तन यह आया कि हमें सुबह छः बजे लफ़त्तू के पापा ने अंग्रेज़ी पढ़ानी चालू कर दी. यह मेरे घर उनके आने के अगले दिन से शुरू हुआ.
मेरी ही तरह लफ़त्तू के भी बहुत सारे भाई-बहन थे और हमारी पढ़ाई के समय वे कभी-कभार परदों के पीछे नज़र आ जाया करते थे. इस पढ़ाई के दौरान उसकी बड़ी बहन हमें दूध-बिस्कुट भी परोसा करती थी. असल बात यह थी कि मैं एक ही दिन में ताड़ गया था कि लफ़त्तू के पापा की ख़ुद की अंग्रेज़ी कोई बहुत अच्छी नहीं थी. वे पिथौरागढ़ी कुमाऊंनी मिश्रित हिन्दी में हमें इंग्लिस पढ़ाते थे. 'वी' को 'भी' कहते थे, जो मुझे बहुत अटपटा लगता. लेकिन लफ़त्तू की दोस्ती के कारण मैं इस कार्यक्रम में बेमन से हिस्सा लेता और हां-हूं कहा करता.
बस अड्डे से माचिस की डिब्बियों के लेबल खोजने का प्रातःकालीन आयोजन बाधित हो गया था और कभी-कभार घुच्ची खेलने का भी. क़रीब एक हफ़्ता हुआ होगा जब एक रोज़ लफ़त्तू पर जैसे शैतान सवार हो गया. दूध-बिस्कुट आते ही लफ़त्तू ने कापी बन्द की, एक सांस में दूध पिया, जेब में चार बिस्कुट अड़ाए और कापी को ज़मीन पर पटक कर, बस अड्डे और उस से भी आगे भाग जाने से पहले अपने पापा से बोला: "वल्ब को तो भल्ब कहते हो आप! क्या खाक इंग्लिछ पलाओगे पापा?"
Friday, August 8, 2008
बिग्यान का दूसरा सबक और टेस्टूप
एक महीने कछुआ देखने के बाद हुई सामूहिक धुनाई के बाद वाले रोज़ दुर्गादत्त मास्साब लालसिंह के साथ क्लास में घुसे. लालसिंह अंग्रेज़ी की क्लास में अनुपस्थित था. असेम्बली में टोड मास्साब और दुर्गादत्त मास्साब के बीच चली कोई एक मिनट की बातचीत के बाद उसे जल्दी जल्दी गेट से बाहर जाते देखा गया था. लालसिंह के हाथ में खादी आश्रम वाला गांठ लगा मैला-कुचैला थैला था. मास्साब आदतन कर्नल रंजीत में डूबे हुए थे. लालसिंह ने रोज़ की तरह हमारी अटैन्डेन्स ली. पिछले दिन की ख़ौफ़नाक याद के कारण सारे बच्चे चुपचाप थे. हमने दो कक्षाओं के बीच पड़ने वाले पांचेक मिनट के अन्तराल में स्याही में डुबो कर काग़ज़ की गेंदें फेंकने का खेल भी नहीं खेला.
अटैन्डेन्स के बाद मास्साब ने उपन्यास नीचे रखा और बहुत नाटकीय अन्दाज़ में बोले: "कल तक हम ने जीव बिग्यान याने कि जूलाजी के बारे में जाना. आज से हम बनस्पत बिग्यान माने बाटनी की पढ़ाई शुरू करेंगे."
तब तक लालसिंह मैले थैले से काग़ज़ में लिपटी कोई गोल गिलासनुमा चीज़, एक पुड़िया और पानी से भरा हुआ शेर छाप मसालेदार क्वाटर सजा चुका था. लफ़त्तू ने मुझे क्वाटर, अद्धे और बोतल का अन्तर पहले से ही बता रखा था. उसके पापा इन सब में भरे मटेरियल का नियमित सेवन करते थे और लफ़त्तू एकाधिक बार चोरी से उसे चख भी चुका था. "छाली बली थुकैन होती है. लुफ़्त का भौत मजा आता है छाली में मगल."
मास्साब ने और भी नाटकीय अदाओं के साथ मेज़ पर रखी इन वैज्ञानिक वस्तुओं को उरियां किया. कांच गिलासनुमा चीज़ बहुत साफ़ थी और पतली स्याही से लम्बवत उसमें नियत दूरी पर लकीरें बनी हुई थीं. उसके भीतर गै़रमौजूद धूल को एक अतिशयोक्त फूंक मार कर मास्साब ने दूर किया, उंगली को टेढ़ा कर उसमें दो-चार नाज़ुक सी कटकट की और ऊंचा उठाकर बोले: "देखो बच्चो ये है बीकर. आज श्याम को सारे बच्चे लच्छ्मी पुस्तक भंडार पे जा के इसे ख़रीद लावें. डेड़-दो रुपे का मिलेगा. घरवालों से कह दीजो कि मास्साब ने मंगवाया है."
पुड़िया खोलकर उन्होंने उसके भीतर के भूरे जरजरे पाउडर को ज़रा सा लिया और लकड़ी के बारूदे से हमारा परिचय कराया. "जिस बच्चे के घर पे बारूदे की अंगीठी ना हो बो भवानीगंज जा के अतीक भड़ई के ह्यां से ले आवे. अतीक कुछ कये तो उस से कैना कि मास्साब ने मंगाया है"
शेर छाप का क्वाटर खोल कर उन्होंने हमें पानी दिखाया और पहली बार कोई मज़ाकिया बात बोली "और ये है दारू का पव्वा. दारू पीने से आदमी का बिग्यान बिगड़ जाता है. कोई बच्चा दारू तो नहीं पीता है ना?" बच्चों ने सहमते हुए खीसें निपोरीं.
"सारे बच्चे कल को बिग्यान की बड़ी कापी में बीकर का चित्र बना के लावें. और अब बनस्पत बिग्यान का कमाल देखो." उन्होंने अपने गन्दे कोट की विशाल जेब में हाथ डाला और मुठ्ठी बन्द कर के बाहर निकाली." हमें पता था कि उसमें चने के दाने होंगे क्योंकि हमारी ठुकाई करने के बाद उन्होंने क्लास से बाहर जाते हुए यह अग्रिम सूचना जारी कर दी थी सो उनके इस नाटक को हम दर्शकों की ज़्यादा सराहना नहीं मिली.
"ये हैं चने के दाने. इस संसार में सब कुछ बिग्यान होता है जैसे ये दाने भी बिग्यान हैं. अब देखेंगे बनस्पत बिग्यान का जादू." उन्होंने बीकर में चने के दाने डाले, उसके बाद उन्हें बुरादे से ढंक दिया. बीकर में आधा बुरादा डाल चुकने के बाद उन्होंने आधा क्वाटर पानी उसमें उड़ेला.
"अब इस में से चने उगेंगे"
लालसिंह को बीकर थमाते हुए उन्होंने उसके साथ कछुए वाला व्यवहार करने का आदेश दिया और उपन्यास में डूब गए. लालसिंह ने बीकर दिखाना शुरू किया ही था कि घन्टा बज गया. लालसिंह के हाथ से बीकर लेते हुए मास्साब ने पलटकर कहा: "सारे बच्चे आज श्याम को बाज़ार से बीकर लावें और ऐसा ही परजोग करें. कल सबको चने वाले बीकर लाने हैं."
घर पर हमेशा की तरह साइंस के इस प्रयोग की सामूहिक हंसी उड़ाई गई. लफ़त्तू के घरवालों ने उसे बीकर के पैसे देने से मना कर दिया था सो मैंने मां से यह झूठ बोलकर दो बीकर ख़रीदे कि सबको दो-दो बीकर लाने को कहा गया है.
अगले दिन असेम्बली में कक्षा छः (अ) के हर बच्चे के हाथ में एक बीकर था. केवल नई कक्षा के बच्चों ने इन में दिलचस्पी दिखाई. दुर्गादत्त मास्साब के इस बनस्पत बिग्यान परजोग से बाक़ी के अध्यापक-छात्र परिचित रहे होंगे.
मास्साब ने आकर लालसिंह से अटैन्डेन्स के बाद हर बच्चे का बीकर चैक करने को कहा. बीकर चैक करने के बाद हमारे लिए ख़ास बनाई गईं काग़ज़ की छोटी पर्चियां जेब से निकालकर मास्साब ने हम से उन पर अपना-अपना नाम लिखने और परजोगसाला से लालसिंह द्वारा लाई गई आटे की चिपचिप लेई से उन्हें अपने बीकरों पर चिपकाने को कहा. "जब चिप्पियां लग जावें तो सारे बच्चे बारी-बारी से नलके पे जाके हाथ धोवें औए साफ़ सूखे हाथों से बीकरों को परजोगसाला में रख के आवें" घड़ी की तरफ़ एक बार देख कर मास्साब ने एक उचाट निगाह डालते हुए हमें आदेश दिया.
मोतीराम परशादीलाल इन्टर कालिज की परजोगसाला एक अजूबा निकली. एक बड़ा सा हॉल था, जिस में घुसते ही क़रीब सौएक टूटी कुर्सियां और मेज़ें औंधी पड़ी हुई थीं. उनके बीच से रास्ता बनाते हुए आगे जाने पर एक तरफ़ को बड़ी-बड़ी मेजें थीं - एक पर शादी का खाना बनाने में काम आने वाले बड़े डेग-कड़ाहियां-चिमटे-परातें बेतरतीब बिखरे हुए थे. एक मेज़ के ऊपर कर्नल रंजीत वाली एक अधफटी किताब धूल खा रही थी. वह दुर्गादत्त मास्साब की मेज़ थी. इसी पर हमने अपने बीकर क्रम से रखने थे. किताब मैंने दूर से ताड़ ली थी. मेरे त्वरित, गुपचुप, लालचभरे इसरार पर लफ़त्तू लपक कर गया और चौर्यकर्म में अपनी महारत का प्रदर्शन करते हुए किसी और बच्चे के मेज़ तक पहुंचने देने से पेशतर उसने किताब चाऊ की और कमीज़ के नीचे अड़ा ली और मुझे आंख भी मारी. बीकर रखने के बाद मेरी निगाह दूसरी तरफ़ गई. जहां-तहां टूटे कांच वाली कुछ अल्मारियां थीं जिनकी बग़ल खड़ा में चेतराम नामक लैब असिस्टैन्ट ऊंची आवाज़ में हम से जल्दी फूटने को कह रहा था. इतनी सारी व्यस्तताओं और हड़बड़ी के बावजूद मुझे भुस भरे हुए कुछ पशु-पक्षी इन अल्मारियों के भीतर दिख ही गए. और एक संकरी ताला लगी अल्मारी के भीतर खड़ा एक कंकाल भी जिसने कर्नल रंजीत के साथ अगले कई महीनों तक मेरे सपनों में आना था.
अगले बीसेक दिन बिग्यान की क्लास का रूटीन यह तय बताया गया कि अंग्रेज़ी की क्लास के तुरन्त बाद हमें परजोगसाला जाकर अपने - अपने बीकरों में पानी देना होता था, उसके बाद सम्हाल कर इन्हें क्लास में लाकर अपने आगे रख कर अटैन्डेन्स दी कर बीकर की परगती को ध्यान लगाकर देखना होता था. मास्साब के घड़ी देख कर बताने के बाद घन्टा बजने से दस मिनट पहले हमें इन बीकरों को वापस परजोगसाला जाकर रखना होता.
पहले तीन-चार दिन तो मुझे लगा यह भी मास्साब की कोई ट्रिक है जिस से बोर करने के बाद वे हमें एक बार पुनः मार-मार कर बतौर तिवारी मास्साब हौलीकैप्टर बनाने की प्रस्तावना बांध रहे हैं. पांचवें दिन बीकर के तलुवे में पड़े चने के दानों में कल्ले फूट पड़े और बीकर को नीचे से देखने पर वे शानदार नज़र आते थे. भगवानदास मास्साब इस घटना से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने पांच मिनट तक उपन्यास नीचे रख कर हमें बनस्पत बिग्यान की माया पर एक लैक्चर दिया.
परजोगसाला जाकर मैं सबसे पहले पानी न देकर कंकाल को देखता और उसे पास जा कर छूने का जोख़िमभरा कारनामा अंजाम देने की कल्पना किया करता. इधर मैंने चोरी छिपे ढाबू की छत के एक निर्जन कोने में कर्नल रंजीत के फटे उपन्यास के सारे पन्ने कई बार पढ़ लिए थे. उस के बारे में फिर कभी. चोरी-चोरी मास्साब के उपन्यासों के कवर देखते हुए अब मुझे कुछ कुछ समझ में आने लगा था और कर्नल का इन्द्रजाल सरीखे रहस्य लोक से परिचित क़िस्म की सनसनी होने लगी थी.
दस- बारह दिन बाद नन्हे से पौधे वाक़ई चार-पांच सेन्टीमीटर की बुरादे की परत फ़ोड़कर बाहर निकल आए. इन दिनों पूरी क्लास भर मास्साब के चेहरे पर परमानन्द की छटा झलकती रहती थी. लालसिंह सारे काम करता और ख़ुद उन्हें उपन्यास पढ़ने के सिवा कुछ नहीं करना होता था.
चने के पौधे दो-तीन सेन्टीमीटर लम्बे हो गए थे और बुरादे से अब बदबू भी आने लगी थी. किसी-किसी बीकर के भीतर फफूंद उग आई थी. एक दिन उचित अवसर देख कर मास्साब क्लास से मुख़ातिब हुए: "चने का झाड़ कितने बच्चों ने देखा है?" कोई उत्साहजनक उत्तर न मिलने पर पहले उन्होंने लालसिंह से किसी खेत से चने का झाड़ लाने को कहा और अपना लैक्चर चालू रखते हुए कहना शुरू किया: "चने का झाड़ बड़े काम का होता है. उसमें पहले हौले लगते हैं फिर चने और चने को खाकर सारे बच्चे ताकतवर बनते हैं. सूखे चने को पीसकर बेसन बनता है जिसकी मदद से तलवार अपने होटल में स्वादिस्ट पकौड़ी बनाता है." पकौड़ी का नाम आने पर उन्होंने अपना थूक गटका, "सारे बच्चों के पौधे भी एक दिन चने के बड़े झाड़ों में बदल जावेंगे. तो आज हम आडीटोरियम के बगल में इन पौधों का खेत तैयार करेंगे. जब खूब सारे चने उगेंगे तो हम उन चनों को बन्सल मास्साब की दुकान पे बेच आवेंवे. उस से जो पैसा मिलेगा, उस से सारे बच्चे किसी इतवार को कोसी डाम पे जाके पिकनिक करेंगे.
"लालसिंह हमें आडीटोरियम के बगल में इन पौधों को रोपाने ले गया और वहां जाकर भद्दी सी गाली देकर बोला: "मास्साब भी ना!"
इसके बावजूद हमारे उत्साह में क़तई कमी नहीं आई और आसपास पड़े लकड़ी-पत्थर की मदद से खेत खोदन-निर्माण और पौधारोपण का कार्य सम्पन्न हुआ. घन्टा बज चुका था और हम अपने-अपने बीकर साफ़ करने के उपरान्त उन्हें अपने बस्तों में महफ़ूज़ कर चुके थे.
छुट्टी के वक़्त स्कूल से लौटते हुए कुछेक बच्चे सद्यःनिर्मित खेत के निरीक्षणकार्य हेतु गए. बीच में बरसात की बौछार पड़ चुकी थी. लफ़त्तू भागता हुआ मेरे पास आया: "लालछिंग सई कैलिया था बेते. भैंते मात्तर ने तूतिया कात दिया. छाले तने बलछात में बै गए. अब बेतो तने औल कल्लो दाम पे पुकनिक". उस कब्रगाह पर जा पाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई.
तीन हफ़्ते की मेहनत का यूं पानी में बह जाना मेरे लिए बहुत बड़ा हादसा था. इस वैज्ञानिकी त्रासदी से असंपृक्त दुर्गादत्त मास्साब ने अगले रोज़ न लालसिंह से चने के झाड़ के बाबत सवालात किए, जिसे लाना वह भूल गया था, न चनोत्पादन की उस महत्वाकांक्षी खेती-परियोजना का ज़िक्र किया. अपनी जेब से कर्नल की चमचमाती नई किताब के साथ उन्होंने जेब से परखनली निकाली और उसी नाटकीयता से पूछा: "इसका नाम कौन बच्चा जानता है?" लालसिंह ने भैंसे यानी दुर्गादत्त मास्साब को कल से भी बड़ी गाली देते हुए हमें बिग्यान की इस तीसरी क्लास के बारे में एडवान्स सूचित कर दिया था. "परखनाली मास्साब!" उत्तर में एक कोरस उठा.
"परखनाली नहीं सूअरो! परखनली कहा जावे है इसे! और कल हर बच्चा बाज़ार से दो-दो परखनलियां ले के आवेगा. कल से हम बास्पीकरण के बारे में सीखेंगे. आज श्याम को सारे बच्चे लच्छ्मी पुस्तक भंडार पे जा के ख़रीद लावें. आठ-बारह आने में आ जावेंगी ..."
लालसिंह की गुस्ताख़ी का उन्हें भान हो गया होगा. पहली बार उसकी तरफ़ तिरस्कार से देखते हुए उन्होंने क़रीब-क़रीब थूकने के अन्दाज़ में हमसे कहा: "इंग्लिस में टेस्टूप कहलाती है परखनली. आई समझ में हरामियो?"
अटैन्डेन्स के बाद मास्साब ने उपन्यास नीचे रखा और बहुत नाटकीय अन्दाज़ में बोले: "कल तक हम ने जीव बिग्यान याने कि जूलाजी के बारे में जाना. आज से हम बनस्पत बिग्यान माने बाटनी की पढ़ाई शुरू करेंगे."
तब तक लालसिंह मैले थैले से काग़ज़ में लिपटी कोई गोल गिलासनुमा चीज़, एक पुड़िया और पानी से भरा हुआ शेर छाप मसालेदार क्वाटर सजा चुका था. लफ़त्तू ने मुझे क्वाटर, अद्धे और बोतल का अन्तर पहले से ही बता रखा था. उसके पापा इन सब में भरे मटेरियल का नियमित सेवन करते थे और लफ़त्तू एकाधिक बार चोरी से उसे चख भी चुका था. "छाली बली थुकैन होती है. लुफ़्त का भौत मजा आता है छाली में मगल."
मास्साब ने और भी नाटकीय अदाओं के साथ मेज़ पर रखी इन वैज्ञानिक वस्तुओं को उरियां किया. कांच गिलासनुमा चीज़ बहुत साफ़ थी और पतली स्याही से लम्बवत उसमें नियत दूरी पर लकीरें बनी हुई थीं. उसके भीतर गै़रमौजूद धूल को एक अतिशयोक्त फूंक मार कर मास्साब ने दूर किया, उंगली को टेढ़ा कर उसमें दो-चार नाज़ुक सी कटकट की और ऊंचा उठाकर बोले: "देखो बच्चो ये है बीकर. आज श्याम को सारे बच्चे लच्छ्मी पुस्तक भंडार पे जा के इसे ख़रीद लावें. डेड़-दो रुपे का मिलेगा. घरवालों से कह दीजो कि मास्साब ने मंगवाया है."
पुड़िया खोलकर उन्होंने उसके भीतर के भूरे जरजरे पाउडर को ज़रा सा लिया और लकड़ी के बारूदे से हमारा परिचय कराया. "जिस बच्चे के घर पे बारूदे की अंगीठी ना हो बो भवानीगंज जा के अतीक भड़ई के ह्यां से ले आवे. अतीक कुछ कये तो उस से कैना कि मास्साब ने मंगाया है"
शेर छाप का क्वाटर खोल कर उन्होंने हमें पानी दिखाया और पहली बार कोई मज़ाकिया बात बोली "और ये है दारू का पव्वा. दारू पीने से आदमी का बिग्यान बिगड़ जाता है. कोई बच्चा दारू तो नहीं पीता है ना?" बच्चों ने सहमते हुए खीसें निपोरीं.
"सारे बच्चे कल को बिग्यान की बड़ी कापी में बीकर का चित्र बना के लावें. और अब बनस्पत बिग्यान का कमाल देखो." उन्होंने अपने गन्दे कोट की विशाल जेब में हाथ डाला और मुठ्ठी बन्द कर के बाहर निकाली." हमें पता था कि उसमें चने के दाने होंगे क्योंकि हमारी ठुकाई करने के बाद उन्होंने क्लास से बाहर जाते हुए यह अग्रिम सूचना जारी कर दी थी सो उनके इस नाटक को हम दर्शकों की ज़्यादा सराहना नहीं मिली.
"ये हैं चने के दाने. इस संसार में सब कुछ बिग्यान होता है जैसे ये दाने भी बिग्यान हैं. अब देखेंगे बनस्पत बिग्यान का जादू." उन्होंने बीकर में चने के दाने डाले, उसके बाद उन्हें बुरादे से ढंक दिया. बीकर में आधा बुरादा डाल चुकने के बाद उन्होंने आधा क्वाटर पानी उसमें उड़ेला.
"अब इस में से चने उगेंगे"
लालसिंह को बीकर थमाते हुए उन्होंने उसके साथ कछुए वाला व्यवहार करने का आदेश दिया और उपन्यास में डूब गए. लालसिंह ने बीकर दिखाना शुरू किया ही था कि घन्टा बज गया. लालसिंह के हाथ से बीकर लेते हुए मास्साब ने पलटकर कहा: "सारे बच्चे आज श्याम को बाज़ार से बीकर लावें और ऐसा ही परजोग करें. कल सबको चने वाले बीकर लाने हैं."
घर पर हमेशा की तरह साइंस के इस प्रयोग की सामूहिक हंसी उड़ाई गई. लफ़त्तू के घरवालों ने उसे बीकर के पैसे देने से मना कर दिया था सो मैंने मां से यह झूठ बोलकर दो बीकर ख़रीदे कि सबको दो-दो बीकर लाने को कहा गया है.
अगले दिन असेम्बली में कक्षा छः (अ) के हर बच्चे के हाथ में एक बीकर था. केवल नई कक्षा के बच्चों ने इन में दिलचस्पी दिखाई. दुर्गादत्त मास्साब के इस बनस्पत बिग्यान परजोग से बाक़ी के अध्यापक-छात्र परिचित रहे होंगे.
मास्साब ने आकर लालसिंह से अटैन्डेन्स के बाद हर बच्चे का बीकर चैक करने को कहा. बीकर चैक करने के बाद हमारे लिए ख़ास बनाई गईं काग़ज़ की छोटी पर्चियां जेब से निकालकर मास्साब ने हम से उन पर अपना-अपना नाम लिखने और परजोगसाला से लालसिंह द्वारा लाई गई आटे की चिपचिप लेई से उन्हें अपने बीकरों पर चिपकाने को कहा. "जब चिप्पियां लग जावें तो सारे बच्चे बारी-बारी से नलके पे जाके हाथ धोवें औए साफ़ सूखे हाथों से बीकरों को परजोगसाला में रख के आवें" घड़ी की तरफ़ एक बार देख कर मास्साब ने एक उचाट निगाह डालते हुए हमें आदेश दिया.
मोतीराम परशादीलाल इन्टर कालिज की परजोगसाला एक अजूबा निकली. एक बड़ा सा हॉल था, जिस में घुसते ही क़रीब सौएक टूटी कुर्सियां और मेज़ें औंधी पड़ी हुई थीं. उनके बीच से रास्ता बनाते हुए आगे जाने पर एक तरफ़ को बड़ी-बड़ी मेजें थीं - एक पर शादी का खाना बनाने में काम आने वाले बड़े डेग-कड़ाहियां-चिमटे-परातें बेतरतीब बिखरे हुए थे. एक मेज़ के ऊपर कर्नल रंजीत वाली एक अधफटी किताब धूल खा रही थी. वह दुर्गादत्त मास्साब की मेज़ थी. इसी पर हमने अपने बीकर क्रम से रखने थे. किताब मैंने दूर से ताड़ ली थी. मेरे त्वरित, गुपचुप, लालचभरे इसरार पर लफ़त्तू लपक कर गया और चौर्यकर्म में अपनी महारत का प्रदर्शन करते हुए किसी और बच्चे के मेज़ तक पहुंचने देने से पेशतर उसने किताब चाऊ की और कमीज़ के नीचे अड़ा ली और मुझे आंख भी मारी. बीकर रखने के बाद मेरी निगाह दूसरी तरफ़ गई. जहां-तहां टूटे कांच वाली कुछ अल्मारियां थीं जिनकी बग़ल खड़ा में चेतराम नामक लैब असिस्टैन्ट ऊंची आवाज़ में हम से जल्दी फूटने को कह रहा था. इतनी सारी व्यस्तताओं और हड़बड़ी के बावजूद मुझे भुस भरे हुए कुछ पशु-पक्षी इन अल्मारियों के भीतर दिख ही गए. और एक संकरी ताला लगी अल्मारी के भीतर खड़ा एक कंकाल भी जिसने कर्नल रंजीत के साथ अगले कई महीनों तक मेरे सपनों में आना था.
अगले बीसेक दिन बिग्यान की क्लास का रूटीन यह तय बताया गया कि अंग्रेज़ी की क्लास के तुरन्त बाद हमें परजोगसाला जाकर अपने - अपने बीकरों में पानी देना होता था, उसके बाद सम्हाल कर इन्हें क्लास में लाकर अपने आगे रख कर अटैन्डेन्स दी कर बीकर की परगती को ध्यान लगाकर देखना होता था. मास्साब के घड़ी देख कर बताने के बाद घन्टा बजने से दस मिनट पहले हमें इन बीकरों को वापस परजोगसाला जाकर रखना होता.
पहले तीन-चार दिन तो मुझे लगा यह भी मास्साब की कोई ट्रिक है जिस से बोर करने के बाद वे हमें एक बार पुनः मार-मार कर बतौर तिवारी मास्साब हौलीकैप्टर बनाने की प्रस्तावना बांध रहे हैं. पांचवें दिन बीकर के तलुवे में पड़े चने के दानों में कल्ले फूट पड़े और बीकर को नीचे से देखने पर वे शानदार नज़र आते थे. भगवानदास मास्साब इस घटना से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने पांच मिनट तक उपन्यास नीचे रख कर हमें बनस्पत बिग्यान की माया पर एक लैक्चर दिया.
परजोगसाला जाकर मैं सबसे पहले पानी न देकर कंकाल को देखता और उसे पास जा कर छूने का जोख़िमभरा कारनामा अंजाम देने की कल्पना किया करता. इधर मैंने चोरी छिपे ढाबू की छत के एक निर्जन कोने में कर्नल रंजीत के फटे उपन्यास के सारे पन्ने कई बार पढ़ लिए थे. उस के बारे में फिर कभी. चोरी-चोरी मास्साब के उपन्यासों के कवर देखते हुए अब मुझे कुछ कुछ समझ में आने लगा था और कर्नल का इन्द्रजाल सरीखे रहस्य लोक से परिचित क़िस्म की सनसनी होने लगी थी.
दस- बारह दिन बाद नन्हे से पौधे वाक़ई चार-पांच सेन्टीमीटर की बुरादे की परत फ़ोड़कर बाहर निकल आए. इन दिनों पूरी क्लास भर मास्साब के चेहरे पर परमानन्द की छटा झलकती रहती थी. लालसिंह सारे काम करता और ख़ुद उन्हें उपन्यास पढ़ने के सिवा कुछ नहीं करना होता था.
चने के पौधे दो-तीन सेन्टीमीटर लम्बे हो गए थे और बुरादे से अब बदबू भी आने लगी थी. किसी-किसी बीकर के भीतर फफूंद उग आई थी. एक दिन उचित अवसर देख कर मास्साब क्लास से मुख़ातिब हुए: "चने का झाड़ कितने बच्चों ने देखा है?" कोई उत्साहजनक उत्तर न मिलने पर पहले उन्होंने लालसिंह से किसी खेत से चने का झाड़ लाने को कहा और अपना लैक्चर चालू रखते हुए कहना शुरू किया: "चने का झाड़ बड़े काम का होता है. उसमें पहले हौले लगते हैं फिर चने और चने को खाकर सारे बच्चे ताकतवर बनते हैं. सूखे चने को पीसकर बेसन बनता है जिसकी मदद से तलवार अपने होटल में स्वादिस्ट पकौड़ी बनाता है." पकौड़ी का नाम आने पर उन्होंने अपना थूक गटका, "सारे बच्चों के पौधे भी एक दिन चने के बड़े झाड़ों में बदल जावेंगे. तो आज हम आडीटोरियम के बगल में इन पौधों का खेत तैयार करेंगे. जब खूब सारे चने उगेंगे तो हम उन चनों को बन्सल मास्साब की दुकान पे बेच आवेंवे. उस से जो पैसा मिलेगा, उस से सारे बच्चे किसी इतवार को कोसी डाम पे जाके पिकनिक करेंगे.
"लालसिंह हमें आडीटोरियम के बगल में इन पौधों को रोपाने ले गया और वहां जाकर भद्दी सी गाली देकर बोला: "मास्साब भी ना!"
इसके बावजूद हमारे उत्साह में क़तई कमी नहीं आई और आसपास पड़े लकड़ी-पत्थर की मदद से खेत खोदन-निर्माण और पौधारोपण का कार्य सम्पन्न हुआ. घन्टा बज चुका था और हम अपने-अपने बीकर साफ़ करने के उपरान्त उन्हें अपने बस्तों में महफ़ूज़ कर चुके थे.
छुट्टी के वक़्त स्कूल से लौटते हुए कुछेक बच्चे सद्यःनिर्मित खेत के निरीक्षणकार्य हेतु गए. बीच में बरसात की बौछार पड़ चुकी थी. लफ़त्तू भागता हुआ मेरे पास आया: "लालछिंग सई कैलिया था बेते. भैंते मात्तर ने तूतिया कात दिया. छाले तने बलछात में बै गए. अब बेतो तने औल कल्लो दाम पे पुकनिक". उस कब्रगाह पर जा पाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई.
तीन हफ़्ते की मेहनत का यूं पानी में बह जाना मेरे लिए बहुत बड़ा हादसा था. इस वैज्ञानिकी त्रासदी से असंपृक्त दुर्गादत्त मास्साब ने अगले रोज़ न लालसिंह से चने के झाड़ के बाबत सवालात किए, जिसे लाना वह भूल गया था, न चनोत्पादन की उस महत्वाकांक्षी खेती-परियोजना का ज़िक्र किया. अपनी जेब से कर्नल की चमचमाती नई किताब के साथ उन्होंने जेब से परखनली निकाली और उसी नाटकीयता से पूछा: "इसका नाम कौन बच्चा जानता है?" लालसिंह ने भैंसे यानी दुर्गादत्त मास्साब को कल से भी बड़ी गाली देते हुए हमें बिग्यान की इस तीसरी क्लास के बारे में एडवान्स सूचित कर दिया था. "परखनाली मास्साब!" उत्तर में एक कोरस उठा.
"परखनाली नहीं सूअरो! परखनली कहा जावे है इसे! और कल हर बच्चा बाज़ार से दो-दो परखनलियां ले के आवेगा. कल से हम बास्पीकरण के बारे में सीखेंगे. आज श्याम को सारे बच्चे लच्छ्मी पुस्तक भंडार पे जा के ख़रीद लावें. आठ-बारह आने में आ जावेंगी ..."
लालसिंह की गुस्ताख़ी का उन्हें भान हो गया होगा. पहली बार उसकी तरफ़ तिरस्कार से देखते हुए उन्होंने क़रीब-क़रीब थूकने के अन्दाज़ में हमसे कहा: "इंग्लिस में टेस्टूप कहलाती है परखनली. आई समझ में हरामियो?"
Tuesday, October 16, 2007
बौने का बम पकौड़ा

लफत्तू
के साथ दोस्ती बनाए रखने में कई सारे जोखिम थे. सबसे पहला तो यह कि इन्टर में पढ़ने
वाला मेरा भाई जब जब मुझे उसके साथ देखता मुझे बाकायदा हिदायत दी जाती थी कि इस टाइप
के लौंडों से हाथ भर दूरी बना कर रहना ही ठीक होता है. लफत्तू की धुनाई के बाद
मुझे लगता था कि किसी दिन उसके चक्कर में मैं बुरा फंसूगा और भाई या पिताजी के
हाथों पिटूंगा. सबसे बड़ा खतरा यह था कि उसके साथ लगातार देखे जाने से मेरी
रेपूटेशन खतरे में पड़ सकती थी और मैं होस्यार के बजाय ‘बदमास’ के तौर पर विख्यात हो सकता था. लेकिन इस
दोस्ती में जो एडवेन्चर का पुट था उस के कारण मैं लफत्तू की संगत के लालच में आ ही
जाता था.
उस
दिन लफत्तू अपने पिताजी के दफ्तर से पीतल का बड़ा सा ताला चाऊ कर लाया था. वह अपने
पिताजी को कोई जरूरी चिठ्ठी देने गया था. दफ्तर के चपरासी से लापरवाही में ताला मय
चाबी के एक बेन्च पर पड़ा रह गया था और दोपहर बीत जाने के बाद भी किसी की निगाह में
नहीं आया था. उल्लेखनीय है कि अपने घर से बाहर लफत्तू ने पहली बार हाथ आजमाया और
फतहयाब होकर आया था.
खेलमैदान
के एक तरफ हिमालय टॉकीज था और एक तरफ गाड़ी मिस्त्रियों की कालिखभरी दुकानों की
कतार. मैदान से हमारे घर की तरफ लगा हुआ प्राइवेट बस अड्डा था. मैं अपने साथ के
कुछ बच्चों के साथ घर के सामने स्थित इसी अड्डे पर खड़ा था. इस अड्डे से काशीपुर और
मुरादाबाद रूट की बसें चला करती थीं. शाम को पांच बजे तक सारी गाड़ियां अपना दिन
भर का काम करने के बाद अड्डे पर लग जाती थीं. उसके बाद गाड़ियों के क्लीनर
गाड़ियों में झाड़ू लगा कर सारा कचरा बाहर किया करते थे. यह कचरा हमारे लिए खजाने
की तरह होता था. हम में से कुछ बच्चों ने उन्हीं दिनों माचिस की डब्बियों के लेबल
इकठ्ठा करने का नया शौक पाला था. इस अय्याशीभरे शौक के चलते क्लीनरों के झाड़ू
लगाते समय अड्डे पर हमारी उपस्थिति अनिवार्य होती थी. कूड़ा बुहारते क्लीनर हमें
बेहद भद्दी गालियां दिया करते थे और कई बार किसी दुर्लभ लेबल को लेकर हम में
सरफुटव्वल तक हो जाता था लेकिन शौक़ तो शौक़ होता है साहब.
बहरहाल
क्लीनरगण अपने कार्य में व्यस्त थे और हम लोग आपस में डुप्लीकेट लेबलों की अदला-बदली
कर रहे थे जब लफत्तू हांफता हुआ मेरे पास आया. उसने बड़ी हिकारत से एक निगाह पहले
मुझ पर डाली फिर बाकी बच्चों पर. “बलबाद हो
जागा इन छालों के चक्कल में बेते …” कहते हुए उसने मुझे अपने
पीछे आने का इशारा किया. वह दूधिए वाली संकरी गली में घुस गया. उस्ताद के आदेश की
बेकद्री मैं नहीं कर सकता था. सो बेमन से उसके पीछे चल दिया. एक जगह थोड़ी सी तनहाई
मिली तो उसने जेब से एक एक के नोटों की पतली गड्डी बाहर निकाली और पूरे सात गिनाए.
“चल बमपकौड़ा खा के आते हैं.” उसने मेरे
कन्धे पर हाथ रखा और आंख मारी.
अपने
पापा के दफ्तर से ताला चु्राने की दास्तान उसने सुना तो दी लेकिन मेरी समझ में
नहीं आया कि सात रूपए वह कहां से चुरा कर लाया. “अले
याल बेच दिया थाले को”. वह ताले को एक गाड़ी मिस्त्री को बेच
आया था. “इत्ता बड़ा ताला था बेता … इत्ता
बड़ा” कहकर उसने ताले की नाप बढ़ा चढ़ा कर बताते हुए हाथ फैलाए.
“मैंने दस मांगे छाले से. उसके पास सात ई थे.” अब हम लोग उसी गाड़ी मिस्त्री की दुकान के आगे से निकल रहे थे. “वो ऐ उतकी दुकान.” लफत्तू ने इशारा किया लेकिन मेरी
हिम्मत उस तरफ देखने की नहीं हुई. यह बहुत बड़ा ज़ोखिम था जिसमें हमारे कारनामे के
सार्वजनिक हो जाने की प्रबल संभावना थी.
गाड़ी
मिस्त्री की दुकान से बीस तीस कदम चलने के बाद ही मैं अपनी निगाह ऊपर कर पाया. तब
तक हमारी मंजिले-मकसूद भी आ पहुंची थी. हिमालय टॉकीज़ सड़क से सटा हुआ था. उसके
प्रवेशद्वार से लगा कर खड़े किए गए एक ठेलानुमा खोखे में रामनगर का मशहूर बम पकौड़ा
मिलता था. इस ठेले का संचालन एक कलूटा और गंजा बौना किया करता था. जब वह अपने ठेले
पर नहीं होता था, उसे उसकी साइकिल पर सारे शहर का चक्कर लगाते देखा जाता था. बौना
होने के बावजूद वह हमेशा बड़ों की साइकिल चलाया करता था. और इस तकनीकी दिक्कत के
चलते वह साइकिल की गद्दी पर कभी बैठ ही नहीं पाता था. बाद के दिनों में उसने गद्दी
हटवा ही दी थी. वह सामर्थ्य भर तेज़-तेज़ कैंची चलाया करता. कभी उसके कैरियर पर आलू
की बोरी लदी होती उसी के जैसे उसके दो बच्चे बैठे होते.
क्रिकेट
की बॉल जितना होता था बौने का बम पकौड़ा. दुनिया का सबसे लज़ीज़ व्यंजन बनाने वाला
बौना एक दूसरा बिजनेस भी चलाता था. उसके ठेले से लगा हुआ था हिमालय टॉकीज़ का
प्रवेशद्वार. लकड़ी का वह चौड़ा गेट जमीन पर पहुंचने के करीब एक इंच पहले ख़त्म हो
जाता था. नतीज़तन फ़र्श और गेट के बीच एक झिरी सी थी. यह झिरी बहुत स्ट्रेटेजिक
लोकेशन पर थी. यदि अपना गाल फर्श पर लगाए श्रमपूर्वक उस पर आंख लगाई जाती तो भीतर
हॉल का पूरा पर्दा नजर आ जाता था. बौना स्कूल गोल करके आए बच्चों और स्कूल न जाने
वाले पिक्चरप्रेमी बच्चों को पांच पैसा प्रति पन्द्रह मिनट के हिसाब से झिरी पर
आंख लगाए पिक्चर देखने देता था. एक बार में पांच बच्चे बकौल लफत्तू इस लुफ्त का
मजा लूट सकते थे. दर्शक को पन्द्रह पैसे का एक बमपकौड़ा भी खरीदना होता था.
बच्चों
में यह बात मशहूर थी कि बौना इस तरह का सफल बिजनेस चलाने के कारण लखपति बन चुका था
यानी उसके पास हमारे पिताओं से ज्यादा प्रापर्टी थी. लोग कहते थे पीरूमदारा में
उसका एक बहुत बड़ा मकान था. लेकिन बौने के गंदे - संदे बच्चों की बहती नाक और खुद
बौने की भूरी पड़ चुकी छींट की धोती और खद्दर के फटे कुरते को देख कर इस बात पर
मुझे कभी कभी शक होता था.
हम
दोनों ने दो-दो बमपकौड़े टिकाये और तनिक दिलचस्पी से झिरी पर आंख लगाए एक बच्चे को
देखा. शाम का शो चल रहा था और इस शो में बौने का साइड बिजनेस मद्दा पड़ जाता था.
लफत्तू ने मुझे पिक्चर देखने का आमंत्रण दिया. ‘हिन्दुस्तान
की कसम’ लगी हुई थी.
जब
मैं शाम को घर पहुंचा तो मेरी सफेद कमीज बुरी तरह भूरी पड़ चुकी थी. मां ने पूछा तो
मैंने कहा कि मैं ऐसे ही गिर पड़ा था. उसके अगले पूरे हफ्ते तक मैं हर रोज़ गिरता
रहा. एक दिन पिक्चर बदल गई. “नया खेल लगा है बाबूजी.
देख लो आप दोनों के लिए दो जगे छोड़ रखी हैं मैंने.” बौना,
चोट्टे लफत्तू को बहुत अमीर समझने लगा था और उसकी चमचागीरी करता हुआ
उसे बाबूजी कहकर पुकारने लगा था.
इकत्तीस
साल हो गए लेकिन ‘हिन्दुस्तान की कसम’ मैं आज तक पूरी नहीं देख पाया.
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Friday, October 12, 2007
बागड़बिल्ले का टौंचा माने ...

रामनगर आने के बाद मुझे
भाषा के विविध आयामों से परिचित होने का मौका भी मिला. मुझ से थोड़ा बड़े यानी करीब
बारह-तेरह साल के लड़के गुल्ली डंडा और कंचे खेला करते थे. लफत्तू मेरी उमर का था
लेकिन चोर होने के कारण ये बड़े लड़के उसे अपने साथ खेलने देते थे. उस का नया दोस्त
होने के नाते मुझे खेलने को तो कम मिलता था लेकिन मैं उन के कर्मक्षेत्र के आसपास
बिना गाली खाए बना रह सकता था. गुल्ली-डंडा खेलते वक़्त वे मुझे अक्सर पदाया करते
थे लेकिन मैं उन के साथ हो पाने को एक उपलब्धि मानता था और ख़ुशी-ख़ुशी पदा करता
था.
कभी-कभी (ख़ास तौर पर जब लफत्तू अपने पापा के बटुए से चोरी कर के आया
होता था), ये लड़के घुच्ची खेलते थे. घुच्ची के खेल में कंचों
के बदले पांच पैसे के सिक्कों का इस्तेमाल हुआ करता था. पांच पैसे में बहुत सारी
चीज़े आ जाया करतीं. लफत्तू इस खेल में अक्सर हार जाता था क्योंकि उसका निशाना
कमजोर था. वह आमतौर पर अठन्नी या एक रूपया चुरा के लाता था. बड़े नोट न चुराने के
पीछे उसकी दलील यह होती थी कि उन्हें तुड़वाने में रिस्क होता है.
घुच्ची में पांच पैसे के सिक्के चाहिऐ होते थे जो वह आमतौर पर शेरदा
की चाय की दुकान से या जब्बार कबाड़ी से चुराई गयी अठन्नी-चवन्नी तुड़ा कर ले आता था.
एक बार वह पूरे पांच का नोट चुरा लाया था. वह मुझे अपने साथ लक्ष्मी बुक डिपो ले
कर गया. वहाँ जा कर उसने मुझसे कहा कि मैं अपने लिए 'चम्पक' या 'नन्दन' खरीद लूँ. मुझे अपने साथ वह इसलिये लेकर गया था कि मुझे बकौल उसके होस्यार
माना जाता था. और ऐसे बच्चों पर कोई शक नहीं करता.
कृतज्ञ होकर मैंने ‘नन्दन’ खरीद
ली. पांच का नोट मेरे हाथ से लेते हुए लक्ष्मी बुक डिपो वाले लाला ने एक नज़र मेरे
उत्तेजना से लाल पड़ गए चेहरे पर डाली लेकिन कहा कुछ नहीं. फिर उसने मेरे पिताजी का
हाल समाचार पूछा. गल्ले से पैसे निकालते हुए उस ने तनिक तिरस्कार के साथ लफत्तू की
तरफ देखते हुए मुझी से पूछा :
“इस लौंडे का भाई आया ना आया लौट के?”
सारा शहर जानता था कि लफत्तू का बड़ा भाई पेतू हाईस्कूल में तीसरी दफ़ा
फेल हो जाने के बाद घर से भाग गया था.
“अपने पैते काटो अंकलजी और काम कलो” लफत्तू ने हिकारत और आत्मविश्वास का प्रदर्शन करते हुए अपनी आंखें फेर लीं.
“ये आजकल के लौंडे …” कहते हुए
लाला ने मेरे हाथ में पैसे थमाए. लफत्तू की हिम्मत पर मैं फिदा तो था ही अब उसका
मुरीद बन गया.
हम देर शाम तक मटरगश्ती करते रहे थे. बादशाहों की तरह मौज करने के
बावजूद दो का नोट बचा हुआ था. घर जाने से पहले घुच्ची के अड्डे पर सिक्कों की कमी
का तकनीकी सवाल उठा. बदकिस्मती से उस दिन शेरदा की दुकान बन्द थी और जब्बार कबाड़ी
भी कहीं गया हुआ था. मजबूर होकर लफत्तू साह जी की चक्की पर चला गया. साह जी ने
लफत्तू को टूटे पैसे तो नहीं दिए उसके पापा को ज़रूर बता दिया. उस रात लफत्तू को
उसके पापा ने नंगा कर के बैल्ट से थुरा था. तब से लफत्तू ने अठन्नी, चवन्नी या हद से हद एक का नोट की लिमिट बाँध ली. चक्की पर हुए हादसे के
बाद ‘नन्दन’ घर ले जाने की मेरी हिम्मत
नहीं थी सो मैं उसे रास्ते में गिरा आया.
घुच्ची खेलने में बागड़बिल्ला के नाम से मशहूर एक आवारा लड़का उस्ताद
था. उसकी एक आंख में कुछ डिफ़ेक्ट था और उसे गौर से देखने पर ऐसा लगता था कि पांच
के सिक्के पर निशाना लगाने के वास्ते भगवान ने उसे रेडीमेड आंखों की जोड़ी बख्शी थी.
उसकी छोटी आंख वाली पुतली का तो साइज़ भी पांच पैसे के सिक्के जैसा हो चुका था.
बागड़बिल्ला नित नए-नए मुहाविरे बोला करता था. संभवत: वह स्वयं उनका निर्माण करता
था क्योंकि इतने साल बीत जाने के बाद भी मैंने उसके बोले जुमले आज तक न किसी शहर
में सुने हैं न ही किसी दूसरे के मुखारविन्द से. उसके मुहाविरों को मैं अक्सर
पाखाने में या नहाते समय धीरे-धीरे बोला करता था. उस वक्त ऐसी झुरझुरी होती थी
जैसी कई सालों बाद पहली बार सार्वजनिक रूप से एक बड़ी गाली देते हुए भी नहीं हुई.
निशाने को बागड़बिल्ला ‘टौंचा’ कहा करता था. लेकिन टौंचे का असली ख़लीफ़ा तो हमारे शहर और जीवन से कई
प्रकाशवर्ष दूर बम्बई में रहता था. जिस दिन कोई दूसरा लड़का जीत रहा होता था
बागड़बिल्ला उसकी दाद देता हुआ भारतीय फिल्मों के एक चरित्र अभिनेता को रामनगर के
इतिहास में स्वणार्क्षरों में अंकित करता अपना फेवरिट जुमला उछालता था : “आज तो मदनपुरी के माफिक चल्लिया घनसियाम का टौंचा.”
रामनगर का टौंचा
एक शहर है रामनगर. जिला नैनीताल. राज्य उत्तराखंड.
मुझे अपना शुरुआती लड़कपन इस महान शहर के सबसे महान मोहल्ले खताड़ी में
काटने का सुअवसर प्राप्त हुआ था. पहली मोहब्बत भी मुझे इसी मोहल्ले में हुई थी.
करीब आठ नौ साल का था जब मेरे पिताजी का ट्रांसफर पहली दफा प्लेन्स
में हुआ था. इस के पहले हम अल्मोड़ा रहते थे. इत्तेफ़ाक़ से पिताजी ने जो मकान किराए
पर लिया था, वह रामनगर के भीतर बसने वाले दो मुल्कों के बॉर्डर
पर था. आज़ाद भारत के हर सभ्य नगर की तरह रामनगर के भी अपने अपने हिंदुस्तान और
पकिस्तान थे.
हमारे घर से करीब तीसेक मीटर दूर मस्जिद थी. सुबह से रात तक मस्जिद
से पांच बार अजान आती थी. मैंने पहली बार जाना था कि मुसलमान भी कोई शब्द होता है
और इसका मतलब इस तरह के लोगों से है जो सुबह से शाम तक गाय भैंस खाते रहते हैं और
बहुत पलीत होते हैं . हर अज़ान के बाद मुझे माँ और पिताजी का भुनभुनाना याद है.
नजदीक ही एक मंदिर से दिन भर लाउडस्पीकर पर मुकेश का गाया रामचरितमानस का घिसा हुआ
रिकार्ड किसी मरियल गधे जैसा रेंकता रहता था.
हमारे घर के सामने एक बड़ा सा खाली मैदान था ... ना, रामनगर के भूगोल पर अभी नहीं.
मस्जिद के सामने सब्जी वालों की दूकानें थीं. हमारे घर की सब्ज़ी शरीफ़
की दुकान से आती थी. सब्जी लेने मेरी माँ जाती थी : उसके साथ अक्सर कोई पड़ोसन होती
थी. वह जब भी सब्जी लेकर वापस आती थी, उसके पास मुसलियों
के बारे में कहने को कुछ न कुछ नया ज़रूर होता था. ज़ाहिर है वह नया हमेशा मुसलमानों
के भीतर छिपे शैतान के किसी अवगुण का बखान हुआ करता था.
मुझे मुसलमानों से बच कर रहने की तमाम हिदायतें मिली हुई थीं.
मुसलमानों के बारे में मेरा सामान्य ज्ञान, रामनगर में बने
मेरे पहले दोस्त लफत्तू की दी हुई सूचनाओं से हर रोज़ समृद्ध होता रहता था. लफत्तू
तोतला था और एक नंबर का चोर. पढने में बेहद कमजोर लफत्तू को उसके घरवाले प्यार से
बौड़म कह कर बुलाया करते थे. कभी कभी जब माँ को रसोई में ज़्यादा काम होता तो धनिया,
पोदीना जैसी छोटी चीज़े लाने को मुझे जाना होता था. "सरीफ से
कहना पैसे कल देंगे. और लफत्तू को ले जान साथ में." बुरादे की अंगीठी के
सामने बैठी माँ जब मुझे हिदायत देती तो मेरे मन में एक अजीब सी हुड़क होती थी. डर
भी लगता था.
मस्जिद से लगे पटरों पर बच्चा दूकानें होती थीं. "सफरी पांच की
दो" "कटारी पांच की दो" ... की आवाजें लगाते बच्चे तमाम तरह की
शरारतें करते रहते थे और बिजनेस भी.
उस दिन लफत्तू के साथ "मुछलमानों" के मोहल्ले में घुसते ही, हमेशा की तरह "ह्याँ आ बे हिंदू के" कह कर एक बच्चा दूकानदार ने
हमें डराने की कोशिश की. लेकिन लफत्तू के साथ होने से मेरी हिम्मत नहीं टूटती थी
और मैं उन लड़कों की तरफ देखता भी नहीं था. शरीफ़ अपनी दुकान से उन बच्चों पर
दुनिया भर की लानतें भेजा करता था. पोदीने की गड्डी लिए लफत्तू और मैं वापस आ रहे
थे जब मैंने एक पल को पटरे पर लगी दुकानों की तरफ आंख उठाई.
"हे भगवान" मेरे दिल का एक टुकड़ा जैसे तिड़क
कर रह गया. छः सात साल की एक लड़की छोटे-छोटे कुल्हड़ो में खीर बेच रही थी - "खील
ले लेयो, खील ले लेयो". और उस की आँखें मुझ पर लगी हुई
थीं. मेरा सारा पेट जैसे फूल कर गले में अटक गया. मैं उस की सारी खीर खरीद लेना
चाहता था लेकिन जेब में एक पैसा भी नहीं था. "खील खागा?" उस ने वहीं से मुझ से चिल्ला कर कहा. अमरूद, इमली
बेच रहे बाक़ी बच्चों ने कुछ कहा होगा, लेकिन मैं पता नहीं
किस तरह से हिम्मत करता हुआ उस के सामने खड़ा हो गया. "कित्ते की है?"
मैंने पूछा. "तू हिंदू हैगा. तेरे लिए फिरी." उसने एक
कुल्हड़ मेरी तरफ बढाया और फुसफुसा के बोली "सकीना हैगा मेरा नाम. सादी करेगा
मुझसे?"
पता नहीं लफत्तू कब कैसे मुझे हाथ खींचता हुआ वापस घर लाया. खाना
खाने के बहुत देर तक मुझे नींद नही आयी. " सादी करेगा मुझसे?" यही बार बार दिल में गूँज रहा था. सकीना की सूरत, उस
के चमचमाते दांत, उसकी मुस्कान.
"जल्दी सोता
क्यों नहीं!" मुझे माँ ने झिड़की लगाई.
माँ को क्या पता था मुझे सकीना से मोहब्बत हो गई थी. और मोहब्बत में
नींद किसे आ सकती है.
कुछ ही दिन पहले 'बनवारी मधुवन' पिक्चर हॉल में पिताजी ने हमें एक पिक्चर दिखाई थी. पिक्चर के लास्ट में
हीरोईन हीरा खा के खुदकशी कर लेती है. मरी हुई हीरोईन का हाथ थामे हीरो रोता हुआ
बार बार कहता जाता है: "तुमने ऐसा क्यों किया मीना? क्यों
किया ऐसा?"
मेरी नींद उड़ी हुई थी और पिक्चर का लास्ट सीन लगातार मेरे जेहन में
घूम रहा था. मुझे पहली मोहब्बत हुई थी और मेरी कल्पना पागल हो गई थी. मेरे घर
वालों ने सकीना से मेरी शादी से मना कर दिया है. "एक मुसलिये की बेटी को बहू
बनाएगा तू...? पैदा होते ही मर क्यों नहीं गया..." ये सारे
डायलाग बाकायदा भीतर गूँज रहे थे. फिर मैं खुदकशी कर लेता हूँ . माँ-बाप छाती पीट
रहे हैं. ऐसे में सकीना की एंट्री होती है : "तुमने ऐसा क्यों किया ... क्यों
किया ... अशोक ..." वह रोती जाती है. अब तक मैं बड़ी मुश्किल से रुलाई रोक
पाया था. सकीना के विलाप के बाद मैं तकिये के नीचे सिर दबाये रोने लगा.
बत्ती बंद की जा चुकी थी. पिताजी एक बार मेरे सिरहाने तक आये.
उन्होने मुझे पुकारा तो मैंने गहरी नींद का बहाना बना लिया.
"इतवार को सारे बच्चों को डाक्टर के पास कीड़ों की
दवा खिलाने ले जाना पड़ेगा. प्लेन्स का पानी ठीक नही होता." पिताजी धीमी आवाज़
में माँ को बता रहे थे.
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