Thursday, October 16, 2008

लाल बैलबॉटम और सूकड़ू का ठूकड़ू

दिसम्बर-जनवरी के दिन थे. स्कूल में दोएक हफ़्ते की सर्दियों की छुट्टियां हुईं. पड़ोस में रहने वाली डिग्री कालेज में अंग्रेज़ी पढ़ाने वाली मैडम का, लाल बैलबॉटम पहनने वाला भाई नैनीताल से इस बार अपने साथ गिटार ले कर आया हुआ था. अपनी दूरबीन और चश्मेदार आंखों के कारण मैल्कम फ़्रेज़र वाले वाक़ये के बाद वह रोलमॉडल्स की मेरी अस्थाई सूची में ऊंची जगह बनाने में कामयाब हो चुका था. लफ़त्तू अलबत्ता उस से तकरीबन नफ़रत करता था और बातचीत में उसका नाम आते ही अपने गालीज्ञान का निर्बाध प्रदर्शन करने लगता था.

छुट्टियों के कारण लफ़त्तू व सत्तू द्वारा संचालित होने वाला घुच्ची आन्दोलन कुछ दिन ठंडा पड़ गया और हमारी छत बहुत समय बाद बंटू, लफ़त्तू, सत्तू और यदा-कदा फ़ुच्ची की संगत में क्रिकेट के लम्बे-लम्बे सैशनों से आबाद रहने लगी.

एक रात लाल बैलबाटम के घर बढ़िया भीड़ जुटी. डिग्री कालिज के मास्टरों से लेकर जंगलात के बड़े अफ़सर इस भीड़ का हिस्सा थे. यह बेहद संभ्रान्त आयोजन था जिसमें किसी भी पड़ोसी को नहीं बुलाया गया. अगले रोज़ पता चला कि अंग्रेज़ी मैडम के यहां नये साल की पाल्टी हुई. अंग्रेज़ी गानों के रेकॉर्ड बजे, केक खाया गया और शराब तक पी गई. हां अंग्रेज़ी मैडम ने भी पी.

पाल्टी में भाग ले चुके भाग्यशाली लोगों के साथ जिस किसी का भी कैसा ही कोई संबंध था, वह अपने अपने आत्मविश्वास के हिसाब से इस बात को जल्दी-जल्दी समूचे रामनगर में फैला देना चाहता था कि शहर तरक्की की राह पर है. होली-दीवाली तक ठीक से न मना पाने वाले लोगों से आबाद रामनगर में दारू पी रही एक स्त्री की उपस्थिति में गमगमाए किसी घर से गिटार पर "हैप्पी न्यू ईयर" की आवाज़ के आने के मतलब को परम्परावादी, आधुनिकतावादी और उत्तर आधुनिकतावादी - तमाम कोणों से परखे जाने का सिलसिला चल निकला.

इस के बाद लफ़त्तू के मन में लाल बैलबाटम के लिए हिकारत और बढ़ गई, हालांकि मैं अब भी उस से ख़ासा इम्प्रेस्ड था. लाल बैलबाटम के अपनी छत पर गिटार पर झमझम करता रहता और अदा के तौर पर नाक तक बह आए चश्मे को अपनी सबसे छोटी उंगली से ऊपर करता. लफ़त्तू ने उन दिनों अपनी चाल में इस फ़ैशनेबल संगीतकार लौंडे की पैरोडी जोड़ ली थी और हमें देखते ही वह दाएं हाथ के अंगूठे और पहली उंगली को जोड़कर दूसरी बांह को सीधा कर उसे हवाई गिटार बना कर बजाता हुआ "झांय झप्पा, झांय झप्पा ... हब्बा हब्बा हब्बा हब्बा ..." गाना चालू कर देता. हम हंसते हंसते दोहरे हो जाते जब वह चश्मा ऊपर खिसकाने की एक्टिंग करता और आंख मार के कहता "हैप्पी नूई".

हम क्रिकेट खेल रहे थे जब एक दिन लाल बैलबाटम हमारी छत पर जाने कहां से अवतरित हो गया. उसने "हैलो" कहा और अपनी नाकें पोंछते हुए, हकबकाए हुए हम पहले एक दूसरे को फिर उसके गिटार को देखने लगे.

"मैं आप लोगों का खेल डिस्टर्ब नहीं करूंगा. दीदी की छत पर कुछ काम चल रहा है. मैं इतनी आवाज़ में वहां प्रैक्टिस नहीं कर सकता - अगले हफ़्ते मेरा म्यूज़िक का एग्ज़ाम है. आप खेलते रहिए, मैं एक कोने पर प्रैक्टिस करता रहूंगा."

"इत ते कै दो धाबू की थत पे कल्ले जो कन्ना ऐ." अम्पायर लफ़त्तू ने कर्री आवाज़ में आदेश जारी किया.

लाल बैलबाटम को ढाबू की छत का रास्ता दिखा दिया गया. हम से दो-चार साल बड़ा यह नैनीताली-लौंडा उतना ख़राब नहीं लगा मुझे जितना उसके बारे में अफ़वाहें उड़ाई जा चुकी थीं. मुझे अचरज हुआ कि बाजे वगैरह की कोई परीक्षा वगैरह भी होती है.

क़रीब तीन मिनट तक पड़े इस व्यवधान के दौरान केवल लफ़त्तू ही अपना कॉन्फ़ीडेन्स बचाए रख सका था. लाल बैलबाटम की संभ्रान्तता ने हमारी हवा निकाल दी थी. उसका चमचमाता गिटार, पीतल की चेन लगी तीस इंची मोहरी वाली लाल बैलबाटम हमारे तसव्वुर से कहीं आगे की चीज़ें थीं.

"अब तलो बेते! इश्टाट!" कहते हुए खीझे-भुनभुनाए लफ़त्तू ने खेल शुरू कराया. पर खेल में मन किसका लगना था.

"रुक ना एक मिनट! भइया का गिटार देख!" यह बहुत कम बोलने वाला बन्टू था जिसकी पूरे रामनगर में साख केवल इस वजह से थी कि उसके पापा मोटरसाइकिल चलाते थे और गरमियों में बाकायदा काला चश्मा पहन कर निकलते थे.

लफ़त्तू ने संभवतः अपमानित महसूस किया और मुझ से बोला: "बन्तू आउत! अब तेली बाली!"

मैंने बैट सम्हाला पर बॉलिंग कौन करता. बन्टू ढाबू की छत पर पहुंच कर अपने नए-नए बने भइया को देखता मंत्रमुग्ध खड़ा था.

एक नाटकीय फ़ैसला लेते हुए लफ़त्तू ने कहा: "तू खेल, मेली बौलिंग"

मुझे याद नहीं उस से पहले लफ़त्तू ने कभी खेल में हिस्सा लिया हो.

"तू दलना मत बेते, फ़ात्त नईं कलूंगा. इछपिन कलाऊंगा."

लफ़त्तू ने बहुत अदाएं झाड़ते हुए रबड़ की गेंद पर थूक लगाया, फ़िर उसे हवा में चूमा और "दै माता दी" कहते हुए रन अप चालू किया. ज़िगज़ैग लय में हौले हौले चलता हुआ वह पूरी मस्ती में गाता हुआ मेरी तरफ़ बढ़ रहा था: "बेल बातम ... बेल बातम ... भेल फ़ातम ... भेल फ़ातम ... "

" ... ल्ल्ले बेते! " कहकर उसने गेंद फेंकी और जो मेरे बैट से टकरा कर लप्पा कैच बनकर हवा में ऊंची उठी.

उधर लाल बैलबाटम का झांय झप्पा चालू था और इधर कैच लेने को नाचने की मुद्रा में बढ़ते लफ़त्तू की नवीन ज़िगज़ैग कविता: "बेल बातम ... बेल बातम ... भेल फ़ातम ... भेल फ़ातम ... "

"आउत है इम्पायल!" कहकर उसने अनुपस्थित अम्पायर की तरफ़ अपील की, ख़ुद ही वापस बॉलिंग-एन्ड पर जाकर अम्पायर बना और उंगली उठाकर आउट दे दिया.

"देखी मेली इछपिन! तल दुबाला खेल्ले बेते! आज तू पिड्डू पे पिड्डू ले ले!"

कमज़ोर खिलाड़ी के आउट हो जाने के बाद तक़रीबन भीख में दिया जाने वाला एक एक्स्ट्रा चान्स पिड्डू कहलाया जाता था.

लफ़त्तू की अनखेलेबल स्पिन, और ज़िगज़ैग कविता और लाल बैलबाटम की झांयझप्पा की वजह से मेरा मन उखड़ सा गया और मैं कुछ बहाना बना कर नीचे घर चला गया. पांच मिनट बाद छत पर पहुंचा तो लफ़त्तू और बैलबाटम वाकयुद्ध में लीन थे. घबराया बन्टू वाक़ई घबराया हुआ दिख रहा था.

मसला यूं हुआ था कि मेरी अनुपस्थिति में लफ़त्तू की "बेल बातम ... बेल बातम ... भेल फ़ातम ... भेल फ़ातम ... " परफ़ॉर्मेन्स अपने क्रिसेन्डो पर पहुंचने के बाद बैलबाटम की समझ में आ सकी कि यह दो कौड़ी का गंवार छोकरा उसकी मज़ाक उड़ा रहा है.

"मुदे पागल छमल्लिया तू! तू झांय झप्पा कल्लिया था तो मैंने कुत कई तुत्ते? मेला गाना ऐ, मुदे लोकने वाला तू कौन होता ऐ! तूतियम छल्फ़ेत! ... बी यो ओ ओ ओ ... ई"

लफ़त्तू ने मुझे देखकर बढ़े हुए हौसले के साथ नाचना चालू कर दिया: "बेल बातम ... बेल बातम ... भेल फ़ातम ... भेल फ़ातम ... "

यह शिर्क था, ब्लास्फ़ेमी थी, घोर पाप था. लाल बैलबाटम बोला: "ईडियट्स!" और गिटार को खोल में डालने लगा.

"ईदियत कितको बोल्लिया बे? इंग्लिछ मुदे बी आती ऐ! मैं ईदियत तो तू बिलैदी बाछ्केत! ..."

'इन कुत्तों के मुंह कौन लगे' की मुद्रा बना कर नैनीताल का हीरो जाने लगा तो लफ़त्तू ज़ोर से बोला: "लाल मूंग की तातली खागा बे, ... बिलैदी हुत्त!"

लफ़त्तू के पापा यदा-कदा अंग्रेज़ी में उसे 'ब्लेडी बास्केट' और 'ब्लेडी हुस्स' कह कर गरियाते थे. विरासत में अर्जित उसी ज्ञान की बदौलत आज उसने हमारी लाज बचाई. हमें शिकायत किये जाने की सूरत में घरवालों द्वारा मारे-पीटे जाने का थोड़ा सा ख़ौफ़ हुआ पर लाल बैलबाटम उस के बाद रामनगर कभी नज़र नहीं आया.

बहुत समय नहीं बीता था जब अंग्रेज़ी मैडम की नूई पार्टी के बाद संभवतः पड़ोस के असंतुष्टों की मांग पर लफ़त्तू के पापा ने अपने घर पर गीतों की संध्या जैसा कोई आयोजन रखा. इस में मेरे घर से मेरे पापा और मैंने शिरकत की.

लफ़त्तू लोगों के बाहर वाले कमरे के सारे कुर्सी मेज़ बाहर सड़क पर रख दिए गए थे और गद्दों दरियों पर महफ़िल जमी थी. जब हम ने प्रवेश किया तो संध्या शुरू हो गई थी. हारमोनियम की पेंपें और तबले की भद्दभद्द के ऊपर एक अंकल जी "जै मां सारदे" गा रहे थे.

लफ़त्तू ने मुझे अन्दर बुला लिया और परदे से लगा कर रखे एक स्टूल पर अपने साथ बिठा लिया. भीतर रसोई में औरतें और बरतन खटपट कर रहे थे. पके हुए भोजन की ख़ुशबू तैर रही थी. लफ़त्तू के पापा के दफ़्तर में काम करने वाले चन्दू भईया नामक चपरासी विशेष ड्यूटी में लगाए गए थे और वे बड़ों के कमरों में कांच के गिलास, पकौड़ी इत्यादि की सप्लाई में मुब्तिला थे.

पेंपें और भद्दभद्द के ऊपर उठने की कोशिश में लगे गायन के बोल समझ में नहीं आ रहे थे क्योंकि भीतर हर कोई कुछ बोल रहा था. अचानक सब चुप हो गए और लफ़त्तू के पिता ने अपनी जगह से अधलेटे कहा: "अरे आइये आइये मास्साब आइए!"
मुर्गादत्त मास्टर भीतर आ गए. उनके साथ दो लोग थे. एक सारस जैसे दीखता था दूसरा गोबर के निर्विकार-निर्लिप्त ढेर सा.

अचानक मुझे लगा कि लफ़त्तू के पापा भी बहुत बड़े आदमी हैं. मुर्गादत्त मास्साब का इतना ख़ौफ़ था कि मुझे लगता था वे सोते हुए भी संटी बगल में रखे रहते होंगे. पर यहां तो वे कुर्ता पाजामा पहन कर आए थे और चन्दू भैया द्वारा प्रस्तुत किए गए पदार्थ को स्वीकार भी कर ले रहे थे.

पेंपें और भद्दभद्द कुछ देर ठहर गई. मास्साब का स्टाइल था तो देसी पर भीषण पहाड़ी एक्सेन्ट में रंगा. मुर्गादत्त मास्साब ने अपने साथी सारस का परिचय कराया: "आप पंडित रामलायक निर्जन जी" और "आप" इस बार गोबरश्रेष्ठ का तआर्रुफ़ हो रहा था "डाक्साब. अभी तबादला हो के आए हैं पसू अस्पताल में सिरीनगर से. पंडिज्जी प्रिंसीपल साब की बुआ के ममेरे भाई के साले हैं. अरे अपने छोटे भाई हैं साब. छुट्टी के बाद यहां अपने कालिज में बच्चों को संस्कृत सिखलावेंगे. बड़े महात्मा आदमी हैं. आप के सौभाग्य जो पंडिज्जी आपके यहां आए. पंडिज्जी गाने भतेरे जानते हैं और सायरी बनाते हैं जभी तो उपनाम धरा है निर्जन."

अपने ऊपर पढ़े जा रहे क़सीदे को सुनते ही पंडित रामलायक निर्जन के चेहरे पर वाक़ई निर्जनता छा गई. उन्होंने एक घूंट में गिलास समझा और अपने को निर्जन वन में पहुंचा लिया.

आधे मिनट के बीतते न बीतते नाकदार, स्त्रैण आवाज़ में वे चालू थे: "मेरी जिन्नगानी पे तेरी याद का साया है पिरतमा!"

उनके पिरतमा कहने में कुछ था कि कई लोगों की हल्की हंसी छूट जा रही थी पर निर्जन वन में बैठे नायिका की याद के मारे पंडिज्जी हर किसी से बेज़ार थे. उन्होंने ठीक आधे घन्टे तक श्रोताओं की खाल में भुस भरा, पांच बार चन्दूपेय को उदरस्थ किया और इकत्तीसवें मिनट में "वाक वाक" करते कमरे के बाहर नाली-वाक पर निकल लिए.

गोबर डाक्टर जिस अनौपचारिक तरीके से भीतर के कमरों में आ-जा रहे थे, मुझे समझने में देर नहीं लगी कि वे लफ़त्तू लोगों के वही पूर्वपरिचित हैं जिनके तबादले के बारे में वह मुझे कुछ रोज़ पहले बता रहा था.

इसी अफ़रातफ़री में खाना लगा दिया गया. पिताजी घर से बुलावा आने पर जा चुके थे और मुझे देर होने की स्थिति में लफ़त्तू के साथ वहीं सो जाने को कहा गया था. हमारे पड़ोस के वैद्यजी भी नशे में आ चुके थे और "अहम लम्बामि! अहम लम्बामि!" कहते हुए लफ़त्तू के ऑलरेडी लधरे पापा पर लधरे जा रहे थे.

हारमोनियम मुर्गादत्त मास्साब ने थाम लिया था और वे रामलीला का "तेरा अभिमान सब जाता रहेगा ओ रावण! नए दुख रोज़ तू पाता रहेगा!" वाला विभीषण का डायलाग गाने लगे थे.

वैद्यजी अब हाल में आ गए थे. और खड़े हो कर झूमते हुए नाचने लगे थे. उनकी आंखों से आंसू गिर रहे थे. गाना ख़त्म होते ही उन्होंने एक बार हकबका कर मुर्गादत्त मास्साब को देखा फिर लफ़त्तू के पापा को. जैसे उन्हें कुछ याद आया और वे "अहम लम्बामि! अहम लम्बामि!" कहते हुए प्री-डायलाग स्थिति में लधर गए.

यह सब बहुत देर चलता रहा. पसू अस्पताल के डाक्साब के इसरार पर अन्ततः मुर्गादत्त मास्साब वापस घर जाने को तैयार हुए.

"चलो बच्चो! चलो गमलू! चलो कुच्चू! "

गमलू और कुच्चू हमारी उमर की दो बेहद सुन्दर जुड़वां बच्चियां निकलीं . दोनों ने गुलाबी स्कर्ट पहना हुआ था जिन पर गुड़िया बनी हुई थीं. "पापू, थक गया मैं!" कह कर उनमें से एक गोबर डाक्टर के पैरों से लिपट गई.

यह मेरी दूसरी मौत थी सकीना के बाद!

बहुत बाद में खाना खा चुकने के बाद, लफ़त्तू के पापा के इसरार पर चन्दू भइया ने हारमोनियम सम्हाल कर जब एक सायरी गाना शुरू किया तो मुझे उनकी आवाज़ में गाए जा रहे "सूकड़ू होता है इन्सा ठूकड़े खाने के बाद" सुनते हुए एक एपोकैलिप्टिक आवेग में अगले एक खरब युगों तक का अपना मुस्तकबिल ठूकड़ें खाते हुए सूकड़ू बनने की जद्दोजहद में फंसा दिख गया.

यह अलग बात है कि अगले कई सालों तक गमलू के चक्कर में लफ़त्तू द्वारा खाई गई ठूकड़ों का हिसाब आज भी किसी के पास नहीं है.

Wednesday, September 17, 2008

बास्पीकरण और तत्तान के पीते थुपा धलमेन्दल

हैलन का डान्स देखने और बमपकौड़े का लुफ़्त उठाने के ऐवज में गोलू और लफ़त्तू की बच्चा पीठों को गोलू के इंग्लिछ मात्तर पापा उर्फ़ टोड मास्साब के बेशुमार सन्टी-प्रहार झेलने पड़े थे. इस सनसनीख़ेज़ घटना के उपरान्त कई दिनों तक कनिष्ठ व वरिष्ठ टोडद्वय स्कूल नहीं आए. इस बाबत लगातार फैलाई जा रही अफ़वाहों का बोगदा फूलता ही गया, हालांकि वस्तुस्थिति की ऑथेन्टिक जानकारी किसी को नहीं थी.

अंग्रेज़ी की कक्षाएं बन्द हो गई थीं और उस पीरियड में सीनियर बच्चों को पढ़ाने वाले एक बहुत बूढ़े मास्साब अरेन्जमेन्ट के बतौर तशरीफ़ लाया करने लगे. वे बहु्त शरीफ़ और मीठे थे. वे एक प्रागैतिहासिक चश्मा पहनते जिसकी एक डण्डी थी ही नहीं. डण्डी के बदले वे एक सुतलीनुमा मोटा धागा बांधे रहते थे जो उनके एक कान के ऊपर से होकर खोपड़ी के पीछे से होता हुआ दूसरे कान पर सुसज्जित डण्डी के छोर पर किसी जुगाड़ से फंसाया जाता था. चश्मे के शीशे बहुत मोटे होते थे और लगता था कि शेरसिंह की दुकान वाले चाय के गिलासों की पेंदियों को लेन्स का काम करने हेतु फ़िट किया गया हो. उनके पास 'गंगाजी का बखान' नामक एक कल्याणनुमा किताब हमेशा रहती थी. किताब के लेखक का नाम गंगाप्रसाद 'गंगापुत्र' अंकित था. वे उसी को सस्वर पढ़ते और भावातिरेक में आने पर अजीब सी आवाज़ें निकाल कर गाने लगते.

यह रहस्य कोई एक हफ़्ते बाद लालसिंह के सौजन्य से हम पर उजागर हुआ कि गंगाप्रसाद 'गंगापुत्र' कोई और नहीं स्वयं यही बूढ़े मास्साब हैं. मास्साब का शहर में यूं भी जलवा था कि 'गंगोत्री चिकित्सालय' नाम से वे एक आयुर्वेदिक, यूनानी दवाख़ाना चलाते थे. गंगाप्रसाद 'गंगापुत्र' आकंठ गंगाग्रस्त थे और हर पीरियड में अपने महाग्रंथ से हमारी ऐसीतैसी किया करते. वे थोड़ा सा तुतलाते थे और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी में लिखी अपनी ऋचाओं को सुनाने के उपरान्त उनकी संदर्भरहित व्याख्या किया करते: "कवि कैता है कि प्याली गंगे, मैं तो तेरा बच्चा हूं! और गंगामाता कवि से कैती है कि मेरे बच्चे मैं तो तेरी मां हूं! फिर कवि कैता है कि प्याली गंगे, हमने तुज पे कित्ते अत्याचार किए ..."

एक साइड से लफ़त्तू की दबी सी आवाज़ आती: "जित का बत्ता इत्ता बुड्डा है वो गंगा कित्ती बुड्डी होगी बेते! दला पूतो तो प्याली मात्तर ते!" गंगाप्रसाद 'गंगापुत्र' के कानों पर जूं भी नहीं रेंगती और उनका प्याली गंगे पुराण रेंगता जाता. लालसिंह ने यह भी बाद में बताया कि मास्साब को दिखाई भी बहुत कम देता है और सुनाई भी. लफ़त्तू ने गंगाप्रसाद 'गंगापुत्र' का नामकरण 'प्याली मात्तर' कर दिया था और यह नाम सीनियर्स तक में चर्चा का और जूनियर्स में लफ़त्तूकेन्द्रित ईर्ष्या का विषय बन गया.

इधर कुछ व्यक्तिगत कारणों से दुर्गादत्त मास्साब लम्बे अवकाश पर चले गए थे और टोड मास्साब की क्लास के तुरन्त बाद पड़ने वाले उनके वाले पीरियड में भी यदा-कदा प्याली मात्तर हमारी क्रूरतापूर्ण हर-हर गंगे किया करते थे. लफ़त्तू लगातार बोलता रहता था और पिक्चरों की कहानी सुनाना सीख चुकने के अपने नवीन टेलेंट पर हाथ साफ़ किया करता: "... उत के बाद बेते, हौलीतौप्तल छे धलमेन्दल भाल आया और उतने अदीत छे का - तुम थब को तालों तलप छे पुलित ने घेल लिया ऐ, अपनी पित्तौल नीते गेल दो. ... उतके बाद बेते अदीत एक तत्तान के पीते थुप के धलमेन्दल छे कैता है - मुदे मालने ते पैले अपनी अम्मा की लाछ ले दा इन्पैत्तल! ... धलमेन्दल कैता है कुत्ते थाले, मैं तेला खून पी दाऊंगा ... "

एक तरफ़ से तोतली हर-हर गंगे, दूसरी तरफ़ से धरमेन्दर और अजीत के क्लाइमैक्स वाले तोतले ही डायलॉग्स और बाकी दिशाओं से स्याही में डूबी नन्ही गेंदों का फेंका जाना - यह नित्य बन गया दृश्य जब एक दिन हमारी कक्षा के पास से टहलते जा रहे प्रिंसीपल साहब ने देखा तो वे पीतल के मूठवाली अपनी आभिजात्यपूर्ण संटी लेकर हम पर पिल पड़े. जब तीन चार बच्चों ने दहाड़ें मार-मार कर रोना चालू किया, तब जाकर प्याली मात्तर ने गंगपुराण बन्द किया और आंखें उठाकर नवागंतुक प्रिंसीपल साहब की आकृति को श्रमपूर्वक पहचाना. कुछ औपचारिक बातचीत के बाद दोनों गुरुवर कुछ गहन विचार विमर्श करते हुए कक्षा के बाहर दरवाज़े पर खड़े हो गए. इतने में प्रिंसीपल साहब के मामा यानी मुर्गादत्त मास्साब उर्फ़ परसुराम वहां से पान चबाते निकले. क्लास के बाहर खड़े प्रिंसीपल साहब और प्याली मात्तर को वार्तालापमग्न देख उन्होंने पीक थूकी और उक्त सम्मेलन में भागीदार बनने की नीयत से उस तरफ़ आने लगे.

दरवाज़े पर मुर्गादत्त मास्साब ने "प्रणाम कक्का" कहते हुए प्याली मात्तर के पैर इस शैली में छुए मानो उनकी जेब काट रहे हों या होली के टाइम किया जाने वाला आकस्मिक मज़ाक कर रहे हों. प्रिंसीपल साहब की तरफ़ उन्होंने एक बार को भी नहीं देखा और आधे मिनट से कम समय में सारी बात समझ कर प्रिंसीपल साहब के हाथ से संटी छीनी और "अभी देखिये कक्का" कहते हुए हम पर दुबारा हाथ साफ़ किया. "अपनी मां-भैंनो से पूछना हरामज़ादो मैं तुम्हारे साथ क्या-क्या कर सकूं हूं. और खबरदार जो साला एक भी भूतनी का रोया तो!" एक हाथ से संटी को मेज पर पटकते और दुसरे से अपने देबानन-स्टाइल केशझब्ब को सम्हालते उन्होंने इतनी तेज़ आवाज़ निकाली कि अगल-बगल की सारी क्लासों के अध्यापक बाहर आकर कक्षा छः (अ) की दिशा में ताकीकरण-कर्म में तल्लीन तथा व्यस्त हो गए.

घन्टा बजने के बाद मास्टरों के तिगड्डे के लिए हम जैसे मर गए. वे ख़रामा-ख़रामा मुर्गादत्त मास्साब का अनुसरण करते किसी दिशा में निकल पड़े. "छाला हलामी लाजेस्खन्ना का बाप!" औरों को बचाने के चक्कर में अपने पृष्ठक्षेत्र पर असंख्य संटियां खा चुके लफ़त्तू ने ज़मीन पर थूका. "इत्ते तो दुल्गादत्त मात्तर छई है याल!"

लफ़त्तू की दुआ सुनी गई और अगले रोज़ प्याली-गंगे की चाट का ठेला उठते ही अपने पुरातन धूल खाए कोट और हाथों मे सतत विराजमान कर्नल रंजीत समेत दुर्गादत्त मास्साब सशरीर उपस्थित थे.

"टेस्टूपें कल ले आबें सारे बच्चे! और दस-दस पैसे भी!" अटैन्डेन्स से उपरान्त यह कहकर वे उपन्यास पढ़ने ही वाले थे कि उन्हें पता नहीं क्या सूझा. उन्होंने उपन्यास जेब के हवाले किया और कुर्सी पर लधर गए. "मैं मुर्दाबाद गया था बच्चो! मुर्दाबाद भौत बड़ा सहर है. और हमाये रामनगर जैसे, आप समल्लें, सौ सहर आ जावेंगे उस में."

मुरादाबाद में दुर्गादत्त मास्साब की ससुराल थी जहां उनके ससुर दरोगा थे. इतनी सी बात बताने में उन्होंने बहुत ज़्यादा फ़ुटेज खाई और हमें छोटे क़स्बे का निवासी होने के अपराधभाव से लबरेज़ कर दिया. आख़िर में उन्होंने एक क़िस्सा सुनाया: "परसों मैं और मेरा साला जंगल कू गए सिकार पे. और सिकार पे क्या देखा तीन बब्बर सेर रस्ता घेरे खड़े हैं. जब तक कुछ समजते तो देखा कि दो बब्बर सेर पीछे से गुर्राने लगे. हमाये साले साब तो, आप समल्लें, व्हंई पे बेहोस हो गए. मैंने सोची कि दुर्गा आत्तो तेरी मौत हो गई. मुझे तुम सब बच्चों की याद भी आई. मैंने सोची अगर मैं मर गया तो तुमें बिग्यान कौन पढ़ाएगा. और टेस्टूपें भी बेकार जावेंगी. मैंने दो कदम आगे बढ़ाए तो सबसे बड़ा सेर बोला: 'मास्साब आप जाओ! हम तो सुल्ताना डाकू का रस्ता देख रये हैं.' अब मेरी जान में जान आई मगर साले साब तो बेहोस पड़े थे. तब उसी बड़े सेर ने हमाये पीछे खड़े एक सेर से कई कि साले साब को अपनी पीठ पे बिठा के जंगल के कोने तक छोड़िआवे. तो आप समल्लें कि जंगल का छोर आने को था कि साले साब को होस आ गया. मेरे पीछे सेर ऐसे चलै था जैसे कोई पालतू कुत्ता होवे. साले साब की घिग्घी बंध गई जब उन्ने खुद को सेर की पीठ पे देखा. ..."

क़िस्सा ख़त्म होते न होते घण्टा बजा और मास्साब ने हमें बताया कि कैसे साले साहब की जान बचाने की वजह वे से मुरादाबाद में रामनगर का झंडा फ़हरा कर लौटे हैं. सारे बच्चे नकली ठहाके लगा कर ताली पीटने लगे. उनका क़िस्सा कोरी गप्प था पर दुर्गादत्त मास्साब जैसे ज़ालिमसिंह के मुंह से उसे सुनना ख़ुशनुमा था. इस पूरे पीरियड में लफ़त्तू मास्साब के नए जुमले "आप समल्लें" को पकड़ने वाला पहला बच्चा था: "आप छमल्लें मात्ताब छमज लये हम थब तूतियम छल्फ़ेत हैं."

तूतियम छल्फ़ेत यानी चूतियम सल्फ़ेट हमारे जीवन में अग्रजों के रास्ते पहुंची पहली कैमिकल गाली थी. अगले ही दिन पता चला कि दुर्गादत्त मास्साब भी इस गाली के दीवाने थे.

अगले दिन अटैन्डेन्स दुर्गादत्त मास्साब ने ली. इस दौरान लालसिंह ने सारे बच्चों से दस-दस के सिक्के इकठ्ठे किये और बन्सल मास्साब की दुकान से जल्दी जल्दी दो थैलियां ले कर वापस लौटा. एक थैली में चीनी थी और दूसरी में नमक.

मास्साब के पीछे-पीछे हम सब क़तार बना कर परखनलियों की अपनी-अपनी जोड़ियां लेकर परजोगसाला की तरफ़ रवाना हुए. परजोगसाला-सहायक चेतराम ने मास्साब को नमस्ते की और हिकारत से हमें देखा. हलवाई के उपकरणों, भूतपूर्व बारूदा-बीकरों वाली मेज़ों और कंकाल वाली अल्मारियों के आगे एक बड़ा दरवाज़ा था. इसी के अन्दर थी परजोगसाला की रसायनविज्ञान-इकाई. विचित्रतम गंधों से भरपूर इस कमरे में तमाम शीशियों में पीले, हरे, नीले, लाल, बैंगनी द्रव भरे हुए थे. बीकर और कांच के अन्य उपकरणों की उपस्थिति में वह सचमुच साइंस सीखने वाली जगह लग रही थी.

तनिक ऊंचे एक प्लेटफ़ॉर्म पर मास्साब खड़े हुए. लालसिंह के हाथ से चीनी-नमक लेकर उसे चेतराम को थमा कर मास्साब ने गला खंखार कर कहना शुरू किया: "बच्चो, आज से हम बास्पीकरण सीखेंगे. चाय बनाते हुए जब पानी गरम किया जावे है तो उसमें से भाप लिकलती है. इसी भाप को साइंस में बास्प कहा जावे है. और अंग्रेज़ी में आप समल्लें इस का नाम इश्टीम होता है. चाय की गरम पानी को कटोरी से ढंक दिया जावै तो भाप बाहर नईं आ सकती और कटोरी गीली हो जा है. और जो चीज़ गीली होवै उसे द्रब कया जावे. द्रब से भाप बने तो बिग्यान में उसे बास्पीकरण कैते हैं और जब भाप से द्रब बने तो द्रबीकरण. आज हम परजोग करेंगे बास्पीकरण का."

चेतराम चीनी और नमक को अलग-अलग ढक्कन कटे गैलनों में पानी में घोल चुका था और मास्साब को देख रहा था. "अब सारे बच्चे अपनी टेस्टूपों में अलग - अलग नमक और चीनी का घोला ले लेवें और चेतराम जी से सामान इसू करा लें."

चेतराम ने हर बच्चे को परखनली पकड़ने वाला एक चिमटा और एक स्पिरिट-लैम्प इसू किया. हमने इन उपकरणों की मदद से दोनों परखनलियों के घोले को सुखाना था. यह कार्य बहुत जल्दी-जल्दी किया गया. स्पिरिट लैम्प की नीली लौ पर टेस्टूप में खदबदाते पानी को देखना मंत्रमुग्ध कर लेने वाला था. मास्साब बता चुके थे कि परजोग की कक्षा दो पीरियड्स तक चलनी थी. लफ़त्तू जैसा बेचैन शख़्स तक मन लगा कर परखनली पर निगाहें टिकाए था.

कुछ देर बाद सारा पानी सूख गया और परखनलियों के पेंदों में बर्फ़ जैसी सफ़ेद तलछट बची. यह नमक और चीनी था जिसे हमने बरास्ता बास्पीकरण नमक और चीनी से ही बनाया था. दूसरा घन्टा बजने में बहुत देर थी और स्पिरिट लैम्पों के साथ कुछ और करने की इच्छा बहुत बलवती हो रही थी. लफ़त्तू ने यहां भी अवांगार्द का काम किया और रंगीन शीशियों से दो एक द्रब निकालकर परखनली में गरम करना शुरू किया. लफ़त्तू की देखादेखी एक-एक कर सारे बच्चों ने अलग - अलग रसायन-निर्माण का प्रोजेक्ट उठा लिया. हवा में अजीबोग़रीब गंधें और धुंए फैलना शुरू होने लगे. इस का पहला क्लाइमैक्स एक मुन्ना टाइप बच्चे की टेस्टूप के 'फ़टाक' से फूटने के साथ हुआ.

इसे सुनते ही दुर्गादत्त मास्साब का "हरामज़ादो!" कहते हुए उपन्यास छोड़ना था और सारे बच्चों ने स्पिरिट लैम्पों से हटाकर अपनी टेस्टूपें लकड़ी के स्टैंडों में धंसा दीं. लाल आंखों से एक-एक बच्चे को घूरते दुर्गादत्त मास्साब सारी क्लास से कुछ कहने को जैसे ही लफ़त्तू के पास ठिठके, लफ़त्तू के बनाए रसायन वाली परखनली से तेज़-तेज़ धुंआ निकलना शुरू हुआ. मास्साब की पीठ उस तरफ़ थी. घबराया हुआ लफ़त्तू परजोगसाला से द्वार तक लपक चुका था. अचानक से परखनली और भी तेज़ फ़टाक के साथ चूर-चूर हो गई. मास्साब घबरा कर हवा में ज़रा सा उछले. पलटकर उन्होंने "साले चूतियम सल्फ़ेट! इधर आ हरामी!" कहकर लफ़त्तू को मारने को अपना हाथ उठाया पर तब तक लफ़त्तू संभवतः बौने के ठेले तक पहुंच चुका था.

"जिस साले ने मुझ से पूछे बिना एक भी सीसी छुई तो सारी सीसियां उसकी पिछाड़ी में घुसा दूंगा. अब चलो सालो फ़ील्ड पे ..."

लतियाते-फटकारते हमें फ़ील्ड ले जाया गया जहां तेज़ धूप में मुर्गा बना कर हमारे भीतर बची-खुची वैज्ञानिक-आत्मा के बास्पीकरण का सफल परजोग सम्पन्न हुआ.

Thursday, September 11, 2008

फ़ुच्ची कप्तान की आसिकी

लफ़त्तू के साथ पढ़ाई-लिखाई से सम्बन्धित बहुत ज़्यादा बातें नहीं होती थीं. हां, यदि घर से कोई चीज़ स्कूल ले कर जानी होती जैसे बारूदा एक्स्पेरीमेन्ट के लिए बीकर या सिरीवास्तव मास्साब की सिलाई-कक्षा हेतु पिलाश्टिक का अंगुस्ताना तो लफ़त्तू के लिए वे चीज़ें मैं लेकर जाया करता. इस कार्य को मैं मित्रतापूरित उत्साह के साथ अंजाम देता. हम दोनों के बीच इस तरह की कोई समझौता वार्ता नहीं हुई थी पर एक आपसी अंडरस्टैंडिंग थी कि लफ़त्तू की चीज़ें ख़रीदने के लिए मैं मां से झूठ बोल लेता था जबकि बौने के ठेले पर होने वाले हमारे बमपकौड़ायोजनों में अपने पापा की जेब से चुराए पैसों से लफ़त्तू पेमेन्ट किया करता.

इधर के दिनों में टौंचा-उस्ताद बागड़बिल्ले का कार्यक्षेत्र खताड़ी से आगे भवानीगंज तक पसर चुका था. बागड़बिल्ले के कुशल नेतृत्व और निर्देशन में वरिष्ठ-कनिष्ठ दोनों प्रकार के लफ़ंडर लौंडे घुच्ची के खेल को रामनगर की गली-गली में फैला देने के महती अनुष्ठान में जान दे देने के हौसले के साथ तन-मन और पांच पैसे के सिक्कों के साथ जुट चुके थे. बड़े भाइयों-चाचाओं-मामाओं इत्यादि द्वारा कभी किसी लड़के के साथ सद्यःघटित सार्वजनिक मारपीटीकरण और अपमानीकरण की अफ़वाहें तमाम मसालों मे लपेटकर हमारे इन्टरवल-सम्मेलनों का विषय बनतीं पर इन सब से उदासीन और अभूतपूर्व जिजीविषा से लबालब ये जांबाज़ जिस खेल पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का क़ौल उठा चुके थे, उस से उन्हें अब परमपिता भी विरत नहीं कर सकता था.

यही दिन थे जब अपने अनुभव-जगत की विस्तृतता के कारण लफ़त्तू मुझे, मेरा हमउम्र होने के बावजूद, अपने से बहुत-बहुत बड़ा लगने लगा था. इधर उसने नियमित रूप से क्लास गोल करने का रिवाज़ चलाया जो घुच्चीप्रेरित बच्चों में जल्दी पॉपुलर हो गया. लफ़त्तू बागड़बिल्ले का अच्छा दोस्त था और उसके कॉन्फ़ीडेन्स और तोतले किन्तु प्रभावकारी वाकचातुर्य के कारण उसकी उपस्थिति की क्लास में बास्पीकरण सीखने में नहीं बल्कि घुच्ची-अभियान के प्रचार-प्रसार में अधिक दरकार होती थी.

डरना लफ़त्तू ने अब और भी कम कर दिया था. अपने पापा की अंग्रेज़ी की उन्हीं के मुंह के सामने ऐसी-तैसी फेर चुकने के बाद से अब उसने गब्बर का डायलॉग मारना भी बन्द कर दिया था. वह इस मामले में अब बहुत कर्मठ हो चुका था.

छत पर क्रिकेट खेलते हुए लफ़त्तू की उपस्थिति लगातार कम होती जा रही थी और हमें उसमें मज़ा आना क़रीब-क़रीब बन्द हो गया था. कभी-कभी मैं और बंटू बैट-बल्ला छोड़ छत से भावपूर्ण मुद्रा में खेल मैदान को देखा करते और फिर किसी क्षण सड़क पर आकर घासमण्डी का रुख़ करते.शाम के समय घूमने जाने को घर से थोड़ा दूर अवस्थित घासमण्डी को बंटू के पापा ने हमारी लिमिट तय किया हुआ था. घासमण्डी की सरहद पर मरियल कुत्तों की तरह खड़े, मजबूत आवारा कुत्तों को बेख़ौफ़ लड़ते-भौंकते देखते हुए से हम 'असफाक डेरी सेन्टर और केन्द्र' के सामने वाली गली की तरफ़ निगाह चिपका लेते. बहुत संजीदगी से अपने हाथों से भंगिमाएं बनाते, नवघुच्चीवादियों के लैक्चर देते या स्वयं घुच्ची खेलते लफ़त्तू की झलक देखने को मिल जाती तो हमें अजीब-अजीब लगने लगता. हमारी मानसिक हालत किसी असहाय, विवश ग़ुलाम की सी होती और हम बहुत मनहूस चेहरों के साथ, क़रीब-क़रीब रोते हुए वापस लौटते.

जिस दिन हमारे लिए ख़ास फ़ुरसत निकालकर लफ़त्तू क्रिकेट खेलने आता, उसके पास हमें बताने को बेतहाशा क़िस्से होते. खताड़ी में अपना झंडा गाड़ चुकने के बाद कैसे उसने भवानीगंज में अपना सिक्का जमा लिया था, यह हमारे लिए रश्क का विषय होता. उसके चमत्कार-लोक में प्रवेश कर पाने की हमारी आकुलता से भरपूर उत्कंठा और भी बलवती हो जाया करती.

इधर लफ़त्तू की अंतरंग मित्रमंडली का विस्तार हो चुका था. उसकी बातों से ज्ञात होता था कि फ़ुच्ची कप्तान नामक एक नए आए लड़के का उसके जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ चुका था.

फ़ुच्ची के पापा रेडीमेड कपडों और प्लास्टिक के जूतों की रेहड़ी लगाते शहर-दर-शहर भटका करते थे. उसी क्रम में वे कुछ समय पहले रामनगर आ बसे थे. उनकी भाषा बहुत ज़्यादा देसी थी. फ़ुच्ची हमसे तीनेक साल बड़ा रहा होगा. शहर-शहर, नगर-नगर घूम चुकने के बाद उसका अनुभव-जगत बहुत संपन्न था और हम सबकी स्पृहा का बाइस भी. 'छठी फ़ेल' की उच्चतम शिक्षाप्राप्त फ़ुच्ची बहुत सांवला था और बात-बात पर "मने, मने" कहता था.

उसका नाम फ़ुच्ची धरे जाने का क़िस्सा लफ़त्तू ने हमें मौज ले ले कर सुनाया था. किसी गली में घुच्ची खेल रहे लौंड-समूह के पास जाकर उसने पूछा:"मने इस खेल की नाम बतइये तनिक!" नाम बताए जाने पर उसने किसी ख़लीफ़ा की तरह जेब से पांच के सिक्के निकालते हुए कहा: "हम भी खेलेंगे फ़ुच्ची!"

"अबे फ़ुच्ची नहीं घुच्ची! घुच्ची ... घुच्ची!" लौंडसमूह के अंतरंगतापूर्ण सामूहिक अट्टहास में इस कलूटे देसी लड़के को फ़ुच्ची नाम से आत्मसात कर लिया गया.

फ़ुच्ची के साथ 'कप्तान' की पदवी दिए जाने का कारण स्वयं फ़ुच्ची की एक आदत में छिपा हुआ था. अपनी वाकपटुता के कारण वह हर जगह दिखाई देने लगा था. बच्चे जहां कहीं कुछ भी खेल रहे होते थे, वह वहां पहुंच जाता और फट से दो टीमों का निर्माण कर देता. "अपनी टीम के कप्तान हम बन गए, बाकी वाले अपना छांट लें!" - यह उसका तकिया कलाम था और अन्ततः उसके नाम के साथ नेमेसिस की तरह जुड़ गया.

रामनगर में इतने समय से खेलते हुए हमें कभी कप्तानी जैसे विषय पर सोचने की प्रेरणा तक नहीं मिली थी और फ़ुच्ची ने आते ही खु़द को आधे बच्चों का कप्तान बना लिया. इस से उसका क़द, इज़्ज़त और नाम तीनों की लम्बाई बढ़ी. कप्तानी के साथ फ़ुच्ची ऑब्सेशन की हद तक जुड़ा हुआ था. हरिया हकले के मकान से होते हुए हमारी छत तक पहुंचने का रास्ता उसे लफ़त्तू बता चुका था. एकाध बार उसने मेरे साथ बैटमिन्डल भी खेली थी. छत पर हम दो ही थे. उसने कहा: "इधर वाले के कप्तान हम. और उधर वाले का मने आप छांट लें!" मेरा मन कुढ़न और खीझ से भर गया था पर मुझे चुप रहना पड़ा क्योंकि कुछ भी हो फ़ुच्ची उन दिनों मेरे उस्ताद लफ़त्तू का उस्ताद बना हुआ था.

एक दिन देर शाम को सियार की सी आवाज़ निकालते हुए लफ़त्तू ले घर के बाहर "बी ... यो ... ओ ... ओ ... ई" का लफ़ाड़ी-संकेत किया तो डरते-सहमते मैं ज़ीना उतर कर बाहर निकला. हांफ़ते हुए लफ़त्तू ने मुझे काग़ज़ का एक पर्चा थमाया और वापस भागता हुआ बोला: "इत को थीक कल देना याल. कल छुबै फ़ुत्ती को देना है!"

मैंने वापस आकर होमवर्क में मुब्तिला होने का बहाना बनाया और पर्चा किताब के बीच छिपा लिया. हालात सामान्य होते ही मैंने पर्चा खोला. लफ़त्तू की अद्वितीय हैंडराइटिंग सामने थी.

जैसे बचा खुचा ज़रा सा भात आवारा बिल्लियों के लिए धूप में रखे जाने और न खाये जाने पर टेढ़े-मेढ़े कणों में बदल जाता है, कुछ वैसी ही हैंडराइटिंग में लफ़त्तू ने फ़ुच्ची के बदले लिखा था:

"मेरी चीटडी पड के नराज न होना.

मे तुमरा आसिक हु.

सादी कर.

तुमरा

फुच्चि"


उफ़! यानी लवलैटर! मेरे सामने जीवन में देखा गया पहला प्रेमपत्र पड़ा हुआ था - यह दीगर बात थी कि वह प्रॉक्सी था और मुझे उसे "थीक" करना था.

पहले तो मैंने लफ़त्तू के प्रति ज़रूरत से ज़्यादा कृतज्ञताभाव महसूस किया कि उसने इस अतिमहत्वपूर्ण प्रोजेक्ट के लिए मुझे छांटा. उसके बाद मैं उस बदनसीब पर्चे को अपना लिखा पहला प्रेमपत्र बनाने के प्रयासों में जुट गया. मैंने अपने मन में तब तक देखी गई सारी फ़िल्मों और सुने गए सारे गानों की फ़ेहरिस्त बनाई और रात को ज़्यादा होमवर्क मिले होने का झूठ बोलते हुए देर तक जग कर अन्ततः एक आलीशान इज़हार-ए-मोहब्बत लिख मारा. शुरू में मैंने सकीना को संबोधित किया, पर उसके बहुत छोटी होने के कारण मेरी कल्पना सीमित हो जा रहि थी, सो बाद का हिस्सा मेरी नई प्रेमिका मधुबाला मास्टरानी से मुख़ातिब था. अन्त में "आपका अपना फ़ुच्ची" लिखने से पहले मैंने चांद-तारे तोड़ लाने की बात लिखी थी.

सुबह स्कूल जाते हुए कांपते हाथों से मैंने लफ़त्तू को उसकी "चीटडी" थमाई. उसने मुझे एक मिनट रुकने को कहा. वह भागता हुआ घासमंडी की तरफ़ गया और मिनट से पहले वापस आ गया. वापस भागते हुए वह बार-बार मुझे आंख मार रहा कि काम बन गया, चिट्ठी फ़ुच्ची को डिलीवर हो गई.

सांस थमने के बाद वह बोला "बले आतिक बन लए फ़ुत्ती! लौंदियाबाद छाले! तित्ती लिकाने को बोल्ल्या ता तो मैंने कया अतोक लिक देगा." उसने पहली बार अहसानमन्द होते हुए मेरा हाथ दबाया.

स्कूल आने पर उसने हाथी जैसा चेहरा बनाते हुए, ब्रह्मवाक्य जारी करते हुए कहा "बलबाद हो जागा फ़ुत्ती!"

असेम्बली के बाद इन्टरवल के बीच चार पीरियड काटना मेरे लिए एक युग बिताने जैसा हुआ. यानी कोई लड़की है जो फ़ुच्ची को भा गई है. फ़ुच्ची जैसे कलूटे कप्तान का प्यार में गिर पड़ना मेरे लिए अविश्वसनीय था. कौन-कैसी होगी वह - विषय पर सोचते हुए मुझे कई विचार आए.

कहीं ऐसा तो नहीं कि फ़ुच्ची मेरा पत्ता काट कर मधुबाला को चिट्ठी दे आने की फ़िराक में हो. आजकल बैटमिन्डल खेलने वो जभी आता है जब मास्टरनी ट्यूशन पढ़ा रही होती है. और मधुबाला क्या जाने कि चिट्ठी फ़ुच्ची ने नहीं मैंने लिखी है.

पछाड़ें मारती, बेकाबू रोती, गिरती-पड़ती, आत्महत्या का ठोस फ़ैसला ले चुकी हीरोइन का विम्ब अब मेरे मन में प्यार-मोब्बत की सघनतम इमेज के रूप में स्थापित हो चुका था. क्या मधुबाला वैसा कुछ करेगी?

मेरा मन फ़ुच्ची की शकल नोंच लेने का हो रहा था.

अगर मधुबाला तक वाक़ई फ़ुच्ची ने चिट्ठी पहुंचा दी और उसने ज़हर खा लिया तो लफ़त्तू इस सारे मामले पर कैसे रियेक्ट करेगा?

...

इन्टरवल का घन्टा बजते ही लफ़त्तू मुझे घसीट कर बौने के ठेले पर ले गया. फ़ुच्ची हमें प्रतीक्षारत मिला. बिना किसी दुआ सलाम के लफ़त्तू ज़ोर से बोला: "आत के पैते फ़ुत्ती देगा!" उसने पहले मुझे, फिर क्रमशः बौने और फ़ुच्ची को आंख मारी. बौना पत्तल बनाने लगा और हमारा महाधिवेशन चालू हो गया.

"दखिये, इतना तो हम समझ लिए कि आप को अच्छा लिखना आती है. मगर आप मने ये क्या आपका अपना ढिम्मक ढमकणा लिखे! अरे जिन्दगानी का बात है. हम तो फैसला किए हैं के आज चिट्ठी और कल सादी. ... अरे तनी कोई सेर-ऊर तो लिखिए न! ... सायरी-दोहा वगेरा ..."

उसने जेब से सलीके से मोड़ा हुआ पर्चा निकाला और वहीं नीचे बैठ कर अपनी जांघ पर फैला लिया.

मेरे पत्र में यह सुधार किया गया था कि सबसे ऊपर पानपत्रद्वय अंकित कर दिए गए थे - एक के भीतर लिखा था 'एफ़' दूसरे के भीतर 'टी'. एक टेढ़ा तीर दोनों पत्रों को जोड़ रहा था और 'टी' वाले जोड़बिन्दु से दो बूंदें टपक रही थीं. इन विवरणों को मैंने चोर निगाह से ताड़ लिया और मन अचानक टनों बोझ उतर जाने जितना हल्का हो गया. 'एफ़' माने फ़ुच्ची. और 'टी' माने कोई भी, मधुबाला नहीं.

"याल बलिया छायली लिक कोई फ़ुत्ती भाई की तरप से. भाबी खुत हो जाए कैते बी! क्यों फ़ुत्ती बाई?" लफ़त्तू 'टी' को भाभी कह रहा था - यानी मामला वाक़ई संजीदा था.

मैं भी फ़ुच्ची का लाया लाल कलम ले कर संजीदा हो गया. "आपका अपना फ़ुच्ची" के नीचे 'दोहा' लिख कर मैंने अंडरलाइन कर दिया. मैं मधुबाला की याद और प्रेरणा की प्रतीक्षा कर रहा था . लफ़त्तू और फ़ुच्ची झल्लाहट, उम्मीद और बेकरारी से मेरा मुंह ताक रहे थे. आख़िरकार वह क्षण आ ही गया. दोहा लिखने के बाद प्रसन्नता के अतिरेक में कांपते सद्यःप्रेमग्रस्त फ़ुच्ची ने हमें एक-एक बमपकौड़ा और टिकवाया.

दोहा था:

"अजीरो ठकर अब कां जाइयेगा
जां जाइयेगा मुजे पाइयेगा"

Thursday, September 4, 2008

इंग्लिछ मात्तर का बेता हो के लोता है बेते!

टोड मास्साब की पढ़ाई अंग्रेज़ी ज़्यादातर बच्चों की समझ में नहीं आती थी. क्लास के अधिकतर बच्चे नॉर्मल स्कूल या बम्बाघेर नम्बर दो के सरकारी प्राइमरी स्कूल से पांचवीं पास थे. इन स्कूलों में अंग्रेज़ी नहीं सिखाई जाती थी. लफ़त्तू, मैं और क़रीब बीसेक बच्चे मान्टेसरी स्कूल या शिशु मन्दिर से आए थे जहां पहली ही कक्षा से इसे सिखाए जाने पर ज़ोर था.

टोड मास्साब की कक्षा में अंग्रेज़ी वाली कापी में ए बी सी डी लिखाने से शुरुआत हुई. मास्साब का लड़का गोलू भी हमारे साथ था और उसकी पढ़ाई बम्बाघेर नम्बर दो में हुई थी. जाहिर है गोलू को भी ए बी सी डी नहीं आती थी. और यह सर्वज्ञात तथ्य टोड मास्साब के ग़ुस्से और झेंप का बाइस बना करता था.

लफ़त्तू को गोलू से संभवतः इसलिए सहानुभूति थी कि गोलू हकलाता था. पहली बार कक्षा में पिता द्वारा सबके सामने पीटे जाने और जलील किए जाने के बाद गोलू इन्टरवल में रो रहा था. अपने पापा की जेब पर सफलतापूर्वक हाथ साफ़ करके आया लफ़त्तू मुझे बौने का बमपकौड़ा खिलाने ले जा रहा था जब उसकी निगाह गोलू पर पड़ी.

"इंग्लिछ मात्तर का बेता हो के लोता है बेते!" कह कर उसने गोलू को मोहब्बतभरी तोतली डांट पिलाते हुए बमपकौड़ा अभियान का हिस्सा बना लिया. " मेले पापा तो मुदे लोज धूनते हैं, मैं कोई लोता हूं कबी! गब्बल छे छीक बेता गब्बल छे: जो दल ग्या वो मल ग्या बेते." किंचित सहमा हुआ, लार टपकाता गोलू कभी लफ़त्तू के कॉन्फ़ीडेन्स को देखता कभी हरे पत्ते में सजे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ, स्वादिष्टतम बम-पकौड़े को. कभी उसकी निगाह स्कूल की तरफ़ उठ जाती.

"ततनी दालियो हली वाली औल लाल मिल्चा" कहकर उसने अपना पत्तल बौने के सामने किया. "अभी लेओ बाबूजी" बौना सदा की तरह तत्परता से बोला. यह लफ़त्तू की ख़ास अदा थी जब वह मिर्चा खा पाने की अपनी कैपेसिटी से सामने वाले को आतंकित किया करता. उसकी तनिक पिचकी नाक से एक अजस्र धारा बह रही होती थी पर वह बौने से कहता: "औल दो!"

गोलू के हावभाव बता रहे थे कि वह पहली बार इस प्रकार के कार्यक्रम में हिस्सेदरी कर रह था. पिता की झाड़ और संटी की मार भूलकर वह ज्यों त्यों पकौड़ा निबटाने में लगा था. मैं और गोलू नए खेल के पोस्टर देखने में मशगूल थे.

"नया खेल लगा है बाबूजी! आज ही शुरू हुआ है." अपनी कलाई पर बंधी कोयले और धुंए जैसे डायल वाली, सुतली से कलाई में लपेटी घड़ी पर निगाह मारते हुए बौने ने आगामी बिज़नेस की प्रस्तावना बांधना चालू किया, "हैलन का डान्स हैगा इस में. अभी चल्लिया होगा. आपके इस्कूल में तो अभी टैम हैगा. देखोगे बाबूजी?" इस आश्वस्तिपूर्ण वक्तव्य में इसरार कम था नए ग्राहक को फंसाने की चालबाज़ी ज़्यादा. "नए वाले बाबूजी से क्या पैसा लेना."

लफ़त्तू ने जेब से दो का नोट निकाला और जब तक वह गोलू को पिक्चर देखने का तरीक़ा बताता, मेरी निगाह अपने घर की छत पर गई. मां कपड़े सुखाने डाल चुकने के बाद बाहर देख रही थी. मुझ डरपोक को लगा कि वह सीधा हमें ही देख रही है. मैं बिना बताए जल्दी-जल्दी क्लास की दिशा में बदहवास भाग चला. इस हड़बड़ी में कक्षा के दरवाज़े पर मैं सीधा अपने बड़े भाई से टकरा गया जो मुझे इन्टरवल के बाद घर बुलाने आया था. मेरे ध्यान में नहीं रहा था कि उस दिन हमें गर्जिया मंदिर लाना था. सामने से सिलाई वाले सिरीवास्तव मास्साब आते दिखे तो भाई ने उन्हें एक कागज़ दिखाया. उनके मुंडी हिलाने पर हम घर की दिशा में चल पड़े.

लफ़त्तू और गोलू के साथ क्या बीती होगी - यह मेरी कल्पना की उड़ान के लिए बहुत बड़ी थीम थी.

हम शाम को घर लौटे. थोड़ी ही देर बाद दरवाज़े पर लफ़त्तू के पापा मौजूद थे. मैं बेतरह डर गया और थरथर कांपने लगा. लेकिन वे मेरे लिए जोकर के मुंह वाला मीठी सौंफ़ का डिब्बा लाए थे. डब्बा लेकर मैं छत पर बंटू के साथ क्रिकेट खेलने चला गया. बंटू नई गेंद लाया था और हमारा स्वयंसेवक अम्पायर महान लफ़त्तू हरिया हकले की छत फांदता आ रहा था.

बहुत ही अनौपचारिक तरीके "क्या कैलये मेले पापा" पूछते हुए उसने बंटू से गेंद ली और "खेल इश्टाट" का ऑर्डर दिया. मैं बैटिंग कर रहा था पर मेरा मन बेहद व्याकुल था. जाहिर है लफ़त्तू जानता था कि उसके पापा मेरे घर में बैठे पिताजी से बात कर रहे थे. स्कूल में गोलू के अन्जाम की खौ़फ़नाक कल्पनाओं में मैं रामनगर-गर्जिया-रामनगर यात्रा में चिन्ताग्रस्त रहा था.

मैं पहली बॉल पर आउट होता रहा और बंटू ख़ुशी ख़ुशी मेरी गेंदों की धुनाई करता रहा. देर से शुरू हुआ खेल जल्दी निबट गया. घर जाने से पहले लफ़त्तू ने कमीज़ ऊपर की और पीठ पर पड़े नीले निशानों की मारफ़त सूचना दी कि उसकी और गोलू की टोड मास्साब ने संटी मार-मार कर खाल उधेड़ डाली थी. उसके बाद लफ़त्तू के पापा को स्कूल बुलाया गया. और यह भी कि उसके पापा ने उस से कुछ नहीं कहा बल्कि उसे भी जोकर के मुंह वाला मीठी सौंफ़ का डिब्बा दिया.

अगले दिन और उसके बाद के कई दिन तक न टोड मास्साब स्कूल आए न गोलू. कोई कहता था लफ़त्तू के पापा ने टोड मास्साब को जेल भिजवा दिया और गोलू को मरेलिया हो गया. हुआ जो भी हो, लफ़त्तू की और मेरी अपनी दिनचर्या में एक परिवर्तन यह आया कि हमें सुबह छः बजे लफ़त्तू के पापा ने अंग्रेज़ी पढ़ानी चालू कर दी. यह मेरे घर उनके आने के अगले दिन से शुरू हुआ.

मेरी ही तरह लफ़त्तू के भी बहुत सारे भाई-बहन थे और हमारी पढ़ाई के समय वे कभी-कभार परदों के पीछे नज़र आ जाया करते थे. इस पढ़ाई के दौरान उसकी बड़ी बहन हमें दूध-बिस्कुट भी परोसा करती थी. असल बात यह थी कि मैं एक ही दिन में ताड़ गया था कि लफ़त्तू के पापा की ख़ुद की अंग्रेज़ी कोई बहुत अच्छी नहीं थी. वे पिथौरागढ़ी कुमाऊंनी मिश्रित हिन्दी में हमें इंग्लिस पढ़ाते थे. 'वी' को 'भी' कहते थे, जो मुझे बहुत अटपटा लगता. लेकिन लफ़त्तू की दोस्ती के कारण मैं इस कार्यक्रम में बेमन से हिस्सा लेता और हां-हूं कहा करता.

बस अड्डे से माचिस की डिब्बियों के लेबल खोजने का प्रातःकालीन आयोजन बाधित हो गया था और कभी-कभार घुच्ची खेलने का भी. क़रीब एक हफ़्ता हुआ होगा जब एक रोज़ लफ़त्तू पर जैसे शैतान सवार हो गया. दूध-बिस्कुट आते ही लफ़त्तू ने कापी बन्द की, एक सांस में दूध पिया, जेब में चार बिस्कुट अड़ाए और कापी को ज़मीन पर पटक कर, बस अड्डे और उस से भी आगे भाग जाने से पहले अपने पापा से बोला: "वल्ब को तो भल्ब कहते हो आप! क्या खाक इंग्लिछ पलाओगे पापा?"

Friday, August 8, 2008

बिग्यान का दूसरा सबक और टेस्टूप

एक महीने कछुआ देखने के बाद हुई सामूहिक धुनाई के बाद वाले रोज़ दुर्गादत्त मास्साब लालसिंह के साथ क्लास में घुसे. लालसिंह अंग्रेज़ी की क्लास में अनुपस्थित था. असेम्बली में टोड मास्साब और दुर्गादत्त मास्साब के बीच चली कोई एक मिनट की बातचीत के बाद उसे जल्दी जल्दी गेट से बाहर जाते देखा गया था. लालसिंह के हाथ में खादी आश्रम वाला गांठ लगा मैला-कुचैला थैला था. मास्साब आदतन कर्नल रंजीत में डूबे हुए थे. लालसिंह ने रोज़ की तरह हमारी अटैन्डेन्स ली. पिछले दिन की ख़ौफ़नाक याद के कारण सारे बच्चे चुपचाप थे. हमने दो कक्षाओं के बीच पड़ने वाले पांचेक मिनट के अन्तराल में स्याही में डुबो कर काग़ज़ की गेंदें फेंकने का खेल भी नहीं खेला.

अटैन्डेन्स के बाद मास्साब ने उपन्यास नीचे रखा और बहुत नाटकीय अन्दाज़ में बोले: "कल तक हम ने जीव बिग्यान याने कि जूलाजी के बारे में जाना. आज से हम बनस्पत बिग्यान माने बाटनी की पढ़ाई शुरू करेंगे."

तब तक लालसिंह मैले थैले से काग़ज़ में लिपटी कोई गोल गिलासनुमा चीज़, एक पुड़िया और पानी से भरा हुआ शेर छाप मसालेदार क्वाटर सजा चुका था. लफ़त्तू ने मुझे क्वाटर, अद्धे और बोतल का अन्तर पहले से ही बता रखा था. उसके पापा इन सब में भरे मटेरियल का नियमित सेवन करते थे और लफ़त्तू एकाधिक बार चोरी से उसे चख भी चुका था. "छाली बली थुकैन होती है. लुफ़्त का भौत मजा आता है छाली में मगल."

मास्साब ने और भी नाटकीय अदाओं के साथ मेज़ पर रखी इन वैज्ञानिक वस्तुओं को उरियां किया. कांच गिलासनुमा चीज़ बहुत साफ़ थी और पतली स्याही से लम्बवत उसमें नियत दूरी पर लकीरें बनी हुई थीं. उसके भीतर गै़रमौजूद धूल को एक अतिशयोक्त फूंक मार कर मास्साब ने दूर किया, उंगली को टेढ़ा कर उसमें दो-चार नाज़ुक सी कटकट की और ऊंचा उठाकर बोले: "देखो बच्चो ये है बीकर. आज श्याम को सारे बच्चे लच्छ्मी पुस्तक भंडार पे जा के इसे ख़रीद लावें. डेड़-दो रुपे का मिलेगा. घरवालों से कह दीजो कि मास्साब ने मंगवाया है."

पुड़िया खोलकर उन्होंने उसके भीतर के भूरे जरजरे पाउडर को ज़रा सा लिया और लकड़ी के बारूदे से हमारा परिचय कराया. "जिस बच्चे के घर पे बारूदे की अंगीठी ना हो बो भवानीगंज जा के अतीक भड़ई के ह्यां से ले आवे. अतीक कुछ कये तो उस से कैना कि मास्साब ने मंगाया है"

शेर छाप का क्वाटर खोल कर उन्होंने हमें पानी दिखाया और पहली बार कोई मज़ाकिया बात बोली "और ये है दारू का पव्वा. दारू पीने से आदमी का बिग्यान बिगड़ जाता है. कोई बच्चा दारू तो नहीं पीता है ना?" बच्चों ने सहमते हुए खीसें निपोरीं.

"सारे बच्चे कल को बिग्यान की बड़ी कापी में बीकर का चित्र बना के लावें. और अब बनस्पत बिग्यान का कमाल देखो." उन्होंने अपने गन्दे कोट की विशाल जेब में हाथ डाला और मुठ्ठी बन्द कर के बाहर निकाली." हमें पता था कि उसमें चने के दाने होंगे क्योंकि हमारी ठुकाई करने के बाद उन्होंने क्लास से बाहर जाते हुए यह अग्रिम सूचना जारी कर दी थी सो उनके इस नाटक को हम दर्शकों की ज़्यादा सराहना नहीं मिली.

"ये हैं चने के दाने. इस संसार में सब कुछ बिग्यान होता है जैसे ये दाने भी बिग्यान हैं. अब देखेंगे बनस्पत बिग्यान का जादू." उन्होंने बीकर में चने के दाने डाले, उसके बाद उन्हें बुरादे से ढंक दिया. बीकर में आधा बुरादा डाल चुकने के बाद उन्होंने आधा क्वाटर पानी उसमें उड़ेला.

"अब इस में से चने उगेंगे"

लालसिंह को बीकर थमाते हुए उन्होंने उसके साथ कछुए वाला व्यवहार करने का आदेश दिया और उपन्यास में डूब गए. लालसिंह ने बीकर दिखाना शुरू किया ही था कि घन्टा बज गया. लालसिंह के हाथ से बीकर लेते हुए मास्साब ने पलटकर कहा: "सारे बच्चे आज श्याम को बाज़ार से बीकर लावें और ऐसा ही परजोग करें. कल सबको चने वाले बीकर लाने हैं."

घर पर हमेशा की तरह साइंस के इस प्रयोग की सामूहिक हंसी उड़ाई गई. लफ़त्तू के घरवालों ने उसे बीकर के पैसे देने से मना कर दिया था सो मैंने मां से यह झूठ बोलकर दो बीकर ख़रीदे कि सबको दो-दो बीकर लाने को कहा गया है.

अगले दिन असेम्बली में कक्षा छः (अ) के हर बच्चे के हाथ में एक बीकर था. केवल नई कक्षा के बच्चों ने इन में दिलचस्पी दिखाई. दुर्गादत्त मास्साब के इस बनस्पत बिग्यान परजोग से बाक़ी के अध्यापक-छात्र परिचित रहे होंगे.

मास्साब ने आकर लालसिंह से अटैन्डेन्स के बाद हर बच्चे का बीकर चैक करने को कहा. बीकर चैक करने के बाद हमारे लिए ख़ास बनाई गईं काग़ज़ की छोटी पर्चियां जेब से निकालकर मास्साब ने हम से उन पर अपना-अपना नाम लिखने और परजोगसाला से लालसिंह द्वारा लाई गई आटे की चिपचिप लेई से उन्हें अपने बीकरों पर चिपकाने को कहा. "जब चिप्पियां लग जावें तो सारे बच्चे बारी-बारी से नलके पे जाके हाथ धोवें औए साफ़ सूखे हाथों से बीकरों को परजोगसाला में रख के आवें" घड़ी की तरफ़ एक बार देख कर मास्साब ने एक उचाट निगाह डालते हुए हमें आदेश दिया.

मोतीराम परशादीलाल इन्टर कालिज की परजोगसाला एक अजूबा निकली. एक बड़ा सा हॉल था, जिस में घुसते ही क़रीब सौएक टूटी कुर्सियां और मेज़ें औंधी पड़ी हुई थीं. उनके बीच से रास्ता बनाते हुए आगे जाने पर एक तरफ़ को बड़ी-बड़ी मेजें थीं - एक पर शादी का खाना बनाने में काम आने वाले बड़े डेग-कड़ाहियां-चिमटे-परातें बेतरतीब बिखरे हुए थे. एक मेज़ के ऊपर कर्नल रंजीत वाली एक अधफटी किताब धूल खा रही थी. वह दुर्गादत्त मास्साब की मेज़ थी. इसी पर हमने अपने बीकर क्रम से रखने थे. किताब मैंने दूर से ताड़ ली थी. मेरे त्वरित, गुपचुप, लालचभरे इसरार पर लफ़त्तू लपक कर गया और चौर्यकर्म में अपनी महारत का प्रदर्शन करते हुए किसी और बच्चे के मेज़ तक पहुंचने देने से पेशतर उसने किताब चाऊ की और कमीज़ के नीचे अड़ा ली और मुझे आंख भी मारी. बीकर रखने के बाद मेरी निगाह दूसरी तरफ़ गई. जहां-तहां टूटे कांच वाली कुछ अल्मारियां थीं जिनकी बग़ल खड़ा में चेतराम नामक लैब असिस्टैन्ट ऊंची आवाज़ में हम से जल्दी फूटने को कह रहा था. इतनी सारी व्यस्तताओं और हड़बड़ी के बावजूद मुझे भुस भरे हुए कुछ पशु-पक्षी इन अल्मारियों के भीतर दिख ही गए. और एक संकरी ताला लगी अल्मारी के भीतर खड़ा एक कंकाल भी जिसने कर्नल रंजीत के साथ अगले कई महीनों तक मेरे सपनों में आना था.

अगले बीसेक दिन बिग्यान की क्लास का रूटीन यह तय बताया गया कि अंग्रेज़ी की क्लास के तुरन्त बाद हमें परजोगसाला जाकर अपने - अपने बीकरों में पानी देना होता था, उसके बाद सम्हाल कर इन्हें क्लास में लाकर अपने आगे रख कर अटैन्डेन्स दी कर बीकर की परगती को ध्यान लगाकर देखना होता था. मास्साब के घड़ी देख कर बताने के बाद घन्टा बजने से दस मिनट पहले हमें इन बीकरों को वापस परजोगसाला जाकर रखना होता.

पहले तीन-चार दिन तो मुझे लगा यह भी मास्साब की कोई ट्रिक है जिस से बोर करने के बाद वे हमें एक बार पुनः मार-मार कर बतौर तिवारी मास्साब हौलीकैप्टर बनाने की प्रस्तावना बांध रहे हैं. पांचवें दिन बीकर के तलुवे में पड़े चने के दानों में कल्ले फूट पड़े और बीकर को नीचे से देखने पर वे शानदार नज़र आते थे. भगवानदास मास्साब इस घटना से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने पांच मिनट तक उपन्यास नीचे रख कर हमें बनस्पत बिग्यान की माया पर एक लैक्चर दिया.

परजोगसाला जाकर मैं सबसे पहले पानी न देकर कंकाल को देखता और उसे पास जा कर छूने का जोख़िमभरा कारनामा अंजाम देने की कल्पना किया करता. इधर मैंने चोरी छिपे ढाबू की छत के एक निर्जन कोने में कर्नल रंजीत के फटे उपन्यास के सारे पन्ने कई बार पढ़ लिए थे. उस के बारे में फिर कभी. चोरी-चोरी मास्साब के उपन्यासों के कवर देखते हुए अब मुझे कुछ कुछ समझ में आने लगा था और कर्नल का इन्द्रजाल सरीखे रहस्य लोक से परिचित क़िस्म की सनसनी होने लगी थी.


दस- बारह दिन बाद नन्हे से पौधे वाक़ई चार-पांच सेन्टीमीटर की बुरादे की परत फ़ोड़कर बाहर निकल आए. इन दिनों पूरी क्लास भर मास्साब के चेहरे पर परमानन्द की छटा झलकती रहती थी. लालसिंह सारे काम करता और ख़ुद उन्हें उपन्यास पढ़ने के सिवा कुछ नहीं करना होता था.

चने के पौधे दो-तीन सेन्टीमीटर लम्बे हो गए थे और बुरादे से अब बदबू भी आने लगी थी. किसी-किसी बीकर के भीतर फफूंद उग आई थी. एक दिन उचित अवसर देख कर मास्साब क्लास से मुख़ातिब हुए: "चने का झाड़ कितने बच्चों ने देखा है?" कोई उत्साहजनक उत्तर न मिलने पर पहले उन्होंने लालसिंह से किसी खेत से चने का झाड़ लाने को कहा और अपना लैक्चर चालू रखते हुए कहना शुरू किया: "चने का झाड़ बड़े काम का होता है. उसमें पहले हौले लगते हैं फिर चने और चने को खाकर सारे बच्चे ताकतवर बनते हैं. सूखे चने को पीसकर बेसन बनता है जिसकी मदद से तलवार अपने होटल में स्वादिस्ट पकौड़ी बनाता है." पकौड़ी का नाम आने पर उन्होंने अपना थूक गटका, "सारे बच्चों के पौधे भी एक दिन चने के बड़े झाड़ों में बदल जावेंगे. तो आज हम आडीटोरियम के बगल में इन पौधों का खेत तैयार करेंगे. जब खूब सारे चने उगेंगे तो हम उन चनों को बन्सल मास्साब की दुकान पे बेच आवेंवे. उस से जो पैसा मिलेगा, उस से सारे बच्चे किसी इतवार को कोसी डाम पे जाके पिकनिक करेंगे.

"लालसिंह हमें आडीटोरियम के बगल में इन पौधों को रोपाने ले गया और वहां जाकर भद्दी सी गाली देकर बोला: "मास्साब भी ना!"

इसके बावजूद हमारे उत्साह में क़तई कमी नहीं आई और आसपास पड़े लकड़ी-पत्थर की मदद से खेत खोदन-निर्माण और पौधारोपण का कार्य सम्पन्न हुआ. घन्टा बज चुका था और हम अपने-अपने बीकर साफ़ करने के उपरान्त उन्हें अपने बस्तों में महफ़ूज़ कर चुके थे.

छुट्टी के वक़्त स्कूल से लौटते हुए कुछेक बच्चे सद्यःनिर्मित खेत के निरीक्षणकार्य हेतु गए. बीच में बरसात की बौछार पड़ चुकी थी. लफ़त्तू भागता हुआ मेरे पास आया: "लालछिंग सई कैलिया था बेते. भैंते मात्तर ने तूतिया कात दिया. छाले तने बलछात में बै गए. अब बेतो तने औल कल्लो दाम पे पुकनिक". उस कब्रगाह पर जा पाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई.

तीन हफ़्ते की मेहनत का यूं पानी में बह जाना मेरे लिए बहुत बड़ा हादसा था. इस वैज्ञानिकी त्रासदी से असंपृक्त दुर्गादत्त मास्साब ने अगले रोज़ न लालसिंह से चने के झाड़ के बाबत सवालात किए, जिसे लाना वह भूल गया था, न चनोत्पादन की उस महत्वाकांक्षी खेती-परियोजना का ज़िक्र किया. अपनी जेब से कर्नल की चमचमाती नई किताब के साथ उन्होंने जेब से परखनली निकाली और उसी नाटकीयता से पूछा: "इसका नाम कौन बच्चा जानता है?" लालसिंह ने भैंसे यानी दुर्गादत्त मास्साब को कल से भी बड़ी गाली देते हुए हमें बिग्यान की इस तीसरी क्लास के बारे में एडवान्स सूचित कर दिया था. "परखनाली मास्साब!" उत्तर में एक कोरस उठा.

"परखनाली नहीं सूअरो! परखनली कहा जावे है इसे! और कल हर बच्चा बाज़ार से दो-दो परखनलियां ले के आवेगा. कल से हम बास्पीकरण के बारे में सीखेंगे. आज श्याम को सारे बच्चे लच्छ्मी पुस्तक भंडार पे जा के ख़रीद लावें. आठ-बारह आने में आ जावेंगी ..."

लालसिंह की गुस्ताख़ी का उन्हें भान हो गया होगा. पहली बार उसकी तरफ़ तिरस्कार से देखते हुए उन्होंने क़रीब-क़रीब थूकने के अन्दाज़ में हमसे कहा: "इंग्लिस में टेस्टूप कहलाती है परखनली. आई समझ में हरामियो?"

Thursday, August 7, 2008

दड़ी का छेत्रफल, परसुराम और मांबदौतल

हरेमोहन बन्सल मास्साब हमारे गड़त यानी मैथ्स के गुरूजी थे. परचूने की उनकी दुकान स्कूल के गेट से कोई बीस मीटर दूर थी. दुकान पर गालियां बकने में पी एच डी कर चुके उनके वयोवृद्ध पिताजी बैठा करते थे. इस लिहाज़ से हरेमोहन बन्सल मास्साब स्कूल में अक्सर पार्ट टाइम मास्टरी किया करते थे. वे जब बोलते थे तो लगता था उन्होंने मुंह में कुन्दन दी हट्टी की स्वादिष्ट रबड़ी ठूंस रखी हो. अलबत्ता उनके शब्द इस बेतरतीब और भद्दे तरीके से बाहर आया करते थे कि लगता उनकी सांस अब रुकी तब रुकी.

उनका एक बेहद मोटा बेटा था जो अक्सर दुकान के वास्ते थोक खरीदारी के सिलसिले में क्लास में आकर उनसे पैसे लेने आता था. मास्साब एक एक नोट गिन के उसे दिया करते थे और उसके साथ हमेशा बड़ी हिकारत से पेश आते थे. वह मुंह झुकाए सुनता रहता और अपनी धारीदार पाजामानुमा पतलून की जेब में हाथ डाले डोलता रहता. उसका आना हमारे लिए एक तरह का छोटा-मोटा इन्टरवल हो जाता क्योंकि मास्साब के हाथ से नोट लेकर वह सवालिया निगाहों से उन्हें देखता रहता. फूंफूं करते तनिक आगबबूला मास्साब उसे साथ लेकर क्लास से बाहर सड़क पर ले जाते और अपनी समझ में न आने वाली ज़ुबान में हिसाब समझाते - गड़तगुरुपुत्र एकाध बार नोटों को जेब में अन्दर-बाहर करता. क़रीब पन्द्रह मिनट तक चलने वाले इस कार्यक्रम के दौरान लालसिंह हमें मास्साब की दुकान के अद्भुत क़िस्से सुनाया करता.

स्कूल पास कर चुकी कई पीढ़ियों ने मास्साब की दुकान में जाकर पहले दो-चार सौ का सामान तुलाने और उसके बाद लाल मूंग की टाटरी मांगने की परम्परा क़ायम की थी. इस अबूझ पदार्थ का नाम लेते ही दुकान में मौजूद मास्साब के पिताश्री का पारा चढ़ जाया करता था. वे लाठी-करछुल-तराजू-बाट उठा लेते और नकली गाहकों की टोली खीखी करती अपनी जान बचा कर भागने का जतन करने लगती थी. कभी कभी स्वयं मास्साब भी इस कार्य में संलग्न पाए जाते. दुकान से होने वाले इस साप्ताहिक गाली-पुराण में 'अपने बाप से मांग लाल मूंग की टाटरी' का जयघोष बुलन्द होते ही मास्साब पिता की सेवा करने हेतु क्लास छोड़ दुकान की तरफ़ लपक लेते थे. लालसिंह हमें इस जुमले का कोई साफ़ अर्थ नहीं बता पाया. न ही लफ़त्तू. इन दोनों को रामनगर की सारी गालियां याद थीं पर लाल मूंग की टाटरी को लेकर बहुत संशय था और निश्चय ही जिज्ञासा भी. यह दोनों भावनाएं अब भी जस की तस बरक़रार हैं. शायद वह कोई वस्तु न होकर बन्सल परिवार की छेड़ भर रही होगी.

मास्साब ने हमें सबसे पहले बर्ग, आयत, त्रिकोड़ आदि के फ़ार्मूले रटाए और उसके बाद इन पर आधारित सवाल. हममें से कई बच्चों की 'फ़िक' से हंसी छूट जाती जब वे सवाल लिखाना शुरू करते: "चौबीस बर्ग फ़ुट के छेत्रफल की एक दड़ी की लम्बाई छै फ़ुट है. तो दड़ी की चौड़ाई बताइये." दरी को दड़ी कहने के कारण उन्हें दड़ी मास्साब के नाम से जाना जाता था. शुरू में दड़ी शब्द सुनकर हंसी आती थी पर बाद में आदत पड़ गई. संभवतः मास्साब को भी अपने इस दूसरे नाम का ज्ञान था. डंडा वे भी लेकर आते थे पर इस्तेमाल कभी नहीं करते थे. तिवारी मास्साब के मुकाबले वे बहुत शरीफ़ लगा करते थे. डंडे का इस्तेमाल करने की नौबत गड़त की किताब से सवाल लिखाते ही आई. इस में दड़ी के बदले खस की टट्टी की लम्बाई-चौड़ाई के बाबत सवालात थे. मास्साब के मुखारविन्द से इस द्विअर्थी 'टट्टी' शब्द का निकलना, हमारा हंसते हुए दोहरा और डंडे पड़ते ही तिहरा होना एक साथ घटा.

दड़ी मास्साब गाली नहीं देते थे - न पढ़ाते वक़्त, न डांटते वक़्त, न पीटते वक़्त. गाली देने का कार्य आधिकारिक रूप से थोरी मास्साब और दुर्गादत्त मास्साब के अलावा एक और मास्साब के पास था. इन मास्साब को कुछ पढ़ाते हम ने कभी नहीं देखा. स्कूल कैम्पस में आवारा टहल रहे बच्चों के साथ मौखिक रूप से पिता और जीजा का रिश्ता बनाते भर देखे जाने वाले ये मास्साब भी रिश्ते में प्रिंसिपल साहब के मामा और दुर्गादत्त मास्साब के चचेरे-ममेरे भाई थे. पन्द्रह अगस्त को उन्होंने हारमोनियम पर 'दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल' (जिसके लफ़त्तूरचित संस्करण की एक बानगी आप पिछली पोस्ट में देख चुके हैं) और 'इन्साफ़ की डगर पे बच्चों दिखाओ चलके' (यानी 'बौने का बम पकौड़ा बच्चो दिखाओ चख के') बजाया था. लफ़त्तू का कहना था कि अक्सर लौंडों जैसी पोशाक पहनने वाले और एक तरफ़ को सतत ढुलकने को तैयार बालों का झब्बा धारण करने वाले ये वाले मास्साब हारमोनियम बजाते हुए अपने को लाजेस्खन्ना का बाप समझते थे. यह तमीज़ तो हमें बड़ा होने पर आई कि वे असल में अपने को लाजेस्खन्ना का नहीं देबानन का बाप समझते थे. दुर्गादत्त मास्साब का भाई होने के कारण उन्हें मुर्गादत्त मास्साब की उपाधि प्रदत्त की गई थी.

मुर्गादत्त मास्साब रामलीला में परसुराम का पाट खेलते थे. मुझे अल्मोड़ा की रामलीला की बहुत धुंधली याद थी. उस में भी बस सीता स्वयंवर में सदैव जोकर का पाट खेलने वाले कपूर नामक एक कपड़ाविक्रेता की. इसके अलावा वहां चलना और चढ़ना बहुत पड़ता था. पैंठपड़ाव में लगे विशाल शामियाने में प्लेन्स की पहली रामलीला देखना आधुनिक कलाजगत से मेरा पहला संजीदा परिचय था. रात को हम मोहल्ले के बच्चे किसी एक बड़े के निर्देशन में वहां पहुंचकर आगे की दरियों पर अपनी जगहें बना लेते. घर से थोड़ा बहुत पैसा मिलता था सो बौने की बम पकौड़ों, सिघाड़े की कचरी, जलेबी और काले नमक के साथ गरम मूंगफली की बहार रहती. रामलीला देखते देखते हमें 'मैं तो ताड़िका हूं, ताड़-तड़-तड़-ताड़ करती हूं' और 'रे सठ बालक, ताड़िका मारी!' बहुत अट्रैक्टिव डायलाग लगे और हम कई दिन तक लकड़ी की तलवारें बनाकर एक दूसरे पर इन की प्रैक्टिस करते रहे.

मुर्गादत्त मास्साब के अतिलोकप्रिय परसुराम-अभिनय के बाद क्लास के आधे लड़के उनके फ़ैन हो गए लेकिन लफ़त्तू ज़्यादा इम्प्रेस्ड नहीं हुआ. और उसकी टेक थी कि वे अपने को लाजेस्खन्ना का बाप समझते थे.

रावण का पाट खेलने वाला रामनगर फ़िटबाल किलब का गोलकीपर शिब्बन लफ़त्तू का रोल मॉडल था. दीवाली की छुट्टियों के दिनों हम ढाबू की छत पर रामलीला खेलते थे. बंटू परसुराम बनता था, और सांईबाबा का छोटा भाई सत्तू अंगद. इनकी डायलागबाज़ी के उपरान्त रावण का दरबार लगता. एक पिचके कनस्तर पर जांघ पर जांघ चढ़ाए बैठा, रावण बना लफ़त्तू बड़ी अदा से कहता था: "नातने वाली को पेत किया जाए".

एकाध उपस्थित लड़कियां थोड़ा झेंप और ना नुकुर के बाद नाचने वाली के रोल के लिए खुद को तैयार करने लगतीं. 'केवल पुरुषों के लिए' वाले रामलीला-संस्करण में अभिनेता कम होने की सूरत में बंटू और सत्तू इन भूमिकाओं के लिए ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हो रहते थे.

प्लास्टिक के एक पुराने टूटे मग में हवारूपी शराब भरे उसका मन्त्री यानी मैं सदैव तत्पर रहा करता था.

पहले वह 'मुग़ल-ए-आज़म' से सीखा हुआ एक डायलाग फेंकता: "मांबदौतल अब आलाम कलेंगे". इसके बाद वह जांघों को बदल कर हाथ से नृत्य चालू करने का इशारा करके मुझे आंख मारता और आदेश देता: "मन्त्ली मदला लाओ".

Monday, July 28, 2008

ब्रेस, ब्रेस, ब्रेसू टी यानी जो दल ग्या वो मल ग्या

किराए के जिस दोमंज़िला मकान में हम रहते थे वह तीन बराबर हिस्सों में बंटा हुआ था यानी तीन भाइयों के तीन हिस्से. हमारे और बगल वाले सैट के मालिक पास ही के चोरपानी नामक गांव में रहते थे. हिन्दुस्तान की तरफ़ के कोने वाले ही अपने मकान में रहते थे उनका बेटा बंटू मेरा हम उमर था और मेरा दोस्त था. हम लोग अक्सर छत पर खेला करते थे. अपनी खुराफ़ातों को अस्थाई निजात दे कर लफत्तू भी हमारे साथ हुआ करता था. छत का एक हिस्सा तीन बराबर हिस्सों में बंटा हुआ था और उन तीन हिस्सों के बीच दो-ढाई फ़ीट की दीवारें उठाई गई थीं. ये दीवारें बैडमिन्टन खेलते समय काम आती थीं. दीवारों के कारण खिलाड़ियों के लिए ऑटोमैटिकली पाले बन जाते थे. कभी-कभी तो इन तीन छतों पर एक साथ दो-दो मैच चल जाया करते थे. ऐसी स्थिति में बीच की छत कॉमन हो जाती.

शामों को बंटू की मम्मी, मेरी बहनें और पड़ोस में रहने वाली कुछ लड़कियां हमारे राकेट ले लेतीं और राकेट-चुड़िया का खेल खेलतीं. खेलने की उनकी शैली को बैडमिन्टन तो नहीं कहा जा सकता था. चुड़िया को राकेट से जैसे-तैसे मार पाने की कोशिश करती इन उत्साही खिलाड़िनों को देख कर लगता जैसे तनिक ऊंचे तार पर सुखाने के लिए उचक-उचक कर बरसात में भीग गया गद्दा या गलीचा फैलाने का जतन कर रही हों. वहां खड़ा होना आलस और बोरियत से भर देता था. सो हम लोग क्रिकेट खेलने लगते थे.

छत के तीन-पाला हिस्से के बाद तीनों सैटों के, तीन तरफ़ से खुले हुए तीन बड़े बड़े रोशनदान थे. रोशनदानों के बाद पानी की तीन ऊंची-ऊंची टंकियां थीं. इन टंकियों के बाद क़रीब चार फ़ुट चौड़ा और काफ़ी लम्बा हिस्सा था जो क्रिकेट खेलने के लिए बहुत मुफ़ीद था. यानी खेलने के पिच इतनी लम्बी थी कि बकौल लफ़त्तू वहां वेस्ट इंडिया के काले गेंदबाज़ों सरीखी फ़ाश्टमफ़ाश्टेश्ट बॉलिंग भी हो सकती थी. हमारी रसोई की चिमनी विकेट बनती जबकि बंटू वाली चिमनी से गेंदबाज़ी होती.

लफ़त्तू खेलता कभी नहीं था: न क्रिकेट, न फ़िटबाल न बैटमिन्डल. लेकिन वह मुझे अपना दोस्त मानता था और बावजूद इस तथ्य के कि मेरा बड़ा भाई उसे एकाधिक बार हमारे घर में उसे आया देख उसे अस्वीकृत और जलील कर चुका था, वह जैसे तैसे हर शाम हमारी छत पर पहुंच जाता था. वह अक्सर हरिया हकले की छत से होकर आया करता था.

हमारी छत से इस वाली तरफ़ ढाबू की छत थी. ढाबू की छत के बारे में कभी विस्तार से बताऊंगा. उसके आगे एक तरफ़ साईंबाबा की छत थी. इस मकान का धार्मिक महत्व वहां साईंबाबा नाम से कुख्यात एक लफ़ंडरशिरोमणि की वजह से था जो हर महीने नींद की चार-पांच नकली गोलियां खा कर आत्महत्या करने के नाटक के मंचन और प्रदर्शन में निपुण हो चुका था. लम्बे घुंघराले बालों और सदैव काले पॉलीएस्टर की खरगोश-शर्ट और काली ही बेलबाटम पहनने वाले साईंबाबा के बारे में एक बार मुझे लफ़त्तू ने कॉन्फ़ीडेन्शियल सूचना दी थी कि वह "बला लौंदियाबाज" है और हर महीने आत्महत्या-मंचन के पहले भवानीगंज में एक "पैतेवाले" सरदार जी के घर बढ़िया से धुन कर आता है. मैं अक्सर ही लफ़त्तू के आत्मविश्वास और 'एडल्ट' ज्ञान के अपार भंडार पर अचरज किया करता था. ढाबू की छत के दूसरी तरफ़ हरिया हकले की छत थी.

लफ़त्तू खेलता नहीं था सो अपनी उपस्थिति को जस्टीफ़ाइ करने के लिए वह स्वयंसेवक अम्पायर बन जाने का आधिकारिक काम सम्हाल लेता था. एक उंगली उठाकर आउट देता और दो उंगलियां उठाकर नॉट आउट. पहली बॉल "ट्राई" होती थी और इस में "ट्राईबॉल - कैच आउट - नो रन" का सनातन नियम चला करता था. खेल शुरू होने से पहले वह एक छोटे गोल पत्थर के एक तरफ़ थूक कर टॉस करता था जिसमें "गील" या "सूख" से पहले बल्लेबाज़ी करने वाला तय होता था.


ज़्यादा समय नहीं होता था जब छत के महिला खेल-मैदान वाले हिस्से से लफ़त्तू को पुकार लग जाया करती. "अभी लाया आन्तीजी" कहता लफ़त्तू चीते की फ़ुर्ती से पहले हमारी गेंद अपने कब्ज़े में लेता और तुरन्त सीढ़ियां उतरकर चुड़िया ले आता. गेंद अपने साथ ले जाने के पीछे उसका तर्क होता था कि वह अम्पायर है. बस. चुड़िया अक्सर किसी एक रोशनदान से नीचे गई होती और डेढ़-दो मिनट में लफ़त्तू अपनी आधिकारिक पोज़ीशन पर होता और गेंद थमा कर "दुबाला इस्टाट!" का आदेश पारित करता. लेकिन जब कभी चुड़िया दूसरी तरफ़ यानी सड़क पर गिर जाया करती, लफ़त्तू को बहुत काम करना पड़ता था. कोई पांच मिनट तक खेल रुका रहता और जब लफ़त्तू चुड़िया समेत लौटता, उस का चेहरा लाल पड़ा होता.

गेंद साथ ले जाने की उसकी आदत के चलते हमारा बहुत बखत खराब होता था और हम ने इस बाबत एकाध बार असफल वाद-विवाद प्रतियोगिताएं भी आयोजित कीं पर लफ़त्तू हमेशा "बेता, लूल तो लूल होता है" कह कर हमें चुपा देता. हमें उसकी धौंस इस लिए भी सहनी पड़ती थी कि उसके पास एक और अतिरिक्त प्रभार था.

बैटिंग करते हुए लेग साइड के शॉट तो टंकियों की दीवारों से टकराकर वापस पिच पर आ जाते पर ऑफ़ साइड वाले अक्सर ढाबू की छत पर पहुंच जाते या उससे भी आगे हरिया हकले या साईंबाबा की छत पर. छतों को अलग-अलग दिखाने भर मात्र की नीयत से बनीं दोएक फ़ुट की बाड़नुमा दीवारें थीं. लफ़त्तू की उपस्थिति हमारे खेल के लिए यों भी लाज़िम थी कि इन छतों से गेंद वापस लाने का काम भी उसी का था. कभी कभार वह हरिया हकले की छत के कोने पर जा कर कहता कि गेंद उछल कर सड़क से होती हुई दूधिए की गली में गोबर में जा गिरी है. हम दोनों परेशान हो कर उस के पास पहुंचते तो वह कुछ समय सस्पेन्स बनाने के बाद अपनी निक्कर के गुप्त हिस्से से गेंद बाहर निकाल कर दांत निपोरता, आंख मारता और ठठाकर हंसता: "तूतिया बना दिया छालों को ... तूतिया बना दिया छालों को".

इस खेल में दिक्कत शॉर्टपिच गेंदों पर होती थी. बैटिंग वाली चिमनी के पीछे ईंटों के खड़ंजे वाली दूधिये की बेहद संकरी गली थी. इस गली में स्थित पप्पी मान्टेसरी पब्लिक स्कूल हमारे विकेट के ठीक पीछे पड़ता था. स्कूल क्या था एक घर था जिसके पिछवाड़े हिस्से में चार-पांच कमरे निकाल कर कुछ बच्चों के बैठने की जगह बनाई गई थी. मकान के दूर वाले हिस्से में एक सिख परिवार रहता था. सरदारनी बहुत मुटल्ली थी और उनकी आधा या पौन दर्ज़न सुन्दर लड़कियां थीं. सबसे छोटी क़रीब पन्द्रह की रही होगी जबकी सबसे बड़ी कॉलेज पास कर चुकी थी और पप्पी मान्टेसरी पब्लिक स्कूल की प्रिंसीपल थी. सरदारनी की हर लड़की कोई न कोई उचित मौका देख कर घर से भाग चुकी थी. और रामनगर में यही इस घर का यू. एस. पी. माना जाता था. घर-पड़ोस की औरतें अक्सर इस घर की तारीफ़ में इतने क़सीदे काढ़ चुकी थीं कि उनसे कोई मेज़पोश बनाता तो सारे रामनगर के आसमान को उस से ढंका जा सकता था. लफ़त्तू उस घर के आगे से गुज़रता तो मुंह में दो उंगली घुसा कर सीटी बजाता और उन दिनों रामनगर में लोकप्रिय हुए लफ़ाड़ी-गान "बीयो ... ओ ... ओ ... ई" को ऊंचे स्वर में गाया करता. उसे किसी का ख़ौफ़ नहीं था. "जो दल ग्या बेते वो मल ग्या" - यह जुमला उसने इधर ही 'शोले' देखने के बाद से अपना अस्थाई तकियाक़लाम बना छोड़ा था.

पप्पी मान्टेसरी पब्लिक स्कूल वाली इमारत को हम सरदारनी का घर कहते थे. इस एक मंज़िला मकान की छत पर बहुत-बहुत बड़ा रोशनदान था. हमारी छत से उस रोशनदान के भीतर देखा जा सकता था. स्कूल में पढ़ने वाले क़रीब चालीसेक बच्चों की वहां असेम्बली लगती थी. असेम्बली के बाद मधुबाला जैसी दिखने वाली एक बहुत सुन्दर मास्टरनी वहीं पर बच्चों को अंग्रेज़ी की कविताएं रटाती थी. शाम को यही सब बच्चे ट्यूशन पढ़ने वहां आते और मधुबाला द्वारा कविता घोटाए जाने का कार्य पुनः सम्पन्न किया जाता. बहती नाकों वाले, अलग-अलग तरीकों से रोने वाले ये बच्चे बरास्ते सरदारनी के रोशनदान सामूहिक रूप से आसमान गुंजाने का काम किया करते:

"ब्रेस, ब्रेस, ब्रेसू टी
ब्रेसू अब्री डे
फ़ादर मदर ब्रादर सिस्टर
ब्रेसू अब्री डे

भात, भात, भातू आल
भातू अब्री डे
फ़ादर मदर ब्रादर सिस्टर
ब्रेसू अब्री डे ..."

(इन कालजयी महाकाव्यात्मक पंक्तियों में एक संस्कारी परिवार के समस्त संस्कारी सदस्यों से आयु-लिंग इत्यादि का भेद भुलाते हुए दन्तमंजन तथा स्नान में नित्य रत रहने का आह्वान किया जाता था)

अब मैं सकीना से मोब्बत और सादी के खयालात नहीं रखता था सो मधुबाला से आसिकी कर रहा था. इस दूसरे प्रेम प्रसंग में लफ़त्तू की बताई एडल्ट टिप्स के कुछ सुदूर रंग स्मृति में झलक दिखा जाते थे लेकिन समझ में ज़्यादा न आने के कारण वे अन्ततः किसी सलेटी किस्म के गुबार में ग़ायब हो जाते थे.

ख़ैर! शॉर्ट पिच गेंद सीधी उठती हुई सरदारनी के रोशनदान में घुस जाती थी: चाहे बल्ला लगे या ना लगे. इन गेंदों का रिट्रीवल असंभव होता था और हमें नई गेंदों के लिए बड़ों की चिरौरी करनी होती थी. दस पैसे देने से बड़ों के इन्कार कर दिये जाने की सूरत में मैं और बंटू गमी मनाने के मोड में आ जाते अलबत्ता लफ़त्तू का मूड बन जाता. वह गाने लगता. उसका तोतला गान मोम्म्द रफी के गाने "ताए कोई मुजे दंगली कए" से उठता हुआ किशोर दा के "मेले नेना छाबन बादो" से "दे दी हमें आज़ादी बिना लोती बिना दाल" जैसी पैरोडियों से होता नौटंकियों से सीखे "लौंदा पतवारी का" जैसे एडल्ट गानों तक पहुंचता. इस परफ़ॉरमेन्स का चरम, विकेटरूपी चिमनी से सटकर लफ़त्तू के खड़े हो जाने पर आता था. मैं और बंटू पीछे दुबक जाते. वहां पर खड़ा लफ़त्तू सरदारनी के घर की तरफ़ देखता हुआ बेशर्मी से ज़ोर-ज़ोर से गाता:

"खेल, खेल, खेलू बाल
खेलू अब्री डे
फ़ाद्ल मदल ब्लादल सिस्टल
खेलू अब्री डे ... "

अगले स्टैज़ा में वह खेल के 'ख' को 'भ' में बदल देता. कुमाऊंनी में इस से बनने वाले शब्द से अभिप्राय मनुष्य देह के पृष्ठभाग में अवस्थित उस क्षेत्रविशेष से है जिस पर अक्सर लातें पड़ती हैं और जो उत्तर भारत की अंतरंग पुरुष-भाषा की शब्दावली का विशिष्ट घटक होता है.

इसी को गाता-गुनगुनाता वह हमसे विदा लेता. सरदारनी उस के पापा से उसकी शिकायत कर चुकी होगी: यह उसे पता रहता था. पर हमारी तरफ़ आंख मार कर वह कहता: "जो दल ग्या बेते वो मल ग्या"

(यह पोस्ट 'आर्ट ऑफ़ रीडिंग' में कल लगी पोस्ट के कारण आज लिखी गई. इस लिहाज़ से मुनीश को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए. कल रात लिए गए वायदे के मुताबिक यह पोस्ट हरी मिर्च वाले मनीष जोशी और उन मित्रों के लिए सप्रेम समर्पित है जो मुझे इस ब्लॉग पर नियमित होने को कहा करते हैं. उम्मीद है अब मैं ऐसा कर पाऊंगा.

फ़ोटो 'आर्ट ऑफ़ रीडिंग' के सरगना इरफ़ान ने कुछ महीने पहले कबाड़ख़ाने पर इसी ब्लॉग के वास्ते लगाई थी. इरफ़ान का सूखरिया ...)

Friday, March 14, 2008

अइयइया सुकू सुकू और पटवारी का लौंडा

छमाही इम्त्यान पूरे होते न होते खेल मैदान और बस अड्डे से लगा सारा इलाका निमाईस और उरस के लिए तैयार होना शुरू कर देता था। निमाईस में बिजली का झूला लगता था, बुढ़िया के बाल खाने को मिलते थे, जलेबी-समोसे और अन्य लोकप्रिय व्यंजनों के असंख्य स्टाल लगते थे, रामनगर की जगत - विख्यात सिंघाड़े की कचरी और बाबा जी की टिक्की, बौने के बम-पकौडे के स्टाल से टक्कर लिया करते थे। खेल मैदान में बच्चों की भीड़ रहा करती। बस अड्डे से लगा इलाका वयस्कों के लिए टाइप बन जाया करता था।

इस वयस्क इलाके में नौटंकी चला करती थी और अजीब - अजीब गाने बजा करते थे। ये गाने किसी भी फ़िल्मी गाने जैसे नहीं होते थे। न ही इनकी धुनें रामलीला के गीतात्मक वार्तालापों से मिला करतीं। अलबत्ता ये गाने बेहद 'कैची' होते थे और पहले ही दिन इन में से एक मेरी ज़ुबान पर चढ़ गया। "मैं हूं नागिन तू है संपेरा, संपेरा बजाए बीन। लौंडा पटवारी का बड़ा नमकीन ..." वाला गीत मैं एक बार घर में गुनगुनाने की ज़ुर्रत कर बैठा तो बढ़िया करके धुनाई हुई। शुरू में मुझे लगा कि पड़ोस में रहने वाले पटवारी जी का अपमान न करने की नसीहत मुझे दी गई है लेकिन लफ़त्तू ने मेरे ज्ञानचक्षु खोलते हुए बताया कि नौटंकी एडल्ट चीज़ होती है और उस में माल टाइप का सामान डांस किया करता है।

एकाध दिन नौटंकी को लेकर मन में ढेरों बातें उबला कीं लेकिन खेल मैदान में चल रहे एक दूसरे शानदार तमाशे ने बचपन के एक पूरे हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया। एक साहब गोल गोल घेरे में सात दिन तक लगातार साइकिल चलाया करते थे। दिन के वक्त कभी कभी साइकिल पर कई तरह के करतब दिखाए जाते थे और वे अपने एक असिस्टेन्ट की मदद से दोपहर किसी वाज़िब मौके पर साइकिल में बैठे बैठे जंग खाए तसले में भरे पानी से नहाते और बाकायदे कपड़े भी बदला करते।

इन साहब के पास बस एक ही रेकॉर्ड था। 'जंगली' फ़िल्म का यह रेकॉर्ड लगातार-लगातार बजता रहता था और उसके चलते "अइयइया सुकू सुकू" मेरे सर्वप्रिय गीतों में से एक बन गया था। मैंने तब तक सिर्फ़ चार पिक्चरें देखी थीं ('हाथी मेरे साथी', 'बनफूल', 'मंगू' और 'दोस्ती')। "अइयइया सुकू सुकू" सुनते हुए मुझे लगता था कोई खिलंदड़ा पक्षी किसी पेड़ की ऊंची डाल पर बैठा बहुत-बहुत ख़ुश है। आज भी जब कभी 'जंगली' के गाने सुनता हूं, मुझे रामनगर में निमाइस के दिनों साइकिल चलाने वाले उन सज्जन की याद आ जाती है।

हमारे लिए ये साहब बहुत बड़े हीरो थे। जहां हम बच्चे कैची चलाने में दिक्कत महसूस करते थे, ये जनाब सारे के सारे काम साइकिल पर किया करते थे। लफ़त्तू के ख्याल से एक काम साइकिल पर बैठ कर कभी नहीं किया जा सकता था : "तत्ती कैते कल पागा कोई छाकिल में बेते!"

Tuesday, March 11, 2008

बच्चों की चड्ढी और होस्यार सुतरा

गुलाबी रंग का तोता बनाते बनाते हमें क़रीब दो महीने बीते. पहले छमाही इम्त्यान की अफ़वाह हवा में थी. आल्ट की क्लास के चलते चित्र बनाने में मेरी दिलचस्पी समाप्त होने लगी थी. प्राइमरी स्कूल के ज़माने में मेरी ड्राइंग अच्छी समझी जाती थी और मुझे शिवाजी और महाराणा प्रताप के चित्र बनाने में महारत हासिल थी. लेकिन तिवारी मास्साब की आल्ट के चक्कर में मेरी अपनी आल्ट की ऐसी तैसी हो चुकी थी.

आल्ट के अलावा मुझे जिन दो विषयों से ऊब सी होने लगी थी वे थे बाणिज्ज और सिलाई-कढ़ाई. बाणिज्ज तो तब भी ठीक था पर सिलाई की क्लास का खास मतलब मेरी समझ में नहीं आता था. ऊपर से यह विषय पूरे तीन साल तक खेंचे जाने थे.

सिलाई की क्लास भूपेस सिरीवास्तव मास्साब लेते थे. सिरीवास्तव मास्साब देखने में किसी भी एंगल से दर्ज़ी नज़र नहीं आते थे. सिलाई की पहली क्लास के बाद जब मैं आवश्यक चीजों की लिस्ट लेकर घर पहुंचा तो जाहिर है मेरे नए स्कूल और वहां पढ़ाए जाने वाले विषयों को लेकर तमाम तरह के मज़ाक किए गए. मुझे अच्छा नहीं लगा पर मजबूरी थी. प्लास्टिक का अंगुस्ताना, धागे की रील, कैंची इत्यादि लेकर रोज़ स्कूल जाने की जलालत वही समझ सकता है जिसे साईंस की क्लास में पन्द्रह दिन तक कछुवा देखना पड़े या दो माह तक गुलाबी तोता बनाना पड़े.

भूपेस सिरीवास्तव मास्साब ने शुरू में हमें एक सफ़ेद कपड़े पर सुई धागे की मदद से कई कारनामे करने सिखाए. इन कारनामों में मुझे धीरे धीरे तुरपाई के काम में मज़ा आने लगा था. बहनों के लतीफ़ों के बावजूद मुझे अपनी पुरानी पतलूनों और घुटन्नों की मोहरियों की तुरपाई उखाड़ना और नए सिरे से उसे करना अच्छा लगता था. एकाध माह तक हमें फ़न्दों की बारीकियां सिखाई गईं. अंगुस्ताना काफ़ी आकर्षित करने लगा था. सिरीवास्तव मास्साब ने क्लास में उस के इस्तेमाल का तरीका सिखा दिया था सो मैं जान बूझ कर तुरपाई करने में सुई को अंगुस्ताने से लैस अपनी उंगली में खुभाने का वीरतापूर्ण कार्य किया करता था. पड़ोस में रहने वाली सिलाई बहन जी के नाम से विख्यात एक आंटी मेरे इस टेलेन्ट से बहुत इम्प्रेस्ड हो गई थीं.

एक रोज़ सिरीवास्तव मास्साब ने हमसे अगली क्लास के लिए पुराने अख़बार लाने को कहा. लफ़त्तू तब तक महाचोर के रूप में इस क़दर विख्यात हो चुका था कि घर पर उसे एक पुराना अख़बार तक लाने नहीं दिया जाता था. जब वह एक बार ड्रेस पहन कर रेडी हो जाता तो उसके पिताजी उसे दुबारा पूरी तरह नंगा करते और बस्ता ख़ाली करवा कर बाकायदा उसकी तलाशी लेते थे. उस के लिए भी अख़बार मैं ही ले गया.

सिलाई की पहली क्लास में हमें बच्चों की चड्ढी बनाना सिखाया गया. पहले अखबार पर नीली चॉक से बच्चों की चड्ढी की नाप बनानी होती थी. मास्साब ज़ोर-ज़ोर से बोलते हुए हमें माप लिखाया करते थे.: "एक से दो पूरी लम्बाई तीस सेन्टीमीटर ... दो से तीन मुड्ढे की लम्बाई दस सेन्टीमीटर ... इत्यादि ..." उस के बाद बनी हुई चड्ढी को काटना होता था और अखबार पर ही सुई से लम्बे टांके मार कर इस कारनामे को अंजाम दिया जाता था. बच्चों की चड्ढी भी हमने करीब महीने भर बनाई.

ख़ैर. छमाही इम्त्यान घोषित कर दिए गए थे और पहला परचा भिगोल का था. तिवारी मास्साब ने इम्त्यान से पहले पांच सवाल लिखा दिये और "जेई पूछे जांगे परीच्छा में सुतरो" कह कर हमें उन के जवाबों का घोटा लगाने का आदेश दे दिया. घोटा अच्छे से लगाया जाना था क्योंकि फ़ेल होने की सूरत में हम सबको गंगाराम की मदद से हौलीकैप्टर बनाए जाने की धमकी भी मिल गई थी.

बाद में जब इम्त्यान निबट चुके थे और हम दिसम्बर की एक सुबह बाहर धूप में लगी भिगोल की कच्छा पढ़ रहे थे, अचानक लालसिंह कहीं से हमारी इमत्यान की कापियां बगल में थामे तिवारी मास्साब के नज़दीक पहुंचा.

"जिन सुतरों के नम्बर आठ से कम होवें बो सारे क्लास छोड़ कर धाम पे कू लिकल जां ... और जिनके चार से कम होवें बो अपने चूतड़ों की मालिश कल्लें ..." गंगाराम को बाहर निकालते हुए तिवारी मास्साब ने धमकाया.

कुल बीस नम्बर का परचा था और ज़्यादातर लड़्कों के आठ या बारह नम्बर थे. लफ़त्तू तक आठ नम्बर ले आया था.

"जे असोक पांड़े कौन हैगा बे?"

मुझे तुरन्त लगा कि मैं फ़ेल हो गया हूं और मुझे घर की याद आने लगी और मैं आसन्न पिटाई के भय में रोने रोने को हो गया. कांपता हुआ मैं खड़ा हुआ तो मुझे अच्छी तरह देखकर मास्साब बोले: "क्यों बे सुतरे, नकल की थी तैने?"

मुझे काटो तो खून नहीं. इसके पहले कि मैं रोने लगता, लफ़त्तू ने मित्रधर्म का निर्वाह किया और अपनी जगह पे खड़ा हो गया.
"क्या है बे चोट्टे?" तिवारी मास्साब भी लफ़त्तू की ख्याति से अनजान नहीं थे.

"मात्ताब मेले पलोस मे रैता हैगा असोक और भौत होत्यार है"

"होस्यार है तो बैठ जा. बीस में बीस लाया है सुतरा!"

तिवारी मास्साब और मेरे बीच हुआ यह पहला और अन्तिम वार्तालाप था.

Monday, March 3, 2008

एक क़स्बे का जुगराफ़िया वाया थोरी मास्साब

एम पी इन्टर कालिज में सबसे ज़्यादा ख़ौफ़ था तिवारी मास्साब का। तिवारी मास्साब को प्रागैतिहासिक समय से थोरी बुढ्ढा कहा जाता था। मास्साब की रंगत कोयले के बोरे को शर्मिन्दा करने को पर्याप्त थी। वे हमें चित्रकला यानी की आल्ट सिखाने के अलावा भूगोल यानी भिगोल भी पढ़ाया करते थे।

शुरू शुरू में तो उनकी ज़बान मेरी समझ में आती ही न थी पर जब एक दफ़े लफ़त्तू ने मुझे बताया कि वे दर असल हमें गालियां देते थे तो मैं उनसे और ज़्यादा ख़ौफ़ खाने लगा। "सुतरे" (यानी ससुरे) उनका फ़ेवरिट शब्द था। और उन्हीं दिनों रिलीज़ हुई 'शोले' के असरानी की अदा के साथ उन्होंने पहली बार क्लास में एन्ट्री ली थी : "अंग्रेज़ों के टैम का मास्टर हूं सुतरो! बड़े-बड़े दादाओं का पेस्साब लिकला करे मुझे देख के। मेरी क्लास में पढ़ाई में धियान ना लगाया तो सुतरो मार मार के हौलीकैप्टर बना दूंवां!"

मास्साब के पास एक पुराना तेल पिया हुआ डंडा था। 'गंगाराम' नामक यह ऐतिहासिक डंडा उनकी बांह में इतनी सफ़ाई के साथ छुपा रहता था कि जब पहली बार क्लास के पीछे के बच्चों को उस का लुफ़्त मिला था मेरी समझ ही में नहीं आया कि मास्साब को वह डंडा मिला कैसे। उन दिनों घुंघराले झब्बा बालों वाले एक विख्यात बाबा ने हवा से घड़ियां और भभूत पैदा करने की परम्परा चालू की थी - मुझे लगा हो न हो मास्साब को कोई दैवी शक्ति हासिल है। लेकिन जल्द ही लालसिंह ने हमें गंगाराम की कई महागाथाएं सुनाईं।

मास्साब का व्यक्तिगत जीवन मुझे बहुत आकर्षित करता था लेकिन बहुत आधिकारिक तौर पर उनके बारे में किसी को भी ज़्यादा मालूम नहीं था। उनका एक बेटा इंग्लैण्ड में रहता था क्योंकि वे हर हफ़्ते हम में से किसी होस्यार बच्चे को नज़दीक के पोस्ट ऑफ़िस भेज कर विदेशी लिफ़ाफ़ा मंगाया करते थे। इन्टरवल के समय उन्हें कालिज से लगे तलवार रेस्टोरेन्ट में तन्मय हो कर चिठ्ठी लिखते देखा जाता था। उनकी एक लड़की भी थी जो चौथी क्लास में कहीं पढ़ा करती थी। उसे किसी ने देखा नहीं था। लेकिन तिवारी मास्साब अपने हर दूसरे किस्से में उसका ज़िक्र किया करते थे। इन वाले कि़स्सों में तिवारी मास्साब खुद ही हमें डराने के लिए अपने आप को किसी भुतहा फ़िल्म के खलनायक की तरह पेश किया करते थे।

खैर। आल्ट की शुरुआती क्लासों में हमें ऑस्टवाल्ड का रंगचक्र बना कर लाने को कहा जाता था। बाहर से बहुत आसान दिखने वाला यह चक्र बनाने में बहुत मुश्किल होता था। एक तो उसे बनाने की जल्दी, फिर उसे सुखाने की बेचैनी: रंगों का आपस में मिल जाना और एक दूसरे में बह जाना आम हुआ करता था। हमारे पड़ोस में एक मोटा सा आदमी रहता था। उसके गोदामनुमा कमरे की हर चीज़ मुझे जादुई लगा करती थी। अजीब अजीब गंधों और विचित्र किस्म के डिब्बों, बोरियों और कट्टों से अटा हुआ उसका कमरा मेरे लिए साइंस की सबसे बड़ी प्रयोगशाला था। उसी की मदद से मैंने सेल से चलने वाला पंखा बनाया, उसी कमरे में मैंने रेडियो की बैटरी को पंखे के रेगूलेटर से जोड़ने का महावैज्ञानिकी कारनामा अंजाम दिया था। जब मैं ऑस्टवाल्ड के रंग चक्र से बुरी तरह ऊब गया तो गोदाम वाले सज्जन ने ऑस्टवाल्ड में दिलचस्पी लेनी पैदा की। मेरी ड्राइंग वैसे खराब नहीं थी लेकिन ऑस्टवाल्ड ने मेरे घोड़े खोल दिये थे। मैं गोदाम के कबाड़ में डूबा रहता था और ये साहब बहुत ध्यान लगा कर मेरा आल्ट का होमवर्क किया करते थे। रंग को सुखाने की इन की बेचैनी मुझ से भी ज़्यादा होती थी। एक बार इस बेचैनी में आल्ट की कॉपी को पम्प वाले स्टोव के ऊपर अधिक देर तक रहना पड़ा और कॉपी तबाह हो गई थी। इस हादसे के बावजूद मुझे तिवारी मास्साब के डंडे का स्वाद नहीं मिला क्योंकि मैं क्लास में होस्यार के तौर पर स्थापित हो चुका था। इस घटना का ज़िक्र फिर कभी।

क़रीब महीने भर तक ऑस्टवाल्ड के रंग चक्र से जूझने के बाद तिवारी मास्साब को हम पर रहम आया और हम ने चिड़िया बनाना सीखना शुरू किया। मास्साब सधे हुए हाथों से ब्लैकबोर्ड पर बिना टहनी वाले एक पेड़ पर बेडौल सी चिड़िया बना देते थे और हम सब ने उस की नकल बनानी होती थी। मैंने कहा था कि मेरी ड्राइंग बुरी नहीं थी सो मैंने नकल सबसे पहले बना ली। मास्साब बाहर मैदान में पतंगबाज़ी देखने में मसरूफ़ थे; मैंने अपनी कॉपी उन्हें दिखाई तो उन्होंने सर से पांव तक मुझे देखकर कहा :

"भौत स्याना बन्निया सुतरे! इस में रंग तेरा बाप भरैगा!"

इस के पहले कि चिड़िया की रंगाई के बारे में मैं उन से कुछ पूछता, मास्साब ने खुद ही मेरी उलझन साफ़ कर दी:

"अब घर जा कै इस में गुलाबी रंग कर के लाइयो"

इस अस्थाई अपमान का जवाब मैंने अपनी कलाप्रतिभा द्वारा देने का फ़ैसला कर लिया था। घर पर सारे लोगों ने उस बेडौल चिड़िया का मज़ाक बनाया लेकिन मुझे तो उसी चिड़िया को रंगकर तिवारी मास्साब की दाद चाहिए थी। उल्लू, गौरैया और ऑस्ट्रिच मे मेलजोल से बनी चिड़िया का पेट ज़रूरत से ज़्यादा स्थूल था और क्लास में जिस चिड़िया को मास्साब ने बनाया था उस की आंख सबसे विचित्र जगह पर थी। आंख, आंख की जगह पर न हो कर गरदन के बीचोबीच बनाया करते थे तिवारी मास्साब. अपने आप को वाक़ई ज़्यादा स्याना बनते हुए मैंने चिड़िया की आंख को सही जगह पर बना दिया था. ऊपर से इस चिड़िया का रंग गुलाबी था.

सुबह क्लास का हर बच्चा गुलाबी रंग की दयनीय चिड़िया बना कर लाया था. लफ़त्तू की चिड़िया सबसे फ़द्दड़ बनी थी. लालसिंह को अपनी सीनियोरिटी के कारण इस कलाकर्म से दो-तीन साल पहले मुक्ति मिल चुकी थी.

मास्साब को चिड़िया दिखाने का पहला नम्बर मेरा था. मास्साब ने किसी सधे हुए कलापारखी की तरह मेरी कॉपी को आड़ा तिरछा कर के देखा.

"जरा पेल्सिन लाइयो"

मैंने उन्हें पेन्सिल दी तो उन्होंने चिड़िया की गरदन के बीचोबीच पेन्सिल से एक गोला बना कर कहा:

"सुतरे, ह्यां हुआ करै आंख! पैले वाली मेट के नई वाली में रंग कर लाइयो कल कू."

मैं पलट कर अपनी सीट पर जा रहा था कि उन्होंने मुझे फिर से बुलाया :

"जब आल्ट पूरी हो जा तो नीचे के सैड पे लिख दीजो 'तोता'."

उस के कई सालों बाद तक "लिख दे तोता" रामनगर के लौंडे मौंडों में बहुत पॉपुलर हुआ।

एक दिन अचानक पता चला कि थोरी बुडढा हमें भूगोल भी पढ़ाया करेगा। "लिख दे तोता" कांड के बाद मेरे मन से उन के लिये सारी इज़्ज़त खत्म हो गई थी।

अंग्रेज़ों के ज़माने वाला मास्टर और दादाओं के पेस्साब और मार मार के हॉलीकैप्टर वाली प्रारंभिक स्पीच के उपरान्त मास्साब ने गंगाराम चालीसा का पाठ किया। इस औपचारिक वार्ता के बाद वे गम्भीर मुखमुद्रा बना कर बोले: "कल से सारे सुतरों को मैं भिगोल पढ़ाया करूंगा। भिगोल के बारे में कौन जाना करै है?" हम ने भूगोल का नाम सुना था भिगोल का नहीं। यह सोचकर कि शायद कोई नया विषय हो, सारे बच्चे चुप रहे। गंगाराम का भय भी सता रहा था।

"भिगोल माने हमारा इलाका। पैले हमारा कालिज, बा कै बाद पिच्चर हाल, बा कै बाद ह्यां कू तलवार का होटल और व्हां कू प्रिंसपल साब का घर। ..."

मास्साब की आवाज़ को काटती हुई लफ़त्तू की आवाज़ आई : " माट्साब, आपका घर किस तरफ़ कू हैगा?"

एक बित्ते भर के 'सुतरे' से मास्साब को ऐसी हिमाकत की उम्मीद न थी।

"कुत्ते की औलाद, खबीस, सुतरे! ..." कहते हुए मास्साब ने अपना गंगाराम बाहर निकाल लिया और लफ़त्तू की कतार में बैठे सारे बच्चों को मार मार कर नीमबेहोश बना डाला।

गुस्से में कांप रहे थे तिवारी मास्साब। अपनी कर्री आवाज़ में उन्होंने भिगोल की क्लास के अनुशासन के नियम गिनाए: "जिन सुतरों को पढ़ना हुआ करे, बो ह्यां पे आवें वरना धाम पे कू लिकल जाया करें। और रामनगर के चार धाम सुन लो हरामज़ादो! इस तरफ़ कू खताड़ी और उस तरफ़ कू लखुवा (लखनपुर नाम का यह मोहल्ला लखुवा कहे जाने पर ही रामनगर का हिस्सा लगता था. लखनपुर से उस के किसी संभ्रान्त बसासत होने का भ्रम होता था)। तीसरा धाम हैगा भवानीगंज और सबसे बड़ा धाम हैगा कोसी डाम (कोसी नदी पर बने इस बांध पर टहलना रामनगर में किया जा सकने वाला सबसे बड़ा अय्याश काम था)।"

"और जो सुतरा तिवारी मास्साब की नजर में इन चार जगहों पर आ गया, उसको व्हंईं सड़क पे जिन्दा गाड़ के रास्ता हुवां से बना दूंवां ..."

Thursday, February 28, 2008

नौ फ़ुट की खाट और आश्टेलिया के राष्ट्रपति का आगमन

रामनगर से बहुत ज़्यादा दूर नहीं था जिम कॉर्बेट पार्क। बड़े लोगों की आमद वहां जब तब होती रहा करती थी। बड़े लोगों के आने का मतलब यह होता था कि हम सारे बच्चे कालेज से चार पांच इमारत दूर मौजूद पोस्ट आफ़िस से लेकर मक्खनलाल छज्जूमल के पम्प तक हाथों में झंडा या पट्टियां थामे कुछ गाड़ियों के काफ़िले का इन्तज़ार करते रहते थे। प्रतीक्षा के उन पलों में प्यास बहुत लगा करती थी।

खैर!

अचानक चन्दर मास्साब का इशारा होता था और सारे बच्चे "आपका सुवागत है सिरिमान" गाना चालू कर देते थे। पोस्टआफ़िस से पम्प तक की दूरी अच्छी खासी थी और गाने के अलग अलग बोल एक बेसुरे कोरस की शक्ल में हवा में धूल की तरह तैरा करते थे। हम लोग बेहद उत्साह में गाते हुए हाथों में झंडा या पट्टी जो भी होता था, को जल्दी जल्दी हिलाना भी जारी रखते थे। अचानक एक या दो गाड़ियां धारीवाल मास्साब के घर के पास रुका करती थीं। प्रिंसिपल साब बदहवास भागते हुए उन गाड़ियों की तरफ़ जाया करते थे। गाड़ियों का शीशा कभी खुलता था कभी नहीं। इस के पहले कि हम कुछ समझ पाते गाड़ियों का कारवां हॉर्न-साइरन इत्यादि बजाता आंखों से ओझल हो जाया करता था। इस पूरे आयोजन में बमुश्किल दो या तीन मिनट लगा करते थे। कभी कभी हम इस पूरे कार्यक्रम के लिए सुबह स्कूल खुलने से लेकर दोपहर तक बिना खाए-पिये सड़क पर कतार बांधे मक्खियां मारा करते थे। कतार तोड़ने की सूरत में दुर्गादत्त मास्साब और तिवारी मास्साब के डण्डे हमारे शरीरों पर गिरने को सदैव तत्पर रहते थे।

इन आयोजनों के तीन मज़े होते थे। एक तो दिन भर पढ़ाई नहीं होती थी । दूसरे गाड़ियों के गुज़र जाने के बाद समोसा और लड्डू मिला करते थे। तीसरा और सबसे बढ़िया काम यह होता था कि अगले दिन छुट्टी हुआ करती थी।

कुछ दिनों से चर्चा में था कि आश्टेलिया के राष्ट्रपति का जिम कॉर्बेट पार्क आने का कार्यक्रम है। आश्टेलिया के बारे में हमारा ज्ञान बस रेडियो पर कमेन्ट्री तक सीमित था। हमने चैपल भाइयों के नाम सुन रखे थे और लिली-थामसन के भी। ये नाम इतने ज़्यादा सुने हुए थे कि हमारे मोहल्ले में सबसे फ़ास्ट बॉलिंग करने वाले नवीन जोशी को थॉमसन के नाम से ही पुकारा जाता था। वैसे सबसे ज़्यादा पॉपुलर वेस्ट इंडीज़ के खिलाड़ियों के नाम थे। रेडियो की कमेन्ट्री बताती थी कि अपने बेदी-चन्द्र्शेखर-प्रसन्ना और वेंकटराघवन लगातार धुने चले जाते थे और ग्रीनिज, फ़्रेडरिक्स, लॉयड, रिचर्ड्स और कालीचरण वगैरह हज़ारों रनों का अम्बार लगाए चले जाते थे। बस गावस्कर और विश्वनाथ से हमें लगाव था क्योंकि ये दोनों छोटू भारत की किरकिट पर फ़खर करने के दुर्लभ मौके मुहय्या कराया करते थे। एकाध बार तो हद्द हो गई थी जब गावस्कर ने एक मैच में बॉलिंग की शुरुआत की। मेरा बड़ा भाई बहुत गुस्से में फ़ुंफ़कारता हिन्दुस्तानियों को गाली देता रहा था उस दिन।
ख़ैर, क्रिकेट पर विस्तार से बाद में। चैपल और लिली-थॉमसन के देश के राष्ट्रपति का रामनगर-आगमन मेरे और मेरे हमउमर बच्चों के लिए तब तक की सबसे महान और एतिहासिक घटना थी। जैसी कि शहर कि फ़ितरत थी अफ़वाहों से आसमान पट गया। किसी ने कहा कि आश्टेलिया के राष्ट्रपति को इन्द्रा गांधी ने बुलाया है खा़स सैरसपाटे के वास्ते। किसी ने कहा कि आश्टेलिया के राष्ट्रपति का जीनत अमान से चक्कर चल रहा है। इस दूसरी अफ़वाह को इस तर्क द्वारा तुरन्त ख़ारिज़ किया गया कि जीनत अमान को अंग्रेज़ों जितनी तेज़ अंग्रेज़ी बोलनी आ ही नहीं सकती। लिली-थॉमसन और चैपल-गावस्कर को ले कर भी तमाम बातें कही गईं।

लेकिन सबसे महत्वपूर्ण अफ़वाह आश्टेलिया के राष्ट्रपति के क़द को लेकर फैली। यह बात जगजाहिर थी की अंग्रेज़ बहुत ज़्यादा लम्बे होते हैं। क़द को लेकर अफ़वाह फ़ैलाए जाने की ज़रूरत इस अफ़वाह के बाद पड़ी कि आश्टेलिया के राष्ट्रपति ने एक रात जंगलात के रामनगर स्थित डाकबंगले में रुकना है।

जब्बार कबाड़ी का मानना था कि ये बेसिरपैर की बातें उसका पड़ोसी और भवानीगंज में बढ़ईगीरी करने वाला अतीक फैला रहा था। फ़िलहाल पहले ये कहा गया कि मैल्कम फ़्रेज़र (सत्यबली मास्साब हमें आश्टेलिया के राष्ट्रपति का नाम रटा चुके थे तब तक) के रहने लायक सिर्फ़ एक कमरा डाकबंगले में ठीकठाक पाया गया है। एक ज़माने में हैनरी रैमज़े साहब (ब्रिटिश कालीन कुमाऊं के इस विख्यात विद्वान कमिश्नर को तब भी रामजी साब कहा जाता था) जिस खाट पर सोया करते थे, वही खाट मैल्कम फ़्रेज़र के सोने हेतु दुरुस्त कराई जा रही थी। जब्बार कबाड़ी का कहना था कि ऐसी कोई खाट फ़िलहाल डाकबंगले में नहीं बची है। कई साल पहले हुई सरकारी नीलामी में वह डाकबंगले का कोना कोना देख चुका था।

मैल्कम फ़्रेज़र का क़द लगातार बढ़ता जा रहा था। साढ़े छः फ़ुट से शुरू होकर अब वह सवा सात तक पहुंच चुका था। हम बच्चों में भी यदाकदा इस मुद्दे पर चिन्ताग्रस्त वार्तालाप हुआ करते थे। मसलन इतनी बड़ी खाट आएगी कहां से। सारे रामनगर में इतना लम्बा कोई न था। पुराने ज़माने के रायबहादुर साहब भी साढ़े छः फ़ुट के ही थे। मान लिया वे अपनी खाट एक रात को उधार पर देने को तैय्यार हो भी गए तो मैल्कम फ़्रेज़र को कितना बुरा लगेगा - एक तो अंग्रेज़, दूसरे राष्ट्रपति तीसरे खाट भी छोटी।

"इन्द्रा गांधी बलबाद हो जाएगी बेते" - अपने ब्रह्मवाक्यों से हमें आतंकित करने की अपनी पुरानी आदत से परेशान लफ़त्तू ने इस परिदृश्य पर यह महान टिप्पणी की।

होते होते मैल्कम फ़्रेज़र का क़द नौ फ़ुट तक पहुंच गया। खाट की बात अब पुरानी हो गई थी क्योंकि रामनगर के बढ़ई इस औकात के नहीं पाए गए कि आश्टेलिया के राष्ट्रपति के लिए वैसी खाट बना सकें। जब्बार कबाड़ी के हवाले से इस ऐतिहासिक तथ्य पर मोहर लग गई कि मैलकम फ़्रेज़र की खाट आश्टेलिया से ही आने वाली है और भारत की वायु सेना का खास जहाज़ उसे रामनगर लाने वाला है।

स्कूल में हमारी हफ़्ते भर की छुट्टी हो गई। हम सब को फ़्रेज़र साब के आने के दिन खेल मैदान से दूर रहने की कड़ी हिदायत दे दी गई थी। सत्यबली मास्साब ने छुट्टी घोषित करने से पहले "प्यारे बच्चों, विदेशी मेहमानों की इज़्ज़त करने की हमारी पुरानी परम्परा रही है ..." टाइप का एक उबाऊ भाषण दिया।

आश्टेलिया के राष्ट्रपति के आगमन वाले दिन खेल मैदान पर जाने की किसी को इजाज़त नहीं थी। हमारे घर की छत से साफ़ नज़र आ रहा था कि सारे मैदान पर खाकी वर्दीधारी पुलिस वालों की भीड़ थी। हमारी छत की लोकेशन बहुत महत्वपूर्ण थी इसलिए वहां करीब सौ लोग जमा थे। मैदान की तरफ़ जितने भी मकान थे, उन सब की छतें लोगों से अटी पड़ी थीं।

हमारी छत पर एक और आकर्षण भी था। डिग्री कालेज में अंग्रेज़ी पढ़ाने वाली मैडम का भाई नैनीताल से आया था। उस के रंगीन और फ़ैशनेबल काट के कपड़े हमें हमेशा तुच्छ बोध से भर दिया करते थे। वह साल में दो दफ़ा रामनगर आया करता था और हमारे लिए नैनीताल को किसी तिलिस्मी जगह की तरह स्थापित कर जाता था। हमें पता था कि रामनगर के गंवाड़ी समाज में लाल बैलबॉटम पहनने वाला मैडम का भाई हमें कुत्तों से भी बदतर समझता था, इस लिए हमारे दिल में उस के लिए बहुत इज़्ज़त थी। ख़ैर असल बात यह थी कि मैल्कम फ़्रेज़र के आगमन वाले दिन वह भी रामनगर में था और सुबह से ही एक विशेष जगह पर काबिज़ था। उसके पास एक महंगी सी लगने वाली दूरबीन भी थी। शीघ्र पहुंचने वाले आश्टेलिया के राष्ट्रपति के हौलीकैप्टर को देखने का आकर्षण तो था ही, मैडम के भाई की दूरबीन को देखकर भी लार गिर रही थी। एक बार उस ने मुझे अपने पास बुलाकर मेरी आंखों पर दूरबीन लगाई भी। मुझे कुछ चेहरे बहुत नज़दीक नज़दीक देखने की स्मृति भर है। करीब पांच सेकेंड ही मुझे यह लुफ़्त मिल सका।

अचानक आसमान पर हौलीकैप्टर के घरघराने की आवाज़ आई। आवाज़ नज़दीक आती जा रही थी और हमारी छत पर उत्तेजना का माहौल फ़ैलता जा रहा था। क़द में बहुत छोटा होने के कारण मुझे कहीं कुछ नज़र नहीं आ रहा था। मेरे आगे - पीछे लोगों की टांगें थीं और मुझे कुचले जाने का भय हुआ।

घरघर की आवाज़ बढ़ती गई फ़िर अचानक मैंने देखा कि आसमान पर धूल का विशाल गुबार उठना चालू हुआ। हौलीकैप्टर के उतरने से मैदान की मिट्टी उड़ रही थी और लोगों की चीखों-चिल्लाहटों से जाहिर हो रहा था कि उन्हें कुछ नज़र नहीं आ रहा था। घरघर की आवाज़ फिर आने लगी और दूर जाती लगी।

मेरी निगाह अचानक आसमान की तरफ़ उठी। हौलीकैप्टर जिस दिशा से आया था उसी तरफ़ लौट रहा था। मेरे चारों तरफ़ की अफ़रातफ़री और बढ़ गई थी। धूल का गुबार कुछ देर को घना होने के बाद छंटने लगा था। हवा साफ़ हुई तो लोगों के मुंहों से अजीब सी कराह निकली मानो आशियां लुट गया हो। "धत्तेरे की!" कहता हुआ मैडम का भाई मुंडेर से नीचे उतर आया और अब दूरबीन भी उसके हाथ से जेब के भीतर घुस चुकी थी।

"क्या हुआ?" मैडम उस से पूछ रही थीं। वे उस से इस लिए पूछ रही थीं कि उसके पास दूरबीन थी।

"होना क्या था! साला आया और जहाज़ से उतर के सीधे गाड़ी में बैठ के निकल गया।"

मां रसोई की तरफ़ जाने लगी। लफ़त्तू नीचे सड़क से मुझे इशारा कर के बुला रहा था। मेरी बड़ी इच्छा थी कि मैडम के भाई से कम से कम आश्टेलिया के राष्ट्रपति के क़द के बाबत पूछ कर देखूं।

लेकिन वह नैनीताल से आया था और मैं अपने आप को उस के सामने हर्गिज़ छोटा क़स्बाई लौंडा साबित नहीं करना चाहता था।