Tuesday, July 28, 2009

ज्याउल, उरस की मूफल्ली, मोर्रम और ब्रिच्छारौपड़ - ३

डबल डेकर डब्बे को छुपाना अगले कई दिन का सबसे मुश्किल काम रहा. सबसे पहली बात तो यह थी कि वह डब्बा मुझे बहुत पसन्द था पर हर साल लिया जाने वाला जौमेट्री बॉक्स मेरे लिए लच्छमी पुस्तक भण्डार से कुछ माह पहले लिया जा चुका था और सलामत था. एक बार मैंने उस डबल डेकर डब्बे का घर पर ज़िक्र क्या किया सारे लोग झिड़कियों का झाड़ू ले कर मुझ पर पिल पड़े थे. लफ़त्तू जानता था कि मुझे वह डब्बा अच्छा लगता है. उसे यह बात याद रही और जेब में रकम आते ही वह मेरे वास्ते उसे खरीद लाया. यह तथ्य मेरे लिए गौरवान्वित करने वाला होने के साथ साथ इमोशनल बना देने वाला भी था. अलबत्ता अगर लफ़त्तू के घरवालों को किसी भी सूत्र से पता लग जाता कि उसने अपनी बहन की घड़ी सत्तार मैकेनिक को बेच दी है तो उसका क्या हाल होना था यह सोच सोच कर मैं थर्रा जाया करता.

घर की दुछत्ती में एक कबाड़ बक्सा धरा रहता था जिसके भीतर पुरानी फ़ाइलें, टूटे हत्थों वाली एक कढ़ाई, कुछेक पोटलियां और बिना ट्यूब वाला साइकिल का पुराना पम्प जैसी अंडबंड चीज़ें रखी रहती थीं. दुछत्ती में जाने के लिए खास मेहनत नही करती पड़ती थी. इस दुछत्ती का दरवाज़ा छत तक जाने वाली सीढ़ियों से लगा हुआ था . क्रिकेट खेलने जाते वक्त मैंने डब्बे को उसी बक्से के एक कोने में पोटलियों के नीचे छिपा दिया. हर सुबह शाम एक बार अपने ख़ज़ाने की सलामती चैक कर लेने पर ही इत्मीनान मिलता.

कुछ दिन बाद वह स्थान भी असुरक्षित लगने लगा तो मैंने उसे ढाबू की छत पर बने आले के नीचे धरी ईंट-रेत के पीछे वाली अपनी प्राइवेट सेफ़ को ही सबसे मुफ़ीद पाया जहां पिछले पांच छः माह से कर्नल रंजीत वाली वह फटी किताब अब तक सुरक्षित धरी हुई थी जिसे परजोगसाला से लफ़त्तू ने मेरे लिए चाऊ किया था.

ढाबू की छत का नामकरण बन्टू, उसकी बहन और मैंने किया था. ढाबू का मकान असल में एक बूढ़े आदमी की सम्पत्ति था. चूंकि मकान अक्सर खाली रहा करता, उसकी छत पर हम अपना एकाधिकार समझा करते थे. एक बार हम तीनों वहां धरे रेत के टीले पर लकड़ियां खुभा कर किला बनाने का खेल खेल रहे थे जब बुड्ढा पता नहीं कहां से आ गया. उसने हमें बहुत धमकाया. बन्टू ने अपने पापा से शिकायत की कि बुड्ढा आ कर हमें डांट गया. बन्टू के पापा ने उल्टे बन्टू को थप्पड़ जड़ा और कहा कि खबरदार किसी बुज़ुर्ग को बुड्ढा कहा तो. छत पर वापस आकर गुस्साप्रेरित रचनात्मक अतिरेक के किसी एक क्षण हम तीनों ने फ़ैसला किया कि बाकी बुड्ढों से हमें कोई आपत्ति नहीं है पर इस वाले से है और हम उसे अपने हिसाब से बुड्ढा कहेंगे. इस तरह बूढा का उल्टा बना ढाबू. आस पड़ोस में आज भी रामनगर में वह छत ढाबू की छत के नाम से विख्यात है.

घर से घड़ी गायब हो चुकने का समाचार मिलते ही लफ़त्तू के पापा उस की तीन चार दफ़ा भीषण धुनाई कर चुके थे. लफ़त्तू को अपने घर में ही चोट्टा या हद से हद बौड़म कह कर सम्बोधित किये जाने का रिवाज़ था. इतनी मारें खा चुकने के बाद लफ़त्तू अब ढीठ और हद दर्ज़े का बहादुर बन चुका था. वह मार खाता रहा और चूं तक न बोला. तीसरी बार तो उसे इतना ज़्यादा मारा गया कि पड़ोस में रहने वाली क्रूर सरदारनी को उसे बचाकर अपने घर ले जाना पड़ा.

लफ़त्तू का बड़ा भाई हाकी वगैरह ले कर मैकेनिक गली में "एक एक को देख लूंगा सालो" कह कर एक चक्कर काट आया पर न सत्तार कुछ बोला न कोई और मैकेनिक. जाहिर तौर पर सत्तार के हाथ बढ़िया सौदा लगा था और वह अगले बिज़नेस की राह देख रहा था.

मैं दिन में दो बार ढाबू की छत पर जाता और डब्बे को छू कर देख लेता. एक नज़र कर्नल रंजीत की किताब पर डालता और किसी के आ जाने से पहले पहले वहां से हट जाता. पर कोई चोर निगाह मुझे लगातार देखे जाती थी. एक दिन वहां से डब्बा गायब था. किताब की चिन्दियां की जा चुकी थीं. तब तक के जीवन का यह सबसे बड़ा आघात था. दुर्घटना घटते ही मेरा शक सत्तू पर गया क्योंकि उसकी छत ढाबू और हरिया हकले की छतों के एक तरह से बीच में पड़ती थी. लेकिन क्या तो किसी से पूछा जाता और किस आधार पर. ज़रा सी लापरवाही से लफ़त्तू की जान को ख़तरा था. और मेरी जो सुताई होती सो अलग.

तिमाही का रिजल्ट आ चुका था और पहली बार मैं क्लास में दूसरे नम्बर पर आया. ज्याउल ने टॉप किया था. घर पर हल्का फ़ुल्का मातम मनाया जा रहा था हालांकि मुझे पता था कि ज़रा सी मेहनत से मैं भी टॉप कर सकता था. पर ज्याउल के फ़र्स्ट आने का मुझे कोई दुख नहीं था. दुख तो तब होता जब प्याली मात्तर का नाती गियानेस अग्गरवाल संस्कृत और हिन्दी में बेमान्टी से सौ में सौ दिए जाने पर हमसे आगे निकल जाता.

घर पर पहली दफ़ा ज्याउल का पॉजीटिव ज़िक्र हुआ और मेरे पिताजी ने उस से दोस्ती करने को कहा. "रहमान साब भी इतने बढ़िया पढ़े लिखे आदमी हैं बेटा. पढ़े लिखों की संगत करोगे तो कभी पछताओगे नहीं." गड़त में सौ में सौ लाने के ऐवज़ में मुझ से कोई भी चीज़ मांगने को कहा गया तो मैंने झट से उसी डबल डेकर की मांग की. भाई के साथ मुझे भेजा गया और डबल डेकर के अलावा कोई किताब लेने को भी कह दिया गया. यूं पहली बार राजन इकबाल नाम के दो जासूसों से अन्तरंग परिचय की राह बनी. जब-जब कर्नल रंजीत उस फटी किताब के पन्नों में अकेला किसी होटल में किसी महिला के साथ होता था तो भीगी बिल्ली बन जाता था और अजीब अबूझ शब्दो में उनके प्राइवेट कारनामों का ज़िक्र होता. राजन इकबाल जो कुछ करते थे वह हम भी कर सकते थे. बल्कि अगर उन्हें टुन्ना झर्री का नाम मालूम होता तो वे शायद बेताबी से उसका शिष्यत्व ग्रहण कर रामनगर आ बसते.

तिमाही की छुट्टियां होने के साथ ही धूल मैदान से बस अड्डे का टैम्प्रेरी विस्थापन हुआ और मुन्ने फ़कीर के सालाना उरस के मौके पर कव्वाली और मेला आयोजन की तैयारी चालू हो गई. उरस के लिए क्या हिन्दू क्या मुसलमान सारे बड़े पुरुष टोलियां बनाकर घर-घर दुकान-दुकान जा कर चन्दा इकट्ठा किया करते थे.

इधर ज्याउल दो दफ़ा मेरे घर आ चुका था. उसकी सलीकेदार भाषा सुनकर मेरी मां हैरत में रह जाती थी. उसे यकीन ही नहीं होता था कि वह मुसलमान है. उसके लिए तो मुसलमान का मतलब शरीफ़ या जब्बार भर होता था. जब वह उनके पैर छूकर गया तो उसने दार्शनिक आवाज़ निकाल कर कहा: "पिछले जन्म में हिन्दू रहा होगा बिचारा!"

पापा से पिटाई खाने के एक हफ़्ते तक लफ़त्तू को कहीं देखा नहीं गया. सारा मोहल्ला उसके पापा की थूथू करता रहा क्योंकि यह तय माना जा रहा था कि लफ़त्तू को गहरी गुम चोटें आई हैं. शुरू के दो-तीन दिन अपने सामने लगा खाना देख कर मेरे गले में जैसे कोई सूखा पत्थर फंस जाता. एक दिन मेरी बहन जो लफ़त्तू की बहन की दोस्त थी, ने घर पर सब को और खासतौर से मुझे सुनाते हुए सूचना दी कि दो तीन दिन में लफ़त्तू बिल्कुल ठीक हो जाएगा. वह खुद अपनी आंखों देख कर आई है.

उरस से पहले दरगाह में जाकर मिन्नत मांगने का रिवाज़ था. उरस के पहले दिन ज्याउल अपनी अम्मी के साथ दरगाह जाने वाला था. मैंने पिछली शाम उस से तकरीबन भर्राए गले से गुज़ारिश की कि मेरी तरफ़ से दुआ मांग ले कि मेरा दोस्त, मेरा उस्ताद लफ़त्तू जल्दी ठीक हो जाए.

उरस की शाम से क्या कव्वालियों का समां बंधा. समझ में न तो बोल आते न संगीत पर अन्दर तक कोई चीज़ प्रवेश कर जाती और मन आह्लाद से लबालब हो जाता. मैं खिड़की पर बैठा सामने शामियाने के भीतर मेले की चहलपहल का जायजा लेता जाता और कव्वाली अपना काम करती रहती.

दूसरे दिन मुझे ज्याउल के साथ उरस के मेले में जाने की इजाज़त मिल गई. अन्दर तमाम बच्चे ही बच्चे थे. वो भी थे जो कुछ माह पहले सब्ज़ी मन्डी में मस्जिद से लगी दीवार से सटाकर लगाई अपनी बच्चा दुकानों पर कटारी-सफ़री बेचते मुझे डराया करते थे. उत्सव के इस माहौल में उनके तेवर भी बदले हुए थे. मेरी चोर निगाहें सकीना को खोजती थीं अलबत्ता अब उस का चेहरा भी मुझे ठीक से याद नहीं रहा था.

"अस्सलाम" "तस्लीम" "भाईयान" वगैरह शब्द बहुतायत में हवा में उड़ रहे थे और ये हिन्दू मुसलमान दोनों मुखारविन्दों से बाहर आ रहे थे. एक कोने पर कव्वाली का पंडाल लगा हुआ था जिस के भीतर फ़िलहाल तम्बू कनात वाले थके मजदूर इत्यादि विभिन्न मुद्राओं में विराजमान थे. बस अड्डे वाले हिस्से पर खाने पीने की चीज़ों के ठेले, दुकानें सजाई गई थीं. जगुवा पौंक और मास्टरपुत्र गोलू भी हमें वहीं मिल गए. कुछ देर में बन्टू और सत्तू भी. मौके का दस्तूर था कि घर से मिले पैसों को तुरन्त तबाह कर दिया जाए. बमपकौड़े वाला बौना हमें देख बहुत उत्साहित हुआ. और बिना पूछे पत्तल बनाने लगा. पत्तल बनाते बनाते उसने बिना मेरी तरफ़ देखे पूछा: "बाबूजी नहीं आ रहे आजकल. लगता है बाहर गए हैं. आएंगे तो कहियेगा नया खेल लगा है अबकी धरमेन्दर का!" मैंने खुद को शर्म, दुःख और असहायता में डूबा पाया और मेरी आंखें ज़मीन से लग गईं.

ज्याउल ने पत्तल बौने से लेकर मेरी तरफ़ बढ़ाया ही था कि "धिचक्याऊं! धिचक्याऊं! धिचक्याऊं!" की तोतली आवाज़ मेरे कानों में पड़ी और लफ़त्तू धीमे धीमे दौड़ता सा हमारे ऐन बगल में आ खड़ा हुआ. "थाले अकेले अकेले खा लये हो हलामियो!"

मैं उसके गले लग गया पर उस ने मुझे आराम से दूर किया: "थूने में अबी दलद होता है याल अतोक!"

इस तरक का हर माहौल लफ़त्तू के लिए ही रचा गया लगता था. सदियों से. सारी मनहूसियत एक सेकेन्ड में गायब हो गई. बौने ने बाबूजी का आत्मीय इस्तकबाल किया. पहली बार उसके बमपकौड़े के पैसे मैंने दिए. हमारा पिद्दी टोला अब अपने मरियल सीनों को भरसक बाहर निकालने की कोशिश करता तनिक घिसटते चल रहे लफ़त्तू का अनुसरण करते दुकानों के मुआयने पर निकल चला.

एक कोने पर कुछ छोटे बच्चों की भीड़ लगी हुई देखी तो हम इन्स्टिंक्टिवली वहीं चल दिए. एक कोने में पट्टे का पाजामा और फ़टी बंडी पहने एक बारह पन्द्रह साल का लड़का रुंआसा खड़ा था. वह सूरत से ही किसी पहाड़ी गांव से आया लगता था. लफ़त्तू ने हमें पांचेक मीटर दूर रुक जाने का आदेश दिया.

बच्चे उस लड़के से पूछ रहे थे: "क्या बेच रिया भैये?"

"का ना मूफल्ली है. कितनी बार पूछोगे?" उसका धैर्य टूटता सा दिख रहा था और वह बस रोने को ही था.

"अबे मूफल्ली नईं कैते मूमफ़ली कैते हैं!" कहती हुई बच्चा पार्टी हंस कर दोहरी हो गई.

"बता ना क्या भाव लगा रिया?"

"भैया बार आने की पाव भर मूफल्ली."

"मूफल्ली ..." उसी की टोन में इस शब्द का उच्चारण करते बच्चों पर पुनः हंसी का दौरा पड़ा.

लफ़त्तू मामला समझ गया. हमें साथ आने को कह कर वह वहां पहुंचा और बच्चों को हड़काते हुए बोला: "थालो एक एक की हद्दी तोल दूंगा. फूतो थालो! फूतो!" एक बच्चे की पिछाड़ी पर उसकी लात भी पड़ी.

अब मूफल्ली विक्रेता छोकरा और हमारा पिद्दीदल आमने सामने थे.

"कां थे आया ऐ?" अपने को बॉस दिखाने की मुद्रा में लफ़त्तू ने पूछा.

"भतरौंजखान से."

"ये प्लेन्त ऐ बेते. यां नईं तलती मुपल्ली. मूम्पली नईं कै तकता?" उसके बोरे से दो-चार मूंगफलियां साधिकार निकालते उसने हिकारत से कहा.

"मुम्फल्ली."

"हां" कुछ सोच कर लफ़त्तू ने कहा "ये तलेगा." फिर पूछा "यां अकेला आया ऐ?"

"नईं बाबू साथ आए रहे मुझ को यहां बैठा गए कि अभी आ रहा हूं कह के. पता नईं कां गए. लौंडों ने इतना दिक कर दिया. मैं जाता हूं अब." वह अपना बोरा उठाने को हुआ तो लफ़त्तू ने उसे डपटा "थाला बला आया बिदनत कलने वाला. गब्बल का नाम नईं छुना तैने. जो दल ग्या बेते वो मल ग्या. अब बैत के बेत मूमफली. कोई तंग नईं कलेगा. गब्बल की गालन्ती ऐ."

लफ़त्तू ने मुझ से चवन्नी मांगी और उस से मूंगफली खरीदी. उसकी तरफ़ आंख मारी और कहा "दलना मती."

मेले में घूमते काफ़ी देर हुई और हम मूंगफली टूंगते लगातार आपस में मूफल्ली मूफल्ली कर हंसते रहे और प्रफुल्लित हुआ किए.

घर लौटते लफ़त्तू से मैंने दबी ज़ुबान में पूछा: "बहुत मारा ना पापा ने तुझे."

"अले हो ग्या याल. गब्बल को कौन माल छकता है." उसकी आवाज़ में पुराना आत्मविश्वास तनिक कम था. उसने मुझ से भी दबी ज़ुबान में मुझ से पूछा: "अपनी भाबी को देका तूने याल? कोई कै रा था गोबलदाक्तर का त्लांतपल हो ग्या."

मेरी ज़ुबान पर गोंद चिपका हुआ था.

पहली बार उदास आवाज़ में वह बोला: "याल कुत्तू गमलू लामनगर छे तले दाएंगे क्या?"

(जारी)

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1 comment:

डॉ .अनुराग said...

अरसे बाद वही स्वाद मिला जेहन को ...कही कही रेखा चित्र से खींच गए ऐसे जैसे वाकई दो बच्चो को मूंगफली सामने रखे बातचीत करते देख रहा हूँ...लापुझुन्ना का लत्तू वाकई दिलचस्पी की खान है .ओर कई शब्द ऐसे है ...जिनका फ्लो देख कर आपके लिखे से रश्क होता है ....अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा