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Thursday, April 15, 2010

गब्बल थे बी खतलनाक इन्छान कताई मात्तर

लफ़त्तू की हालत देख कर मेरा मन स्कूल में कतई नहीं लगा. उल्टे दुर्गादत्त मास्साब की क्लास में अरेन्जमेन्ट में कसाई मास्टर की ड्यूटी लग गई. प्याली मात्तर ने इन दिनों अरेन्जमेन्ट में आना बन्द कर दिया था और हमारी हर हर गंगे हुए ख़ासा अर्सा बीत चुका था. कसाई मास्टर एक्सक्लूसिवली सीनियर बच्चों को पढ़ाया करता था, लेकिन उसके कसाईपने के तमाम क़िस्से समूचे स्कूल में जाहिर थे. कसाई मास्टर रामनगर के नज़दीक एक गांव सेमलखलिया में रहता था. अक्सर दुर्गादत्त मास्साब से दसेक सेकेन्ड पहले स्कूल के गेट से असेम्बली में बेख़ौफ़ घुसते उसे देखते ही न जाने क्यों लगता था कि बाहर बरसात हो रही है. उसकी सरसों के रंग की पतलून के पांयचे अक्सर मुड़े हुए होते थे और कमीज़ बाहर निकली होती. जूता पहने हमने उसे कभी भी नहीं देखा. वह अक्सर हवाई चप्पल पहना करता था. हां जाड़ों में इन चप्पलों का स्थान प्लास्टिक के बेडौल से दिखने वाले सैन्डिल ले लिया करते.

कसाई मास्टर की कदकाठी किसी पहलवान सरीखी थी और दसवीं बारहवीं तक में पढ़ने वाले बच्चों में उसका ख़ौफ़ था. थोरी बुड्ढे और मुर्गादत्त मास्टर के धुनाई-कार्यक्रम कसाई मास्टर के विख्यात किस्सों के सामने बच्चों के खेल लगा करते. बताया जाता था कि कसाई मास्टर की पुलिस और सरकारी महकमों में अच्छी पहचान थी और उसके ख़िलाफ़ कुछ भी कह पाने की हिम्मत किसी की नहीं हुआ करती थी. लफ़त्तू के असाधारण सामान्यज्ञान की मार्फ़त मुझे मालूम था कि अगर कभी भी कसाई मास्टर का अरेन्जमेन्ट में हमारी क्लास में आना होगा तो हमें बेहद सतर्क रहना होगा क्योंकि कसाई मास्टर का दिमाग चाचा चौधरी की टेक पर कम्प्यूटर से भी तेज़ चला करता था. यह अलग बात है कि कम्प्यूटर तब केवल शब्द भर हुआ करता था - एक असम्भव अकल्पनीव शब्द जिसके ओरछोर का सम्भवतः भगवान को भी कोई आइडिया नहीं था. लफ़त्तू के कहने का मतलब होता था कि कसाई मास्टर को स्कूल भर में पढ़ने वाले हर बच्चे के विस्तृत बायोडाटा ज़बानी याद थे. "बला खतलनाक इन्छान है कताई मात्तर बेते! बला खतलनाक! गब्बल थे बी खतलनाक!"

तो गब्बरसिंह से भी खतरनाक इस कसाई मास्टर की क्लास में एन्ट्री कोई ड्रामाई नहीं हुई. कसाई ने खड़े खड़े ही बहुत आराम से ख़ुद ही अटैन्डैन्स ली और जब "प्यारे बच्चो!" कहकर कुर्सी पर अपना स्थान ग्रहण किया, मुझे लफ़त्तू की बातों पर से अपना विश्वास एकबारगी ढहता सा महसूस हुआ. कसाईमुख को थोड़ा गौर से देखने पर पता चलता था कि उसकी दाईं आंख बागड़बिल्ले की भांति एलएलटीटी यानी लुकिंग लन्डन टॉकिंग टोक्यो यानी ढैणी थी. बाईं भौंह के बीचोबीच चोट का पुराना निशान उस मुखमण्डल को ख़ासा ख़ौफ़नाक बनाता था. सतरुघन सिन्ना टाइप की मूंछें धारण किये, ऐसा लगता था, मानो कसाई अपने आप को जायदै ही इस्माट समझने के कुटैव से पीड़ित था. कसाई के अधपके बाल प्रचुर मात्रा में तेललीपीकरण के बावजूद किसी सूअर के बालों की तरह कड़े और सीधे थे. उन दिनों पराग पत्रिका में एक उपन्यास धारावाहिक छप कर आ रहा था. उपन्यास का नायक भारत की राष्ट्रीय पोशाक यानी पट्टे के घुटन्ने के अतिरिक्त किसी भी तरह के मेक अप में विश्वास नहीं रखता था. कसाई के अटैन्डेन्स लेते लेते छिप कर देखते हुए एकाध मिनट से भी कम समय में मुझे यकीन हो गया कि उक्त उपन्यास के लेखक ने कसाई मास्टर के चेहरे का विषद अध्ययन करने के बाद ही उपन्यास के नायक का वैसा हुलिया खींचा होगा. मुझे यह कल्पना करना मनोरंजक लगा कि कसाई मास्टर केवल घुटन्ना पहने कैसा नज़र आएगा.

अटैन्डेन्स हो चुकी थी और "प्यारे बच्चो!" कहते हुए कुर्सी में बैठते ही कसाई मास्टर किसी ख्याल में संजीदगी से तल्लीन हो गया. क्लास के बाकी बच्चों की तरह मैं भी अगले दो पीरियड के दौरान किसी भी स्तर के कैसे भी हादसे का सामना करने को तैयार था. अचानक कुर्सी से एक अधसोई सी आवाज़ निकली: "पत्तल में खिचड़ी कितने बच्चों ने खाई है?"

कुछ समय से क्लास में बस कभी कभी ही आने वाले लालसिंह के सिवाय किसी भी बच्चे का हाथ नहीं उठा. लालसिंह के उठे हुए हाथ को ख़ास तवज्जो न देते हुए कसाई मास्टर ने कहा - "यहां से कुछ दूरी पर कालागढ़ का डाम हैगा. मैं सोच रहा हूं कि तुम सारे बच्चों को किसी इतवार को म्हां पे पिकनिक पे ले जाऊं. आशीष बेटे, ह्यां कू अईयो जरा!" आशीष क्लास में नया नया आया था और वह भी अपने आप को जायदै ही इस्माट समझने के कुटैव से पीड़ित था. उसका बाप रामनगर का एसडीएम टाइप का बड़ा अफ़सर था और यह तथ्य उसकी हर चालढाल में ठसका ठूंसने का वाज़िब और निहायत घृणास्पद कारण था. कि कसाई मास्टर आशीष को नाम से जानता है, हमारे लिए क्षणिक अचरज का विषय बना. आशीष कसाई मास्टर की बगल में खड़ा था. मास्टर का अभिभावकसुलभ प्रेम से भरपूर हाथ उसकी पीठ फेर रहा था. "आशीष के पिताजी रामनगर के सबसे बड़े अफ़सर हैंगे. कल मुझे इनके घर खाने पर बुलवाया गया था. व्हईं मुझे जे बात सूझी की आशीष की क्लास के सारे बच्चों को कालागढ़ डाम पे पिकनिक के बास्ते ले जाया जाबै. और साहब ने सरकारी मदद का मुझे कल ही वादा भी कर दिया है. तो बच्चो अपने अपने घर पे बतला दीजो कि आने बालै किसी भी इतवार को पिकनिक का आयोजन किया जावैगा. पिकनिक में देसी घी की खिचड़ी बनाई जाएगी और उसे पत्तलों में रखकर सारे बच्चे खावेंगे. खिचड़ी खाने का असल आनन्द पत्तल में है. ..."

खिचड़ी, पत्तल, देसी घी, कालागढ़, डाम, साहब, आशीष, पिकनिक इत्यादि शब्द पूरे पीरियड भर बोले गए और कसाई मास्टर का हाथ लगातार आशीष की पीठ को सहलाता रहा. घन्टी बजने ही वाली थी जब "ऐ लौंडे, तू बो पीछे वाले, ह्यां आइयो तनी!"

पैदाइशी बौड़म नज़र आने वाले इस लड़के का नाम ज़्यादातर बच्चे नहीं जानते थे. उसकी पहचान यह थी कि उसके एक हाथ में छः उंगलियां थीं. कसाई मास्टर की टोन से समझ में आया कि पैदाइशी बौड़म को कुछ खुराफ़ात करते हुए देख लिया गया था. वह मास्टर की मेज़ तक पहुंचा, कसाई ने एक बार उसे ऊपर से नीचे तक देखा. "जरा बाहर देख के अईयो धूप लिकल्लई कि ना." क्लास का दरवाज़ा खुला था और अच्छी खासी धूप भीतर बिखरी पड़ी थी. पैदाइशी बौड़म की समझ में ज्यादा कुछ आया नहीं लेकिन डर के मारे कांपते हुए कक्षा के बाहर जाकर आसमान की तरफ़ निगाह मारने अलावा उसके पास कोई चारा नहीं था. वापस लौटकर उसने हकलाते हुए कहा "न्न्निकल रही मास्साब..."

"तो जे बता कि धूप कां से लिकला करे?" पैदाइशी बौड़म ने फिर से हकलाते हुए कहा "स्स्सूरज से मास्साब ..."

"जे बता रात में क्या निकला करे?" पैदाइशी बौड़म के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना कसाई ने कहा: "रात में लिकला करै चांद. और चांद की वजै से रात में तारे भी लिकला करै हैं. तारे वैसे तो दिन में भी लिकला करै हैं पर सूरज की वजै से दिखाई ना देते."

पैदाइशी बौड़म के कन्धे पर हाथ रखकर क्रूर आवाज़ में कसाई मास्टर बोला: "इस बच्चे को दिन में तारे देखने का जादै सौक हैगा सायद जभी तो खीसें निपोर रिया था." इतना कहते कहते उसने अपनी कमीज़ की जेब से एक नई पेन्सिल निकाली और पैदाइशी बौड़म के छः उंगली वाले हाथ को ज़ोर से अपनी मेज़ पर रख दिया. किसी कुशल कारीगर की भांति उसने पैदाइशी बौड़म की उंगलियों के बीच एक ख़ास स्टाइल में पेन्सिल फ़िट की और अगले ही क्षण अपने दूसरे हाथ से पैदाइशी बौड़म के हाथ को इतनी ज़ोर से दबाया कि उसकी आंखें बाहर आने आने को हो गईं. उसकी बाहर निकलने को तैयार आंखों के कोरों से आंसू की मोटी धार बहना शुरू हो गई थी. करीब आधा मिनट चले इस जघन्य पिशाचकर्म को भाग्यवश पीरियड की घन्टी बजने से विराम मिला. मास्साब ने पेन्सिल वापस अपनी जेब में सम्हाली और वापस लौटते पैदाइशी बौड़म की पिछाड़ी पर एक भरपूर लात मारते हुए हमें चेताया: "सूअर के बच्चो! मास्साब की बात में धियान ना लगाया और जादै नक्सा दिखाया तो एक एक को नंगा कर के लटका दूंगा."

पैदाइशी बौड़म के प्रति किसी प्रकार की सहानुभूति व्यक्त करने का मौका नहीं मिल सका क्योंकि तिवारी मास्साब क्लास के बाहर खड़े थे. तिवारी मास्टर उर्फ़ थोरी बुड्ढे ने गुलाबी तोता बनाने में हमें पारंगत बना चुकने के बाद इधर दोएक महीनों से इस्कूल जाती लौण्डिया बनवाना चालू किया था. कन्धे पर बस्ता लगाए और दो हाथों में गुलदस्ता थामे स्कर्ट-ब्लाउज़ पहनने वाली घुंघराले बालों वाली यह बदसूरत लौण्डिया बनाना ज़्यादातर बच्चों को अच्छा लगता था. लफ़त्तू की रफ़ कॉपी इस्कूल जाती लौण्डिया के बेडौल अश्लील चित्रों से अटी पड़ी थी.

किसी तरह स्कूल खत्म हुआ. मैं मनहूसियत और परेशानी का जीता जागता पुतला बन गया था लफ़त्तू के बिना. घर पहुंच कर बेमन से मैंने कुछ दूध नाश्ता समझा और कपड़े बदल कर नहर की तरफ़ चल दिया. मैं नहर की दिशा में मुड़ ही रहा था कि घासमण्डी के सामने की अपनी दुकान से लालसिंह ने आवाज़ लगाकर मुझे बुलाया. अभी वह स्कूल की पोशाक में ही था. उसके पापा कहीं गए हुए थे और वह लफ़त्तू को लेकर चिन्तित था. उसने मुझे लफ़त्तू का सबसे करीबी दोस्त समझा, इतनी सी बात से ही मेरी मनहूसियत कुछ कम हो आई. सही बात तो यह थी कि मुझे पता ही नहीं था कि लफ़त्तू को असल में क्या हुआ था. वह बीमार था और बहुत बीमार था. बस. मैंने लालसिंह को सुबह वाली बात बता दी कि कैसे मैंने लफ़त्तू के मम्मी-पापा को उसे मुरादाबाद वाली बस की तरफ़ ले जाते देखा था और कैसे वह कांप रहा था गर्मी के बावजूद.

लफ़त्तू के बारे में दसेक मिनट बातें करने के बाद मेरे मन से जैसे कोई बोझा उतरा. लालसिंह ने दूध-बिस्कुट सुतवाया. पेट भरा होने के बावजूद लालसिंह की दुकान का दूध बिस्कुट कभी भी पिरोया जा सकता था. दूध-बिस्कुट सूतते हुए अचानक मेरी निगाह पसू अस्पताल की तरफ़ गई. जब से गोबरडाक्टर कुच्चू गमलू नाम्नी हमारी काल्पनिक प्रेयसियों के साथ हल्द्वानी चला गया था, मेरी उस तरफ़ देखने की इच्छा तक नहीं होती थी.

मुझे अनायास उस तरफ़ देखता देख लालसिंह कह उठा - "ये नया गोबरडाक्टर साला अपने बच्चों को लेकर नहीं आनेवाला है बता रहे थे. नैनीताल में पढ़ती है इसकी लौण्डिया. भौत माल है बता रहा था फ़ुच्ची ..."

फ़ुच्ची! यानी फ़ुच्ची कप्तान! नैनीतालनिवासिनी कन्या के बाबत चलने ही वाली मसालापूरित बातचीत को मैंने काटते हुए लालसिंह से पूछा कि फ़ुच्ची कप्तान कहां है. "अबे कल ही वापस आया है फ़ुच्ची रामनगर. साला और काला हो गया है. ..."

फ़ुच्ची के रामनगर पुनरागमन के समाचार ने मुझे काफ़ी प्रसन्न किया. फ़ुच्ची मेरे उस्ताद लफ़त्तू का भी उस्ताद था सो उसके माध्यम से लफ़त्तू के स्वास्थ्य के बारे में आधिकारिक सूचना प्राप्त कर पाने की मेरी उम्मीदों को बड़ा सहारा मिला. लालसिंह की दुकान से नहर की तरफ़ जाने के बजाय मैं अपने घर की छत पर पहुंच गया. दर असल मैं कुछ देर अकेला रहना चाहता था. बन्टू को वहां न पाकर मुझे तसल्ली हुई. अपनी छत फांदकर मैं ढाबू की छत पर मौजूद पानी की टंकी से पीठ टिकाए बैठने ही वाला था कि उधर हरिया हकले वाली छत की साइड से बागड़बिल्ला आ गया. लफ़त्तू और फ़ुच्ची जैसे घुच्ची-सुपरस्टारों की गैरमौजूदगी के कारण बागड़बिल्ला अब तकरीबन बेरोजगार हो गया था और दिन भर आवारों सूअरों की तरह यहां वहां भटका करता. नीचे सरदारनी के स्कूल में मधुबाला ट्य़ूशन पढ़ने आए बच्चों को कोई इंग्लिश पोयम रटा रही थी. कुछ देर इधर उधर की बातें करने के बाद बागड़बिल्ले ने असली बात पर आते हुए मुझसे आर्थिक सहायता का अनुरोध किया. दर असल उसे घर से अठन्नी देकर दही मंगवाया गया था. हलवाई की दुकान तक पहुंचने से पहले ही घुच्ची खेल रहे बच्चों को देख कर उससे रहा नहीं गया जहां वह पांच मिनट में सारे पैसे हार गया. बागड़बिल्ले जैसे टौंचा उस्ताद का घुच्ची में हारना आम नहीं होता था. मेरे पास पच्चीस तीस पैसे थे जो मैंने उसे अगले दिन वापस किये जाने की शर्त पर उसे दे दिये, हालांकि मैं जानता था कि बागड़बिल्ला किसी भी कीमत पर उन पैसों को वापस नहीं चुका सकेगा. वह बहुत गरीब परिवार से था और उसकी मां इंग्लिश मास्टरानी के घर बर्तन-कपड़े धोने का काम किया करती थी. जाते जाते उसने एक बात कहकर मुझे उत्फुल्लित कर दिया - "फ़ुच्ची तुझे याद कर रहा था यार!" मेरे यह पूछने पर कि फ़ुच्ची कहां मिलेगा उसने अपनी चवन्नी जैसी आधी आंख को चौथाई बनाते हुए दोनों हाथों की मध्यमा उंगलियों को मिला कर घुच्ची का सार्वभौमिक इशारा बनाते हुए कहा - "वहीं! और कहां!"

मैं नीचे उतर कर भागता हुआ साह जी की आटे की चक्की के आगे से होता हुआ घुच्चीस्थल पहुंचा पर खेल निबट चुका था और खिलाड़ियों के बदले वहां नाली पर पंगत बनाकर बैठे छोटे बच्चे सामूहिक निबटान में मुब्तिला थे. ये इतने छोटे थे कि उनसे अभी अभी सम्पन्न हुए खेल और उसके खिलाड़ियों के बारे में कोई जानकारी हासिल हो पाने का कोई मतलब नहीं था.

घुच्चीस्थल से आगे का जुगराफ़िया मेरे लिए ज़्यादा परिचित न था सो मैं मन मारे वापस घर की तरफ़ चल दिया. बस अड्डे पर आखिरी गाड़ी आ लगी थी. और दिन होता तो लफ़त्तू और मैं डिब्बू तलाशने वहां ज़रूर जाते. माचिस के लेबेल इकठ्ठा करने के शौक को किनारे कर हमने तीन चार महीनों से डिब्बू यानी सिगरेट के खाली डिब्बे इकठठा करने का शौक पाल लिया था. डिब्बू इकठ्ठा करना माचिस के लेबेल इकठ्ठा करने की बनिस्बत ज़्यादा एडल्ट माना जाता था क्योंकि डिब्बुओं के साथ भी घुच्ची जैसा एक जुए वाला खेल खेला जा सकता था.

इतने में मेरी निगाह बस से बाहर उतरते मनहूस सूरत बनाए लफ़त्तू के पापा पर पड़ी. बस से बाहर उतरने वाले वे आखिरी आदमी थे. यानी लफ़त्तू और उसकी मां वहीं हैं मुरादाबाद में. मेरा अनुमान गलत भी हो सकता था क्योंकि यह सम्भव था कि वे दोनों दिन के किसी पहर वापस लौट आए हों और ... और ...

गांठ लगा वही थैला लफ़त्तू के पापा के कन्धे पर टंगा था. दिन भर की पस्ती और थकान उनके चेहरे और देह पर देखी जा सकती थी. मेरे लिए यह निर्णायक क्षण था. मैं लपकता हुआ उनके सामने पहुंचा और "नमस्ते अंकल" कह कर उनके सामने स्थिर हो गया. उन्होंने अपना धूलभरा चश्मा आंखों से उतारा और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए मरियल आवाज़ में कहा "जीते रहो बेटे, जीते रहो."

"अंकल लफ़त्तू ..."

"भर्ती करा दिया बेटा मुरादाबाद में उसको. तेरी आन्टी भी वहीं है ..."

मुझे लफ़त्तू को अस्पताल में भर्ती कराए जाने की इमेज काफ़ी मैलोड्रैमैटिक और फ़िल्मी लगी और मुझे पिक्चरों में देखे गए सफ़ेद रंग से अटे अस्पतालों और मरीज़ों वाले सारे सीन याद आने लगे. मैं कुछ और पूछता, वे मेरे सामने से घिसटते से अपने घर की दिशा में चल दिए.

Friday, August 8, 2008

बिग्यान का दूसरा सबक और टेस्टूप

एक महीने कछुआ देखने के बाद हुई सामूहिक धुनाई के बाद वाले रोज़ दुर्गादत्त मास्साब लालसिंह के साथ क्लास में घुसे. लालसिंह अंग्रेज़ी की क्लास में अनुपस्थित था. असेम्बली में टोड मास्साब और दुर्गादत्त मास्साब के बीच चली कोई एक मिनट की बातचीत के बाद उसे जल्दी जल्दी गेट से बाहर जाते देखा गया था. लालसिंह के हाथ में खादी आश्रम वाला गांठ लगा मैला-कुचैला थैला था. मास्साब आदतन कर्नल रंजीत में डूबे हुए थे. लालसिंह ने रोज़ की तरह हमारी अटैन्डेन्स ली. पिछले दिन की ख़ौफ़नाक याद के कारण सारे बच्चे चुपचाप थे. हमने दो कक्षाओं के बीच पड़ने वाले पांचेक मिनट के अन्तराल में स्याही में डुबो कर काग़ज़ की गेंदें फेंकने का खेल भी नहीं खेला.

अटैन्डेन्स के बाद मास्साब ने उपन्यास नीचे रखा और बहुत नाटकीय अन्दाज़ में बोले: "कल तक हम ने जीव बिग्यान याने कि जूलाजी के बारे में जाना. आज से हम बनस्पत बिग्यान माने बाटनी की पढ़ाई शुरू करेंगे."

तब तक लालसिंह मैले थैले से काग़ज़ में लिपटी कोई गोल गिलासनुमा चीज़, एक पुड़िया और पानी से भरा हुआ शेर छाप मसालेदार क्वाटर सजा चुका था. लफ़त्तू ने मुझे क्वाटर, अद्धे और बोतल का अन्तर पहले से ही बता रखा था. उसके पापा इन सब में भरे मटेरियल का नियमित सेवन करते थे और लफ़त्तू एकाधिक बार चोरी से उसे चख भी चुका था. "छाली बली थुकैन होती है. लुफ़्त का भौत मजा आता है छाली में मगल."

मास्साब ने और भी नाटकीय अदाओं के साथ मेज़ पर रखी इन वैज्ञानिक वस्तुओं को उरियां किया. कांच गिलासनुमा चीज़ बहुत साफ़ थी और पतली स्याही से लम्बवत उसमें नियत दूरी पर लकीरें बनी हुई थीं. उसके भीतर गै़रमौजूद धूल को एक अतिशयोक्त फूंक मार कर मास्साब ने दूर किया, उंगली को टेढ़ा कर उसमें दो-चार नाज़ुक सी कटकट की और ऊंचा उठाकर बोले: "देखो बच्चो ये है बीकर. आज श्याम को सारे बच्चे लच्छ्मी पुस्तक भंडार पे जा के इसे ख़रीद लावें. डेड़-दो रुपे का मिलेगा. घरवालों से कह दीजो कि मास्साब ने मंगवाया है."

पुड़िया खोलकर उन्होंने उसके भीतर के भूरे जरजरे पाउडर को ज़रा सा लिया और लकड़ी के बारूदे से हमारा परिचय कराया. "जिस बच्चे के घर पे बारूदे की अंगीठी ना हो बो भवानीगंज जा के अतीक भड़ई के ह्यां से ले आवे. अतीक कुछ कये तो उस से कैना कि मास्साब ने मंगाया है"

शेर छाप का क्वाटर खोल कर उन्होंने हमें पानी दिखाया और पहली बार कोई मज़ाकिया बात बोली "और ये है दारू का पव्वा. दारू पीने से आदमी का बिग्यान बिगड़ जाता है. कोई बच्चा दारू तो नहीं पीता है ना?" बच्चों ने सहमते हुए खीसें निपोरीं.

"सारे बच्चे कल को बिग्यान की बड़ी कापी में बीकर का चित्र बना के लावें. और अब बनस्पत बिग्यान का कमाल देखो." उन्होंने अपने गन्दे कोट की विशाल जेब में हाथ डाला और मुठ्ठी बन्द कर के बाहर निकाली." हमें पता था कि उसमें चने के दाने होंगे क्योंकि हमारी ठुकाई करने के बाद उन्होंने क्लास से बाहर जाते हुए यह अग्रिम सूचना जारी कर दी थी सो उनके इस नाटक को हम दर्शकों की ज़्यादा सराहना नहीं मिली.

"ये हैं चने के दाने. इस संसार में सब कुछ बिग्यान होता है जैसे ये दाने भी बिग्यान हैं. अब देखेंगे बनस्पत बिग्यान का जादू." उन्होंने बीकर में चने के दाने डाले, उसके बाद उन्हें बुरादे से ढंक दिया. बीकर में आधा बुरादा डाल चुकने के बाद उन्होंने आधा क्वाटर पानी उसमें उड़ेला.

"अब इस में से चने उगेंगे"

लालसिंह को बीकर थमाते हुए उन्होंने उसके साथ कछुए वाला व्यवहार करने का आदेश दिया और उपन्यास में डूब गए. लालसिंह ने बीकर दिखाना शुरू किया ही था कि घन्टा बज गया. लालसिंह के हाथ से बीकर लेते हुए मास्साब ने पलटकर कहा: "सारे बच्चे आज श्याम को बाज़ार से बीकर लावें और ऐसा ही परजोग करें. कल सबको चने वाले बीकर लाने हैं."

घर पर हमेशा की तरह साइंस के इस प्रयोग की सामूहिक हंसी उड़ाई गई. लफ़त्तू के घरवालों ने उसे बीकर के पैसे देने से मना कर दिया था सो मैंने मां से यह झूठ बोलकर दो बीकर ख़रीदे कि सबको दो-दो बीकर लाने को कहा गया है.

अगले दिन असेम्बली में कक्षा छः (अ) के हर बच्चे के हाथ में एक बीकर था. केवल नई कक्षा के बच्चों ने इन में दिलचस्पी दिखाई. दुर्गादत्त मास्साब के इस बनस्पत बिग्यान परजोग से बाक़ी के अध्यापक-छात्र परिचित रहे होंगे.

मास्साब ने आकर लालसिंह से अटैन्डेन्स के बाद हर बच्चे का बीकर चैक करने को कहा. बीकर चैक करने के बाद हमारे लिए ख़ास बनाई गईं काग़ज़ की छोटी पर्चियां जेब से निकालकर मास्साब ने हम से उन पर अपना-अपना नाम लिखने और परजोगसाला से लालसिंह द्वारा लाई गई आटे की चिपचिप लेई से उन्हें अपने बीकरों पर चिपकाने को कहा. "जब चिप्पियां लग जावें तो सारे बच्चे बारी-बारी से नलके पे जाके हाथ धोवें औए साफ़ सूखे हाथों से बीकरों को परजोगसाला में रख के आवें" घड़ी की तरफ़ एक बार देख कर मास्साब ने एक उचाट निगाह डालते हुए हमें आदेश दिया.

मोतीराम परशादीलाल इन्टर कालिज की परजोगसाला एक अजूबा निकली. एक बड़ा सा हॉल था, जिस में घुसते ही क़रीब सौएक टूटी कुर्सियां और मेज़ें औंधी पड़ी हुई थीं. उनके बीच से रास्ता बनाते हुए आगे जाने पर एक तरफ़ को बड़ी-बड़ी मेजें थीं - एक पर शादी का खाना बनाने में काम आने वाले बड़े डेग-कड़ाहियां-चिमटे-परातें बेतरतीब बिखरे हुए थे. एक मेज़ के ऊपर कर्नल रंजीत वाली एक अधफटी किताब धूल खा रही थी. वह दुर्गादत्त मास्साब की मेज़ थी. इसी पर हमने अपने बीकर क्रम से रखने थे. किताब मैंने दूर से ताड़ ली थी. मेरे त्वरित, गुपचुप, लालचभरे इसरार पर लफ़त्तू लपक कर गया और चौर्यकर्म में अपनी महारत का प्रदर्शन करते हुए किसी और बच्चे के मेज़ तक पहुंचने देने से पेशतर उसने किताब चाऊ की और कमीज़ के नीचे अड़ा ली और मुझे आंख भी मारी. बीकर रखने के बाद मेरी निगाह दूसरी तरफ़ गई. जहां-तहां टूटे कांच वाली कुछ अल्मारियां थीं जिनकी बग़ल खड़ा में चेतराम नामक लैब असिस्टैन्ट ऊंची आवाज़ में हम से जल्दी फूटने को कह रहा था. इतनी सारी व्यस्तताओं और हड़बड़ी के बावजूद मुझे भुस भरे हुए कुछ पशु-पक्षी इन अल्मारियों के भीतर दिख ही गए. और एक संकरी ताला लगी अल्मारी के भीतर खड़ा एक कंकाल भी जिसने कर्नल रंजीत के साथ अगले कई महीनों तक मेरे सपनों में आना था.

अगले बीसेक दिन बिग्यान की क्लास का रूटीन यह तय बताया गया कि अंग्रेज़ी की क्लास के तुरन्त बाद हमें परजोगसाला जाकर अपने - अपने बीकरों में पानी देना होता था, उसके बाद सम्हाल कर इन्हें क्लास में लाकर अपने आगे रख कर अटैन्डेन्स दी कर बीकर की परगती को ध्यान लगाकर देखना होता था. मास्साब के घड़ी देख कर बताने के बाद घन्टा बजने से दस मिनट पहले हमें इन बीकरों को वापस परजोगसाला जाकर रखना होता.

पहले तीन-चार दिन तो मुझे लगा यह भी मास्साब की कोई ट्रिक है जिस से बोर करने के बाद वे हमें एक बार पुनः मार-मार कर बतौर तिवारी मास्साब हौलीकैप्टर बनाने की प्रस्तावना बांध रहे हैं. पांचवें दिन बीकर के तलुवे में पड़े चने के दानों में कल्ले फूट पड़े और बीकर को नीचे से देखने पर वे शानदार नज़र आते थे. भगवानदास मास्साब इस घटना से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने पांच मिनट तक उपन्यास नीचे रख कर हमें बनस्पत बिग्यान की माया पर एक लैक्चर दिया.

परजोगसाला जाकर मैं सबसे पहले पानी न देकर कंकाल को देखता और उसे पास जा कर छूने का जोख़िमभरा कारनामा अंजाम देने की कल्पना किया करता. इधर मैंने चोरी छिपे ढाबू की छत के एक निर्जन कोने में कर्नल रंजीत के फटे उपन्यास के सारे पन्ने कई बार पढ़ लिए थे. उस के बारे में फिर कभी. चोरी-चोरी मास्साब के उपन्यासों के कवर देखते हुए अब मुझे कुछ कुछ समझ में आने लगा था और कर्नल का इन्द्रजाल सरीखे रहस्य लोक से परिचित क़िस्म की सनसनी होने लगी थी.


दस- बारह दिन बाद नन्हे से पौधे वाक़ई चार-पांच सेन्टीमीटर की बुरादे की परत फ़ोड़कर बाहर निकल आए. इन दिनों पूरी क्लास भर मास्साब के चेहरे पर परमानन्द की छटा झलकती रहती थी. लालसिंह सारे काम करता और ख़ुद उन्हें उपन्यास पढ़ने के सिवा कुछ नहीं करना होता था.

चने के पौधे दो-तीन सेन्टीमीटर लम्बे हो गए थे और बुरादे से अब बदबू भी आने लगी थी. किसी-किसी बीकर के भीतर फफूंद उग आई थी. एक दिन उचित अवसर देख कर मास्साब क्लास से मुख़ातिब हुए: "चने का झाड़ कितने बच्चों ने देखा है?" कोई उत्साहजनक उत्तर न मिलने पर पहले उन्होंने लालसिंह से किसी खेत से चने का झाड़ लाने को कहा और अपना लैक्चर चालू रखते हुए कहना शुरू किया: "चने का झाड़ बड़े काम का होता है. उसमें पहले हौले लगते हैं फिर चने और चने को खाकर सारे बच्चे ताकतवर बनते हैं. सूखे चने को पीसकर बेसन बनता है जिसकी मदद से तलवार अपने होटल में स्वादिस्ट पकौड़ी बनाता है." पकौड़ी का नाम आने पर उन्होंने अपना थूक गटका, "सारे बच्चों के पौधे भी एक दिन चने के बड़े झाड़ों में बदल जावेंगे. तो आज हम आडीटोरियम के बगल में इन पौधों का खेत तैयार करेंगे. जब खूब सारे चने उगेंगे तो हम उन चनों को बन्सल मास्साब की दुकान पे बेच आवेंवे. उस से जो पैसा मिलेगा, उस से सारे बच्चे किसी इतवार को कोसी डाम पे जाके पिकनिक करेंगे.

"लालसिंह हमें आडीटोरियम के बगल में इन पौधों को रोपाने ले गया और वहां जाकर भद्दी सी गाली देकर बोला: "मास्साब भी ना!"

इसके बावजूद हमारे उत्साह में क़तई कमी नहीं आई और आसपास पड़े लकड़ी-पत्थर की मदद से खेत खोदन-निर्माण और पौधारोपण का कार्य सम्पन्न हुआ. घन्टा बज चुका था और हम अपने-अपने बीकर साफ़ करने के उपरान्त उन्हें अपने बस्तों में महफ़ूज़ कर चुके थे.

छुट्टी के वक़्त स्कूल से लौटते हुए कुछेक बच्चे सद्यःनिर्मित खेत के निरीक्षणकार्य हेतु गए. बीच में बरसात की बौछार पड़ चुकी थी. लफ़त्तू भागता हुआ मेरे पास आया: "लालछिंग सई कैलिया था बेते. भैंते मात्तर ने तूतिया कात दिया. छाले तने बलछात में बै गए. अब बेतो तने औल कल्लो दाम पे पुकनिक". उस कब्रगाह पर जा पाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई.

तीन हफ़्ते की मेहनत का यूं पानी में बह जाना मेरे लिए बहुत बड़ा हादसा था. इस वैज्ञानिकी त्रासदी से असंपृक्त दुर्गादत्त मास्साब ने अगले रोज़ न लालसिंह से चने के झाड़ के बाबत सवालात किए, जिसे लाना वह भूल गया था, न चनोत्पादन की उस महत्वाकांक्षी खेती-परियोजना का ज़िक्र किया. अपनी जेब से कर्नल की चमचमाती नई किताब के साथ उन्होंने जेब से परखनली निकाली और उसी नाटकीयता से पूछा: "इसका नाम कौन बच्चा जानता है?" लालसिंह ने भैंसे यानी दुर्गादत्त मास्साब को कल से भी बड़ी गाली देते हुए हमें बिग्यान की इस तीसरी क्लास के बारे में एडवान्स सूचित कर दिया था. "परखनाली मास्साब!" उत्तर में एक कोरस उठा.

"परखनाली नहीं सूअरो! परखनली कहा जावे है इसे! और कल हर बच्चा बाज़ार से दो-दो परखनलियां ले के आवेगा. कल से हम बास्पीकरण के बारे में सीखेंगे. आज श्याम को सारे बच्चे लच्छ्मी पुस्तक भंडार पे जा के ख़रीद लावें. आठ-बारह आने में आ जावेंगी ..."

लालसिंह की गुस्ताख़ी का उन्हें भान हो गया होगा. पहली बार उसकी तरफ़ तिरस्कार से देखते हुए उन्होंने क़रीब-क़रीब थूकने के अन्दाज़ में हमसे कहा: "इंग्लिस में टेस्टूप कहलाती है परखनली. आई समझ में हरामियो?"

Tuesday, March 11, 2008

बच्चों की चड्ढी और होस्यार सुतरा

गुलाबी रंग का तोता बनाते बनाते हमें क़रीब दो महीने बीते. पहले छमाही इम्त्यान की अफ़वाह हवा में थी. आल्ट की क्लास के चलते चित्र बनाने में मेरी दिलचस्पी समाप्त होने लगी थी. प्राइमरी स्कूल के ज़माने में मेरी ड्राइंग अच्छी समझी जाती थी और मुझे शिवाजी और महाराणा प्रताप के चित्र बनाने में महारत हासिल थी. लेकिन तिवारी मास्साब की आल्ट के चक्कर में मेरी अपनी आल्ट की ऐसी तैसी हो चुकी थी.

आल्ट के अलावा मुझे जिन दो विषयों से ऊब सी होने लगी थी वे थे बाणिज्ज और सिलाई-कढ़ाई. बाणिज्ज तो तब भी ठीक था पर सिलाई की क्लास का खास मतलब मेरी समझ में नहीं आता था. ऊपर से यह विषय पूरे तीन साल तक खेंचे जाने थे.

सिलाई की क्लास भूपेस सिरीवास्तव मास्साब लेते थे. सिरीवास्तव मास्साब देखने में किसी भी एंगल से दर्ज़ी नज़र नहीं आते थे. सिलाई की पहली क्लास के बाद जब मैं आवश्यक चीजों की लिस्ट लेकर घर पहुंचा तो जाहिर है मेरे नए स्कूल और वहां पढ़ाए जाने वाले विषयों को लेकर तमाम तरह के मज़ाक किए गए. मुझे अच्छा नहीं लगा पर मजबूरी थी. प्लास्टिक का अंगुस्ताना, धागे की रील, कैंची इत्यादि लेकर रोज़ स्कूल जाने की जलालत वही समझ सकता है जिसे साईंस की क्लास में पन्द्रह दिन तक कछुवा देखना पड़े या दो माह तक गुलाबी तोता बनाना पड़े.

भूपेस सिरीवास्तव मास्साब ने शुरू में हमें एक सफ़ेद कपड़े पर सुई धागे की मदद से कई कारनामे करने सिखाए. इन कारनामों में मुझे धीरे धीरे तुरपाई के काम में मज़ा आने लगा था. बहनों के लतीफ़ों के बावजूद मुझे अपनी पुरानी पतलूनों और घुटन्नों की मोहरियों की तुरपाई उखाड़ना और नए सिरे से उसे करना अच्छा लगता था. एकाध माह तक हमें फ़न्दों की बारीकियां सिखाई गईं. अंगुस्ताना काफ़ी आकर्षित करने लगा था. सिरीवास्तव मास्साब ने क्लास में उस के इस्तेमाल का तरीका सिखा दिया था सो मैं जान बूझ कर तुरपाई करने में सुई को अंगुस्ताने से लैस अपनी उंगली में खुभाने का वीरतापूर्ण कार्य किया करता था. पड़ोस में रहने वाली सिलाई बहन जी के नाम से विख्यात एक आंटी मेरे इस टेलेन्ट से बहुत इम्प्रेस्ड हो गई थीं.

एक रोज़ सिरीवास्तव मास्साब ने हमसे अगली क्लास के लिए पुराने अख़बार लाने को कहा. लफ़त्तू तब तक महाचोर के रूप में इस क़दर विख्यात हो चुका था कि घर पर उसे एक पुराना अख़बार तक लाने नहीं दिया जाता था. जब वह एक बार ड्रेस पहन कर रेडी हो जाता तो उसके पिताजी उसे दुबारा पूरी तरह नंगा करते और बस्ता ख़ाली करवा कर बाकायदा उसकी तलाशी लेते थे. उस के लिए भी अख़बार मैं ही ले गया.

सिलाई की पहली क्लास में हमें बच्चों की चड्ढी बनाना सिखाया गया. पहले अखबार पर नीली चॉक से बच्चों की चड्ढी की नाप बनानी होती थी. मास्साब ज़ोर-ज़ोर से बोलते हुए हमें माप लिखाया करते थे.: "एक से दो पूरी लम्बाई तीस सेन्टीमीटर ... दो से तीन मुड्ढे की लम्बाई दस सेन्टीमीटर ... इत्यादि ..." उस के बाद बनी हुई चड्ढी को काटना होता था और अखबार पर ही सुई से लम्बे टांके मार कर इस कारनामे को अंजाम दिया जाता था. बच्चों की चड्ढी भी हमने करीब महीने भर बनाई.

ख़ैर. छमाही इम्त्यान घोषित कर दिए गए थे और पहला परचा भिगोल का था. तिवारी मास्साब ने इम्त्यान से पहले पांच सवाल लिखा दिये और "जेई पूछे जांगे परीच्छा में सुतरो" कह कर हमें उन के जवाबों का घोटा लगाने का आदेश दे दिया. घोटा अच्छे से लगाया जाना था क्योंकि फ़ेल होने की सूरत में हम सबको गंगाराम की मदद से हौलीकैप्टर बनाए जाने की धमकी भी मिल गई थी.

बाद में जब इम्त्यान निबट चुके थे और हम दिसम्बर की एक सुबह बाहर धूप में लगी भिगोल की कच्छा पढ़ रहे थे, अचानक लालसिंह कहीं से हमारी इमत्यान की कापियां बगल में थामे तिवारी मास्साब के नज़दीक पहुंचा.

"जिन सुतरों के नम्बर आठ से कम होवें बो सारे क्लास छोड़ कर धाम पे कू लिकल जां ... और जिनके चार से कम होवें बो अपने चूतड़ों की मालिश कल्लें ..." गंगाराम को बाहर निकालते हुए तिवारी मास्साब ने धमकाया.

कुल बीस नम्बर का परचा था और ज़्यादातर लड़्कों के आठ या बारह नम्बर थे. लफ़त्तू तक आठ नम्बर ले आया था.

"जे असोक पांड़े कौन हैगा बे?"

मुझे तुरन्त लगा कि मैं फ़ेल हो गया हूं और मुझे घर की याद आने लगी और मैं आसन्न पिटाई के भय में रोने रोने को हो गया. कांपता हुआ मैं खड़ा हुआ तो मुझे अच्छी तरह देखकर मास्साब बोले: "क्यों बे सुतरे, नकल की थी तैने?"

मुझे काटो तो खून नहीं. इसके पहले कि मैं रोने लगता, लफ़त्तू ने मित्रधर्म का निर्वाह किया और अपनी जगह पे खड़ा हो गया.
"क्या है बे चोट्टे?" तिवारी मास्साब भी लफ़त्तू की ख्याति से अनजान नहीं थे.

"मात्ताब मेले पलोस मे रैता हैगा असोक और भौत होत्यार है"

"होस्यार है तो बैठ जा. बीस में बीस लाया है सुतरा!"

तिवारी मास्साब और मेरे बीच हुआ यह पहला और अन्तिम वार्तालाप था.

Monday, March 3, 2008

एक क़स्बे का जुगराफ़िया वाया थोरी मास्साब

एम पी इन्टर कालिज में सबसे ज़्यादा ख़ौफ़ था तिवारी मास्साब का। तिवारी मास्साब को प्रागैतिहासिक समय से थोरी बुढ्ढा कहा जाता था। मास्साब की रंगत कोयले के बोरे को शर्मिन्दा करने को पर्याप्त थी। वे हमें चित्रकला यानी की आल्ट सिखाने के अलावा भूगोल यानी भिगोल भी पढ़ाया करते थे।

शुरू शुरू में तो उनकी ज़बान मेरी समझ में आती ही न थी पर जब एक दफ़े लफ़त्तू ने मुझे बताया कि वे दर असल हमें गालियां देते थे तो मैं उनसे और ज़्यादा ख़ौफ़ खाने लगा। "सुतरे" (यानी ससुरे) उनका फ़ेवरिट शब्द था। और उन्हीं दिनों रिलीज़ हुई 'शोले' के असरानी की अदा के साथ उन्होंने पहली बार क्लास में एन्ट्री ली थी : "अंग्रेज़ों के टैम का मास्टर हूं सुतरो! बड़े-बड़े दादाओं का पेस्साब लिकला करे मुझे देख के। मेरी क्लास में पढ़ाई में धियान ना लगाया तो सुतरो मार मार के हौलीकैप्टर बना दूंवां!"

मास्साब के पास एक पुराना तेल पिया हुआ डंडा था। 'गंगाराम' नामक यह ऐतिहासिक डंडा उनकी बांह में इतनी सफ़ाई के साथ छुपा रहता था कि जब पहली बार क्लास के पीछे के बच्चों को उस का लुफ़्त मिला था मेरी समझ ही में नहीं आया कि मास्साब को वह डंडा मिला कैसे। उन दिनों घुंघराले झब्बा बालों वाले एक विख्यात बाबा ने हवा से घड़ियां और भभूत पैदा करने की परम्परा चालू की थी - मुझे लगा हो न हो मास्साब को कोई दैवी शक्ति हासिल है। लेकिन जल्द ही लालसिंह ने हमें गंगाराम की कई महागाथाएं सुनाईं।

मास्साब का व्यक्तिगत जीवन मुझे बहुत आकर्षित करता था लेकिन बहुत आधिकारिक तौर पर उनके बारे में किसी को भी ज़्यादा मालूम नहीं था। उनका एक बेटा इंग्लैण्ड में रहता था क्योंकि वे हर हफ़्ते हम में से किसी होस्यार बच्चे को नज़दीक के पोस्ट ऑफ़िस भेज कर विदेशी लिफ़ाफ़ा मंगाया करते थे। इन्टरवल के समय उन्हें कालिज से लगे तलवार रेस्टोरेन्ट में तन्मय हो कर चिठ्ठी लिखते देखा जाता था। उनकी एक लड़की भी थी जो चौथी क्लास में कहीं पढ़ा करती थी। उसे किसी ने देखा नहीं था। लेकिन तिवारी मास्साब अपने हर दूसरे किस्से में उसका ज़िक्र किया करते थे। इन वाले कि़स्सों में तिवारी मास्साब खुद ही हमें डराने के लिए अपने आप को किसी भुतहा फ़िल्म के खलनायक की तरह पेश किया करते थे।

खैर। आल्ट की शुरुआती क्लासों में हमें ऑस्टवाल्ड का रंगचक्र बना कर लाने को कहा जाता था। बाहर से बहुत आसान दिखने वाला यह चक्र बनाने में बहुत मुश्किल होता था। एक तो उसे बनाने की जल्दी, फिर उसे सुखाने की बेचैनी: रंगों का आपस में मिल जाना और एक दूसरे में बह जाना आम हुआ करता था। हमारे पड़ोस में एक मोटा सा आदमी रहता था। उसके गोदामनुमा कमरे की हर चीज़ मुझे जादुई लगा करती थी। अजीब अजीब गंधों और विचित्र किस्म के डिब्बों, बोरियों और कट्टों से अटा हुआ उसका कमरा मेरे लिए साइंस की सबसे बड़ी प्रयोगशाला था। उसी की मदद से मैंने सेल से चलने वाला पंखा बनाया, उसी कमरे में मैंने रेडियो की बैटरी को पंखे के रेगूलेटर से जोड़ने का महावैज्ञानिकी कारनामा अंजाम दिया था। जब मैं ऑस्टवाल्ड के रंग चक्र से बुरी तरह ऊब गया तो गोदाम वाले सज्जन ने ऑस्टवाल्ड में दिलचस्पी लेनी पैदा की। मेरी ड्राइंग वैसे खराब नहीं थी लेकिन ऑस्टवाल्ड ने मेरे घोड़े खोल दिये थे। मैं गोदाम के कबाड़ में डूबा रहता था और ये साहब बहुत ध्यान लगा कर मेरा आल्ट का होमवर्क किया करते थे। रंग को सुखाने की इन की बेचैनी मुझ से भी ज़्यादा होती थी। एक बार इस बेचैनी में आल्ट की कॉपी को पम्प वाले स्टोव के ऊपर अधिक देर तक रहना पड़ा और कॉपी तबाह हो गई थी। इस हादसे के बावजूद मुझे तिवारी मास्साब के डंडे का स्वाद नहीं मिला क्योंकि मैं क्लास में होस्यार के तौर पर स्थापित हो चुका था। इस घटना का ज़िक्र फिर कभी।

क़रीब महीने भर तक ऑस्टवाल्ड के रंग चक्र से जूझने के बाद तिवारी मास्साब को हम पर रहम आया और हम ने चिड़िया बनाना सीखना शुरू किया। मास्साब सधे हुए हाथों से ब्लैकबोर्ड पर बिना टहनी वाले एक पेड़ पर बेडौल सी चिड़िया बना देते थे और हम सब ने उस की नकल बनानी होती थी। मैंने कहा था कि मेरी ड्राइंग बुरी नहीं थी सो मैंने नकल सबसे पहले बना ली। मास्साब बाहर मैदान में पतंगबाज़ी देखने में मसरूफ़ थे; मैंने अपनी कॉपी उन्हें दिखाई तो उन्होंने सर से पांव तक मुझे देखकर कहा :

"भौत स्याना बन्निया सुतरे! इस में रंग तेरा बाप भरैगा!"

इस के पहले कि चिड़िया की रंगाई के बारे में मैं उन से कुछ पूछता, मास्साब ने खुद ही मेरी उलझन साफ़ कर दी:

"अब घर जा कै इस में गुलाबी रंग कर के लाइयो"

इस अस्थाई अपमान का जवाब मैंने अपनी कलाप्रतिभा द्वारा देने का फ़ैसला कर लिया था। घर पर सारे लोगों ने उस बेडौल चिड़िया का मज़ाक बनाया लेकिन मुझे तो उसी चिड़िया को रंगकर तिवारी मास्साब की दाद चाहिए थी। उल्लू, गौरैया और ऑस्ट्रिच मे मेलजोल से बनी चिड़िया का पेट ज़रूरत से ज़्यादा स्थूल था और क्लास में जिस चिड़िया को मास्साब ने बनाया था उस की आंख सबसे विचित्र जगह पर थी। आंख, आंख की जगह पर न हो कर गरदन के बीचोबीच बनाया करते थे तिवारी मास्साब. अपने आप को वाक़ई ज़्यादा स्याना बनते हुए मैंने चिड़िया की आंख को सही जगह पर बना दिया था. ऊपर से इस चिड़िया का रंग गुलाबी था.

सुबह क्लास का हर बच्चा गुलाबी रंग की दयनीय चिड़िया बना कर लाया था. लफ़त्तू की चिड़िया सबसे फ़द्दड़ बनी थी. लालसिंह को अपनी सीनियोरिटी के कारण इस कलाकर्म से दो-तीन साल पहले मुक्ति मिल चुकी थी.

मास्साब को चिड़िया दिखाने का पहला नम्बर मेरा था. मास्साब ने किसी सधे हुए कलापारखी की तरह मेरी कॉपी को आड़ा तिरछा कर के देखा.

"जरा पेल्सिन लाइयो"

मैंने उन्हें पेन्सिल दी तो उन्होंने चिड़िया की गरदन के बीचोबीच पेन्सिल से एक गोला बना कर कहा:

"सुतरे, ह्यां हुआ करै आंख! पैले वाली मेट के नई वाली में रंग कर लाइयो कल कू."

मैं पलट कर अपनी सीट पर जा रहा था कि उन्होंने मुझे फिर से बुलाया :

"जब आल्ट पूरी हो जा तो नीचे के सैड पे लिख दीजो 'तोता'."

उस के कई सालों बाद तक "लिख दे तोता" रामनगर के लौंडे मौंडों में बहुत पॉपुलर हुआ।

एक दिन अचानक पता चला कि थोरी बुडढा हमें भूगोल भी पढ़ाया करेगा। "लिख दे तोता" कांड के बाद मेरे मन से उन के लिये सारी इज़्ज़त खत्म हो गई थी।

अंग्रेज़ों के ज़माने वाला मास्टर और दादाओं के पेस्साब और मार मार के हॉलीकैप्टर वाली प्रारंभिक स्पीच के उपरान्त मास्साब ने गंगाराम चालीसा का पाठ किया। इस औपचारिक वार्ता के बाद वे गम्भीर मुखमुद्रा बना कर बोले: "कल से सारे सुतरों को मैं भिगोल पढ़ाया करूंगा। भिगोल के बारे में कौन जाना करै है?" हम ने भूगोल का नाम सुना था भिगोल का नहीं। यह सोचकर कि शायद कोई नया विषय हो, सारे बच्चे चुप रहे। गंगाराम का भय भी सता रहा था।

"भिगोल माने हमारा इलाका। पैले हमारा कालिज, बा कै बाद पिच्चर हाल, बा कै बाद ह्यां कू तलवार का होटल और व्हां कू प्रिंसपल साब का घर। ..."

मास्साब की आवाज़ को काटती हुई लफ़त्तू की आवाज़ आई : " माट्साब, आपका घर किस तरफ़ कू हैगा?"

एक बित्ते भर के 'सुतरे' से मास्साब को ऐसी हिमाकत की उम्मीद न थी।

"कुत्ते की औलाद, खबीस, सुतरे! ..." कहते हुए मास्साब ने अपना गंगाराम बाहर निकाल लिया और लफ़त्तू की कतार में बैठे सारे बच्चों को मार मार कर नीमबेहोश बना डाला।

गुस्से में कांप रहे थे तिवारी मास्साब। अपनी कर्री आवाज़ में उन्होंने भिगोल की क्लास के अनुशासन के नियम गिनाए: "जिन सुतरों को पढ़ना हुआ करे, बो ह्यां पे आवें वरना धाम पे कू लिकल जाया करें। और रामनगर के चार धाम सुन लो हरामज़ादो! इस तरफ़ कू खताड़ी और उस तरफ़ कू लखुवा (लखनपुर नाम का यह मोहल्ला लखुवा कहे जाने पर ही रामनगर का हिस्सा लगता था. लखनपुर से उस के किसी संभ्रान्त बसासत होने का भ्रम होता था)। तीसरा धाम हैगा भवानीगंज और सबसे बड़ा धाम हैगा कोसी डाम (कोसी नदी पर बने इस बांध पर टहलना रामनगर में किया जा सकने वाला सबसे बड़ा अय्याश काम था)।"

"और जो सुतरा तिवारी मास्साब की नजर में इन चार जगहों पर आ गया, उसको व्हंईं सड़क पे जिन्दा गाड़ के रास्ता हुवां से बना दूंवां ..."

Sunday, November 4, 2007

कर्नल रंजीत और विज्ञान के पहले सबक



दुर्गादत्त मास्साब कर्नल रंजीत के जासूसी उपन्यासों के सबसे बड़े पाठक थे. हर सुबह उन्हें एम. पी. इंटर कालिज के परिसर में आलसभरी चाल के साथ प्रवेश करते देखा जा सकता था. असेम्बली खत्म होने को होती थी जब वे प्रवेशद्वार पर नमूदार होते थे. प्रवेशद्वार से भीतर घुसते ही उन्हें ठिठक कर थम जाना पड़ता था क्योंकि उसी पल राष्ट्रगान शुरू हो जाता था. वे इत्मीनान से आंखें बन्द कर राष्ट्रगान के खत्म होने का इन्तजार करते रहते थे. असेम्बली के विसर्जन के समय प्रिंसीपल साब एक खीझभरी निगाह दुर्गादत्त मास्साब पर डालते थे लेकिन उस निगाह से बेज़ार मास्साब स्टाफरूम की तरफ घिसटते जाते थे. उनके अगल बगल से करीब तीन हज़ार बच्चे हल्ला करते धूल उड़ाते अपनी अपनी कक्षाओं की तरफ जा रहे होते थे. पहली क्लास दस बजे से होती थी और बच्चों के पास उस के लिए पांच मिनट का समय होता था. असेम्बली का मैदान उन पांच मिनटों में धूल के विशाल बवंडर में तब्दील हो जाया करता था.

दुर्गादत्त मास्साब स्टाफ़ रूम में बड़ी खिड़की से लगी अपनी कुर्सी में किसी तरह अट जाते थे. खिड़की से बाहर बाजार का विहंगम दृश्य देखा जा सकता था. मास्साब के विशाल शरीर के के हिसाब से उनकी कुर्सी बहुत सूक्ष्म थी. वे अपने किसी भी साथी अध्यापक से बात नहीं करते थे. दुर्गादत्त मास्साब प्रिंसीपल के रिश्ते के मामा लगते थे और उन से बात करने की स्टाफ़ तो दूर खुद प्रिंसीपल साहब की भी हिम्मत नहीं होती थी. इसके अलावा उन्हें पहला पीरियड भी नहीं पढ़ाना होता था. असेम्बली के मैदान जैसा ही दृश्य स्टाफ़रूम में भी देखा जा सकता था : अपनी-अपनी अल्मारियों से अटेन्डैन्स रजिस्टर, किताबें, चॉक और डस्टर आदि जल्दी जल्दी निकालते हुए अपने साथी अध्यापकों की तरफ एक उकताई सी निगाह डालकर मास्साब अपने उपन्यास में डूबने का प्रयत्न करने में सन्न्द्ध हो जाते थे.

दुर्गादत्त मास्साब विज्ञान के मेरे पहले टीचर थे. कक्षा छ: (अ) में करीब दो सौ बच्चे थे. कक्षा की दीवारें बहुत मैली थीं और टीन की उसकी छत तनिक नीची थी. ब्लैकबोर्ड के कोनों पर चिड़ियों की बीट के पुरातन डिजायन उकेरे गए से लगते थे. हम लोग फर्श पर चीथड़ा दरियों पर बैठा करते थे. सामने डेस्क होती थी और डेस्क के एक कोने पर स्याही की दवात. पता नहीं कौन हर सुबह इन दवातों को भर जाता था. हम छुट्टी के बाद जब घरों को जाते तो हमारी सफेद कमीजों पर खूब बड़े बड़े नीले धब्बे होते.

एम पी यानी मोतीराम परशादीलाल इन्टर कालिज में वह मेरा पहला दिन था. अपनी होस्यारीके कारण मैं कक्षा चार से सीधा छ: में पहुंच गया था. पहली कक्षा के बाद हम अगले मास्साब के आने का इन्तजार कर रहे थे. पहली क्लास अंग्रेजी की थी. हमारी अटैन्डेन्स ली ही गई थी कि अंग्रेजी वाले मास्साब को किसी ने बाहर बुला लिया. हमारी तरफ एक पल को भी देखे बिना अंग्रेजी वाले मास्साब पूरे पीरियड भर अपने परिचित से बातें करते रहे. हम कागज की गेंदें स्याही में डुबो कर एक दूसरे पर फेंकने का खेल खेल रहे थे कि घंटा बज गया. अंग्रेजी वाले मास्साब ने हमारी तरफ एक बार को भी नहीं देखा और वे कक्षा से उपस्थिति रजिस्टर लेकर अगली कक्षा की तरफ बढ़ चले.

लालसिंह हमारी क्लास का सबसे विचित्र लड़का था. वह छठी कक्षा में पांच-छः साल फेल हो चुका था. वह तकरीबन करीब अठारह साल का हो चुका था और उसकी मूंछें भी थीं. वह मेरे बड़े भाई जितना लम्बा था. वह एक खास तरह से प्यारा भी था. अपनी लम्बाई और कक्षा के हिसाब से अनफिट मूंछों पर आने वाली शर्म को छिपाने का प्रयास करता वह हम सब को तमाम अध्यापकों के बारे में चुटकुले सुनाया करता था. उसने हमें बताया कि अपनी अस्तित्वहीन गरदन के कारण अंग्रेजी वाले मास्साब को टोडकहा जाता था. मैने करीब-करीब तय कर लिया था कि लालसिंह स्कूल में मेरा सबसे पक्का दोस्त बनेगा.

आ गया, आ गया. भैंसा आ गया.लालसिंह की चेतावनी सुनते ही हम सब की आंखें दरवाजे पर लग गई. बिना हड़बड़ी के दुर्गादत्त मास्साब क्लास में घुसे और उन्होंने लालसिंह पर एक परिचित निगाह डाली: इस निगाह में मुस्कान की सुदूर झलक थी.

कक्षा अचानक शान्त हो गई थी. दुर्गादत्त मास्साब की विशाल देह ही हमें डरा देने को पर्याप्त थी. और लालसिंह हमें उनके गुस्से के कई किस्से सुना चुका था. लालसिंह तुरन्त खड़ा हुआ और मास्साब के हाथ से रजिस्टर लेकर अटैन्डैन्स लेने लगा. दुर्गादत्त मास्साब ने हमारी तरफ बेरूखी से देखा और अपने कोट की जेब से एक किताब बाहर निकाल ली.

सस्ते कागज पर छपी किताब का चमकीला कवर बहुत आकर्षक था. कद में सबसे छोटा होने के कारण मैं सबसे आगे बैठा हुआ था और उस जादुई किताब को बहुत साफ-साफ देख सकता था. अपना चेहरा एक तरफ को थोड़ा सा झुकाए कर्नल रंजीत सीधा मेरी तरफ देख रहा था. उसने काला ओवरकोट और काला ही हैट पहना हुआ था. उसकी तीखी मूंछें ऊपर की तरफ खिंची हुई थीं और आंखों में एक सवाल था. उसके एक हाथ में छोटा सा रिवॉल्वर था. कर्नल का दूसरा हाथ एक अधनंगी लड़की की कमर पर था और वह लड़की कर्नल से चिपकने का प्रयास कर रही दिखती थी. पृष्ठभूमि में लपटें उठ रही थीं और कवर के निचले हिस्से पर एक लाश पड़ी थी. लाश के बगल में खूनसना चाकू था.

कर्नल रंजीत के पास कोई ऐसी दिव्य ताकत थी कि वह एक साथ मुझे और लड़की और लाश को पैनी निगाहों से देख सकता था. यह बेहद आकर्षक था़. मैं सर्वशक्तिमान कर्नल रंजीत के कारनामों के बारे में कल्पनाएं कर रहा था जब दुर्गादत्त मास्साब ने बोलना शुरू किया. अगले आदेश की प्रतीक्षा में लालसिंह अब भी उनकी बगल में खड़ा था.

मैं तुम लोगों को बिग्यान पढ़ाया करूंगा.

हम ने विज्ञान की किताब निकाल ली थी और हमारी सांसें थमी हुई थीं.

"कछुआ कितने बच्चों ने देखा है?”

कुछ हाथ हवा में उठे. किताब को थामे हुए मास्साब सीट से उठे और उन्होंने अपना मैला कोट एक बार हल्के से झाड़ा. मेरी आंखें कवर से चिपकी हुई थीं.

ए तेरा नाम क्या है बच्चे?” वे मेरी तरफ देख रहे थे.

मुझे लगा कि मेरी चोरी पकड़ी गई है और मैं थप्पड़ का इन्तजार करने लगा. डेस्क को देखता हुआ मैं खड़ा हुआ.

"मास्साब मैं …”

मास्साब मैं नाम हैगा तेरा?”

मैं कुछ कहना चाहता था पर जीभ पत्थर की हो गई थी. मैं रोने रोने को हुआ कि उनका बड़ा सा हाथ मेरे कन्धे पर था.

तू वो खताड़ी वाले पांडेजी का लड़का है ना?”

मैंने हां में सिर हिलाया.

सुना है कि तू भौत होशियार है. अब मुझे बता तूने कभी कछुआ देखा है - असली वाला जिन्दा कछुआ

"नईं मास्साब

बढ़िया. कोई बात नहीं. आज सारे बच्चे असली का कछुआ देखेंगे.

अपने कोट की बड़ी सी जेब में हाथ डालकर उन्होंने पत्धर जैसी कोई गोल चीज बाहर निकाली.

"ये रहा कछुआ. असली जिन्दा कछुआ. लो पांडेजी पकड़ो इसे.मास्साब द्वारा पांडेजी कहे जाने पर मुझे थोड़ी शर्म आई. मैंने कांपते हाथों से उस कड़ी चीज को पकड़ा.

अभी कछुआ सोया हुआ है. अगर उसे आराम से खुजाओगे तो ये तुम्हें अपनी शकल दिखा देगा. लालसिंह, चलो मदद करो पांडेजी की.

जरा भी देर किए बिना लालसिंह ने मेरे हाथों से कछूए को छीन लिया. उसने अपनी अनुभवी उंगली को कछुए के किसी हिस्से में खुभाया और कछुआ खोल से बाहर निकल आया. यह एक चमत्कारिक चीज थी और आगे वाले बच्चे लालसिंह के हाथ के गिर्द इकठ्ठा थे.

एक एक कर के लालसिंह!मास्साब वापस अपनी सीट पर थे और उपन्यास पढ़ने में किसी तरह का व्यवधान नहीं चाहते थे.

लालसिंह ने सारे बच्चों को डपटकर सीट पर बिठा दिया और कछुआ मुझे थमाया. कछुआ वापस खोल में घुस चुका था. मैंने भी लालसिंह की तरह उंगली घुसाने की कोशिश की पर कुछ नहीं हुआ. अब तेरी बारी हैकहकर लालसिंह ने कछुआ मेरे साथ वाले बच्चे को पकड़ा दिया. कक्षा में शोर बढ़ता जा रहा था. पीछे की सीटों के बच्चे अधैर्य के कारण बेकाबू हो गए थे. कछुआ उनकी पहुंच से बहुत दूर था सो उन्होंने आइस पाइस खेलना चालू कर दिया था. जब तक कि अगली कतार के सारे बच्चों को कछुआ देख पाने का अवसर मिलता घंटा बज गया. लालसिंह ने कछुआ मास्साब को सुपुर्द कर दिया.

कुर्सी से सश्रम उठते हुए मास्साब ने हमारी तरफ देख कर कहना चालू किया: जिनका नम्बर आज नहीं आया वो बच्चे कल कछुआ देखेंगे .कक्षा से बाहर जाते हुए उन्होंने कुछ अस्पष्ट शब्द बुदबुदाए जो पिछली कतारों के असंतुष्ट बच्चों के कोलाहल में डूब गए. आगे की क़तार वाले वाले बच्चों के चेहरों पर गर्व था.

अगले पन्द्रह दिन तक लाल सिंह के कुशल निर्देशन में विज्ञान की कक्षा में सारे बच्चे कछुआ देखते रहे. लालसिंह का इकलौता काम यह होता था कि मास्साब और कर्नल रंजीत के दरम्यान कम से कम बाधा हो.

हम शायद अनन्त काल तक उस कछुए को देखते रहते लेकिन उसे इतनी बार देख चुकने के बाद बच्चे उकता चुके थे और जब एक दुर्भाग्यपूर्ण क्षण में कुछ बच्चों ने कछुए के साथ कैच कैचका खेल खेलना शुरू किया दुर्गादत्त मास्साब ने अपने ऐतिहासिक गुस्से से हमारा पहला परिचय कराया. जब तक हम कुछ समझ पाते लालसिंह पता नहीं कहां से डंडा लाकर मास्साब को थमा चुका था. साले, हरामजादे, खबीस, बदमाश, ससुरे, सूअर इत्यादि तमाम उपाधियां हमें नवाजते मास्साब के भीतर जैसे किसी चैम्पियन एथलीट का भूत घुस गया था. लॉंग जम्प, हाई जम्प, भालाफेंक, गोलाफेंक और अन्य खेलों में अपना कौशल दिखाते मास्साब डंडे, रजिस्टर और चॉक के टुकड़ों के साथ किसी बेरहम यमराज की तरह कत्लोगारत पर उतर आए थे. उनके सामने जो पड़ा उसकी शामत आई. कई बच्चे एक डेस्क से दूसरी पर कूदते अपनी जान बचा रहे थे. जो ज्यादा स्मार्ट थे वे खिड़की फांद कर बाहर भाग गए.

आठ दस मिनट तक चले इस खून खच्चर के बाद मास्साब फिर से किताब में डूब चुके थे. ज्यादातर बच्चे सुबक रहे थे. लालसिंह जो इस गुस्से को कई दफा देख चुका था एक कोने पर खड़ा बेमन से कछुए के उसी विशेष हिस्से में अपनी उंगली घुसा रहा था.

कछुए में हमारी सारी दिलचस्पी अब खत्म हो चुकी थी. घंटा बजा तो मास्साब इस तरह उठे जैसे कुछ हुआ ही न हो. हमारी जिन्दगानियां लुट चुकी थीं और कछुआ वापस उनकी जेब में था. लालसिंह की तरफ देखते हुए उन्होंने सारी क्लास को संबोधित किया:

कल हम देखेंगे कि बीकर कैसा होता है और लकड़ी के बारूदे की मदद से बीकर में चने कैसे उगते हैं. …”

उनका हाथ जेब में गया तो संभवत: वहां कछुआ उनकी उंगलियों को छू गया होगा. उन्हें कुछ याद सा आया और बाहर जाते जाते थमते हुए उन्होंने पूछा:

कछुआ सारे बच्चों ने देख लिया कि नहीं … ”


*इस पोस्ट को यहां सुना जा सकता है:

संडे स्पेशल: आज सुनिये लपूझन्ने का बचपन और कर्नल रंजीत