Monday, March 30, 2009

हुसन की मलका दीलफरैब जीनातमान का नाच और टुन्ना झर्री के कारनामे

टुन्ना झर्री रामनगर हम से एक पीढ़ी आगे वाले लफाड़ी समुदाय का सर्वमान्य ख़लीफ़ा माना जाता था. कोसी डाम पर एक दफ़ा हिन्दू लड़कियों के ताड़ीकरण-कर्म की नीयत से टहल रहे दो पाकिस्तान निवासी लौंडों को अकेले ठोक दिया था टुन्ना ने. यह अलग बात है कि टुन्ना स्वयं उसी प्रयोजन से वहां टहलने गया था. इस उपलब्धि के ऐवज़ में ख़ुद की अपनी पीढ़ी में वह नायक के और हमारी अप्रेन्टिसरत पीढ़ी में महानायक के तौर पर स्थापित हो गया.

टुन्ना के इस शौर्य की गाथा हमें नेचुरली लफ़त्तू ने ही सुनाई. टुन्ना भी फ़ुच्ची की तरह कलूटा था. उसके पापा हमारे कालेज में सीनियर बच्चों को कुछ पढ़ाया करते थे. लेकिन टुन्ना ने स्कूल जाना आठवीं क्लास के बाद बन्द कर दिया था. टुन्ना के पापा को समूचा शहर नेस्ती मास्टर के नाम से जाना करता था. यदि नागरजनों को उन पर अधिक लाड़ आ जाता तो उन्हें विलायती सांड़ नाम से भी संबोधित किया जाता.

रामनगर की शब्दावली में झूठ्मूठ गप्प मारने की क्रिया के लिए अपना स्वायत्त शब्द-पद था - 'झर पेलना'. टुन्ना के आगे झर्री शब्द लगाए जाने की उत्पत्ति भी इसी क्रियापद में पोशीदा थी. टुन्ना के बारे में यह बात सारे रामनगर के लौंडजगत में विख्यात थी कि वह अपने काम से काम रखता है और झर कभी नहीं पेलता. दर असल कोसी डाम पर पाकिस्तानी लड़कों की पिटाई के प्रकरण को रामनगर के इतिहास में एक क्रान्तिकारी और परिवर्तनकारी घटना माना गया जिसके न मालूम कितने संस्करण गली-मोहल्लों में उपलब्ध थे. टुन्ना प्रेरणा का झरना बन गया था जिसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने की नीयत से टुन्ना भक्तों और अघोषित टुन्ना फ़ैन्स क्लब द्वारा डाम-घटना को लेकर इतनी बेशुमार झरें पेली गईं कि टुन्ना से अगली पीढ़ी के लफंडरों ने टुन्ना के प्रति बहुत हिकारत और संभवतः उस से भी ज़्यादा ईर्ष्या भी महसूस करते हुए टुन्ना के आगे झर्री विशेषण फ़िट कर दिया.

मिसाल के तौर पर एक बार क्लास में दो पीरियडों के बीच के अन्तराल में बम्बाघेर नम्बर दो में रहने वाले हमारे सहपाठी जगदीस जोसी उर्फ़ जगुवा पौंक ने एक बार टुन्ना को हिमालय टाकीज से बाहर निकलते हुए दिखाते हुए हमें गर्व से बताया कि टुन्ना बम्बाघेर में उनका पड़ोसी है. टुन्ना और कोसी डाम अपरिहार्य रूप से एक दूसरे से सम्बद्ध हो चुके थे. जगुवा पौंक ने टुन्ना का पड़ोसी होने का गर्व बहुत देर तक महसूस करते हुए झर पेली कि टुन्ना ने उस ऐतिहासिक दिन बारह मुसलियों को अकेले सूत डाला था. बागड़बिल्ला इस संख्या को हमें इम्प्रेस करने की नीयत से पन्द्रह तक पहुंचा दिया करता था. इन गड़बड़ आंकड़ों का लफ़त्तू पर कोई असर नहीं होता. वह कहता था : "एक कतुवा दत-बीत हिन्दू के बलाबल होता ऐ बेते ... तुन्ना धल्ली ने दोई कतुवों को माला होगा ... छमल्लेवैं आप ... एक तुन्ना धल्ली और दो-दो कतुवे ..."

लफ़त्तू की टोन बताती थी कि टुन्ना के प्रति उसके दिल में असीम सम्मान ठुंसा हुआ है.

धूल मैदान से आगे खेल मैदान पर किराये की साइकिलें चलाते वक्त हम किंचित ईर्ष्या और भय से उस कोने को ताका करते जहां टुन्ना अपनी कैबिनेट मीटिंगें लिया करता था. लफ़त्तू ने बाद में मेरा ज्ञानवर्धन करते हुए बताया कि टुन्ना चाहे तो उन मीटिंगों को कहीं भी ले ले पर पाकिस्तान निवासी लौंडे अक्सर हिन्दुस्तानी लौंडों की साइकिलें छीन लिया करते थे. कोसी डाम पर परमवीर चक्र प्राप्त कर चुकने के बाद टुन्ना ने अपना सायंकालीन दफ़्तर इसी बात के चलते खेल मैदान पर शिफ़्ट कर लिया था कि देखें कौन भूतनी का छीनता है साइकिलें.

निमाइस जाने की इजाज़त देने के लिए मैं अपने परिवार वालों को राजी करने में आख़िरकार सफल हो गया. घर से बहुत सारी हिदायात और बहुत कम पैसे देकर लफ़त्तू और बन्टू के साथ भेजा गया. सबसे ज़रूरी हिदायत थी आग के दरिया और बिजली वाले झूले से दूर रहना और कच्चर-बच्चर न खाना.

शाम हो आई थी. निमाइस की बत्तियां जल गई थीं. करीब दस लाउडस्पीकरों को कुछ न कुछ एलौन्स चल रहे थे और कुछ भी साफ़ नहीं सुनाई दे रहा था. धूल-गर्द-हल्ला-हड़बड़ी का ये आलम था कि हम निमाइस में घुसे और एक दूसरे से बिछड़ गए. एक पल को घबराहट महसूस हुई तो मैंने पलटकर देखा. घर की खिड़की नज़र आ रही थी और वहां भी बत्ती जल चुकी थी यानी खो जाने का कोई डर न था. कॉन्फ़ीडेन्स लौटा तो लफ़त्तू और बन्टू की तलाश में इधर उधर निगाह डालना शुरू किया. थोड़ी मशक्कत के बाद बन्टू की लाल हाफ़ पैन्ट नज़र आ गई. मैं भाग कर उस तक पहुंचा. वह भी हकबकाया खड़ा था. हमने एक दूसरे के हाथ थाम लिए और मिलकर लफ़त्तू की खोज में जुट गए. आख़ीरकार हमें वह दिखाई दे गया. अपने से दो हाथ लम्बी बन्दूक थामे वह एक खोखे पर गुब्बारे फोड़ने की मौज लूट रहा था. हम तनिक नाराज़ होते हुए उस तक पहुंचे तो उसने हमसे डिस्टर्ब न करने को कहा.

ख़ुद को जिम कॉर्बेट से बड़ा शिकारी समझता हुआ वह अपने कन्धे, हाथों और आंखों का अचूक संयोजन करने में लगा था. मरियल बल्ब की रोशनी में सामने लगे गत्ते के बोर्ड पर चिपकाए गए सौ एक गुब्बारे एक ही रंग का होने का आभास दे रहे थे.

"अब देकना बेते ... बो पीला वाला फोल्दूंगा ..."

कट्‌ की आवाज़ आई फिर मरियल सी फट्‍ की और शायद एक गुब्बारा फूटा. "... देका बेते मेला तौंता..."

अगले पांचेक मिनट तक आत्मलीन होकर वह अपना टौंचा सैट करता रहा और आत्ममुदित होता रहा. अपना पेमेन्ट कर चुकने के बाद उसने प्रस्ताव दिया कि हम भी उक्त खेल उसके खर्चे पर खेल कर देखें पर हमें निमाइस घूमने की जल्दी थी सो प्रस्ताव को मुल्तवी कर दिया गया. मेरा मन तो आग का दरिया देखने का था. गुबारे का निशाना लगाने वाले के बाद हग्गू सिपले की दूध-जलेबी की दुकान लगी हुई थी. अगले खोखे पर लालसिंह के पापा को चाय बनाते देख कर मेरे मन में आया कि लालसिंह भी आसपास ही होगा. वह था भी. "अबे हरामियो!" उसने अपने प्रिय सम्बोधन से हमें पुकारा. वह चाय के खाली गिलास इकठ्ठा कर के ला रहा था.

"यहीं रुको तुम" कह कर वह अपनी दुकान के पिछवाड़े गायब हो गया. मिनट बीतने से पहले वह हमारे साथ था.

"डान्स देखोगे हरामियो? जीनातमान जैसा माल आया है इस साल निमाइस में."

प्रस्ताव बहुत चैलेंजिंग था और पौरुष को ललकारने वाला. "इन बत्तों ते पूत ले याल लालछिंग ... मैं तो देकियाया दीनातमान को पैले ई .."

लफ़त्तू के इस डायलॉग के बाद नहीं कहने का कोई मतलब नहीं था. लम्बू लालसिंह आगे आगे और हम तीन नन्हे हरामी पीछे-पीछे. लोहे की एक बहुत बड़ी बाड़ के अन्दर गोल टैन्ट लगा हुआ था. चारों तरफ़ से बन्द इस तम्बू की सज्जा हेतु उरोजा-दल का वही पोस्टरनुमा पैनल लगाया गया था जिसे ठेले पर रख कर निमाइस का परचार किया जाता था. मेरी चोर निगाह ने ज़मीन पर धरे ब्लैकबोर्डनुमा पैनल पर लिखा पढ़ लिया: 'हुसन की मलका दीलफरैब हैलन का नाच. २ रु.' - हुसन, दिलफ़रैब. मोब्बत, बफा-जफा, आसिक इत्यादि अल्फ़ाज़ अब समझ में आने ही लगे थे. २ रु. देखते ही मैंने लालसिंह से कहा कि मेरे पास तो कुल इतनी ही रकम है और अभी मैंने अपनी शॉपिंग करना बाकी है.

"बड़ा आया पैसा देने वाला हरामी" लालसिंह ने लाड़ से दुत्कार लगाई. वह डान्स वाली दुकानवाले का दोस्त था. हम चार टोटल फिरी-फोकट में पिछवाड़े वाले मार्ग से तम्बू के अन्दर थे. अन्दर बीड़ी-सिगरेटों का नीला धुंआ तैर रहा था और बेशुमार भीड़ थी. और अच्छा खासा अन्धेरा भी. एक तनिक ऊंचे प्लेटफ़ॉर्म पर मंच बनाया गया था. मंच के बैकग्राउन्ड के परदे पर एक अधनंगी तस्वीर बनी हुई थी - ठीक जैसी दुर्गादत्त मास्साब की किताबों के कवर पर हुआ करती थीं. अचानक एक पल को मंच की बत्ती बुझी और फिर तुरन्त बाद सारा मंच चटख नीली रोशनी से नहा गया. एक कलूटा आदमी हाथ में माइक लिए स्टेज पर आया तो भीड़ से एक समूहगान सरीखी गूंज उभरी "... ओबे काणे sssss ... ओबे काणे बेsss ..." इस सस्वर प्रोत्साहन ने सारे दर्शकों को बतला-जतला दिया कि कलूटे को ऐरा-गैरा न समझा जाए - उसका नाम है, ख़ूब नाम है और उसके अपने फ़ैन्स भी हैं.

कलूटे ने कुछ चुटकुला सा सुनाया जो मेरी समझ में नहीं आया. अलबत्ता भीड़ एक अश्लील हंसी में फटकर दोहरी हो गई. काने ने करीब दस मिनट तक यह सांस्कृतिक कार्यक्रम चलाया जिसके बाद मंच पर बत्ती बुझने और जलने का पिछला सिलसिला दोहराया गया. बत्ती का जलना और कर्कश लाउडस्पीकर पर 'साकिया आज तुझे नींद नईं आएगी' बजना शुरू हो गया. सीटियां बजनी चालू हो गईं. बन्टू मेरे कान में चिल्ला रहा था कि इस के पहले कोई हमें देखे हमें फूट लेना चाहिये

मंच पर जीनातमान के आते ही दर्शक पागल हो गए. जीनातमान ने फ़िल्मों में मुजरा करने वालियों की लाल-नीली चमचम ड्रेस पहनी हुई थी. उसने झुक कर सलाम जैसा कुछ किया. हम बहुत दूर थे और ज़्यादा डिटेल्स देख पाने की इच्छा पूरी करने में असमर्थ भी. 'सुना है तेरी मैफ़िल में रतजगा है' की टेक से उसने बेहद भौंडा नृत्य शुरू किया. लफ़त्तू ने मेरी बांह पर हल्की चिकोटी काटी तो मैंने पलट कर देखा. उसने मुझे आंख मारी जिसका तात्कालिक अभिप्राय यह था कि बेते मौज काटो जीनातमान के. नाच में बस ये हो रहा था कि एक लाल-नीली ड्रेस के यदा-कदा हवा में ज़रा सा उछलती सी नज़र आती और एडल्ट सीटियां और डायलाग विसर्जित करता रामनगर का कलापारखी वर्ग पूर्णमुदित हो जाता. बस दो तीन मिनट का नाच देखा ही था बस कि लालसिंह ने हमें तकरीबन घसीटते हुए तम्बू से बाहर निकाल लिया. लफ़त्तू और मैं और बन्टू जो भी हो डान्स के मज़े लेने का एडल्ट अनुभव तो जी ही रहे थे; अचानक यूं घसीट कर बाहर निकाल लिया जाना थोड़ा नागवार गुज़रा तो लालसिंह ने ज़रा आगे जा कर हमारे लिए रंधे से बनाई जा रही तीन तिरंगी चुस्की आइसक्रीमें ऑर्डर करते हुए बताया कि ऐसा उसने हमारी बेज्जती खराब ने होने देने के लिहाज़ से किया.

हमें बेमन से चुस्कियां चूसते देख कर लालसिंह ने कहा "डान्स छूट गया है अब देखना कौन कौन बाहर निकलेगा."

बाहर आने वाले तनिक झेंप के साथ जल्दी जल्दी डान्स-तम्बू की सीमा से परे जाने की कड़ी मेहनत कर रहे थे. उन में से कुछ को हम ने पहले भी कहीं न कहीं देखा हुआ था. आख़िर में निकलने वालों में हमारे कालिज का आधे से ज़्यादा स्टाफ़ था. पान की पीक का महासागर मुंह में भरे होने के बावजूद बोल पाने में सफलता प्राप्त कर ले रहे मुर्गादत्त मास्साब के नेतृत्व में दड़ी मास्साब, भगवानदास मास्साब, गोल्टा मास्साब और रामलायक 'निर्जन' बाहर आ रहे थे. वे इतने आत्मविश्वास से आस्पास देखते बाहर आ रहे थे मानो उनका समूचा जीवन यही पुण्यकर्म करने हेतु बना हो और उसी में व्यतीत हुआ हो.

मेरे लिए यह सदमा इस वजह से था कि मैं कम से कम गोल्टा मास्साब को अच्छा समझता था. मैं इस हादसे पर विचार कर ही रहा था कि तम्बू के भीतर से गंगापुत्र उर्फ़ प्याली मात्तर नमूदार हुए. उनके चश्मे की सुतली खुल गई थी और उसकी इकलौती कमानी को कान से लगए वे "अले लुको बाई, लुको, लुको ..." कहते हुए अपने मित्रों के नज़दीक जाने का प्रयास कर रहे थे. चश्मे की खुली हुई सुतली दूसरी तरफ़ लटक रही थी.

"अगर मास्साब लोग देख लेते कि तुम लोग डान्स देख रहे हो तो वो तुम्हारे घरों में शिकायत कर देते. घर वाले तुम्हारा बनाते हौलीकैप्टर अलग और मास्साब लोग तुमें इमत्यान में फ़ेल करते अलग. बेज्जती खराब होती नफ़े में."

लालसिंह सच कह रहा था. बन्टू और लफ़त्तू के साथ मैंने भी हामी में सिर हिलाया. हमारे पैसे अभी बचे हुए थे और आग का दरिया देखने की इच्छा भी. लालसिंह ने कहा कि वह हमें फ़िरी में अन्दर बिठा देने के बाद दुकान पर चला जाएगा क्योंकि उसके पापा अकेले होंगे. लालसिंह निमाइस के स्टाफ़ का आदमी था और उसे सारी चीज़ें फ़ोकट उपलब्ध हैं - यह जानकारी मेरे लिए बड़ी डाह का विषय बन गई थी.

धूल-गर्द-हल्ला-हड़बड़ी अब और ठोस होकर निमाइस के आसमान पर जम चुके थे. दूर बिजली वाले झूले की बत्तियां जलबुझ रही थीं और आकर्षित कर रही थीं.

हाथों में चुस्कियां थामे पहला एडल्ट काम कर चुकने का गर्व महसूस करते हम आग के दरिया की तरफ़ धीमे कदमों से बढ़ रहे थे. लालसिंह ने ठिठोली करते हुए हमसे जीनातमान के हुसन के मुताल्लिक कुछ अश्लील सवालात पूछे. प्रफुल्लित होने के बाजवूद बन्टू और मैं जवाब देने की हिम्मत नहीं जुटा पाये अलबत्ता लफ़त्तू बोला : "किलमित की बौल दैते उतल लई ती याल दीनातमान ... भौछ्‍छई लौंदिया है... भौछ्छई ..."

... अचानक बिना किसी पूर्वसूचना के चीख पुकार मच गई. हमसे ज़रा अगे धूल का हल्का बादल सा उठने को था. पांच सात लड़के अचानक सीरियस मारपीट शुरू कर चुके थे. लालसिंह ने हमसे वहीं खड़े रहने को कहा और घटनास्थल की तरफ़ भाग चला.

वह उसी रफ़्तार से वापस हम तक पहुंचा: "आग का दरिया बन्द हो गया आज. तुम लोग घर जाओ. पांच पांच मुसलिये आग के दरिये से भार लिकाल के टुन्ना झर्री को सूत रहे हैं ...!"

(निमाइस गाथा जारी है)

Tuesday, March 24, 2009

कायपद्‌दा, पुगत्तम और रत्तीपइयां

धूल मैदान पर से नौटंकी पाल्टी का जाना और वहां निमाइस का लगना एक साथ घटित हुआ. छुट्टियां चल रही थीं. छत पर क्रिकेट खेलना थोड़ा कम हो गया था. निमाइस की रौनक शाम को गुलज़ार हुआ करती थी. इधर हम लोगों ने लफ़त्तू की अगुवाई में घर के पिछवाड़े स्थित पीताम्बर उर्फ़ पितुवा लाटे के आम के बगीचे के भी पीछे बहने वाली छोटी नहर में दोपहरें गुज़ारने का कार्यक्रम चालू कर दिया था.

घर पर सुबह के किसी वक्त पूरा खाना खा चुकते ही मैं नेकर-कमीज़ पहनकर घासमंडी पहुंच जाता. वहां बंटू, बागड़बिल्ला, लफ़त्तू इत्यादि के साथ जल्दी ही पूरी टीम जुट जाती और कुछ भी अश्लील गाना गाते, कूल्हे मटकाते लफ़त्तू का अनुसरण करते हम नहर पहुंचते. काफ़ी खोज बीन के बाद हम लोगों ने नहर के एक हिस्से को अपने तरणकर्म हेतु सबसे मुफ़ीद पाया था. उस जगह नहर के दोनों तरफ़ आम के घने पेड़ थे और थोड़ा सा अन्दर चले जाने पर हमें सड़क पर चल रहा कोई भी आदमी नहीं देख सकता था.

नहर पहुंचते और बहता पानी देखते ही हमारी सारी शर्म-ओ-हया काफ़ूर हो जाती और हम सेकेंड से कम समय में पूरे दिगम्बर होकर पानी में कूद पड़ते. बंटू थोड़े ठसकेदार घर का था सो वह नेकर के नीचे बाकायदा चड्ढी पहने रहा करता था. पूरे कपड़े वह कभी नहीं उतारा करता. हम लोग इस कार्यक्रम विषेष के लिए चड्ढी घर पर ही फेंक आया करते थे. बंटू को इस नक्शेबाज़ी के ऐवज़ में एक्स्ट्रा काम करना पड़ता था. तैराकी समाप्त होने पर वह किसी झाड़ी की ओट में पहले चड्ढी उतारता, नेकर पहनता और चड्ढी को सुखाने हेतु किसी पत्थर पर फैला देता. पहली बार जब वह गीली चड्ढी के ही ऊपर नेकर पहनकर घर चला गया था तो गीली नेकर को जस्टीफ़ाई करने के लिए उसे कई सारी कथाओं का निर्माण करना पड़ा था, जो झूठ पर झूठ साबित होती गईं और उसके पापा ने उसे आगे से लफ़त्तू के साथ देखे जाने की सूरत में ज़िन्दा गाड़ देने की चेतावनी दी और झाड़ू से उसकी पिछाड़ी को लाल बना दिया. लेकिन लफ़त्तू का ग्लैमर अकल्पनीय था और लात-घूंसे-झाड़ू वगैरह से उसकी संगत का लुत्फ़ उठाने से देवताओं तक को नहीं रोका नहीं जा सकता था, यह तो फ़क़त बंटू था.

पानी के बहाव की रफ़्तार बहुत दोस्ताना होती थी और हम घन्टों उसमें छपछप किया करते. लफ़त्तू ख़ूब सारे मेढक पकड़ कर एक जगह इकठ्ठा कर लेता और उन्हें डरा कर नीमबेहोश बना चुकने के उपरान्त हम पर निशाना लगा लगा कर फेंका करता. गमलू-कुच्चू और मधुबाला को लेकर कई सम्मेलन तैरते-तैरते पूरे हो जाया करते थे. लफ़त्तू का दिल अभी तक उन्हीं में से एक को हमारी भाबी बनाने की टेक पर फंसा हुआ था जबकि बड्डे पाल्टी में गोबर डाक्टर द्वारा हमारे भइयानिर्मितीकरण के पश्चात मेरा जी दोनों से उखड़ गया था और मैं दुबारा से मन लगाकर मधुबाला से आशिकी में मुब्तिला हो चुका था. लफ़त्तू का तर्क यह था कि गोबरडाक्टर द्वारा हमें गमलू-कुच्चू का भइया कह कर पुकारा जाना उसका हरामीपन था और यह कि हर ज़िम्मेदार बाप अपनी लड़कियों की सेफ़्टी के लिए ऐसे बाबा-आदम ब्रांड नुस्ख़े अपनाता ही है. रक्षाबन्धन के दिन उसने घासमंडी का मुंह तक न देखने का प्लान बड्डे पाल्टी की रात ही वापस लौटते बना लिया था. "मुदे पागल छमल्लिया गोबल दाक्तल! मेला नाम बी गब्बल ऐ बेते गब्बल! दलता नईं किछी के बाप थे!" ' ... उहुं उहुं ... दान्त तत ... ' गुनगुनाते हुए उसने मेरा हाथ थाम कर उसने मुझे अपनी स्ट्रेटेजी और आसन्न अवश्यंभावी विजय के प्रति आश्वस्त किया था.

तैराकी के मज़े लूटने के बाद पीताम्बर उर्फ़ पितुवा लाटे के आम के बगीचे की तनिक नीची दीवार फांद कर वहां कायपद्‌दा नामक महान खेल खेला जाता. कायपद्‌दा में खिलाड़ियों में सबसे पहले एक चोर का चुनाव किया जाता था. चोर के चुनाव हेतु काम लाई जाने वाली टैक्नीक पुगत्तम कहलाती थी. यह चोर आम के किसी सघन और ढेर सारी टहनियों से भरपूर पेड़ के नीचे मिट्टी पर लकड़ी की मदद से एक गोल घेरा बनाता था. उसके बाद आम सहमति से करीब हाथ भर लम्बी लकड़ी को अड्डू बनाया जाता. चोर को छोड़कर सारे बच्चे पेड़ की टहनियों पर चढ़ जाते. खेल की शुरुआत में चोर को अपनी एक टांग उठाकर उठी हुई और स्थिर वाली दो टांगों के बीच निर्मित हवा के भीतर से अड्डू नामक लकड़ी को जितनी दूर संभव होता फेंक दिया करता.

अब चोर ने जल्दी से पेड़ पर चढ़कर किसी एक खिलाड़ी को छूना होता था. छू कर वापस ज़मीन पर कूदना होता था और भाग कर अड्डू को वापस गोल घेरे में प्रतिष्ठित कर देना होता था. ऐसा करके ही वह चोरयोनि से मुक्त होकर खिलाड़ीयोनि में वापस लौट सकता था. इसमें पेंच यह होता था कि अगर इस दौरान कोई खिलाड़ी कूद कर चोर से पहले अड्डू को घेरे में रख देता तो चोर चोर ही बना रहता और सारा अनुष्ठान एक बार और पूरा किया जाना होता था.

कायपद्‌दा खेलते हुए थकान जल्दी लग जाया करती. एक तो सारे नियम खिलाड़ियों की सुविधा से बनाए गए थे, न कि चोर की सो जो एक बार चोर बन गया वह तकरीबन सारे खेल भर चोर बना रहता था. बाद के दिनों में जब हमारा पहला मुसलमान दोस्त ज्याउल इस खेल को खेलने हमारी टीम में शामिल हुआ, किसी साज़िश के तहत हर बार वही चोर बना दिया जाता. ज्याउल रामनगर का नहीं था, मुरादाबाद से आया था. उसके पिताजी बिजली डिपार्टमेन्ट में इंजीनियर थे और मेरे पिताजी के दोस्त. उन्हीं के कहने पर ज्याउल को हमने इतना दुर्लभ विशेषाधिकार दिया हुआ था कि वह लगातार चोर बने और पदता रहे. कभी कभार लफ़त्तू उस पर दया करता और वालंटियर चोर बन जाता.

कायपद्‌दा खेलने के बाद भूख से भुखाने और प्यास से तिसाने हम अपने अपने घरों की तरफ़ एक छोटे ब्रेक के वास्ते चल पड़ते.

अल्मोड़ा, जहां हम लोग रामनगर आने से पहले रहा करते थे, पहाड़ी कस्बा था. बड़े भाई ने वहां मेरे वास्ते कहीं से एक बड़े टायर का जुगाड़ किया हुआ था. छोटी सी एक लकड़ी लेकर मैं उसे ठेलता हुआ इस ढाल से उस ढाल चलाया करता था. रामनगर मैदानी कस्बा था सो यहां ढालों पर टायर चलाने का रिवाज़ नहीं था. यहां हमारे पास ट्रकों के बैरिंगों से बने छोटे गोले थे जिन्हें रत्तीपइयां कहा जाता था. रत्तीपइयां को चलाने हेतु लोहे के मज़बूत तार का एक लम्बा और सीधा टुकड़ा इस्तेमाल में लाया जाता था. इस तार के एक सिरे को इस तरह से मोड़ा जाता था कि रत्तीपइयां उसमें खड़ी अवस्था में फ़िट हो जाए. अपार कौशल और प्रतिभा चाहिये होती थी रत्तीपइयां चलाने में. किसी बहुत जटिल मशीन से जूझने जैसा अनुभव होता था. जाहिर है मौज तो आती ही थी.

तैराकी और कायपद्‌दा के बाद का समय रत्तीपइयां चलाते हुए सब्ज़ीमंडी तक का चक्कर काटना धर्म बन गया था. यहां भी लफ़त्तू हमारा नेतृत्व किया करता हालांकि उसके पीछे-पीछे रत्तीपइयां चलाते जाना मोहल्ले और बाज़ार के लोगों की निगाह में अपनी बचीखुची इज़्ज़त का भुस भरा लेने का सबसे आसान तरीका माना जा सकता था पर मैंने कहा न कि लफ़त्तू के अकल्पनीय ग्लैमर के आगे क्या तो बेज्जती और क्या बेज्जती का ख़राब होना.

उस रोज़ हम लोग रत्तीपइयां कार्यक्रम निबटाने के बाद तार और ररत्तीपइयां को कन्धों पर गदा की तरह लटकाए घर लौट रहे थे जब कहीं से बदहवास सा भागता लालसिंह हमारे सामने आ गया. आते ही उसने "तुम थे कहां बे हरामियो?" पूछा.

पता यह चला कि दो घंटों से गोबरकुटुम्ब शहर में अपनी नई कार का प्रदर्शन करता घूम रहा है. और "क्या माल लग रये बेटा तुम्हारे दोनों माल!"

लालसिंह आगे कुछ बताता न बताता हमारे ठीक सामने गोबरडाक्टर ने अपनी गाड़ी रोकी. सतत खिलखिल करतीं कुच्चू-गमलू ने अपने गुलाबी रिबन लगे सिर बाहर निकाले और हमें पुकारा. रामनगर में कुल चार या पांच कारें थीं. पहली बार कार में बैठ कर किसी ने हमें पुकारा था. यह सनसनीख़ेज़ तो था ही, चेतना को शिथिल बना देने वाला भी था. इस हतप्रभावस्था में हमें यह भी भान न रहा कि हमने अपने-अपने रत्तीपइयां गदा की तरह ही थामे हुए थे.

कुच्चू-गमलू वाक़ई में माल लग रहे थे और एक पल को मेरी मधुबालाकेंद्रित मोहब्बत डगमग होने को हुई. नीमबेहोशी की सूरत में कब हम दोनों पीछे की सीटों पर हमें अपनी बग़ल में बिठा चुकी थीं, याद नहीं पड़ता. होश आने पर अपनी हवाई चप्पलों, गन्दी पड़ चुकी नेकरों पर उतनी शर्म नहीं आई, जितनी अपनी गदाओं पर. बावजूद इसके स्कर्टधारिणियां हमें ताके जा रही थीं - मुझे लगा उनकी निगाह में थोड़ी सी आसक्ति नज़र आ रही थी या शायद मेरा भरम रहा हो. दो-तीन मिनट की सैर खिलाने के बाद गोबरडाक्टर ने गाड़ी अपने घर के अहाते में पार्क की और "आ जाओ बाहर बच्चो!" कह कर कार का दरवाज़ा खोल दिया. "कैसे हो बेटे?" कहकर गोबरडाक्टरानी ने आदतन हमारे गाल दुलराए और अपनी पुत्रियों से मुख़ातिब होकर कहा "बेटा, भइया लोगों के लिए केक ले कर आओ फ़्रिज से."

या ख़ुदा! फिर से भइया! मेरा मधुबाला-प्रेम एक झटके में वापस पटरी पर आ गया. लफ़त्तू अलबत्ता अब बेशर्म बन चुका था और हौले हौले मुस्काता, केक सूतता मालताड़ीकरण में ईमानदारी से लगा हुआ था. मैंने उसे थोड़ा लिहाज़ बरतने के उद्देश्य से चेताने हेतु ठसकाया तो उसने मेरी तरफ़ आंख मारी.

"ये अपना सामान ले लो बेटा!" कहकर गोबरडाक्टर ने गाड़ी की पिछली सीटों के नीचे पड़े हमारे रत्तीपइयां बाहर निकाले. हमने चोरों की तेज़ी से उन्हें अपने कब्ज़े में किया और खिसक पड़ने की जुगत देखने लगे.

"ये क्या चीज़ है?" एक स्कर्टधारिणी ने उत्सुकतावश पूछा तो मैंने थोड़ा शर्म महसूसते हुए कहा "रत्तीपइयां"

"मगर ये है क्या?"

इस सवाल का जवाब देने के बजाय लफ़त्तू ने अपने रत्तीपइयां - कौशल का नमूना दिखाते हुए बरामदे का एक चक्कर काट कर दिखाया.

"ग्रेट! और नाम भी कितना क्यूट है इस का!" वे उत्साह में बोलीं. "पापू से कहेंगे, हमें भी चाहिये ये चीज़."

"इत को ले लओ" कहकर लफ़त्तू ने अपना रत्तीपइयां वहीं ज़मीन पर रखा और मेरा हाथ थाम कर बाहर का रुख़ किया.

लालसिंह के पापा की दुकान के पास आकर मैंने लफ़त्तू के चेहरे पर नज़र डाली. वह सुर्ख़ पड़ा हुआ था. अपना रत्तीपइयां बलिदान कर चुकने का दर्प उस की रग-रग से टपक रहा था. और उम्मीदों से भरा एक चमकीला मुस्तकबिल भी. लफ़त्तू वाक़ई मोहब्बत में पड़ चुका था. सच्ची मुच्ची वाली लैला-मन्जूर वाली असल मोहब्बत. मुझे तनिक भय हुआ.

अचानक कहीं से निमाइस का विज्ञापन करता एक रंगबिरंगा ठेला सामने से गुज़रा. उरोजाओं की पूरी टीम उस पर लगे एक विशाल पैनल पर से आपको न्यौत रही थी कि निमाइस में आइये और देखिये मौत का कुंआ और आग का दरिया. बहुत सारे लौंडे-लफन्डर भीड़ बनाए ठेले का अनुसरण कर रहे थे.

लफ़त्तू ने आंख तक उठाकर नहीं देखा. वह ख़ुद आग के दरिया को पार करने की नामुमकिन जद्दोजहद में लगा हुआ था.

(यह पोस्ट मैख़ाने वाले मुनीश शर्मा के इसरार पर लिखी गई है जिन्होंने आज इस नाचीज़ ब्लॉग को अपनी पोस्ट का विषय बनाया है)

Monday, March 9, 2009

...उहुं ... उहुं .. दान्त तत माई बादी ... उहुं ... उहुं ...

कुच्चू और गमलू में से किसी एक पर मेरे और किसी दूसरी पर लफ़त्तू के दिल के आ जाने के दिनों मैं ख़ैर मनाया करता था कि कहीं ऐसा न हो कि हम दोनों के टारगेट अन्त में जाकर एक ही न निकल आवें. मैं तो पैदाइशी बेवफ़ा और मोहब्बत का मारा था सो मुझे खुद से ज़्यादा लफ़त्तू की चिन्ता होती थी. उन्हीं दिनों बस अड्डे के बाहर वाले धूलमैदान में नौटंकी लगी. पिछले साल की नौटंकी के गीतों को कंठस्थ कर चुकने और घर पर उन्हें गा बैठने का अक्षम्य अपराध करने के बाद हुई अपनी धुनाई मुझे अच्छे से याद थी, इसी वजह से "लौंडा पटवारी का बड़ा नमकीन" अब भी मेरा फ़ेवरेट बना हुआ था. इस दफ़ा नौटंकी पाल्टी वाले अपने साथ बड़े-बड़े होर्डिंगनुमा पोस्टर ले कर आए थे जिनमें एक बेहद भौंडा सा दिख रहा दढ़ियल फटा कुर्ता पहने नज़र आया करता था. दढ़ियल के मुंह के एक कोने से खून की लकीर निकला चाहती थी. पोस्टर का अलबत्ता सबसे आकर्षक हिस्सा वह था जिसमें लाल लिपिस्टिक और सुनहरे बेलबूटोंवाली लाल पोशाक धारण किए, गालों में लाली लगाए एक उरोजा देवी चस्पां थी. उरोजा देवी की आंखों की कोरों पर आंसुओं की एक-एक जोड़ी बूंदें थमी हुई थीं. लेकिन एक अदद डिटेल्ड चेहरा होने के बावजूद कलाकार ने ऐसा तिलिस्म तैयार किया था कि उक्त महिला सिर से कमर तक सिर्फ़ उरोजों की एक जोड़ी नज़र आती थी, दीगर है कि इस दर्ज़े की जोड़ी ने अभी हमारे तसव्वुरों पर उस तरह छा जाना बाकी था.

नौटंकी पाल्टी इस दफ़े लैला-मन्जूर का खेल ले कर आई थी और लाउडस्पीकर पर ख़ून-ए-दिल पीने और लख़्त-ए-जिगर खाने के बयानात लगातार जारी किये जाते थे. खेल के बीच में इन्टरवल होता तो एक मसख़रा "डान्ट टच माई बाडी मोहन रसिया" नामक अश्लील गान सुना कर श्रोताओं और दर्शकों की वाहवाही लूटा करता. लफ़त्तू ने इस सुपरहिट का "...उहुं ... उहुं .. दान्त तत ... उहुं ... उहुं ..." की टेक से शुरू होने वाला इम्प्रोवाइज़्ड संस्करण तैयार करने में फ़कत एक रात लगाई. हम दोस्त लोग शाम के शो के श्रोता होते थे.

एक शाम हम, हम माने लफ़त्तू बन्टू और मैं, घासमण्डी के कोने पर खड़े होकर पसू अस्पताल की दिशा में नज़रे गड़ाए थे. पसू अस्पताल के कम्पाउन्ड के भीतर ही कुच्चू-गमलूपिता गोबर डाक्टर को सरकारी क्वाटर मिला हुआ था. अचानक पीछे से किसी ने लफ़त्तू को नाम लेकर पुकारा. लालसिंह था. लालसिंह के पापा की घासमण्डी में चाय-बिस्कुट की दुकान थी - यह तथ्य हमारी नज़रों से न जाने कैसे छूट गया था. उसके पापा बीमार थे और इन दिनों दुकान का काम उसके सिपुर्द था. उसने करीब करीब बड़े भाई का सा लाड़ दिखाते हुए हमें दुकान में गल्ले वाली जगह पर बिठाया और दूध-बिस्कुट खाने को दिया. हमने मौज लूटना शुरू ही किया था कि नौटंकी चालू हो गई. इस घटना ने लफ़त्तू पर तुरन्त असर डाला और उसका "...उहुं ... उहुं .. दान्त तत ... उहुं ... उहुं ..." अपने नैसर्गिक लुच्चपने के साथ चालू हो गया. लालसिंह ने लफ़त्तू को देख कर ठहाका लगाया और बामोहोब्बत "साला हरामी" कहकर उसकी कला की दाद दी. बन्टू शरीफ़ बच्चा था सो वह "पापा आ गए होंगे" कहकर भाग लिया. मैं न सरीफ़ था न बदमास और मेरा स्टेटस मेरी अपनी निगाहों में लफ़त्तूशिष्य से ऊपर नहीं जा सका था सो जैसी वस्ताद की इच्छा.

लालसिंह ने आंख मार कर लफ़त्तू से पूछा: "पसू अस्पताल में क्या देख रया था?"

"अपने माल का इंत्दाल कल्लिया ता औल क्या!" वयस्क किस्म की बेपरवाही से लफ़त्तू ने जवाब दिया.

"कौन से वाले का: छोटे का या बड़े वाले का?" यह सवाल ट्रिकी था. कुछ दिन पहले लफ़त्तू क्लास में गोबर डाक्टर की एक लड़की से अपने वन साइडेड चक्कर की घोषणा कर चुका था. फ़ुच्ची कप्तान की टोन में उसने सबको चुनौती देते हुए कहा था: "तुम थब की भाबी बनाऊंगा उतको बेतो!"

लालसिंह के सवाल का जवाब देने हेतु आवश्यक पर्याप्त ज्ञान का अभाव था लफ़त्तू के पास. इस कदर जुड़वां दो लड़कियों में कैसे बताया जाए कि 'बड़ा' कौन सा वाला है और 'छोटा' कौन सा. जब लफ़त्तू उन सुन्दर लड़कियों को माल कहता था तो मुझे ऐसा-वैसा लगने लगता. अपनी मोहब्बत नम्बर तीन को मैं तब तक पोशीदा रखना चाहता था जब तक कि यह सर्टेन न हो जाए कि लफ़त्तू वाला माल कौन सा है. उसके बाद बचे हुए माल (किंवा कुच्चू/गमलू में से एक) के प्रति मुझे अपनी भावनाएं अभिव्यक्त कर पाने की वैधता हासिल हो जानी थी.

जब तक लफ़त्तू कोई जवाब सोचता, लालसिंह ने हरामीपने से हंसते हुए कहा: "हरिया हकले से फंसे हुए हैं दोनों माल!" लफ़त्तू ने हरिया हकले के प्रति एक बड़ी गाली हवा में विसर्जित करते हुए सड़क पर थूक दिया.

लफ़त्तू को यह परमज्ञान प्राप्त हुए अर्सा बीत चुका था कि हमारी भाबी हरिया हकले से फंसी हुई है पर मेरा चोर मन कहता था कि उनमें से एक अब भी ख़ाली है. और उस ख़ाली वाली को चाहने का मेरा पूरा अधिकार है.

जो भी हो यह सारा वार्तालाप मेरे लिए एक ऑलरेडी बड़ी पहेली को और भी बड़ा बना रहा था. लालसिंह और लफ़त्तू ने आपस में कानाफूसी करते हुए एडल्ट किस्म की बात करना शुरू कर दिया था. लालसिंह ने अपनी छाती पर दोनों हाथ ले जा कर कुछ इशारा किया जिसका मतलब भी एडल्ट रहा होगा क्योंकि उसके ऐसा करते ही लफ़त्तू परमानन्दावस्था को प्राप्त हो कर उठ बैठा और कूल्हे मटकाता हुआ "...उहुं ... उहुं .. दान्त तत माई बादी ... उहुं ... उहुं ..." करने लगा.

नौटंकी के शाम वाले शो के समय अगले तीन-चार दिन हमने लालसिंह की दुकान पर दूध-बिस्कुट का फ़ोकट लुत्फ़ काटने, और 'लैला-मन्जूर' के गीतों को कंठस्थ करने में व्यतीत किए. कुच्चू-गमलू केन्द्रित चर्चा के लिए भी समय निकाला जाता. एक दिन लफ़त्तू मालवार्ता का रस ले रहा था कि दोनों लड़कियां हमेशा की तरह एक ही रंग की छैलछबीली पोशाकें पहने दुकान के सामने आ गईं. वे मेरे घर की दिशा से आ रही थीं और अपने घर जा रही थीं. तमाम बातें करते हुए हमारी आंखें पसू अस्पताल की ही तरफ़ लगी हुई थीं. इन दो नायिकाओं ने विपरीत दिशा से आकर हमें एकबारगी हकबका दिया.

छिपने का जतन करता लफ़त्तू काउन्टर के पीछे नीचे ज़मीन पर बैठ गया. मेरा मन हुआ कि धरती में गड़ जाऊं. मुझे लग रहा था कि कुच्चू-गमलू ने हमारी सारी गन्दी बातें सुन ली हैं और अगर वे हरिया हकले से नहीं भी फंसी हैं तो हमारा चान्स अब तो नहीं ही बचा है.

"बाहर आ जा बे. गये माल." लालसिंह ने कहा तो लफ़त्तू बाहर आया. "इत्ते डरपोक साले बड़े मन्जूर बन्नए."

विदा करने से पहले लालसिंह ने हमें काफ़ी लताड़ लगाई और अन्ततः पढ़ाई में मन लगाने की नसीहत भी दी. उसने फ़रमान जारी किया कि ऐसा न करने की सूरत में हमारी हालत भी उस जैसी हो जाएगी. उसे यह नहीं मालूम था कि उसकी इन्डिपेन्डेन्स से मुझे कितना रश्क होता था. क्या खाक काम की ऐसी पढ़ाई जब इच्छा होने पर बमपकौड़ा तक खाने को न मिले.

लालसिंह की दुकान से निकल जाने के बाद, घर पहुंचने से पहले लफ़त्तू और मेरे बीच एक महाधिवेशन हुआ जिसमें अभी अभी घटित दुर्घटना पर चर्चा हुई. लफ़त्तू भी मेरी ही तरह सोच रहा था.

वह रात तब तक के प्रेमजीवन की सबसे मुश्किल रात साबित हुई मेरे लिए.

सुबह सोकर उठा तो लगा बहुत देर हो गई है. जब तक कुछ सोचता, लफ़त्तू ने नीचे सड़क से "बी...यो...ओ...ओ...ई..." का लफ़ंडरसंकेत दूसरी बार किया तो मैंने बड़ी बहन को खिड़की से बाहर झांक कर लफ़त्तू को बताते हुए सुना कि मैं आज स्कूल नहीं आने वाला हूं क्योंकि मैं बीमार हूं.

मुझे बताया गया कि मुझे बुखार था और यह भी कि मैं रात भर सपने में कुछ बड़बड़ कर रहा था. उस प्रलय सरीखी रात का गुज़रना फ़ाइनली पता नहीं कैसे हुआ होगा, मुझे याद नहीं पड़ता. दिन बेहिसी में कटा. मगर शाम का समय किसी सपने जैसा रहा. गोबरडाक्टर, गोबरडाक्टरानी और कुच्चू-गमलू मुझे देखने आए. "हैलो बेटे! अब कैसे हो?" कहकर गोबरडाक्टरानी ने मेरे गाल दुलराये. खिलखिल करती गमलू-कुच्चू मेरे लिए गेंदे के दो फूल ले कर आई थीं और कॉपी से फ़ाड़े गए एक पन्ने पर 'गेट वैल सून' लिख कर भी.

दो दिन बाद मुझे और लफ़त्तू को मालघर में आयोजित एक बड्डे पाल्टी में बाकायदा बुलाया जा रहा था. जाते-जाते गोबरडाक्टर ने आशा जताई कि मैं तब तक चंगा हो जाऊंगा.

गोबरकुटुम्ब के जाते ही मैं चंगा हो गया और जूता पहनकर यह समाचार लफ़त्तू के घर जाकर उसे देने की नीयत से भाग कर सड़क पर आ गया. लफ़त्तू ने मेरी बात का यकीन नहीं किया. लालसिंह ने भी नहीं. लेकिन उसी रात को लफ़त्तू की बड़ी बहन ने उसे बताया कि गोबरकुटुम्ब उसके घर भी तशरीफ़ लेकर गया था.

कुच्चू-गमलू की बड्डे पाल्टी हम दोनों के जीवन की पहली पाल्टी थी. पाल्टी में क्या-कैसे होना होता है इत्यादि तमाम प्रश्नों-जिज्ञासाओं से लैस बिना कोई तोहफ़ा लिए जब मैं पसू अस्पताल के गेट पर अचानक ग़ायब हुए लफ़त्तू का इन्तज़ार कर रहा था. लफ़त्तू कहीं से आया. उसके हाथ में बांसी कागज़ की दो थैलियां थीं. "ले एक तेली"

मैं थैली खोलने को हुआ तो उसने मुझे डांटा: "किती के बड्डे में खाली हात नईं दाते बेते. गिट्ट देते ऐं. मैंने पित्तल में देका ता. एक थैली तेला गिट्ट ऐ. अपनी भाबी ते कैना - हैप्पी बद्दे. थमदा बेते!" महापराक्रमी लफ़त्तू अपने पिताजी की जेब से कुछ नोट चुरा कर मेरी इज़्ज़त बचाने हेतु दो थैलियों में टॉफ़ियां भर कर बड्डे गिट्ट बना लाया था - मैं अहसान से दब गया.

बड्डे मनाने बहुत सारे लोग जमा थे. बहुत सारे बड़े. और बेशुमार बच्चे. गोबरकुटुम्ब एक मेज़ के एक तरफ़ खड़ा था. मेज़ पर केक, मोमबत्ती वगैरह धरे हुए थे. औरतें खुसफुस में और बच्चे चीखपुकार में व्यस्त थे. गोबर डाक्टर ने मुझे देखा तो अपने पास बुला लिया. और लफ़त्तू को भी. बहुत शर्म आ रही थी. बहुत ज़्यादा शर्म आ रही थी. लफ़त्तू का चेहरा शर्म से सुर्ख पड़ चुका था. यही मेरे चेहरे का रंग भी रहा होगा. हम दोनों की निगाहें ज़मीन से चिपकी हुई थीं जब अचानक सब ख़ामोश हुए फिर तालियां पिटीं और "हैप्पी बड्डेटुय्यू, हैप्पी बड्डेटुय्यू ..." हवा में तैरने लगा.

केक बंट रहा था. गमलू या कुच्चू, किसी एक ने हम पिटे आशिकों के हाथों में केक का लिथड़ा सा टुकड़ा थमा दिया था. हमारे हाथों में रखीं दरिद्र टॉफ़ी की थैलियां इतनी आउट ऑफ़ प्लेस महसूस हुईं कि वे अब जेबों में जा चुकी थीं. हरिया हकला जलडमरूमध्य बना हुआ पानी के जग और गिलास लिए "मानी ... मानी" कर रहा था. अचानक डोंगे लिए कुछ औरतें रसोई के भीतर से अवतरित हुईं और "लीजिए न, लीजिए न ..." के साथ डिनर शुरू हो गया.

यह सब भीषण द्रुत गति से हुआ.

महौल में चपचप की आवाज़ें भरना शुरू हुईं तब मैंने आसपास का डिटेल्ड जायज़ा लेना शुरू किया. लफ़त्तू के यहां हुई गीतों की संध्या के नायक मास्टर मुर्गादत्त, पंडित रामलायक निर्जन और दड़ी मास्साब एक गिरोह सा बनाए कमरे के एक कोने में खड़े होकर दूसरे कोने में खड़े गोबरडाक्टर को इशारा सा कर रहे थे जिसका मतलब था कि जो करना-कराना है, जल्दी कराओ, हम क्या यहां दही-भल्ले सूतने भर को आए हैं. मुटल्ली महिलाओं ने चाटेत्यादि की लूटखसोट मचा रखी थी. उनके बच्चे ज़मीन पर लोटे-रोते-खीझते कुछ भी कर रहे थे किन्तु वे निर्लिप्त थीं. चाट के उपलब्धतातिरेक ने उनकी नैसर्गिक प्रतिभा को भड़का दिया था.

इधर गमलू-कुच्चू हमारे नज़दीक आए. "कुछ खाओगे नहीं आप? अपने फ़्रेन्ड को भी खाने को बोलिये न! उस के बाद हम आपको अपने कमरे में बुक्स दिखाएंगे. जल्दी कीजिए. हम अभी आते हैं अपने रूम में जगह बना कर आते हैं."

अपना कमरा, रूम, बुक्स, आप, फ़्रेन्ड ... ये कैसे शब्द बोल कर डरा रही थीं हमें. लफ़त्तू के चेहरे पर पहली बार इत्मीनान आया दिखने लगा था. अधिकतर मेहमान खा-पी रहे थे सो आवाज़ें थोड़ा कम सी हो गई थीं. कोई दो-चार मिनट बाद स्कर्टधारिणी नायिकाएं हम तक पहुंची और "चलिए" कहकर हमें करीब करीब ठेलती हुईं अपने रूम में ले गईं.

रूम बहुत साफ़ सुथरा था. किताबें करीने से लगी हुई थीं. हम दोनों को कुर्सियों पर बिठाया जा चुका था. गमलू-कुच्चू बहुत उत्साह से हमें अपनी पसन्द की कॉमिक्स दिखाना शुरू कर चुकी थीं. कॉमिक्स में किसका मन लगना था. दिल का एक चोर कोना कहता था कि ये सम्भ्रान्त लड़कियां क्योंकर हरिया हकले से फंसने लगीं. लफ़त्तू के मुझे कोहनी से ठसका मारा और उनकी निगाह बचाकर मुझे आंख भी मारी. माल पट रहा है बेते! पकाए जाओ. भौत चान्स है अभी.

इधर नौटंकी में इन्टरवल वाला गाना चालू हुआ, उधर शराबमण्डल कमरे में प्रविष्ट होने की तैयारी कर रहा था. लफ़त्तू के चेहरे पर कमीनपन से भरपूर खुशी की आभा छा रही थी. दोनों लड़कियां उस से सट कर खड़ी थीं और मुझे मालूम था कि उसका दिल भीतर से गा रहा होगा:"...उहुं ... उहुं .. दान्त तत माई बादी ... उहुं ... उहुं ..."

मुर्गादत्त मास्टर के नेतृत्व में पेयदल ने कमरे में एन्ट्री ली और सबसे पीछे आए गोबरडाक्टर ने गमलू-कुच्चू से मुखातिब होकर आदेश दिया : "बेटा चलो, भैया लोगों को बिल्ली के बच्चे दिखाओ बाहर वाले बरामदे में ..."