छमाही इम्त्यान पूरे होते न होते खेल मैदान और बस अड्डे से लगा सारा इलाका निमाईस और उरस के लिए तैयार होना शुरू कर देता था। निमाईस में बिजली का झूला लगता था, बुढ़िया के बाल खाने को मिलते थे, जलेबी-समोसे और अन्य लोकप्रिय व्यंजनों के असंख्य स्टाल लगते थे, रामनगर की जगत - विख्यात सिंघाड़े की कचरी और बाबा जी की टिक्की, बौने के बम-पकौडे के स्टाल से टक्कर लिया करते थे। खेल मैदान में बच्चों की भीड़ रहा करती। बस अड्डे से लगा इलाका वयस्कों के लिए टाइप बन जाया करता था।
इस वयस्क इलाके में नौटंकी चला करती थी और अजीब - अजीब गाने बजा करते थे। ये गाने किसी भी फ़िल्मी गाने जैसे नहीं होते थे। न ही इनकी धुनें रामलीला के गीतात्मक वार्तालापों से मिला करतीं। अलबत्ता ये गाने बेहद 'कैची' होते थे और पहले ही दिन इन में से एक मेरी ज़ुबान पर चढ़ गया। "मैं हूं नागिन तू है संपेरा, संपेरा बजाए बीन। लौंडा पटवारी का बड़ा नमकीन ..." वाला गीत मैं एक बार घर में गुनगुनाने की ज़ुर्रत कर बैठा तो बढ़िया करके धुनाई हुई। शुरू में मुझे लगा कि पड़ोस में रहने वाले पटवारी जी का अपमान न करने की नसीहत मुझे दी गई है लेकिन लफ़त्तू ने मेरे ज्ञानचक्षु खोलते हुए बताया कि नौटंकी एडल्ट चीज़ होती है और उस में माल टाइप का सामान डांस किया करता है।
एकाध दिन नौटंकी को लेकर मन में ढेरों बातें उबला कीं लेकिन खेल मैदान में चल रहे एक दूसरे शानदार तमाशे ने बचपन के एक पूरे हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया। एक साहब गोल गोल घेरे में सात दिन तक लगातार साइकिल चलाया करते थे। दिन के वक्त कभी कभी साइकिल पर कई तरह के करतब दिखाए जाते थे और वे अपने एक असिस्टेन्ट की मदद से दोपहर किसी वाज़िब मौके पर साइकिल में बैठे बैठे जंग खाए तसले में भरे पानी से नहाते और बाकायदे कपड़े भी बदला करते।
इन साहब के पास बस एक ही रेकॉर्ड था। 'जंगली' फ़िल्म का यह रेकॉर्ड लगातार-लगातार बजता रहता था और उसके चलते "अइयइया सुकू सुकू" मेरे सर्वप्रिय गीतों में से एक बन गया था। मैंने तब तक सिर्फ़ चार पिक्चरें देखी थीं ('हाथी मेरे साथी', 'बनफूल', 'मंगू' और 'दोस्ती')। "अइयइया सुकू सुकू" सुनते हुए मुझे लगता था कोई खिलंदड़ा पक्षी किसी पेड़ की ऊंची डाल पर बैठा बहुत-बहुत ख़ुश है। आज भी जब कभी 'जंगली' के गाने सुनता हूं, मुझे रामनगर में निमाइस के दिनों साइकिल चलाने वाले उन सज्जन की याद आ जाती है।
हमारे लिए ये साहब बहुत बड़े हीरो थे। जहां हम बच्चे कैची चलाने में दिक्कत महसूस करते थे, ये जनाब सारे के सारे काम साइकिल पर किया करते थे। लफ़त्तू के ख्याल से एक काम साइकिल पर बैठ कर कभी नहीं किया जा सकता था : "तत्ती कैते कल पागा कोई छाकिल में बेते!"
Friday, March 14, 2008
Tuesday, March 11, 2008
बच्चों की चड्ढी और होस्यार सुतरा
गुलाबी रंग का तोता बनाते बनाते हमें क़रीब दो महीने बीते. पहले छमाही इम्त्यान की अफ़वाह हवा में थी. आल्ट की क्लास के चलते चित्र बनाने में मेरी दिलचस्पी समाप्त होने लगी थी. प्राइमरी स्कूल के ज़माने में मेरी ड्राइंग अच्छी समझी जाती थी और मुझे शिवाजी और महाराणा प्रताप के चित्र बनाने में महारत हासिल थी. लेकिन तिवारी मास्साब की आल्ट के चक्कर में मेरी अपनी आल्ट की ऐसी तैसी हो चुकी थी.
आल्ट के अलावा मुझे जिन दो विषयों से ऊब सी होने लगी थी वे थे बाणिज्ज और सिलाई-कढ़ाई. बाणिज्ज तो तब भी ठीक था पर सिलाई की क्लास का खास मतलब मेरी समझ में नहीं आता था. ऊपर से यह विषय पूरे तीन साल तक खेंचे जाने थे.
सिलाई की क्लास भूपेस सिरीवास्तव मास्साब लेते थे. सिरीवास्तव मास्साब देखने में किसी भी एंगल से दर्ज़ी नज़र नहीं आते थे. सिलाई की पहली क्लास के बाद जब मैं आवश्यक चीजों की लिस्ट लेकर घर पहुंचा तो जाहिर है मेरे नए स्कूल और वहां पढ़ाए जाने वाले विषयों को लेकर तमाम तरह के मज़ाक किए गए. मुझे अच्छा नहीं लगा पर मजबूरी थी. प्लास्टिक का अंगुस्ताना, धागे की रील, कैंची इत्यादि लेकर रोज़ स्कूल जाने की जलालत वही समझ सकता है जिसे साईंस की क्लास में पन्द्रह दिन तक कछुवा देखना पड़े या दो माह तक गुलाबी तोता बनाना पड़े.
भूपेस सिरीवास्तव मास्साब ने शुरू में हमें एक सफ़ेद कपड़े पर सुई धागे की मदद से कई कारनामे करने सिखाए. इन कारनामों में मुझे धीरे धीरे तुरपाई के काम में मज़ा आने लगा था. बहनों के लतीफ़ों के बावजूद मुझे अपनी पुरानी पतलूनों और घुटन्नों की मोहरियों की तुरपाई उखाड़ना और नए सिरे से उसे करना अच्छा लगता था. एकाध माह तक हमें फ़न्दों की बारीकियां सिखाई गईं. अंगुस्ताना काफ़ी आकर्षित करने लगा था. सिरीवास्तव मास्साब ने क्लास में उस के इस्तेमाल का तरीका सिखा दिया था सो मैं जान बूझ कर तुरपाई करने में सुई को अंगुस्ताने से लैस अपनी उंगली में खुभाने का वीरतापूर्ण कार्य किया करता था. पड़ोस में रहने वाली सिलाई बहन जी के नाम से विख्यात एक आंटी मेरे इस टेलेन्ट से बहुत इम्प्रेस्ड हो गई थीं.
एक रोज़ सिरीवास्तव मास्साब ने हमसे अगली क्लास के लिए पुराने अख़बार लाने को कहा. लफ़त्तू तब तक महाचोर के रूप में इस क़दर विख्यात हो चुका था कि घर पर उसे एक पुराना अख़बार तक लाने नहीं दिया जाता था. जब वह एक बार ड्रेस पहन कर रेडी हो जाता तो उसके पिताजी उसे दुबारा पूरी तरह नंगा करते और बस्ता ख़ाली करवा कर बाकायदा उसकी तलाशी लेते थे. उस के लिए भी अख़बार मैं ही ले गया.
सिलाई की पहली क्लास में हमें बच्चों की चड्ढी बनाना सिखाया गया. पहले अखबार पर नीली चॉक से बच्चों की चड्ढी की नाप बनानी होती थी. मास्साब ज़ोर-ज़ोर से बोलते हुए हमें माप लिखाया करते थे.: "एक से दो पूरी लम्बाई तीस सेन्टीमीटर ... दो से तीन मुड्ढे की लम्बाई दस सेन्टीमीटर ... इत्यादि ..." उस के बाद बनी हुई चड्ढी को काटना होता था और अखबार पर ही सुई से लम्बे टांके मार कर इस कारनामे को अंजाम दिया जाता था. बच्चों की चड्ढी भी हमने करीब महीने भर बनाई.
ख़ैर. छमाही इम्त्यान घोषित कर दिए गए थे और पहला परचा भिगोल का था. तिवारी मास्साब ने इम्त्यान से पहले पांच सवाल लिखा दिये और "जेई पूछे जांगे परीच्छा में सुतरो" कह कर हमें उन के जवाबों का घोटा लगाने का आदेश दे दिया. घोटा अच्छे से लगाया जाना था क्योंकि फ़ेल होने की सूरत में हम सबको गंगाराम की मदद से हौलीकैप्टर बनाए जाने की धमकी भी मिल गई थी.
बाद में जब इम्त्यान निबट चुके थे और हम दिसम्बर की एक सुबह बाहर धूप में लगी भिगोल की कच्छा पढ़ रहे थे, अचानक लालसिंह कहीं से हमारी इमत्यान की कापियां बगल में थामे तिवारी मास्साब के नज़दीक पहुंचा.
"जिन सुतरों के नम्बर आठ से कम होवें बो सारे क्लास छोड़ कर धाम पे कू लिकल जां ... और जिनके चार से कम होवें बो अपने चूतड़ों की मालिश कल्लें ..." गंगाराम को बाहर निकालते हुए तिवारी मास्साब ने धमकाया.
कुल बीस नम्बर का परचा था और ज़्यादातर लड़्कों के आठ या बारह नम्बर थे. लफ़त्तू तक आठ नम्बर ले आया था.
"जे असोक पांड़े कौन हैगा बे?"
मुझे तुरन्त लगा कि मैं फ़ेल हो गया हूं और मुझे घर की याद आने लगी और मैं आसन्न पिटाई के भय में रोने रोने को हो गया. कांपता हुआ मैं खड़ा हुआ तो मुझे अच्छी तरह देखकर मास्साब बोले: "क्यों बे सुतरे, नकल की थी तैने?"
मुझे काटो तो खून नहीं. इसके पहले कि मैं रोने लगता, लफ़त्तू ने मित्रधर्म का निर्वाह किया और अपनी जगह पे खड़ा हो गया.
"क्या है बे चोट्टे?" तिवारी मास्साब भी लफ़त्तू की ख्याति से अनजान नहीं थे.
"मात्ताब मेले पलोस मे रैता हैगा असोक और भौत होत्यार है"
"होस्यार है तो बैठ जा. बीस में बीस लाया है सुतरा!"
तिवारी मास्साब और मेरे बीच हुआ यह पहला और अन्तिम वार्तालाप था.
आल्ट के अलावा मुझे जिन दो विषयों से ऊब सी होने लगी थी वे थे बाणिज्ज और सिलाई-कढ़ाई. बाणिज्ज तो तब भी ठीक था पर सिलाई की क्लास का खास मतलब मेरी समझ में नहीं आता था. ऊपर से यह विषय पूरे तीन साल तक खेंचे जाने थे.
सिलाई की क्लास भूपेस सिरीवास्तव मास्साब लेते थे. सिरीवास्तव मास्साब देखने में किसी भी एंगल से दर्ज़ी नज़र नहीं आते थे. सिलाई की पहली क्लास के बाद जब मैं आवश्यक चीजों की लिस्ट लेकर घर पहुंचा तो जाहिर है मेरे नए स्कूल और वहां पढ़ाए जाने वाले विषयों को लेकर तमाम तरह के मज़ाक किए गए. मुझे अच्छा नहीं लगा पर मजबूरी थी. प्लास्टिक का अंगुस्ताना, धागे की रील, कैंची इत्यादि लेकर रोज़ स्कूल जाने की जलालत वही समझ सकता है जिसे साईंस की क्लास में पन्द्रह दिन तक कछुवा देखना पड़े या दो माह तक गुलाबी तोता बनाना पड़े.
भूपेस सिरीवास्तव मास्साब ने शुरू में हमें एक सफ़ेद कपड़े पर सुई धागे की मदद से कई कारनामे करने सिखाए. इन कारनामों में मुझे धीरे धीरे तुरपाई के काम में मज़ा आने लगा था. बहनों के लतीफ़ों के बावजूद मुझे अपनी पुरानी पतलूनों और घुटन्नों की मोहरियों की तुरपाई उखाड़ना और नए सिरे से उसे करना अच्छा लगता था. एकाध माह तक हमें फ़न्दों की बारीकियां सिखाई गईं. अंगुस्ताना काफ़ी आकर्षित करने लगा था. सिरीवास्तव मास्साब ने क्लास में उस के इस्तेमाल का तरीका सिखा दिया था सो मैं जान बूझ कर तुरपाई करने में सुई को अंगुस्ताने से लैस अपनी उंगली में खुभाने का वीरतापूर्ण कार्य किया करता था. पड़ोस में रहने वाली सिलाई बहन जी के नाम से विख्यात एक आंटी मेरे इस टेलेन्ट से बहुत इम्प्रेस्ड हो गई थीं.
एक रोज़ सिरीवास्तव मास्साब ने हमसे अगली क्लास के लिए पुराने अख़बार लाने को कहा. लफ़त्तू तब तक महाचोर के रूप में इस क़दर विख्यात हो चुका था कि घर पर उसे एक पुराना अख़बार तक लाने नहीं दिया जाता था. जब वह एक बार ड्रेस पहन कर रेडी हो जाता तो उसके पिताजी उसे दुबारा पूरी तरह नंगा करते और बस्ता ख़ाली करवा कर बाकायदा उसकी तलाशी लेते थे. उस के लिए भी अख़बार मैं ही ले गया.
सिलाई की पहली क्लास में हमें बच्चों की चड्ढी बनाना सिखाया गया. पहले अखबार पर नीली चॉक से बच्चों की चड्ढी की नाप बनानी होती थी. मास्साब ज़ोर-ज़ोर से बोलते हुए हमें माप लिखाया करते थे.: "एक से दो पूरी लम्बाई तीस सेन्टीमीटर ... दो से तीन मुड्ढे की लम्बाई दस सेन्टीमीटर ... इत्यादि ..." उस के बाद बनी हुई चड्ढी को काटना होता था और अखबार पर ही सुई से लम्बे टांके मार कर इस कारनामे को अंजाम दिया जाता था. बच्चों की चड्ढी भी हमने करीब महीने भर बनाई.
ख़ैर. छमाही इम्त्यान घोषित कर दिए गए थे और पहला परचा भिगोल का था. तिवारी मास्साब ने इम्त्यान से पहले पांच सवाल लिखा दिये और "जेई पूछे जांगे परीच्छा में सुतरो" कह कर हमें उन के जवाबों का घोटा लगाने का आदेश दे दिया. घोटा अच्छे से लगाया जाना था क्योंकि फ़ेल होने की सूरत में हम सबको गंगाराम की मदद से हौलीकैप्टर बनाए जाने की धमकी भी मिल गई थी.
बाद में जब इम्त्यान निबट चुके थे और हम दिसम्बर की एक सुबह बाहर धूप में लगी भिगोल की कच्छा पढ़ रहे थे, अचानक लालसिंह कहीं से हमारी इमत्यान की कापियां बगल में थामे तिवारी मास्साब के नज़दीक पहुंचा.
"जिन सुतरों के नम्बर आठ से कम होवें बो सारे क्लास छोड़ कर धाम पे कू लिकल जां ... और जिनके चार से कम होवें बो अपने चूतड़ों की मालिश कल्लें ..." गंगाराम को बाहर निकालते हुए तिवारी मास्साब ने धमकाया.
कुल बीस नम्बर का परचा था और ज़्यादातर लड़्कों के आठ या बारह नम्बर थे. लफ़त्तू तक आठ नम्बर ले आया था.
"जे असोक पांड़े कौन हैगा बे?"
मुझे तुरन्त लगा कि मैं फ़ेल हो गया हूं और मुझे घर की याद आने लगी और मैं आसन्न पिटाई के भय में रोने रोने को हो गया. कांपता हुआ मैं खड़ा हुआ तो मुझे अच्छी तरह देखकर मास्साब बोले: "क्यों बे सुतरे, नकल की थी तैने?"
मुझे काटो तो खून नहीं. इसके पहले कि मैं रोने लगता, लफ़त्तू ने मित्रधर्म का निर्वाह किया और अपनी जगह पे खड़ा हो गया.
"क्या है बे चोट्टे?" तिवारी मास्साब भी लफ़त्तू की ख्याति से अनजान नहीं थे.
"मात्ताब मेले पलोस मे रैता हैगा असोक और भौत होत्यार है"
"होस्यार है तो बैठ जा. बीस में बीस लाया है सुतरा!"
तिवारी मास्साब और मेरे बीच हुआ यह पहला और अन्तिम वार्तालाप था.
Monday, March 3, 2008
एक क़स्बे का जुगराफ़िया वाया थोरी मास्साब
एम पी इन्टर कालिज में सबसे ज़्यादा ख़ौफ़ था तिवारी मास्साब का। तिवारी मास्साब को प्रागैतिहासिक समय से थोरी बुढ्ढा कहा जाता था। मास्साब की रंगत कोयले के बोरे को शर्मिन्दा करने को पर्याप्त थी। वे हमें चित्रकला यानी की आल्ट सिखाने के अलावा भूगोल यानी भिगोल भी पढ़ाया करते थे।
शुरू शुरू में तो उनकी ज़बान मेरी समझ में आती ही न थी पर जब एक दफ़े लफ़त्तू ने मुझे बताया कि वे दर असल हमें गालियां देते थे तो मैं उनसे और ज़्यादा ख़ौफ़ खाने लगा। "सुतरे" (यानी ससुरे) उनका फ़ेवरिट शब्द था। और उन्हीं दिनों रिलीज़ हुई 'शोले' के असरानी की अदा के साथ उन्होंने पहली बार क्लास में एन्ट्री ली थी : "अंग्रेज़ों के टैम का मास्टर हूं सुतरो! बड़े-बड़े दादाओं का पेस्साब लिकला करे मुझे देख के। मेरी क्लास में पढ़ाई में धियान ना लगाया तो सुतरो मार मार के हौलीकैप्टर बना दूंवां!"
मास्साब के पास एक पुराना तेल पिया हुआ डंडा था। 'गंगाराम' नामक यह ऐतिहासिक डंडा उनकी बांह में इतनी सफ़ाई के साथ छुपा रहता था कि जब पहली बार क्लास के पीछे के बच्चों को उस का लुफ़्त मिला था मेरी समझ ही में नहीं आया कि मास्साब को वह डंडा मिला कैसे। उन दिनों घुंघराले झब्बा बालों वाले एक विख्यात बाबा ने हवा से घड़ियां और भभूत पैदा करने की परम्परा चालू की थी - मुझे लगा हो न हो मास्साब को कोई दैवी शक्ति हासिल है। लेकिन जल्द ही लालसिंह ने हमें गंगाराम की कई महागाथाएं सुनाईं।
मास्साब का व्यक्तिगत जीवन मुझे बहुत आकर्षित करता था लेकिन बहुत आधिकारिक तौर पर उनके बारे में किसी को भी ज़्यादा मालूम नहीं था। उनका एक बेटा इंग्लैण्ड में रहता था क्योंकि वे हर हफ़्ते हम में से किसी होस्यार बच्चे को नज़दीक के पोस्ट ऑफ़िस भेज कर विदेशी लिफ़ाफ़ा मंगाया करते थे। इन्टरवल के समय उन्हें कालिज से लगे तलवार रेस्टोरेन्ट में तन्मय हो कर चिठ्ठी लिखते देखा जाता था। उनकी एक लड़की भी थी जो चौथी क्लास में कहीं पढ़ा करती थी। उसे किसी ने देखा नहीं था। लेकिन तिवारी मास्साब अपने हर दूसरे किस्से में उसका ज़िक्र किया करते थे। इन वाले कि़स्सों में तिवारी मास्साब खुद ही हमें डराने के लिए अपने आप को किसी भुतहा फ़िल्म के खलनायक की तरह पेश किया करते थे।
खैर। आल्ट की शुरुआती क्लासों में हमें ऑस्टवाल्ड का रंगचक्र बना कर लाने को कहा जाता था। बाहर से बहुत आसान दिखने वाला यह चक्र बनाने में बहुत मुश्किल होता था। एक तो उसे बनाने की जल्दी, फिर उसे सुखाने की बेचैनी: रंगों का आपस में मिल जाना और एक दूसरे में बह जाना आम हुआ करता था। हमारे पड़ोस में एक मोटा सा आदमी रहता था। उसके गोदामनुमा कमरे की हर चीज़ मुझे जादुई लगा करती थी। अजीब अजीब गंधों और विचित्र किस्म के डिब्बों, बोरियों और कट्टों से अटा हुआ उसका कमरा मेरे लिए साइंस की सबसे बड़ी प्रयोगशाला था। उसी की मदद से मैंने सेल से चलने वाला पंखा बनाया, उसी कमरे में मैंने रेडियो की बैटरी को पंखे के रेगूलेटर से जोड़ने का महावैज्ञानिकी कारनामा अंजाम दिया था। जब मैं ऑस्टवाल्ड के रंग चक्र से बुरी तरह ऊब गया तो गोदाम वाले सज्जन ने ऑस्टवाल्ड में दिलचस्पी लेनी पैदा की। मेरी ड्राइंग वैसे खराब नहीं थी लेकिन ऑस्टवाल्ड ने मेरे घोड़े खोल दिये थे। मैं गोदाम के कबाड़ में डूबा रहता था और ये साहब बहुत ध्यान लगा कर मेरा आल्ट का होमवर्क किया करते थे। रंग को सुखाने की इन की बेचैनी मुझ से भी ज़्यादा होती थी। एक बार इस बेचैनी में आल्ट की कॉपी को पम्प वाले स्टोव के ऊपर अधिक देर तक रहना पड़ा और कॉपी तबाह हो गई थी। इस हादसे के बावजूद मुझे तिवारी मास्साब के डंडे का स्वाद नहीं मिला क्योंकि मैं क्लास में होस्यार के तौर पर स्थापित हो चुका था। इस घटना का ज़िक्र फिर कभी।
क़रीब महीने भर तक ऑस्टवाल्ड के रंग चक्र से जूझने के बाद तिवारी मास्साब को हम पर रहम आया और हम ने चिड़िया बनाना सीखना शुरू किया। मास्साब सधे हुए हाथों से ब्लैकबोर्ड पर बिना टहनी वाले एक पेड़ पर बेडौल सी चिड़िया बना देते थे और हम सब ने उस की नकल बनानी होती थी। मैंने कहा था कि मेरी ड्राइंग बुरी नहीं थी सो मैंने नकल सबसे पहले बना ली। मास्साब बाहर मैदान में पतंगबाज़ी देखने में मसरूफ़ थे; मैंने अपनी कॉपी उन्हें दिखाई तो उन्होंने सर से पांव तक मुझे देखकर कहा :
"भौत स्याना बन्निया सुतरे! इस में रंग तेरा बाप भरैगा!"
इस के पहले कि चिड़िया की रंगाई के बारे में मैं उन से कुछ पूछता, मास्साब ने खुद ही मेरी उलझन साफ़ कर दी:
"अब घर जा कै इस में गुलाबी रंग कर के लाइयो"
इस अस्थाई अपमान का जवाब मैंने अपनी कलाप्रतिभा द्वारा देने का फ़ैसला कर लिया था। घर पर सारे लोगों ने उस बेडौल चिड़िया का मज़ाक बनाया लेकिन मुझे तो उसी चिड़िया को रंगकर तिवारी मास्साब की दाद चाहिए थी। उल्लू, गौरैया और ऑस्ट्रिच मे मेलजोल से बनी चिड़िया का पेट ज़रूरत से ज़्यादा स्थूल था और क्लास में जिस चिड़िया को मास्साब ने बनाया था उस की आंख सबसे विचित्र जगह पर थी। आंख, आंख की जगह पर न हो कर गरदन के बीचोबीच बनाया करते थे तिवारी मास्साब. अपने आप को वाक़ई ज़्यादा स्याना बनते हुए मैंने चिड़िया की आंख को सही जगह पर बना दिया था. ऊपर से इस चिड़िया का रंग गुलाबी था.
सुबह क्लास का हर बच्चा गुलाबी रंग की दयनीय चिड़िया बना कर लाया था. लफ़त्तू की चिड़िया सबसे फ़द्दड़ बनी थी. लालसिंह को अपनी सीनियोरिटी के कारण इस कलाकर्म से दो-तीन साल पहले मुक्ति मिल चुकी थी.
मास्साब को चिड़िया दिखाने का पहला नम्बर मेरा था. मास्साब ने किसी सधे हुए कलापारखी की तरह मेरी कॉपी को आड़ा तिरछा कर के देखा.
"जरा पेल्सिन लाइयो"
मैंने उन्हें पेन्सिल दी तो उन्होंने चिड़िया की गरदन के बीचोबीच पेन्सिल से एक गोला बना कर कहा:
"सुतरे, ह्यां हुआ करै आंख! पैले वाली मेट के नई वाली में रंग कर लाइयो कल कू."
मैं पलट कर अपनी सीट पर जा रहा था कि उन्होंने मुझे फिर से बुलाया :
"जब आल्ट पूरी हो जा तो नीचे के सैड पे लिख दीजो 'तोता'."
उस के कई सालों बाद तक "लिख दे तोता" रामनगर के लौंडे मौंडों में बहुत पॉपुलर हुआ।
एक दिन अचानक पता चला कि थोरी बुडढा हमें भूगोल भी पढ़ाया करेगा। "लिख दे तोता" कांड के बाद मेरे मन से उन के लिये सारी इज़्ज़त खत्म हो गई थी।
अंग्रेज़ों के ज़माने वाला मास्टर और दादाओं के पेस्साब और मार मार के हॉलीकैप्टर वाली प्रारंभिक स्पीच के उपरान्त मास्साब ने गंगाराम चालीसा का पाठ किया। इस औपचारिक वार्ता के बाद वे गम्भीर मुखमुद्रा बना कर बोले: "कल से सारे सुतरों को मैं भिगोल पढ़ाया करूंगा। भिगोल के बारे में कौन जाना करै है?" हम ने भूगोल का नाम सुना था भिगोल का नहीं। यह सोचकर कि शायद कोई नया विषय हो, सारे बच्चे चुप रहे। गंगाराम का भय भी सता रहा था।
"भिगोल माने हमारा इलाका। पैले हमारा कालिज, बा कै बाद पिच्चर हाल, बा कै बाद ह्यां कू तलवार का होटल और व्हां कू प्रिंसपल साब का घर। ..."
मास्साब की आवाज़ को काटती हुई लफ़त्तू की आवाज़ आई : " माट्साब, आपका घर किस तरफ़ कू हैगा?"
एक बित्ते भर के 'सुतरे' से मास्साब को ऐसी हिमाकत की उम्मीद न थी।
"कुत्ते की औलाद, खबीस, सुतरे! ..." कहते हुए मास्साब ने अपना गंगाराम बाहर निकाल लिया और लफ़त्तू की कतार में बैठे सारे बच्चों को मार मार कर नीमबेहोश बना डाला।
गुस्से में कांप रहे थे तिवारी मास्साब। अपनी कर्री आवाज़ में उन्होंने भिगोल की क्लास के अनुशासन के नियम गिनाए: "जिन सुतरों को पढ़ना हुआ करे, बो ह्यां पे आवें वरना धाम पे कू लिकल जाया करें। और रामनगर के चार धाम सुन लो हरामज़ादो! इस तरफ़ कू खताड़ी और उस तरफ़ कू लखुवा (लखनपुर नाम का यह मोहल्ला लखुवा कहे जाने पर ही रामनगर का हिस्सा लगता था. लखनपुर से उस के किसी संभ्रान्त बसासत होने का भ्रम होता था)। तीसरा धाम हैगा भवानीगंज और सबसे बड़ा धाम हैगा कोसी डाम (कोसी नदी पर बने इस बांध पर टहलना रामनगर में किया जा सकने वाला सबसे बड़ा अय्याश काम था)।"
"और जो सुतरा तिवारी मास्साब की नजर में इन चार जगहों पर आ गया, उसको व्हंईं सड़क पे जिन्दा गाड़ के रास्ता हुवां से बना दूंवां ..."
शुरू शुरू में तो उनकी ज़बान मेरी समझ में आती ही न थी पर जब एक दफ़े लफ़त्तू ने मुझे बताया कि वे दर असल हमें गालियां देते थे तो मैं उनसे और ज़्यादा ख़ौफ़ खाने लगा। "सुतरे" (यानी ससुरे) उनका फ़ेवरिट शब्द था। और उन्हीं दिनों रिलीज़ हुई 'शोले' के असरानी की अदा के साथ उन्होंने पहली बार क्लास में एन्ट्री ली थी : "अंग्रेज़ों के टैम का मास्टर हूं सुतरो! बड़े-बड़े दादाओं का पेस्साब लिकला करे मुझे देख के। मेरी क्लास में पढ़ाई में धियान ना लगाया तो सुतरो मार मार के हौलीकैप्टर बना दूंवां!"
मास्साब के पास एक पुराना तेल पिया हुआ डंडा था। 'गंगाराम' नामक यह ऐतिहासिक डंडा उनकी बांह में इतनी सफ़ाई के साथ छुपा रहता था कि जब पहली बार क्लास के पीछे के बच्चों को उस का लुफ़्त मिला था मेरी समझ ही में नहीं आया कि मास्साब को वह डंडा मिला कैसे। उन दिनों घुंघराले झब्बा बालों वाले एक विख्यात बाबा ने हवा से घड़ियां और भभूत पैदा करने की परम्परा चालू की थी - मुझे लगा हो न हो मास्साब को कोई दैवी शक्ति हासिल है। लेकिन जल्द ही लालसिंह ने हमें गंगाराम की कई महागाथाएं सुनाईं।
मास्साब का व्यक्तिगत जीवन मुझे बहुत आकर्षित करता था लेकिन बहुत आधिकारिक तौर पर उनके बारे में किसी को भी ज़्यादा मालूम नहीं था। उनका एक बेटा इंग्लैण्ड में रहता था क्योंकि वे हर हफ़्ते हम में से किसी होस्यार बच्चे को नज़दीक के पोस्ट ऑफ़िस भेज कर विदेशी लिफ़ाफ़ा मंगाया करते थे। इन्टरवल के समय उन्हें कालिज से लगे तलवार रेस्टोरेन्ट में तन्मय हो कर चिठ्ठी लिखते देखा जाता था। उनकी एक लड़की भी थी जो चौथी क्लास में कहीं पढ़ा करती थी। उसे किसी ने देखा नहीं था। लेकिन तिवारी मास्साब अपने हर दूसरे किस्से में उसका ज़िक्र किया करते थे। इन वाले कि़स्सों में तिवारी मास्साब खुद ही हमें डराने के लिए अपने आप को किसी भुतहा फ़िल्म के खलनायक की तरह पेश किया करते थे।
खैर। आल्ट की शुरुआती क्लासों में हमें ऑस्टवाल्ड का रंगचक्र बना कर लाने को कहा जाता था। बाहर से बहुत आसान दिखने वाला यह चक्र बनाने में बहुत मुश्किल होता था। एक तो उसे बनाने की जल्दी, फिर उसे सुखाने की बेचैनी: रंगों का आपस में मिल जाना और एक दूसरे में बह जाना आम हुआ करता था। हमारे पड़ोस में एक मोटा सा आदमी रहता था। उसके गोदामनुमा कमरे की हर चीज़ मुझे जादुई लगा करती थी। अजीब अजीब गंधों और विचित्र किस्म के डिब्बों, बोरियों और कट्टों से अटा हुआ उसका कमरा मेरे लिए साइंस की सबसे बड़ी प्रयोगशाला था। उसी की मदद से मैंने सेल से चलने वाला पंखा बनाया, उसी कमरे में मैंने रेडियो की बैटरी को पंखे के रेगूलेटर से जोड़ने का महावैज्ञानिकी कारनामा अंजाम दिया था। जब मैं ऑस्टवाल्ड के रंग चक्र से बुरी तरह ऊब गया तो गोदाम वाले सज्जन ने ऑस्टवाल्ड में दिलचस्पी लेनी पैदा की। मेरी ड्राइंग वैसे खराब नहीं थी लेकिन ऑस्टवाल्ड ने मेरे घोड़े खोल दिये थे। मैं गोदाम के कबाड़ में डूबा रहता था और ये साहब बहुत ध्यान लगा कर मेरा आल्ट का होमवर्क किया करते थे। रंग को सुखाने की इन की बेचैनी मुझ से भी ज़्यादा होती थी। एक बार इस बेचैनी में आल्ट की कॉपी को पम्प वाले स्टोव के ऊपर अधिक देर तक रहना पड़ा और कॉपी तबाह हो गई थी। इस हादसे के बावजूद मुझे तिवारी मास्साब के डंडे का स्वाद नहीं मिला क्योंकि मैं क्लास में होस्यार के तौर पर स्थापित हो चुका था। इस घटना का ज़िक्र फिर कभी।
क़रीब महीने भर तक ऑस्टवाल्ड के रंग चक्र से जूझने के बाद तिवारी मास्साब को हम पर रहम आया और हम ने चिड़िया बनाना सीखना शुरू किया। मास्साब सधे हुए हाथों से ब्लैकबोर्ड पर बिना टहनी वाले एक पेड़ पर बेडौल सी चिड़िया बना देते थे और हम सब ने उस की नकल बनानी होती थी। मैंने कहा था कि मेरी ड्राइंग बुरी नहीं थी सो मैंने नकल सबसे पहले बना ली। मास्साब बाहर मैदान में पतंगबाज़ी देखने में मसरूफ़ थे; मैंने अपनी कॉपी उन्हें दिखाई तो उन्होंने सर से पांव तक मुझे देखकर कहा :
"भौत स्याना बन्निया सुतरे! इस में रंग तेरा बाप भरैगा!"
इस के पहले कि चिड़िया की रंगाई के बारे में मैं उन से कुछ पूछता, मास्साब ने खुद ही मेरी उलझन साफ़ कर दी:
"अब घर जा कै इस में गुलाबी रंग कर के लाइयो"
इस अस्थाई अपमान का जवाब मैंने अपनी कलाप्रतिभा द्वारा देने का फ़ैसला कर लिया था। घर पर सारे लोगों ने उस बेडौल चिड़िया का मज़ाक बनाया लेकिन मुझे तो उसी चिड़िया को रंगकर तिवारी मास्साब की दाद चाहिए थी। उल्लू, गौरैया और ऑस्ट्रिच मे मेलजोल से बनी चिड़िया का पेट ज़रूरत से ज़्यादा स्थूल था और क्लास में जिस चिड़िया को मास्साब ने बनाया था उस की आंख सबसे विचित्र जगह पर थी। आंख, आंख की जगह पर न हो कर गरदन के बीचोबीच बनाया करते थे तिवारी मास्साब. अपने आप को वाक़ई ज़्यादा स्याना बनते हुए मैंने चिड़िया की आंख को सही जगह पर बना दिया था. ऊपर से इस चिड़िया का रंग गुलाबी था.
सुबह क्लास का हर बच्चा गुलाबी रंग की दयनीय चिड़िया बना कर लाया था. लफ़त्तू की चिड़िया सबसे फ़द्दड़ बनी थी. लालसिंह को अपनी सीनियोरिटी के कारण इस कलाकर्म से दो-तीन साल पहले मुक्ति मिल चुकी थी.
मास्साब को चिड़िया दिखाने का पहला नम्बर मेरा था. मास्साब ने किसी सधे हुए कलापारखी की तरह मेरी कॉपी को आड़ा तिरछा कर के देखा.
"जरा पेल्सिन लाइयो"
मैंने उन्हें पेन्सिल दी तो उन्होंने चिड़िया की गरदन के बीचोबीच पेन्सिल से एक गोला बना कर कहा:
"सुतरे, ह्यां हुआ करै आंख! पैले वाली मेट के नई वाली में रंग कर लाइयो कल कू."
मैं पलट कर अपनी सीट पर जा रहा था कि उन्होंने मुझे फिर से बुलाया :
"जब आल्ट पूरी हो जा तो नीचे के सैड पे लिख दीजो 'तोता'."
उस के कई सालों बाद तक "लिख दे तोता" रामनगर के लौंडे मौंडों में बहुत पॉपुलर हुआ।
एक दिन अचानक पता चला कि थोरी बुडढा हमें भूगोल भी पढ़ाया करेगा। "लिख दे तोता" कांड के बाद मेरे मन से उन के लिये सारी इज़्ज़त खत्म हो गई थी।
अंग्रेज़ों के ज़माने वाला मास्टर और दादाओं के पेस्साब और मार मार के हॉलीकैप्टर वाली प्रारंभिक स्पीच के उपरान्त मास्साब ने गंगाराम चालीसा का पाठ किया। इस औपचारिक वार्ता के बाद वे गम्भीर मुखमुद्रा बना कर बोले: "कल से सारे सुतरों को मैं भिगोल पढ़ाया करूंगा। भिगोल के बारे में कौन जाना करै है?" हम ने भूगोल का नाम सुना था भिगोल का नहीं। यह सोचकर कि शायद कोई नया विषय हो, सारे बच्चे चुप रहे। गंगाराम का भय भी सता रहा था।
"भिगोल माने हमारा इलाका। पैले हमारा कालिज, बा कै बाद पिच्चर हाल, बा कै बाद ह्यां कू तलवार का होटल और व्हां कू प्रिंसपल साब का घर। ..."
मास्साब की आवाज़ को काटती हुई लफ़त्तू की आवाज़ आई : " माट्साब, आपका घर किस तरफ़ कू हैगा?"
एक बित्ते भर के 'सुतरे' से मास्साब को ऐसी हिमाकत की उम्मीद न थी।
"कुत्ते की औलाद, खबीस, सुतरे! ..." कहते हुए मास्साब ने अपना गंगाराम बाहर निकाल लिया और लफ़त्तू की कतार में बैठे सारे बच्चों को मार मार कर नीमबेहोश बना डाला।
गुस्से में कांप रहे थे तिवारी मास्साब। अपनी कर्री आवाज़ में उन्होंने भिगोल की क्लास के अनुशासन के नियम गिनाए: "जिन सुतरों को पढ़ना हुआ करे, बो ह्यां पे आवें वरना धाम पे कू लिकल जाया करें। और रामनगर के चार धाम सुन लो हरामज़ादो! इस तरफ़ कू खताड़ी और उस तरफ़ कू लखुवा (लखनपुर नाम का यह मोहल्ला लखुवा कहे जाने पर ही रामनगर का हिस्सा लगता था. लखनपुर से उस के किसी संभ्रान्त बसासत होने का भ्रम होता था)। तीसरा धाम हैगा भवानीगंज और सबसे बड़ा धाम हैगा कोसी डाम (कोसी नदी पर बने इस बांध पर टहलना रामनगर में किया जा सकने वाला सबसे बड़ा अय्याश काम था)।"
"और जो सुतरा तिवारी मास्साब की नजर में इन चार जगहों पर आ गया, उसको व्हंईं सड़क पे जिन्दा गाड़ के रास्ता हुवां से बना दूंवां ..."
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