Tuesday, October 16, 2007

बौने का बम पकौड़ा



लफत्तू के साथ दोस्ती बनाए रखने में कई सारे जोखिम थे. सबसे पहला तो यह कि इन्टर में पढ़ने वाला मेरा भाई जब जब मुझे उसके साथ देखता मुझे बाकायदा हिदायत दी जाती थी कि इस टाइप के लौंडों से हाथ भर दूरी बना कर रहना ही ठीक होता है. लफत्तू की धुनाई के बाद मुझे लगता था कि किसी दिन उसके चक्कर में मैं बुरा फंसूगा और भाई या पिताजी के हाथों पिटूंगा. सबसे बड़ा खतरा यह था कि उसके साथ लगातार देखे जाने से मेरी रेपूटेशन खतरे में पड़ सकती थी और मैं होस्यार के बजाय बदमासके तौर पर विख्यात हो सकता था. लेकिन इस दोस्ती में जो एडवेन्चर का पुट था उस के कारण मैं लफत्तू की संगत के लालच में आ ही जाता था.

उस दिन लफत्तू अपने पिताजी के दफ्तर से पीतल का बड़ा सा ताला चाऊ कर लाया था. वह अपने पिताजी को कोई जरूरी चिठ्ठी देने गया था. दफ्तर के चपरासी से लापरवाही में ताला मय चाबी के एक बेन्च पर पड़ा रह गया था और दोपहर बीत जाने के बाद भी किसी की निगाह में नहीं आया था. उल्लेखनीय है कि अपने घर से बाहर लफत्तू ने पहली बार हाथ आजमाया और फतहयाब होकर आया था.

खेलमैदान के एक तरफ हिमालय टॉकीज था और एक तरफ गाड़ी मिस्त्रियों की कालिखभरी दुकानों की कतार. मैदान से हमारे घर की तरफ लगा हुआ प्राइवेट बस अड्डा था. मैं अपने साथ के कुछ बच्चों के साथ घर के सामने स्थित इसी अड्डे पर खड़ा था. इस अड्डे से काशीपुर और मुरादाबाद रूट की बसें चला करती थीं. शाम को पांच बजे तक सारी गाड़ियां अपना दिन भर का काम करने के बाद अड्डे पर लग जाती थीं. उसके बाद गाड़ियों के क्लीनर गाड़ियों में झाड़ू लगा कर सारा कचरा बाहर किया करते थे. यह कचरा हमारे लिए खजाने की तरह होता था. हम में से कुछ बच्चों ने उन्हीं दिनों माचिस की डब्बियों के लेबल इकठ्ठा करने का नया शौक पाला था. इस अय्याशीभरे शौक के चलते क्लीनरों के झाड़ू लगाते समय अड्डे पर हमारी उपस्थिति अनिवार्य होती थी. कूड़ा बुहारते क्लीनर हमें बेहद भद्दी गालियां दिया करते थे और कई बार किसी दुर्लभ लेबल को लेकर हम में सरफुटव्वल तक हो जाता था लेकिन शौक़ तो शौक़ होता है साहब.

बहरहाल क्लीनरगण अपने कार्य में व्यस्त थे और हम लोग आपस में डुप्लीकेट लेबलों की अदला-बदली कर रहे थे जब लफत्तू हांफता हुआ मेरे पास आया. उसने बड़ी हिकारत से एक निगाह पहले मुझ पर डाली फिर बाकी बच्चों पर. बलबाद हो जागा इन छालों के चक्कल में बेते …” कहते हुए उसने मुझे अपने पीछे आने का इशारा किया. वह दूधिए वाली संकरी गली में घुस गया. उस्ताद के आदेश की बेकद्री मैं नहीं कर सकता था. सो बेमन से उसके पीछे चल दिया. एक जगह थोड़ी सी तनहाई मिली तो उसने जेब से एक एक के नोटों की पतली गड्डी बाहर निकाली और पूरे सात गिनाए. चल बमपकौड़ा खा के आते हैं.उसने मेरे कन्धे पर हाथ रखा और आंख मारी.

अपने पापा के दफ्तर से ताला चु्राने की दास्तान उसने सुना तो दी लेकिन मेरी समझ में नहीं आया कि सात रूपए वह कहां से चुरा कर लाया. अले याल बेच दिया थाले को. वह ताले को एक गाड़ी मिस्त्री को बेच आया था. इत्ता बड़ा ताला था बेता इत्ता बड़ाकहकर उसने ताले की नाप बढ़ा चढ़ा कर बताते हुए हाथ फैलाए. मैंने दस मांगे छाले से. उसके पास सात ई थे.अब हम लोग उसी गाड़ी मिस्त्री की दुकान के आगे से निकल रहे थे. वो ऐ उतकी दुकान.लफत्तू ने इशारा किया लेकिन मेरी हिम्मत उस तरफ देखने की नहीं हुई. यह बहुत बड़ा ज़ोखिम था जिसमें हमारे कारनामे के सार्वजनिक हो जाने की प्रबल संभावना थी.

गाड़ी मिस्त्री की दुकान से बीस तीस कदम चलने के बाद ही मैं अपनी निगाह ऊपर कर पाया. तब तक हमारी मंजिले-मकसूद भी आ पहुंची थी. हिमालय टॉकीज़ सड़क से सटा हुआ था. उसके प्रवेशद्वार से लगा कर खड़े किए गए एक ठेलानुमा खोखे में रामनगर का मशहूर बम पकौड़ा मिलता था. इस ठेले का संचालन एक कलूटा और गंजा बौना किया करता था. जब वह अपने ठेले पर नहीं होता था, उसे उसकी साइकिल पर सारे शहर का चक्कर लगाते देखा जाता था. बौना होने के बावजूद वह हमेशा बड़ों की साइकिल चलाया करता था. और इस तकनीकी दिक्कत के चलते वह साइकिल की गद्दी पर कभी बैठ ही नहीं पाता था. बाद के दिनों में उसने गद्दी हटवा ही दी थी. वह सामर्थ्य भर तेज़-तेज़ कैंची चलाया करता. कभी उसके कैरियर पर आलू की बोरी लदी होती उसी के जैसे उसके दो बच्चे बैठे होते.

क्रिकेट की बॉल जितना होता था बौने का बम पकौड़ा. दुनिया का सबसे लज़ीज़ व्यंजन बनाने वाला बौना एक दूसरा बिजनेस भी चलाता था. उसके ठेले से लगा हुआ था हिमालय टॉकीज़ का प्रवेशद्वार. लकड़ी का वह चौड़ा गेट जमीन पर पहुंचने के करीब एक इंच पहले ख़त्म हो जाता था. नतीज़तन फ़र्श और गेट के बीच एक झिरी सी थी. यह झिरी बहुत स्ट्रेटेजिक लोकेशन पर थी. यदि अपना गाल फर्श पर लगाए श्रमपूर्वक उस पर आंख लगाई जाती तो भीतर हॉल का पूरा पर्दा नजर आ जाता था. बौना स्कूल गोल करके आए बच्चों और स्कूल न जाने वाले पिक्चरप्रेमी बच्चों को पांच पैसा प्रति पन्द्रह मिनट के हिसाब से झिरी पर आंख लगाए पिक्चर देखने देता था. एक बार में पांच बच्चे बकौल लफत्तू इस लुफ्त का मजा लूट सकते थे. दर्शक को पन्द्रह पैसे का एक बमपकौड़ा भी खरीदना होता था.

बच्चों में यह बात मशहूर थी कि बौना इस तरह का सफल बिजनेस चलाने के कारण लखपति बन चुका था यानी उसके पास हमारे पिताओं से ज्यादा प्रापर्टी थी. लोग कहते थे पीरूमदारा में उसका एक बहुत बड़ा मकान था. लेकिन बौने के गंदे - संदे बच्चों की बहती नाक और खुद बौने की भूरी पड़ चुकी छींट की धोती और खद्दर के फटे कुरते को देख कर इस बात पर मुझे कभी कभी शक होता था.

हम दोनों ने दो-दो बमपकौड़े टिकाये और तनिक दिलचस्पी से झिरी पर आंख लगाए एक बच्चे को देखा. शाम का शो चल रहा था और इस शो में बौने का साइड बिजनेस मद्दा पड़ जाता था. लफत्तू ने मुझे पिक्चर देखने का आमंत्रण दिया. हिन्दुस्तान की कसमलगी हुई थी.

जब मैं शाम को घर पहुंचा तो मेरी सफेद कमीज बुरी तरह भूरी पड़ चुकी थी. मां ने पूछा तो मैंने कहा कि मैं ऐसे ही गिर पड़ा था. उसके अगले पूरे हफ्ते तक मैं हर रोज़ गिरता रहा. एक दिन पिक्चर बदल गई. नया खेल लगा है बाबूजी. देख लो आप दोनों के लिए दो जगे छोड़ रखी हैं मैंने.बौना, चोट्टे लफत्तू को बहुत अमीर समझने लगा था और उसकी चमचागीरी करता हुआ उसे बाबूजी कहकर पुकारने लगा था.


इकत्तीस साल हो गए लेकिन हिन्दुस्तान की कसममैं आज तक पूरी नहीं देख पाया.

Friday, October 12, 2007

बागड़बिल्ले का टौंचा माने ...




रामनगर आने के बाद मुझे भाषा के विविध आयामों से परिचित होने का मौका भी मिला. मुझ से थोड़ा बड़े यानी करीब बारह-तेरह साल के लड़के गुल्ली डंडा और कंचे खेला करते थे. लफत्तू मेरी उमर का था लेकिन चोर होने के कारण ये बड़े लड़के उसे अपने साथ खेलने देते थे. उस का नया दोस्त होने के नाते मुझे खेलने को तो कम मिलता था लेकिन मैं उन के कर्मक्षेत्र के आसपास बिना गाली खाए बना रह सकता था. गुल्ली-डंडा खेलते वक़्त वे मुझे अक्सर पदाया करते थे लेकिन मैं उन के साथ हो पाने को एक उपलब्धि मानता था और ख़ुशी-ख़ुशी पदा करता था.

कभी-कभी (ख़ास तौर पर जब लफत्तू अपने पापा के बटुए से चोरी कर के आया होता था), ये लड़के घुच्ची खेलते थे. घुच्ची के खेल में कंचों के बदले पांच पैसे के सिक्कों का इस्तेमाल हुआ करता था. पांच पैसे में बहुत सारी चीज़े आ जाया करतीं. लफत्तू इस खेल में अक्सर हार जाता था क्योंकि उसका निशाना कमजोर था. वह आमतौर पर अठन्नी या एक रूपया चुरा के लाता था. बड़े नोट न चुराने के पीछे उसकी दलील यह होती थी कि उन्हें तुड़वाने में रिस्क होता है.

घुच्ची में पांच पैसे के सिक्के चाहिऐ होते थे जो वह आमतौर पर शेरदा की चाय की दुकान से या जब्बार कबाड़ी से चुराई गयी अठन्नी-चवन्नी तुड़ा कर ले आता था. एक बार वह पूरे पांच का नोट चुरा लाया था. वह मुझे अपने साथ लक्ष्मी बुक डिपो ले कर गया. वहाँ जा कर उसने मुझसे कहा कि मैं अपने लिए 'चम्पक' या 'नन्दन' खरीद लूँ. मुझे अपने साथ वह इसलिये लेकर गया था कि मुझे बकौल उसके होस्यार माना जाता था. और ऐसे बच्चों पर कोई शक नहीं करता.

कृतज्ञ होकर मैंने नन्दनखरीद ली. पांच का नोट मेरे हाथ से लेते हुए लक्ष्मी बुक डिपो वाले लाला ने एक नज़र मेरे उत्तेजना से लाल पड़ गए चेहरे पर डाली लेकिन कहा कुछ नहीं. फिर उसने मेरे पिताजी का हाल समाचार पूछा. गल्ले से पैसे निकालते हुए उस ने तनिक तिरस्कार के साथ लफत्तू की तरफ देखते हुए मुझी से पूछा :

इस लौंडे का भाई आया ना आया लौट के?”

सारा शहर जानता था कि लफत्तू का बड़ा भाई पेतू हाईस्कूल में तीसरी दफ़ा फेल हो जाने के बाद घर से भाग गया था.

अपने पैते काटो अंकलजी और काम कलोलफत्तू ने हिकारत और आत्मविश्वास का प्रदर्शन करते हुए अपनी आंखें फेर लीं.

ये आजकल के लौंडे …” कहते हुए लाला ने मेरे हाथ में पैसे थमाए. लफत्तू की हिम्मत पर मैं फिदा तो था ही अब उसका मुरीद बन गया.

हम देर शाम तक मटरगश्ती करते रहे थे. बादशाहों की तरह मौज करने के बावजूद दो का नोट बचा हुआ था. घर जाने से पहले घुच्ची के अड्डे पर सिक्कों की कमी का तकनीकी सवाल उठा. बदकिस्मती से उस दिन शेरदा की दुकान बन्द थी और जब्बार कबाड़ी भी कहीं गया हुआ था. मजबूर होकर लफत्तू साह जी की चक्की पर चला गया. साह जी ने लफत्तू को टूटे पैसे तो नहीं दिए उसके पापा को ज़रूर बता दिया. उस रात लफत्तू को उसके पापा ने नंगा कर के बैल्ट से थुरा था. तब से लफत्तू ने अठन्नी, चवन्नी या हद से हद एक का नोट की लिमिट बाँध ली. चक्की पर हुए हादसे के बाद नन्दनघर ले जाने की मेरी हिम्मत नहीं थी सो मैं उसे रास्ते में गिरा आया.

घुच्ची खेलने में बागड़बिल्ला के नाम से मशहूर एक आवारा लड़का उस्ताद था. उसकी एक आंख में कुछ डिफ़ेक्ट था और उसे गौर से देखने पर ऐसा लगता था कि पांच के सिक्के पर निशाना लगाने के वास्ते भगवान ने उसे रेडीमेड आंखों की जोड़ी बख्शी थी. उसकी छोटी आंख वाली पुतली का तो साइज़ भी पांच पैसे के सिक्के जैसा हो चुका था. बागड़बिल्ला नित नए-नए मुहाविरे बोला करता था. संभवत: वह स्वयं उनका निर्माण करता था क्योंकि इतने साल बीत जाने के बाद भी मैंने उसके बोले जुमले आज तक न किसी शहर में सुने हैं न ही किसी दूसरे के मुखारविन्द से. उसके मुहाविरों को मैं अक्सर पाखाने में या नहाते समय धीरे-धीरे बोला करता था. उस वक्त ऐसी झुरझुरी होती थी जैसी कई सालों बाद पहली बार सार्वजनिक रूप से एक बड़ी गाली देते हुए भी नहीं हुई.

निशाने को बागड़बिल्ला टौंचाकहा करता था. लेकिन टौंचे का असली ख़लीफ़ा तो हमारे शहर और जीवन से कई प्रकाशवर्ष दूर बम्बई में रहता था. जिस दिन कोई दूसरा लड़का जीत रहा होता था बागड़बिल्ला उसकी दाद देता हुआ भारतीय फिल्मों के एक चरित्र अभिनेता को रामनगर के इतिहास में स्वणार्क्षरों में अंकित करता अपना फेवरिट जुमला उछालता था : आज तो मदनपुरी के माफिक चल्लिया घनसियाम का टौंचा. 

रामनगर का टौंचा

एक शहर है रामनगर. जिला नैनीताल. राज्य  उत्तराखंड.

मुझे अपना शुरुआती लड़कपन इस महान शहर के सबसे महान मोहल्ले खताड़ी में काटने का सुअवसर प्राप्त हुआ था. पहली मोहब्बत भी मुझे इसी मोहल्ले में हुई थी.

करीब आठ नौ साल का था जब मेरे पिताजी का ट्रांसफर पहली दफा प्लेन्स में हुआ था. इस के पहले हम अल्मोड़ा रहते थे. इत्तेफ़ाक़ से पिताजी ने जो मकान किराए पर लिया था, वह रामनगर के भीतर बसने वाले दो मुल्कों के बॉर्डर पर था. आज़ाद भारत के हर सभ्य नगर की तरह रामनगर के भी अपने अपने हिंदुस्तान और पकिस्तान थे.

हमारे घर से करीब तीसेक मीटर दूर मस्जिद थी. सुबह से रात तक मस्जिद से पांच बार अजान आती थी. मैंने पहली बार जाना था कि मुसलमान भी कोई शब्द होता है और इसका मतलब इस तरह के लोगों से है जो सुबह से शाम तक गाय भैंस खाते रहते हैं और बहुत पलीत होते हैं . हर अज़ान के बाद मुझे माँ और पिताजी का भुनभुनाना याद है. नजदीक ही एक मंदिर से दिन भर लाउडस्पीकर पर मुकेश का गाया रामचरितमानस का घिसा हुआ रिकार्ड किसी मरियल गधे जैसा रेंकता रहता था.

हमारे घर के सामने एक बड़ा सा खाली मैदान था ... ना, रामनगर के भूगोल पर अभी नहीं.

मस्जिद के सामने सब्जी वालों की दूकानें थीं. हमारे घर की सब्ज़ी शरीफ़ की दुकान से आती थी. सब्जी लेने मेरी माँ जाती थी : उसके साथ अक्सर कोई पड़ोसन होती थी. वह जब भी सब्जी लेकर वापस आती थी, उसके पास मुसलियों के बारे में कहने को कुछ न कुछ नया ज़रूर होता था. ज़ाहिर है वह नया हमेशा मुसलमानों के भीतर छिपे शैतान के किसी अवगुण का बखान हुआ करता था.

मुझे मुसलमानों से बच कर रहने की तमाम हिदायतें मिली हुई थीं. मुसलमानों के बारे में मेरा सामान्य ज्ञान, रामनगर में बने मेरे पहले दोस्त लफत्तू की दी हुई सूचनाओं से हर रोज़ समृद्ध होता रहता था. लफत्तू तोतला था और एक नंबर का चोर. पढने में बेहद कमजोर लफत्तू को उसके घरवाले प्यार से बौड़म कह कर बुलाया करते थे. कभी कभी जब माँ को रसोई में ज़्यादा काम होता तो धनिया, पोदीना जैसी छोटी चीज़े लाने को मुझे जाना होता था. "सरीफ से कहना पैसे कल देंगे. और लफत्तू को ले जान साथ में." बुरादे की अंगीठी के सामने बैठी माँ जब मुझे हिदायत देती तो मेरे मन में एक अजीब सी हुड़क होती थी. डर भी लगता था.

मस्जिद से लगे पटरों पर बच्चा दूकानें होती थीं. "सफरी पांच की दो" "कटारी पांच की दो" ... की आवाजें लगाते बच्चे तमाम तरह की शरारतें करते रहते थे और बिजनेस भी.

उस दिन लफत्तू के साथ "मुछलमानों" के मोहल्ले में घुसते ही, हमेशा की तरह "ह्याँ आ बे हिंदू के" कह कर एक बच्चा दूकानदार ने हमें डराने की कोशिश की. लेकिन लफत्तू के साथ होने से मेरी हिम्मत नहीं टूटती थी और मैं उन लड़कों की तरफ देखता भी नहीं था. शरीफ़ अपनी दुकान से उन बच्चों पर दुनिया भर की लानतें भेजा करता था. पोदीने की गड्डी लिए लफत्तू और मैं वापस आ रहे थे जब मैंने एक पल को पटरे पर लगी दुकानों की तरफ आंख उठाई.

"हे भगवान" मेरे दिल का एक टुकड़ा जैसे तिड़क कर रह गया. छः सात साल की एक लड़की छोटे-छोटे कुल्हड़ो में खीर बेच रही थी - "खील ले लेयो, खील ले लेयो". और उस की आँखें मुझ पर लगी हुई थीं. मेरा सारा पेट जैसे फूल कर गले में अटक गया. मैं उस की सारी खीर खरीद लेना चाहता था लेकिन जेब में एक पैसा भी नहीं था. "खील खागा?" उस ने वहीं से मुझ से चिल्ला कर कहा. अमरूद, इमली बेच रहे बाक़ी बच्चों ने कुछ कहा होगा, लेकिन मैं पता नहीं किस तरह से हिम्मत करता हुआ उस के सामने खड़ा हो गया. "कित्ते की है?" मैंने पूछा. "तू हिंदू हैगा. तेरे लिए फिरी." उसने एक कुल्हड़ मेरी तरफ बढाया और फुसफुसा के बोली "सकीना हैगा मेरा नाम. सादी करेगा मुझसे?"

पता नहीं लफत्तू कब कैसे मुझे हाथ खींचता हुआ वापस घर लाया. खाना खाने के बहुत देर तक मुझे नींद नही आयी. " सादी करेगा मुझसे?" यही बार बार दिल में गूँज रहा था. सकीना की सूरत, उस के चमचमाते दांत, उसकी मुस्कान.

"जल्दी सोता क्यों नहीं!" मुझे माँ ने झिड़की लगाई.

माँ को क्या पता था मुझे सकीना से मोहब्बत हो गई थी. और मोहब्बत में नींद किसे आ सकती है.

कुछ ही दिन पहले 'बनवारी मधुवन' पिक्चर हॉल में पिताजी ने हमें एक पिक्चर दिखाई थी. पिक्चर के लास्ट में हीरोईन हीरा खा के खुदकशी कर लेती है. मरी हुई हीरोईन का हाथ थामे हीरो रोता हुआ बार बार कहता जाता है: "तुमने ऐसा क्यों किया मीना? क्यों किया ऐसा?"

मेरी नींद उड़ी हुई थी और पिक्चर का लास्ट सीन लगातार मेरे जेहन में घूम रहा था. मुझे पहली मोहब्बत हुई थी और मेरी कल्पना पागल हो गई थी. मेरे घर वालों ने सकीना से मेरी शादी से मना कर दिया है. "एक मुसलिये की बेटी को बहू बनाएगा तू...? पैदा होते ही मर क्यों नहीं गया..." ये सारे डायलाग बाकायदा भीतर गूँज रहे थे. फिर मैं खुदकशी कर लेता हूँ . माँ-बाप छाती पीट रहे हैं. ऐसे में सकीना की एंट्री होती है : "तुमने ऐसा क्यों किया ... क्यों किया ... अशोक ..." वह रोती जाती है. अब तक मैं बड़ी मुश्किल से रुलाई रोक पाया था. सकीना के विलाप के बाद मैं तकिये के नीचे सिर दबाये रोने लगा.

बत्ती बंद की जा चुकी थी. पिताजी एक बार मेरे सिरहाने तक आये. उन्होने मुझे पुकारा तो मैंने गहरी नींद का बहाना बना लिया.


"इतवार को सारे बच्चों को डाक्टर के पास कीड़ों की दवा खिलाने ले जाना पड़ेगा. प्लेन्स का पानी ठीक नही होता." पिताजी धीमी आवाज़ में माँ को बता रहे थे.