Tuesday, November 27, 2007

मोबीन भाई और अताउल्ला पेलवान



रक्षाबन्धन के समय मोबीन भाई और अताउल्ला पेलवान रामनगर आया करते थे : बस एक रोज़ के लिए। उनके आने की तारीख मौखिक समाचारों के माध्यम से शहर भर में फैल जाया करती थी। आमतौर पर वे रक्षाबन्धन के एक दिन पहले आया करते थे। यह कोई नहीं जानता था कि वे कहां से आते थे। कोई कहता था मोबीन भाई ठाकुरद्वारे के थे और अताउल्ला पेलवान कालाढूंगी के। कुछ लोगों का कयास था कि दोनों असल में चचेरे भाई थे और चोरगलिया के रहने वाले थे। जो भी हो उनका शहर में आना किसी लाटसाहब के दौरे की तरह हुआ करता था।

मोबीन भाई तनिक लम्बे कद के थे : छरहरी देह काजल लगी आंखें और मुंह में हमेशा पान की गिलौरी। लफत्तू को मोबीन भाई दुनिया के सबसे इस्माट आदमी लगते थे। उसका तो यह भी कहना था कि मोबीन भाई बम्बई चले जाएं तो मुकद्दर के सिकन्दर अमीताच्चन की दुकान बन्द करवा दें। मोबीन भाई हमेशा काली बैलबॉटम और काली शर्ट पहने होते थे और बेहद सीरियस रहते थे।

अताउल्ला पेलवान जैसा कि नाम से जाहिर है पहलवानी ठाठ की कदकाठी के मालिक थे। चारखाने की लुंगी और ढीला कुरता डाले पहलवान के गले में तमाम तरह के गंडे हुआ करते थे। वे मोबीन भाई से उमर में बड़े थे और उनकी कनपटियों पर उम्र की दस्तक की चांदी दिखा करती थी।

मोबीन भाई और अताउल्ला पेलवान जिस तरह तूफान की तरह आया करते थे उनकी रूखसती भी वैसी ही शिताब होती थी। उन्हें कहीं और जाना होता था और रक्षाबन्धन का पूरा दिन वे पीरूमदारे में गुजारते थे।

मोबीन भाई और अताउल्ला पेलवान की पतंगबाजी देखने को खेल का मैदान ठसाठस भरा होता था। सुबह से ही छोकरे मांझा सद्दी गुल्ली और चरखी - घिर्री के चक्करों में लगे रहते थे। मैदान में लाउडस्पीकर पर ‘मेरे ख्वाजा …’ टाइप कव्वालियां बजा करती थीं और मौके का फायदा उठाकर चाट पकौड़ी खीर अमरूद वाले अपने ठेले ले आया करते थे। बमपकौड़े वाला बौना इस खास अवसर पर जलेबियां भी बनाया करता था।

फिर किसी एक पल दोनों खलीफा आपस में धीरे धीरे बतियाते मैदान में तशरीफ लाया करते और चन्द ही पलों में उनके गिर्द बच्चों की भीड़ लग जाती थी। फिर बुजुगार्न बच्चों को डपट कर भगाने की कोशिश करते और दोनों उस्तादों के इस्तकबाल में लाउडस्पीकर पर बकायदा तकरीर होती। यह तकरीर आमतौर पर गोल्टा मास्साब किया करते थे। एक साल जब मास्साब का एक बेटा नहर में डूब गया था यह तकरीर पालीवाल वैद्यजी ने की थी : वैद्यजी जाने क्या महोदय महोदय कह कर सब को बोर रहे थे जब भीड़ ने उन्हें हूट किया था।

बहरहाल दोनों पतंगबाज शुरूआती शिष्टाचार निबटाने के उपरान्त अपने अपने कोनों पर चले जाते थे। दोनों के बीच पूरे मैदान का फासला होता था। दोनों के गिर्द उनके शागिर्द और फैन खड़े रहा करते। फिर दोनों अपने अपने कुशलतम स्थानीय शागिर्द को पतंग उड़ाने को कहा करते थे। दस पांच पतंगें आजमाने के बाद ये शागिर्द सबसे अच्छी पतंग को काफी लम्बी उड़ान दे चुकने के बाद और अपने अपने हुनर के हिसाब से दर्शकों का मनोरंजन कर चुकने के बाद उस्तादों की स्वीकृति की बाट देखते थे।

मोबीन भाई अपनी पतंग पहले सम्हाला करते थे। पतंग सम्हालने के बाद वे कनखियों से पेलवान साब की तरफ निगाह मारते थे। पेलवान साब सहमति में सिर भी झुकाते थे और एक हाथ जरा सा उठा कर मोबीन भाई को आशीर्वाद भी देते। तमाशबीनों में एक उत्तेजना फैल जाती थी जब दोनों के पेंच शुरू होते।

यह तो करीब पन्द्रह बीस साल बाद हुआ जब मैंने बाबा नज़ीर अकबराबादी को पढ़ना शुरू किया। अब लगता है काश कोई तब यह सुना देता:


गर पेच पड़ गए तो यह कहते हैं देखियो
रह रह इसी तरह से न अब दीजै ढील को
“पहले तो यूं कदम के तईं ओ मियां रखो”
फिर एक रगड़ा दे के अभी इसको काट दो।

हैगा इसी में फ़तह का पाना पतंग का।।

और जो किसी से अपनी तुक्कल को लें बचा
यानी है मांझा खूब मंझा उनकी डोर का
करता है वाह वाह कोई शोर गुल मचा
कोई पुकारता है कि ए जां कहूं मैं क्या

अच्छा है तुमको याद बचाना पतंग का …


(नज़ीर अकबराबादी साहब की ‘कनकौए और पतंग’ का एक हिस्सा)

मोबीन भाई और अताउल्ला पेलवान की पतंगबाज़ी चलती रहती थी और दर्शकसमूह जब-तब ‘अशअश’ कर उठता था। तमाम तरह के दांवपेंच चला करते थे और आखिरकार जब किसी एक की पतंग कट जाती थी दोनों खलीफा खेल को इस वैराग्य के साथ छोड़ देते मानो कोई गमी हो गई हो।

मोबीन भाई और अताउल्ला पेलवान एक दूसरे से बतियाते हुए खेल के मैदान के बाहर आ जाते थे। उनके पीछे भीड़ हुआ करती। फिर वे दोनों खताड़ी के मोड़ पर आते आते कहीं गुम हो जाते थे : मेरे बचपन से कभी न गुम होने को।

टांडा फिटबाल किलब और पेले का बड़ा भाई



हिमालय टॉकीज से लगे खेल मैदान में हम किराए की साइकिलें चलाया करते थे. मैदान खासा बड़ा था और शाम चार बजे से उसमें छोटे बड़े बच्चों के बारह पन्द्रह समूह अलग अलग घेरों में क्रिकेट खेला करते थे. मैदान का एक खास कोना था जो बच्चों के लिए निषिद्ध था. इस कोने में रामनगर फुटबॉल क्लब के खिलाड़ी प्रैक्टिस किया करते थे. फुटबॉल के लिए रामनगर जितने छोटे कस्बे में पाया जाने वाला जुनून बेमिसाल था.

साल में दो दफे बाकायदे राष्ट्रीय स्तर का टूर्नामेन्ट हुआ करता था. हमारे घर की छत से मैदान साफ़ देखा जा सकता था. मैदान के चारों ओर की दीवारों को खेलप्रेमी मैच के काफी पहले घेर लिया करते थे. चूंकि इन खेलप्रमियों में ज़्यादातर मुसलमान होते थे, हमें घरवालों के प्रेशर के कारण छत से ही मैच देखना पड़ता था.

रामनगर की टीम अच्छा खेलती थी. उसके सितारे साल के बाकी दिनों सब्ज़ी बेचते या पुराने कनस्तरों में ढक्कन लगाने जैसे काम करते दिखाई देते थे लेकिन टूर्नामेन्ट के समय समूचा शहर उन्हें पलकों पर सजाए रखता था. रामलीला समिति इन की खूबसूरत पोशाकें स्पॉन्सरकिया करती थी. कत्थई और पीले रंग की पट्टियों से बनी पोशाकें पहने फुटबाल शूज़ और स्टाकिंग्स में सुसज्जित ये खिलाड़ी हफ्ते दस दिन तक नगर की शान हुआ करते थे. सब्जी मंडी में कुलीगीरी करने वाला शिब्बन गोलकीपर था और क्या शानदार गोलकीपर था. उसकी किक आमतौर पर विपक्षी टीम की डी तक पहुंचा करती थी और ऐसा होने पर सारा मैदान पगला जाता था : शिब्बन शिब्बन शिब्बन …’ की आवाजों से आसमान गूंज जाया करता था.

टूर्नामेन्ट में दिल्ली, नैनीताल, लखनऊ और बरेली जैसे शहरों की टीमें आती थीं. लेकिन चैम्पियन टीम टांडे की हुआ करती थी. माइक पर रनिंग कमेन्ट्री चला करती थी और इस चैम्पियन टीम का स्वागत करते हुए गोल्टा मास्साब की जबान पर जैसे सरस्वती बैठ जाती थी. उनके मुंह से उर्दू के इतने मीठे मीठे अलफाज निकला करते थे उफ़.

इस टीम के सारे सदस्यों की अफगानी दाढ़ियां होती थीं और वे सब एक ही रंग का पठान सूट पहनकर खेलते थे. हाफपैन्टें वगैरह उनके पास होती ही नहीं थीं. पाजामों के पांयचे घुटने तलक उठाए नंगे पैर खेलने वाले इन लम्बे तड़ंगे जांबाज खिलाड़ियों को कोई भी नहीं हरा पाता था. मेरी अपनी याददाश्त में मैंने ऐसी चैम्पियन टीम नहीं देखी. एक साल टूर्नामेन्ट के दो माह पहले से यह अफवाह उड़ी थी कि टांडे वालों को हराने के लिए दिल्ली से इन्डियन एयरलाइंस की टीम बुलाई जाने वाली है.और इन्डियन एयरलाइंस की टीम आई भी. और यही दो टीमें फाइनल में पहुँची भी.

गोल्टा मास्साब की आवाज फाइनल मैच से पहले बुरी तरह कांप रही थी. मैंने इतनी भीड़ पहले कभी नहीं देखी थी. अफ़वाह चल रही थी कि रामनगर के इतिहास में पहली बार खासतौर पर मैच देखने को मुरादाबाद ठाकुरद्वारा और बरेली से लोग आए हैं.

दिल्ली की टीम ने पहले हाफ में टांडा फिटबाल किलब के छक्के छुड़ा दिए थे. दर्शक पहली बार अपने शहर से हर बरस चैम्पियन टीम की बेबसी देख रहे थे और जब हाफ़टाइम से जरा पहले इन्डियन एयरलाइंस ने पहला गोल ठोका तो सारा मैदान सन्नाटे में डूब गया.

हाफटाइम के समय इन्डियन एयरलाइंस की टीम का कोच हाथ हिला हिला कर खिलाड़ियों को निर्देश दे रहा था जबकि टांडा फिटबाल किलब के खिलाड़ी यहां वह पस्त पड़े हुए थे. इस मैच के लिए मुझे विशेष इजाजत दी गई थी कि मैं भाई के साथ मैदान पर जा सकता था. मैंने अपने आसपास निगाह डाली और पाया कि आमतौर पर हाफटाइम में शोरशराबा करने वाले एक खास कोने में बैठे खड़े लोगों को जैसे सांप सूंघ गया था. हर किसी की निगाह काले खान पर थी. टांडा फिटबाल किलब का कप्तान था काले खान. पहलवान जैसी कदकाठी का मालिक काले खान मेरे जीवन का पहला सुपरस्टार था और जब मैंने मैदान के बीच पस्त बैठे इस विचारमग्न महानायक को घास का तिनका चबाते देखा तो मेरा दिल टूट गया.

तो क्या दिल्ली के लौंडेआज काले खान की टीम को धो देंगे?

हाफ़टाइम के बाद इन्डियन एयरलाइंस ने खेल की रफ्तार कम कर दी और वे पासिंग में समय काटने की नीति अपना रहे थे. रामनगर में पहली बार इस तरह की निर्जीव फुटबॉल देख रहे दर्शकों ने जैसे जैसे इन्डियन एयरलाइंस की हूटिंग करना शुरू किया टांडा के खिलाड़ी अपनी लय में आने लगे. हिमालय टॉकीज वाले छोर से धीरे धीरे काले भाई काले भाई …” का नारा उठना शुरू हुआ. काले खान के कुरते पर कोयले से दस लिखा रहता था. इधर बस अड्डे वाले सिरे से “ … दस नम्बरी दस नम्बरी …” की गूंज शुरू हुई.

काले खान फिर उसी चैम्पियन में तब्दील हो गया. हाफ फील्ड से मारी हुई उसकी किक जब इन्डियन एयरलाइंस के गोल में घुसी तो करीब सौ लड़के मैदान में घुस गए और उन्होंने काले को कन्धों पर उठा लिया. खेल दुबारा शुरू हुआ तो इन्डियन एयरलाइंस ने आक्रमण करना शुरू किया लेकिन स्कोर बराबर पर ही छूटा रहा. फिर काले अचानक बिजली की सी फुर्ती से इन्डियन एयरलाइंस की डी में घुसा लेकिन उसे लंगड़ी मार कर गिरा दिया गया. रेफरी ने पूरी पलान्टी देने के बजाय पलान्टी कार्नर दिया. इस तरह की किक मारने को हमेशा एक प्रौढ़ सा दिखनेवाला बैक्की आता था. मैदान में लोग पगला गए थे. जो लोग पिछले साल तक टांडा के खिलाड़ियों के लंगड़ा हो जाने की बद्दुआ दिए करते थे आज काले भाई काले भाई …” का नारा बुलन्द किए हुए थे.

फिर पलान्टी किक हुई फिर बहुत देर तक कुछ समझ में नहीं आया. जितनी अफरातफरी डी में मची हुई थी उससे ज्यादा मैदान के बाहर दर्शकों पर थी. फिर अचानक लम्बी सीटी बजी गोल की. मैं इन्डियन एयरलाइंस के खिलाड़ियों को हाथों में सिर थामे देख पा रहा था. मैदान में बेशुमार लोग घुस गए थे. उस भीड़ और अफरातफरी को चीरती अगले ही क्षण मैच खत्म होने की सीटी बजी.

देर रात तक रामनगर के लोगों ने तमाम बैंड और ढोल बाजों के साथ टांडा फिटबाल किलब के सारे खिलाड़ियों को कन्धों पर बिठाकर पूरे शहर के दो चक्कर काटे. रामनगर की टीम के सबसे वाहियात बैक्की दलपत हलवाई उर्फ हग्गू सिपले ने अपनी दुकान एक ठेले में लाद दी थी और वह रोता हुआ मिठाई बांट रहा था.

रामनगर छोड़ने के कुछ साल बाद तक यह विश्वास करने में मुझे बहुत समय लगा कि विश्व का सबसे बड़ा खिलाड़ी पेले टांडा छोड़कर ही ब्राजील नहीं पहुंचा था और काले का छोटा भाई नहीं था.


बहरहाल मेरे जीवन के प्रथम महानायक काले खान को रामनगर की टीम की शान माना जाने वाला शिब्बन गोलकीपर अपने कन्धों पर उठाए रहा था शाम से देर रात तलक.

Sunday, November 4, 2007

कर्नल रंजीत और विज्ञान के पहले सबक



दुर्गादत्त मास्साब कर्नल रंजीत के जासूसी उपन्यासों के सबसे बड़े पाठक थे. हर सुबह उन्हें एम. पी. इंटर कालिज के परिसर में आलसभरी चाल के साथ प्रवेश करते देखा जा सकता था. असेम्बली खत्म होने को होती थी जब वे प्रवेशद्वार पर नमूदार होते थे. प्रवेशद्वार से भीतर घुसते ही उन्हें ठिठक कर थम जाना पड़ता था क्योंकि उसी पल राष्ट्रगान शुरू हो जाता था. वे इत्मीनान से आंखें बन्द कर राष्ट्रगान के खत्म होने का इन्तजार करते रहते थे. असेम्बली के विसर्जन के समय प्रिंसीपल साब एक खीझभरी निगाह दुर्गादत्त मास्साब पर डालते थे लेकिन उस निगाह से बेज़ार मास्साब स्टाफरूम की तरफ घिसटते जाते थे. उनके अगल बगल से करीब तीन हज़ार बच्चे हल्ला करते धूल उड़ाते अपनी अपनी कक्षाओं की तरफ जा रहे होते थे. पहली क्लास दस बजे से होती थी और बच्चों के पास उस के लिए पांच मिनट का समय होता था. असेम्बली का मैदान उन पांच मिनटों में धूल के विशाल बवंडर में तब्दील हो जाया करता था.

दुर्गादत्त मास्साब स्टाफ़ रूम में बड़ी खिड़की से लगी अपनी कुर्सी में किसी तरह अट जाते थे. खिड़की से बाहर बाजार का विहंगम दृश्य देखा जा सकता था. मास्साब के विशाल शरीर के के हिसाब से उनकी कुर्सी बहुत सूक्ष्म थी. वे अपने किसी भी साथी अध्यापक से बात नहीं करते थे. दुर्गादत्त मास्साब प्रिंसीपल के रिश्ते के मामा लगते थे और उन से बात करने की स्टाफ़ तो दूर खुद प्रिंसीपल साहब की भी हिम्मत नहीं होती थी. इसके अलावा उन्हें पहला पीरियड भी नहीं पढ़ाना होता था. असेम्बली के मैदान जैसा ही दृश्य स्टाफ़रूम में भी देखा जा सकता था : अपनी-अपनी अल्मारियों से अटेन्डैन्स रजिस्टर, किताबें, चॉक और डस्टर आदि जल्दी जल्दी निकालते हुए अपने साथी अध्यापकों की तरफ एक उकताई सी निगाह डालकर मास्साब अपने उपन्यास में डूबने का प्रयत्न करने में सन्न्द्ध हो जाते थे.

दुर्गादत्त मास्साब विज्ञान के मेरे पहले टीचर थे. कक्षा छ: (अ) में करीब दो सौ बच्चे थे. कक्षा की दीवारें बहुत मैली थीं और टीन की उसकी छत तनिक नीची थी. ब्लैकबोर्ड के कोनों पर चिड़ियों की बीट के पुरातन डिजायन उकेरे गए से लगते थे. हम लोग फर्श पर चीथड़ा दरियों पर बैठा करते थे. सामने डेस्क होती थी और डेस्क के एक कोने पर स्याही की दवात. पता नहीं कौन हर सुबह इन दवातों को भर जाता था. हम छुट्टी के बाद जब घरों को जाते तो हमारी सफेद कमीजों पर खूब बड़े बड़े नीले धब्बे होते.

एम पी यानी मोतीराम परशादीलाल इन्टर कालिज में वह मेरा पहला दिन था. अपनी होस्यारीके कारण मैं कक्षा चार से सीधा छ: में पहुंच गया था. पहली कक्षा के बाद हम अगले मास्साब के आने का इन्तजार कर रहे थे. पहली क्लास अंग्रेजी की थी. हमारी अटैन्डेन्स ली ही गई थी कि अंग्रेजी वाले मास्साब को किसी ने बाहर बुला लिया. हमारी तरफ एक पल को भी देखे बिना अंग्रेजी वाले मास्साब पूरे पीरियड भर अपने परिचित से बातें करते रहे. हम कागज की गेंदें स्याही में डुबो कर एक दूसरे पर फेंकने का खेल खेल रहे थे कि घंटा बज गया. अंग्रेजी वाले मास्साब ने हमारी तरफ एक बार को भी नहीं देखा और वे कक्षा से उपस्थिति रजिस्टर लेकर अगली कक्षा की तरफ बढ़ चले.

लालसिंह हमारी क्लास का सबसे विचित्र लड़का था. वह छठी कक्षा में पांच-छः साल फेल हो चुका था. वह तकरीबन करीब अठारह साल का हो चुका था और उसकी मूंछें भी थीं. वह मेरे बड़े भाई जितना लम्बा था. वह एक खास तरह से प्यारा भी था. अपनी लम्बाई और कक्षा के हिसाब से अनफिट मूंछों पर आने वाली शर्म को छिपाने का प्रयास करता वह हम सब को तमाम अध्यापकों के बारे में चुटकुले सुनाया करता था. उसने हमें बताया कि अपनी अस्तित्वहीन गरदन के कारण अंग्रेजी वाले मास्साब को टोडकहा जाता था. मैने करीब-करीब तय कर लिया था कि लालसिंह स्कूल में मेरा सबसे पक्का दोस्त बनेगा.

आ गया, आ गया. भैंसा आ गया.लालसिंह की चेतावनी सुनते ही हम सब की आंखें दरवाजे पर लग गई. बिना हड़बड़ी के दुर्गादत्त मास्साब क्लास में घुसे और उन्होंने लालसिंह पर एक परिचित निगाह डाली: इस निगाह में मुस्कान की सुदूर झलक थी.

कक्षा अचानक शान्त हो गई थी. दुर्गादत्त मास्साब की विशाल देह ही हमें डरा देने को पर्याप्त थी. और लालसिंह हमें उनके गुस्से के कई किस्से सुना चुका था. लालसिंह तुरन्त खड़ा हुआ और मास्साब के हाथ से रजिस्टर लेकर अटैन्डैन्स लेने लगा. दुर्गादत्त मास्साब ने हमारी तरफ बेरूखी से देखा और अपने कोट की जेब से एक किताब बाहर निकाल ली.

सस्ते कागज पर छपी किताब का चमकीला कवर बहुत आकर्षक था. कद में सबसे छोटा होने के कारण मैं सबसे आगे बैठा हुआ था और उस जादुई किताब को बहुत साफ-साफ देख सकता था. अपना चेहरा एक तरफ को थोड़ा सा झुकाए कर्नल रंजीत सीधा मेरी तरफ देख रहा था. उसने काला ओवरकोट और काला ही हैट पहना हुआ था. उसकी तीखी मूंछें ऊपर की तरफ खिंची हुई थीं और आंखों में एक सवाल था. उसके एक हाथ में छोटा सा रिवॉल्वर था. कर्नल का दूसरा हाथ एक अधनंगी लड़की की कमर पर था और वह लड़की कर्नल से चिपकने का प्रयास कर रही दिखती थी. पृष्ठभूमि में लपटें उठ रही थीं और कवर के निचले हिस्से पर एक लाश पड़ी थी. लाश के बगल में खूनसना चाकू था.

कर्नल रंजीत के पास कोई ऐसी दिव्य ताकत थी कि वह एक साथ मुझे और लड़की और लाश को पैनी निगाहों से देख सकता था. यह बेहद आकर्षक था़. मैं सर्वशक्तिमान कर्नल रंजीत के कारनामों के बारे में कल्पनाएं कर रहा था जब दुर्गादत्त मास्साब ने बोलना शुरू किया. अगले आदेश की प्रतीक्षा में लालसिंह अब भी उनकी बगल में खड़ा था.

मैं तुम लोगों को बिग्यान पढ़ाया करूंगा.

हम ने विज्ञान की किताब निकाल ली थी और हमारी सांसें थमी हुई थीं.

"कछुआ कितने बच्चों ने देखा है?”

कुछ हाथ हवा में उठे. किताब को थामे हुए मास्साब सीट से उठे और उन्होंने अपना मैला कोट एक बार हल्के से झाड़ा. मेरी आंखें कवर से चिपकी हुई थीं.

ए तेरा नाम क्या है बच्चे?” वे मेरी तरफ देख रहे थे.

मुझे लगा कि मेरी चोरी पकड़ी गई है और मैं थप्पड़ का इन्तजार करने लगा. डेस्क को देखता हुआ मैं खड़ा हुआ.

"मास्साब मैं …”

मास्साब मैं नाम हैगा तेरा?”

मैं कुछ कहना चाहता था पर जीभ पत्थर की हो गई थी. मैं रोने रोने को हुआ कि उनका बड़ा सा हाथ मेरे कन्धे पर था.

तू वो खताड़ी वाले पांडेजी का लड़का है ना?”

मैंने हां में सिर हिलाया.

सुना है कि तू भौत होशियार है. अब मुझे बता तूने कभी कछुआ देखा है - असली वाला जिन्दा कछुआ

"नईं मास्साब

बढ़िया. कोई बात नहीं. आज सारे बच्चे असली का कछुआ देखेंगे.

अपने कोट की बड़ी सी जेब में हाथ डालकर उन्होंने पत्धर जैसी कोई गोल चीज बाहर निकाली.

"ये रहा कछुआ. असली जिन्दा कछुआ. लो पांडेजी पकड़ो इसे.मास्साब द्वारा पांडेजी कहे जाने पर मुझे थोड़ी शर्म आई. मैंने कांपते हाथों से उस कड़ी चीज को पकड़ा.

अभी कछुआ सोया हुआ है. अगर उसे आराम से खुजाओगे तो ये तुम्हें अपनी शकल दिखा देगा. लालसिंह, चलो मदद करो पांडेजी की.

जरा भी देर किए बिना लालसिंह ने मेरे हाथों से कछूए को छीन लिया. उसने अपनी अनुभवी उंगली को कछुए के किसी हिस्से में खुभाया और कछुआ खोल से बाहर निकल आया. यह एक चमत्कारिक चीज थी और आगे वाले बच्चे लालसिंह के हाथ के गिर्द इकठ्ठा थे.

एक एक कर के लालसिंह!मास्साब वापस अपनी सीट पर थे और उपन्यास पढ़ने में किसी तरह का व्यवधान नहीं चाहते थे.

लालसिंह ने सारे बच्चों को डपटकर सीट पर बिठा दिया और कछुआ मुझे थमाया. कछुआ वापस खोल में घुस चुका था. मैंने भी लालसिंह की तरह उंगली घुसाने की कोशिश की पर कुछ नहीं हुआ. अब तेरी बारी हैकहकर लालसिंह ने कछुआ मेरे साथ वाले बच्चे को पकड़ा दिया. कक्षा में शोर बढ़ता जा रहा था. पीछे की सीटों के बच्चे अधैर्य के कारण बेकाबू हो गए थे. कछुआ उनकी पहुंच से बहुत दूर था सो उन्होंने आइस पाइस खेलना चालू कर दिया था. जब तक कि अगली कतार के सारे बच्चों को कछुआ देख पाने का अवसर मिलता घंटा बज गया. लालसिंह ने कछुआ मास्साब को सुपुर्द कर दिया.

कुर्सी से सश्रम उठते हुए मास्साब ने हमारी तरफ देख कर कहना चालू किया: जिनका नम्बर आज नहीं आया वो बच्चे कल कछुआ देखेंगे .कक्षा से बाहर जाते हुए उन्होंने कुछ अस्पष्ट शब्द बुदबुदाए जो पिछली कतारों के असंतुष्ट बच्चों के कोलाहल में डूब गए. आगे की क़तार वाले वाले बच्चों के चेहरों पर गर्व था.

अगले पन्द्रह दिन तक लाल सिंह के कुशल निर्देशन में विज्ञान की कक्षा में सारे बच्चे कछुआ देखते रहे. लालसिंह का इकलौता काम यह होता था कि मास्साब और कर्नल रंजीत के दरम्यान कम से कम बाधा हो.

हम शायद अनन्त काल तक उस कछुए को देखते रहते लेकिन उसे इतनी बार देख चुकने के बाद बच्चे उकता चुके थे और जब एक दुर्भाग्यपूर्ण क्षण में कुछ बच्चों ने कछुए के साथ कैच कैचका खेल खेलना शुरू किया दुर्गादत्त मास्साब ने अपने ऐतिहासिक गुस्से से हमारा पहला परिचय कराया. जब तक हम कुछ समझ पाते लालसिंह पता नहीं कहां से डंडा लाकर मास्साब को थमा चुका था. साले, हरामजादे, खबीस, बदमाश, ससुरे, सूअर इत्यादि तमाम उपाधियां हमें नवाजते मास्साब के भीतर जैसे किसी चैम्पियन एथलीट का भूत घुस गया था. लॉंग जम्प, हाई जम्प, भालाफेंक, गोलाफेंक और अन्य खेलों में अपना कौशल दिखाते मास्साब डंडे, रजिस्टर और चॉक के टुकड़ों के साथ किसी बेरहम यमराज की तरह कत्लोगारत पर उतर आए थे. उनके सामने जो पड़ा उसकी शामत आई. कई बच्चे एक डेस्क से दूसरी पर कूदते अपनी जान बचा रहे थे. जो ज्यादा स्मार्ट थे वे खिड़की फांद कर बाहर भाग गए.

आठ दस मिनट तक चले इस खून खच्चर के बाद मास्साब फिर से किताब में डूब चुके थे. ज्यादातर बच्चे सुबक रहे थे. लालसिंह जो इस गुस्से को कई दफा देख चुका था एक कोने पर खड़ा बेमन से कछुए के उसी विशेष हिस्से में अपनी उंगली घुसा रहा था.

कछुए में हमारी सारी दिलचस्पी अब खत्म हो चुकी थी. घंटा बजा तो मास्साब इस तरह उठे जैसे कुछ हुआ ही न हो. हमारी जिन्दगानियां लुट चुकी थीं और कछुआ वापस उनकी जेब में था. लालसिंह की तरफ देखते हुए उन्होंने सारी क्लास को संबोधित किया:

कल हम देखेंगे कि बीकर कैसा होता है और लकड़ी के बारूदे की मदद से बीकर में चने कैसे उगते हैं. …”

उनका हाथ जेब में गया तो संभवत: वहां कछुआ उनकी उंगलियों को छू गया होगा. उन्हें कुछ याद सा आया और बाहर जाते जाते थमते हुए उन्होंने पूछा:

कछुआ सारे बच्चों ने देख लिया कि नहीं … ”


*इस पोस्ट को यहां सुना जा सकता है:

संडे स्पेशल: आज सुनिये लपूझन्ने का बचपन और कर्नल रंजीत

Tuesday, October 16, 2007

बौने का बम पकौड़ा



लफत्तू के साथ दोस्ती बनाए रखने में कई सारे जोखिम थे. सबसे पहला तो यह कि इन्टर में पढ़ने वाला मेरा भाई जब जब मुझे उसके साथ देखता मुझे बाकायदा हिदायत दी जाती थी कि इस टाइप के लौंडों से हाथ भर दूरी बना कर रहना ही ठीक होता है. लफत्तू की धुनाई के बाद मुझे लगता था कि किसी दिन उसके चक्कर में मैं बुरा फंसूगा और भाई या पिताजी के हाथों पिटूंगा. सबसे बड़ा खतरा यह था कि उसके साथ लगातार देखे जाने से मेरी रेपूटेशन खतरे में पड़ सकती थी और मैं होस्यार के बजाय बदमासके तौर पर विख्यात हो सकता था. लेकिन इस दोस्ती में जो एडवेन्चर का पुट था उस के कारण मैं लफत्तू की संगत के लालच में आ ही जाता था.

उस दिन लफत्तू अपने पिताजी के दफ्तर से पीतल का बड़ा सा ताला चाऊ कर लाया था. वह अपने पिताजी को कोई जरूरी चिठ्ठी देने गया था. दफ्तर के चपरासी से लापरवाही में ताला मय चाबी के एक बेन्च पर पड़ा रह गया था और दोपहर बीत जाने के बाद भी किसी की निगाह में नहीं आया था. उल्लेखनीय है कि अपने घर से बाहर लफत्तू ने पहली बार हाथ आजमाया और फतहयाब होकर आया था.

खेलमैदान के एक तरफ हिमालय टॉकीज था और एक तरफ गाड़ी मिस्त्रियों की कालिखभरी दुकानों की कतार. मैदान से हमारे घर की तरफ लगा हुआ प्राइवेट बस अड्डा था. मैं अपने साथ के कुछ बच्चों के साथ घर के सामने स्थित इसी अड्डे पर खड़ा था. इस अड्डे से काशीपुर और मुरादाबाद रूट की बसें चला करती थीं. शाम को पांच बजे तक सारी गाड़ियां अपना दिन भर का काम करने के बाद अड्डे पर लग जाती थीं. उसके बाद गाड़ियों के क्लीनर गाड़ियों में झाड़ू लगा कर सारा कचरा बाहर किया करते थे. यह कचरा हमारे लिए खजाने की तरह होता था. हम में से कुछ बच्चों ने उन्हीं दिनों माचिस की डब्बियों के लेबल इकठ्ठा करने का नया शौक पाला था. इस अय्याशीभरे शौक के चलते क्लीनरों के झाड़ू लगाते समय अड्डे पर हमारी उपस्थिति अनिवार्य होती थी. कूड़ा बुहारते क्लीनर हमें बेहद भद्दी गालियां दिया करते थे और कई बार किसी दुर्लभ लेबल को लेकर हम में सरफुटव्वल तक हो जाता था लेकिन शौक़ तो शौक़ होता है साहब.

बहरहाल क्लीनरगण अपने कार्य में व्यस्त थे और हम लोग आपस में डुप्लीकेट लेबलों की अदला-बदली कर रहे थे जब लफत्तू हांफता हुआ मेरे पास आया. उसने बड़ी हिकारत से एक निगाह पहले मुझ पर डाली फिर बाकी बच्चों पर. बलबाद हो जागा इन छालों के चक्कल में बेते …” कहते हुए उसने मुझे अपने पीछे आने का इशारा किया. वह दूधिए वाली संकरी गली में घुस गया. उस्ताद के आदेश की बेकद्री मैं नहीं कर सकता था. सो बेमन से उसके पीछे चल दिया. एक जगह थोड़ी सी तनहाई मिली तो उसने जेब से एक एक के नोटों की पतली गड्डी बाहर निकाली और पूरे सात गिनाए. चल बमपकौड़ा खा के आते हैं.उसने मेरे कन्धे पर हाथ रखा और आंख मारी.

अपने पापा के दफ्तर से ताला चु्राने की दास्तान उसने सुना तो दी लेकिन मेरी समझ में नहीं आया कि सात रूपए वह कहां से चुरा कर लाया. अले याल बेच दिया थाले को. वह ताले को एक गाड़ी मिस्त्री को बेच आया था. इत्ता बड़ा ताला था बेता इत्ता बड़ाकहकर उसने ताले की नाप बढ़ा चढ़ा कर बताते हुए हाथ फैलाए. मैंने दस मांगे छाले से. उसके पास सात ई थे.अब हम लोग उसी गाड़ी मिस्त्री की दुकान के आगे से निकल रहे थे. वो ऐ उतकी दुकान.लफत्तू ने इशारा किया लेकिन मेरी हिम्मत उस तरफ देखने की नहीं हुई. यह बहुत बड़ा ज़ोखिम था जिसमें हमारे कारनामे के सार्वजनिक हो जाने की प्रबल संभावना थी.

गाड़ी मिस्त्री की दुकान से बीस तीस कदम चलने के बाद ही मैं अपनी निगाह ऊपर कर पाया. तब तक हमारी मंजिले-मकसूद भी आ पहुंची थी. हिमालय टॉकीज़ सड़क से सटा हुआ था. उसके प्रवेशद्वार से लगा कर खड़े किए गए एक ठेलानुमा खोखे में रामनगर का मशहूर बम पकौड़ा मिलता था. इस ठेले का संचालन एक कलूटा और गंजा बौना किया करता था. जब वह अपने ठेले पर नहीं होता था, उसे उसकी साइकिल पर सारे शहर का चक्कर लगाते देखा जाता था. बौना होने के बावजूद वह हमेशा बड़ों की साइकिल चलाया करता था. और इस तकनीकी दिक्कत के चलते वह साइकिल की गद्दी पर कभी बैठ ही नहीं पाता था. बाद के दिनों में उसने गद्दी हटवा ही दी थी. वह सामर्थ्य भर तेज़-तेज़ कैंची चलाया करता. कभी उसके कैरियर पर आलू की बोरी लदी होती उसी के जैसे उसके दो बच्चे बैठे होते.

क्रिकेट की बॉल जितना होता था बौने का बम पकौड़ा. दुनिया का सबसे लज़ीज़ व्यंजन बनाने वाला बौना एक दूसरा बिजनेस भी चलाता था. उसके ठेले से लगा हुआ था हिमालय टॉकीज़ का प्रवेशद्वार. लकड़ी का वह चौड़ा गेट जमीन पर पहुंचने के करीब एक इंच पहले ख़त्म हो जाता था. नतीज़तन फ़र्श और गेट के बीच एक झिरी सी थी. यह झिरी बहुत स्ट्रेटेजिक लोकेशन पर थी. यदि अपना गाल फर्श पर लगाए श्रमपूर्वक उस पर आंख लगाई जाती तो भीतर हॉल का पूरा पर्दा नजर आ जाता था. बौना स्कूल गोल करके आए बच्चों और स्कूल न जाने वाले पिक्चरप्रेमी बच्चों को पांच पैसा प्रति पन्द्रह मिनट के हिसाब से झिरी पर आंख लगाए पिक्चर देखने देता था. एक बार में पांच बच्चे बकौल लफत्तू इस लुफ्त का मजा लूट सकते थे. दर्शक को पन्द्रह पैसे का एक बमपकौड़ा भी खरीदना होता था.

बच्चों में यह बात मशहूर थी कि बौना इस तरह का सफल बिजनेस चलाने के कारण लखपति बन चुका था यानी उसके पास हमारे पिताओं से ज्यादा प्रापर्टी थी. लोग कहते थे पीरूमदारा में उसका एक बहुत बड़ा मकान था. लेकिन बौने के गंदे - संदे बच्चों की बहती नाक और खुद बौने की भूरी पड़ चुकी छींट की धोती और खद्दर के फटे कुरते को देख कर इस बात पर मुझे कभी कभी शक होता था.

हम दोनों ने दो-दो बमपकौड़े टिकाये और तनिक दिलचस्पी से झिरी पर आंख लगाए एक बच्चे को देखा. शाम का शो चल रहा था और इस शो में बौने का साइड बिजनेस मद्दा पड़ जाता था. लफत्तू ने मुझे पिक्चर देखने का आमंत्रण दिया. हिन्दुस्तान की कसमलगी हुई थी.

जब मैं शाम को घर पहुंचा तो मेरी सफेद कमीज बुरी तरह भूरी पड़ चुकी थी. मां ने पूछा तो मैंने कहा कि मैं ऐसे ही गिर पड़ा था. उसके अगले पूरे हफ्ते तक मैं हर रोज़ गिरता रहा. एक दिन पिक्चर बदल गई. नया खेल लगा है बाबूजी. देख लो आप दोनों के लिए दो जगे छोड़ रखी हैं मैंने.बौना, चोट्टे लफत्तू को बहुत अमीर समझने लगा था और उसकी चमचागीरी करता हुआ उसे बाबूजी कहकर पुकारने लगा था.


इकत्तीस साल हो गए लेकिन हिन्दुस्तान की कसममैं आज तक पूरी नहीं देख पाया.

Friday, October 12, 2007

बागड़बिल्ले का टौंचा माने ...




रामनगर आने के बाद मुझे भाषा के विविध आयामों से परिचित होने का मौका भी मिला. मुझ से थोड़ा बड़े यानी करीब बारह-तेरह साल के लड़के गुल्ली डंडा और कंचे खेला करते थे. लफत्तू मेरी उमर का था लेकिन चोर होने के कारण ये बड़े लड़के उसे अपने साथ खेलने देते थे. उस का नया दोस्त होने के नाते मुझे खेलने को तो कम मिलता था लेकिन मैं उन के कर्मक्षेत्र के आसपास बिना गाली खाए बना रह सकता था. गुल्ली-डंडा खेलते वक़्त वे मुझे अक्सर पदाया करते थे लेकिन मैं उन के साथ हो पाने को एक उपलब्धि मानता था और ख़ुशी-ख़ुशी पदा करता था.

कभी-कभी (ख़ास तौर पर जब लफत्तू अपने पापा के बटुए से चोरी कर के आया होता था), ये लड़के घुच्ची खेलते थे. घुच्ची के खेल में कंचों के बदले पांच पैसे के सिक्कों का इस्तेमाल हुआ करता था. पांच पैसे में बहुत सारी चीज़े आ जाया करतीं. लफत्तू इस खेल में अक्सर हार जाता था क्योंकि उसका निशाना कमजोर था. वह आमतौर पर अठन्नी या एक रूपया चुरा के लाता था. बड़े नोट न चुराने के पीछे उसकी दलील यह होती थी कि उन्हें तुड़वाने में रिस्क होता है.

घुच्ची में पांच पैसे के सिक्के चाहिऐ होते थे जो वह आमतौर पर शेरदा की चाय की दुकान से या जब्बार कबाड़ी से चुराई गयी अठन्नी-चवन्नी तुड़ा कर ले आता था. एक बार वह पूरे पांच का नोट चुरा लाया था. वह मुझे अपने साथ लक्ष्मी बुक डिपो ले कर गया. वहाँ जा कर उसने मुझसे कहा कि मैं अपने लिए 'चम्पक' या 'नन्दन' खरीद लूँ. मुझे अपने साथ वह इसलिये लेकर गया था कि मुझे बकौल उसके होस्यार माना जाता था. और ऐसे बच्चों पर कोई शक नहीं करता.

कृतज्ञ होकर मैंने नन्दनखरीद ली. पांच का नोट मेरे हाथ से लेते हुए लक्ष्मी बुक डिपो वाले लाला ने एक नज़र मेरे उत्तेजना से लाल पड़ गए चेहरे पर डाली लेकिन कहा कुछ नहीं. फिर उसने मेरे पिताजी का हाल समाचार पूछा. गल्ले से पैसे निकालते हुए उस ने तनिक तिरस्कार के साथ लफत्तू की तरफ देखते हुए मुझी से पूछा :

इस लौंडे का भाई आया ना आया लौट के?”

सारा शहर जानता था कि लफत्तू का बड़ा भाई पेतू हाईस्कूल में तीसरी दफ़ा फेल हो जाने के बाद घर से भाग गया था.

अपने पैते काटो अंकलजी और काम कलोलफत्तू ने हिकारत और आत्मविश्वास का प्रदर्शन करते हुए अपनी आंखें फेर लीं.

ये आजकल के लौंडे …” कहते हुए लाला ने मेरे हाथ में पैसे थमाए. लफत्तू की हिम्मत पर मैं फिदा तो था ही अब उसका मुरीद बन गया.

हम देर शाम तक मटरगश्ती करते रहे थे. बादशाहों की तरह मौज करने के बावजूद दो का नोट बचा हुआ था. घर जाने से पहले घुच्ची के अड्डे पर सिक्कों की कमी का तकनीकी सवाल उठा. बदकिस्मती से उस दिन शेरदा की दुकान बन्द थी और जब्बार कबाड़ी भी कहीं गया हुआ था. मजबूर होकर लफत्तू साह जी की चक्की पर चला गया. साह जी ने लफत्तू को टूटे पैसे तो नहीं दिए उसके पापा को ज़रूर बता दिया. उस रात लफत्तू को उसके पापा ने नंगा कर के बैल्ट से थुरा था. तब से लफत्तू ने अठन्नी, चवन्नी या हद से हद एक का नोट की लिमिट बाँध ली. चक्की पर हुए हादसे के बाद नन्दनघर ले जाने की मेरी हिम्मत नहीं थी सो मैं उसे रास्ते में गिरा आया.

घुच्ची खेलने में बागड़बिल्ला के नाम से मशहूर एक आवारा लड़का उस्ताद था. उसकी एक आंख में कुछ डिफ़ेक्ट था और उसे गौर से देखने पर ऐसा लगता था कि पांच के सिक्के पर निशाना लगाने के वास्ते भगवान ने उसे रेडीमेड आंखों की जोड़ी बख्शी थी. उसकी छोटी आंख वाली पुतली का तो साइज़ भी पांच पैसे के सिक्के जैसा हो चुका था. बागड़बिल्ला नित नए-नए मुहाविरे बोला करता था. संभवत: वह स्वयं उनका निर्माण करता था क्योंकि इतने साल बीत जाने के बाद भी मैंने उसके बोले जुमले आज तक न किसी शहर में सुने हैं न ही किसी दूसरे के मुखारविन्द से. उसके मुहाविरों को मैं अक्सर पाखाने में या नहाते समय धीरे-धीरे बोला करता था. उस वक्त ऐसी झुरझुरी होती थी जैसी कई सालों बाद पहली बार सार्वजनिक रूप से एक बड़ी गाली देते हुए भी नहीं हुई.

निशाने को बागड़बिल्ला टौंचाकहा करता था. लेकिन टौंचे का असली ख़लीफ़ा तो हमारे शहर और जीवन से कई प्रकाशवर्ष दूर बम्बई में रहता था. जिस दिन कोई दूसरा लड़का जीत रहा होता था बागड़बिल्ला उसकी दाद देता हुआ भारतीय फिल्मों के एक चरित्र अभिनेता को रामनगर के इतिहास में स्वणार्क्षरों में अंकित करता अपना फेवरिट जुमला उछालता था : आज तो मदनपुरी के माफिक चल्लिया घनसियाम का टौंचा. 

रामनगर का टौंचा

एक शहर है रामनगर. जिला नैनीताल. राज्य  उत्तराखंड.

मुझे अपना शुरुआती लड़कपन इस महान शहर के सबसे महान मोहल्ले खताड़ी में काटने का सुअवसर प्राप्त हुआ था. पहली मोहब्बत भी मुझे इसी मोहल्ले में हुई थी.

करीब आठ नौ साल का था जब मेरे पिताजी का ट्रांसफर पहली दफा प्लेन्स में हुआ था. इस के पहले हम अल्मोड़ा रहते थे. इत्तेफ़ाक़ से पिताजी ने जो मकान किराए पर लिया था, वह रामनगर के भीतर बसने वाले दो मुल्कों के बॉर्डर पर था. आज़ाद भारत के हर सभ्य नगर की तरह रामनगर के भी अपने अपने हिंदुस्तान और पकिस्तान थे.

हमारे घर से करीब तीसेक मीटर दूर मस्जिद थी. सुबह से रात तक मस्जिद से पांच बार अजान आती थी. मैंने पहली बार जाना था कि मुसलमान भी कोई शब्द होता है और इसका मतलब इस तरह के लोगों से है जो सुबह से शाम तक गाय भैंस खाते रहते हैं और बहुत पलीत होते हैं . हर अज़ान के बाद मुझे माँ और पिताजी का भुनभुनाना याद है. नजदीक ही एक मंदिर से दिन भर लाउडस्पीकर पर मुकेश का गाया रामचरितमानस का घिसा हुआ रिकार्ड किसी मरियल गधे जैसा रेंकता रहता था.

हमारे घर के सामने एक बड़ा सा खाली मैदान था ... ना, रामनगर के भूगोल पर अभी नहीं.

मस्जिद के सामने सब्जी वालों की दूकानें थीं. हमारे घर की सब्ज़ी शरीफ़ की दुकान से आती थी. सब्जी लेने मेरी माँ जाती थी : उसके साथ अक्सर कोई पड़ोसन होती थी. वह जब भी सब्जी लेकर वापस आती थी, उसके पास मुसलियों के बारे में कहने को कुछ न कुछ नया ज़रूर होता था. ज़ाहिर है वह नया हमेशा मुसलमानों के भीतर छिपे शैतान के किसी अवगुण का बखान हुआ करता था.

मुझे मुसलमानों से बच कर रहने की तमाम हिदायतें मिली हुई थीं. मुसलमानों के बारे में मेरा सामान्य ज्ञान, रामनगर में बने मेरे पहले दोस्त लफत्तू की दी हुई सूचनाओं से हर रोज़ समृद्ध होता रहता था. लफत्तू तोतला था और एक नंबर का चोर. पढने में बेहद कमजोर लफत्तू को उसके घरवाले प्यार से बौड़म कह कर बुलाया करते थे. कभी कभी जब माँ को रसोई में ज़्यादा काम होता तो धनिया, पोदीना जैसी छोटी चीज़े लाने को मुझे जाना होता था. "सरीफ से कहना पैसे कल देंगे. और लफत्तू को ले जान साथ में." बुरादे की अंगीठी के सामने बैठी माँ जब मुझे हिदायत देती तो मेरे मन में एक अजीब सी हुड़क होती थी. डर भी लगता था.

मस्जिद से लगे पटरों पर बच्चा दूकानें होती थीं. "सफरी पांच की दो" "कटारी पांच की दो" ... की आवाजें लगाते बच्चे तमाम तरह की शरारतें करते रहते थे और बिजनेस भी.

उस दिन लफत्तू के साथ "मुछलमानों" के मोहल्ले में घुसते ही, हमेशा की तरह "ह्याँ आ बे हिंदू के" कह कर एक बच्चा दूकानदार ने हमें डराने की कोशिश की. लेकिन लफत्तू के साथ होने से मेरी हिम्मत नहीं टूटती थी और मैं उन लड़कों की तरफ देखता भी नहीं था. शरीफ़ अपनी दुकान से उन बच्चों पर दुनिया भर की लानतें भेजा करता था. पोदीने की गड्डी लिए लफत्तू और मैं वापस आ रहे थे जब मैंने एक पल को पटरे पर लगी दुकानों की तरफ आंख उठाई.

"हे भगवान" मेरे दिल का एक टुकड़ा जैसे तिड़क कर रह गया. छः सात साल की एक लड़की छोटे-छोटे कुल्हड़ो में खीर बेच रही थी - "खील ले लेयो, खील ले लेयो". और उस की आँखें मुझ पर लगी हुई थीं. मेरा सारा पेट जैसे फूल कर गले में अटक गया. मैं उस की सारी खीर खरीद लेना चाहता था लेकिन जेब में एक पैसा भी नहीं था. "खील खागा?" उस ने वहीं से मुझ से चिल्ला कर कहा. अमरूद, इमली बेच रहे बाक़ी बच्चों ने कुछ कहा होगा, लेकिन मैं पता नहीं किस तरह से हिम्मत करता हुआ उस के सामने खड़ा हो गया. "कित्ते की है?" मैंने पूछा. "तू हिंदू हैगा. तेरे लिए फिरी." उसने एक कुल्हड़ मेरी तरफ बढाया और फुसफुसा के बोली "सकीना हैगा मेरा नाम. सादी करेगा मुझसे?"

पता नहीं लफत्तू कब कैसे मुझे हाथ खींचता हुआ वापस घर लाया. खाना खाने के बहुत देर तक मुझे नींद नही आयी. " सादी करेगा मुझसे?" यही बार बार दिल में गूँज रहा था. सकीना की सूरत, उस के चमचमाते दांत, उसकी मुस्कान.

"जल्दी सोता क्यों नहीं!" मुझे माँ ने झिड़की लगाई.

माँ को क्या पता था मुझे सकीना से मोहब्बत हो गई थी. और मोहब्बत में नींद किसे आ सकती है.

कुछ ही दिन पहले 'बनवारी मधुवन' पिक्चर हॉल में पिताजी ने हमें एक पिक्चर दिखाई थी. पिक्चर के लास्ट में हीरोईन हीरा खा के खुदकशी कर लेती है. मरी हुई हीरोईन का हाथ थामे हीरो रोता हुआ बार बार कहता जाता है: "तुमने ऐसा क्यों किया मीना? क्यों किया ऐसा?"

मेरी नींद उड़ी हुई थी और पिक्चर का लास्ट सीन लगातार मेरे जेहन में घूम रहा था. मुझे पहली मोहब्बत हुई थी और मेरी कल्पना पागल हो गई थी. मेरे घर वालों ने सकीना से मेरी शादी से मना कर दिया है. "एक मुसलिये की बेटी को बहू बनाएगा तू...? पैदा होते ही मर क्यों नहीं गया..." ये सारे डायलाग बाकायदा भीतर गूँज रहे थे. फिर मैं खुदकशी कर लेता हूँ . माँ-बाप छाती पीट रहे हैं. ऐसे में सकीना की एंट्री होती है : "तुमने ऐसा क्यों किया ... क्यों किया ... अशोक ..." वह रोती जाती है. अब तक मैं बड़ी मुश्किल से रुलाई रोक पाया था. सकीना के विलाप के बाद मैं तकिये के नीचे सिर दबाये रोने लगा.

बत्ती बंद की जा चुकी थी. पिताजी एक बार मेरे सिरहाने तक आये. उन्होने मुझे पुकारा तो मैंने गहरी नींद का बहाना बना लिया.


"इतवार को सारे बच्चों को डाक्टर के पास कीड़ों की दवा खिलाने ले जाना पड़ेगा. प्लेन्स का पानी ठीक नही होता." पिताजी धीमी आवाज़ में माँ को बता रहे थे.