दुर्गादत्त
मास्साब कर्नल रंजीत के जासूसी उपन्यासों के सबसे बड़े पाठक थे. हर सुबह उन्हें एम.
पी. इंटर कालिज के परिसर में आलसभरी चाल के साथ प्रवेश करते देखा जा सकता था.
असेम्बली खत्म होने को होती थी जब वे प्रवेशद्वार पर नमूदार होते थे. प्रवेशद्वार
से भीतर घुसते ही उन्हें ठिठक कर थम जाना पड़ता था क्योंकि उसी पल राष्ट्रगान शुरू
हो जाता था. वे इत्मीनान से आंखें बन्द कर राष्ट्रगान के खत्म होने का इन्तजार
करते रहते थे. असेम्बली के विसर्जन के समय प्रिंसीपल साब एक खीझभरी निगाह
दुर्गादत्त मास्साब पर डालते थे लेकिन उस निगाह से बेज़ार मास्साब स्टाफरूम की तरफ
घिसटते जाते थे. उनके अगल बगल से करीब तीन हज़ार बच्चे हल्ला करते धूल उड़ाते अपनी
अपनी कक्षाओं की तरफ जा रहे होते थे. पहली क्लास दस बजे से होती थी और बच्चों के
पास उस के लिए पांच मिनट का समय होता था. असेम्बली का मैदान उन पांच मिनटों में
धूल के विशाल बवंडर में तब्दील हो जाया करता था.
दुर्गादत्त
मास्साब स्टाफ़ रूम में बड़ी खिड़की से लगी अपनी कुर्सी में किसी तरह अट जाते थे.
खिड़की से बाहर बाजार का विहंगम दृश्य देखा जा सकता था. मास्साब के विशाल शरीर के
के हिसाब से उनकी कुर्सी बहुत सूक्ष्म थी. वे अपने किसी भी साथी अध्यापक से बात
नहीं करते थे. दुर्गादत्त मास्साब प्रिंसीपल के रिश्ते के मामा लगते थे और उन से
बात करने की स्टाफ़ तो दूर खुद प्रिंसीपल साहब की भी हिम्मत नहीं होती थी. इसके
अलावा उन्हें पहला पीरियड भी नहीं पढ़ाना होता था. असेम्बली के मैदान जैसा ही दृश्य
स्टाफ़रूम में भी देखा जा सकता था : अपनी-अपनी अल्मारियों से अटेन्डैन्स रजिस्टर, किताबें, चॉक और डस्टर आदि जल्दी जल्दी निकालते हुए
अपने साथी अध्यापकों की तरफ एक उकताई सी निगाह डालकर मास्साब अपने उपन्यास में
डूबने का प्रयत्न करने में सन्न्द्ध हो जाते थे.
दुर्गादत्त
मास्साब विज्ञान के मेरे पहले टीचर थे. कक्षा छ: (अ) में करीब दो सौ बच्चे थे.
कक्षा की दीवारें बहुत मैली थीं और टीन की उसकी छत तनिक नीची थी. ब्लैकबोर्ड के
कोनों पर चिड़ियों की बीट के पुरातन डिजायन उकेरे गए से लगते थे. हम लोग फर्श पर
चीथड़ा दरियों पर बैठा करते थे. सामने डेस्क होती थी और डेस्क के एक कोने पर स्याही
की दवात. पता नहीं कौन हर सुबह इन दवातों को भर जाता था. हम छुट्टी के बाद जब घरों
को जाते तो हमारी सफेद कमीजों पर खूब बड़े बड़े नीले धब्बे होते.
एम
पी यानी मोतीराम परशादीलाल इन्टर कालिज में वह मेरा पहला दिन था. अपनी ‘होस्यारी’ के कारण मैं कक्षा चार से सीधा छ: में
पहुंच गया था. पहली कक्षा के बाद हम अगले मास्साब के आने का इन्तजार कर रहे थे.
पहली क्लास अंग्रेजी की थी. हमारी अटैन्डेन्स ली ही गई थी कि अंग्रेजी वाले
मास्साब को किसी ने बाहर बुला लिया. हमारी तरफ एक पल को भी देखे बिना अंग्रेजी
वाले मास्साब पूरे पीरियड भर अपने परिचित से बातें करते रहे. हम कागज की गेंदें
स्याही में डुबो कर एक दूसरे पर फेंकने का खेल खेल रहे थे कि घंटा बज गया.
अंग्रेजी वाले मास्साब ने हमारी तरफ एक बार को भी नहीं देखा और वे कक्षा से
उपस्थिति रजिस्टर लेकर अगली कक्षा की तरफ बढ़ चले.
लालसिंह
हमारी क्लास का सबसे विचित्र लड़का था. वह छठी कक्षा में पांच-छः साल फेल हो चुका
था. वह तकरीबन करीब अठारह साल का हो चुका था और उसकी मूंछें भी थीं. वह मेरे बड़े
भाई जितना लम्बा था. वह एक खास तरह से प्यारा भी था. अपनी लम्बाई और कक्षा के
हिसाब से अनफिट मूंछों पर आने वाली शर्म को छिपाने का प्रयास करता वह हम सब को
तमाम अध्यापकों के बारे में चुटकुले सुनाया करता था. उसने हमें बताया कि अपनी
अस्तित्वहीन गरदन के कारण अंग्रेजी वाले मास्साब को ‘टोड’ कहा जाता था. मैने करीब-करीब तय कर लिया था कि
लालसिंह स्कूल में मेरा सबसे पक्का दोस्त बनेगा.
“आ गया, आ गया. भैंसा आ गया.” लालसिंह
की चेतावनी सुनते ही हम सब की आंखें दरवाजे पर लग गई. बिना हड़बड़ी के दुर्गादत्त
मास्साब क्लास में घुसे और उन्होंने लालसिंह पर एक परिचित निगाह डाली: इस निगाह
में मुस्कान की सुदूर झलक थी.
कक्षा
अचानक शान्त हो गई थी. दुर्गादत्त मास्साब की विशाल देह ही हमें डरा देने को
पर्याप्त थी. और लालसिंह हमें उनके गुस्से के कई किस्से सुना चुका था. लालसिंह
तुरन्त खड़ा हुआ और मास्साब के हाथ से रजिस्टर लेकर अटैन्डैन्स लेने लगा.
दुर्गादत्त मास्साब ने हमारी तरफ बेरूखी से देखा और अपने कोट की जेब से एक किताब
बाहर निकाल ली.
सस्ते
कागज पर छपी किताब का चमकीला कवर बहुत आकर्षक था. कद में सबसे छोटा होने के कारण
मैं सबसे आगे बैठा हुआ था और उस जादुई किताब को बहुत साफ-साफ देख सकता था. अपना
चेहरा एक तरफ को थोड़ा सा झुकाए कर्नल रंजीत सीधा मेरी तरफ देख रहा था. उसने काला
ओवरकोट और काला ही हैट पहना हुआ था. उसकी तीखी मूंछें ऊपर की तरफ खिंची हुई थीं और
आंखों में एक सवाल था. उसके एक हाथ में छोटा सा रिवॉल्वर था. कर्नल का दूसरा हाथ
एक अधनंगी लड़की की कमर पर था और वह लड़की कर्नल से चिपकने का प्रयास कर रही दिखती
थी. पृष्ठभूमि में लपटें उठ रही थीं और कवर के निचले हिस्से पर एक लाश पड़ी थी. लाश
के बगल में खूनसना चाकू था.
कर्नल
रंजीत के पास कोई ऐसी दिव्य ताकत थी कि वह एक साथ मुझे और लड़की और लाश को पैनी
निगाहों से देख सकता था. यह बेहद आकर्षक था़. मैं सर्वशक्तिमान कर्नल रंजीत के
कारनामों के बारे में कल्पनाएं कर रहा था जब दुर्गादत्त मास्साब ने बोलना शुरू
किया. अगले आदेश की प्रतीक्षा में लालसिंह अब भी उनकी बगल में खड़ा था.
“मैं तुम लोगों को बिग्यान पढ़ाया करूंगा.”
हम
ने विज्ञान की किताब निकाल ली थी और हमारी सांसें थमी हुई थीं.
"कछुआ
कितने बच्चों ने देखा है?”
कुछ
हाथ हवा में उठे. किताब को थामे हुए मास्साब सीट से उठे और उन्होंने अपना मैला कोट
एक बार हल्के से झाड़ा. मेरी आंखें कवर से चिपकी हुई थीं.
“ए तेरा नाम क्या है बच्चे?” वे मेरी तरफ देख रहे थे.
मुझे
लगा कि मेरी चोरी पकड़ी गई है और मैं थप्पड़ का इन्तजार करने लगा. डेस्क को देखता
हुआ मैं खड़ा हुआ.
"मास्साब
…
मैं …”
“मास्साब मैं नाम हैगा तेरा?”
मैं
कुछ कहना चाहता था पर जीभ पत्थर की हो गई थी. मैं रोने रोने को हुआ कि उनका बड़ा सा
हाथ मेरे कन्धे पर था.
“तू वो खताड़ी वाले पांडेजी का लड़का है ना?”
मैंने
हां में सिर हिलाया.
“सुना है कि तू भौत होशियार है. अब मुझे बता तूने कभी कछुआ देखा है - असली
वाला जिन्दा कछुआ”
"नईं
मास्साब”
“बढ़िया. कोई बात नहीं. आज सारे बच्चे असली का कछुआ देखेंगे.”
अपने
कोट की बड़ी सी जेब में हाथ डालकर उन्होंने पत्धर जैसी कोई गोल चीज बाहर निकाली.
"ये
रहा कछुआ. असली जिन्दा कछुआ. लो पांडेजी पकड़ो इसे.” मास्साब
द्वारा पांडेजी कहे जाने पर मुझे थोड़ी शर्म आई. मैंने कांपते हाथों से उस कड़ी चीज
को पकड़ा.
“अभी कछुआ सोया हुआ है. अगर उसे आराम से खुजाओगे तो ये तुम्हें अपनी शकल
दिखा देगा. लालसिंह, चलो मदद करो पांडेजी की.”
जरा
भी देर किए बिना लालसिंह ने मेरे हाथों से कछूए को छीन लिया. उसने अपनी अनुभवी
उंगली को कछुए के किसी हिस्से में खुभाया और कछुआ खोल से बाहर निकल आया. यह एक
चमत्कारिक चीज थी और आगे वाले बच्चे लालसिंह के हाथ के गिर्द इकठ्ठा थे.
“एक एक कर के लालसिंह!” मास्साब वापस अपनी सीट पर थे
और उपन्यास पढ़ने में किसी तरह का व्यवधान नहीं चाहते थे.
लालसिंह
ने सारे बच्चों को डपटकर सीट पर बिठा दिया और कछुआ मुझे थमाया. कछुआ वापस खोल में
घुस चुका था. मैंने भी लालसिंह की तरह उंगली घुसाने की कोशिश की पर कुछ नहीं हुआ. “अब तेरी बारी है” कहकर लालसिंह ने कछुआ मेरे साथ
वाले बच्चे को पकड़ा दिया. कक्षा में शोर बढ़ता जा रहा था. पीछे की सीटों के बच्चे
अधैर्य के कारण बेकाबू हो गए थे. कछुआ उनकी पहुंच से बहुत दूर था सो उन्होंने आइस
पाइस खेलना चालू कर दिया था. जब तक कि अगली कतार के सारे बच्चों को कछुआ देख पाने
का अवसर मिलता घंटा बज गया. लालसिंह ने कछुआ मास्साब को सुपुर्द कर दिया.
कुर्सी
से सश्रम उठते हुए मास्साब ने हमारी तरफ देख कर कहना चालू किया: “जिनका नम्बर आज नहीं आया वो बच्चे कल कछुआ देखेंगे ….”
कक्षा से बाहर जाते हुए उन्होंने कुछ अस्पष्ट शब्द बुदबुदाए जो
पिछली कतारों के असंतुष्ट बच्चों के कोलाहल में डूब गए. आगे की क़तार वाले वाले
बच्चों के चेहरों पर गर्व था.
अगले
पन्द्रह दिन तक लाल सिंह के कुशल निर्देशन में विज्ञान की कक्षा में सारे बच्चे
कछुआ देखते रहे. लालसिंह का इकलौता काम यह होता था कि मास्साब और कर्नल रंजीत के
दरम्यान कम से कम बाधा हो.
हम
शायद अनन्त काल तक उस कछुए को देखते रहते लेकिन उसे इतनी बार देख चुकने के बाद
बच्चे उकता चुके थे और जब एक दुर्भाग्यपूर्ण क्षण में कुछ बच्चों ने कछुए के साथ ‘कैच कैच’ का खेल खेलना शुरू किया दुर्गादत्त मास्साब
ने अपने ऐतिहासिक गुस्से से हमारा पहला परिचय कराया. जब तक हम कुछ समझ पाते
लालसिंह पता नहीं कहां से डंडा लाकर मास्साब को थमा चुका था. साले, हरामजादे, खबीस, बदमाश,
ससुरे, सूअर इत्यादि तमाम उपाधियां हमें
नवाजते मास्साब के भीतर जैसे किसी चैम्पियन एथलीट का भूत घुस गया था. लॉंग जम्प,
हाई जम्प, भालाफेंक, गोलाफेंक
और अन्य खेलों में अपना कौशल दिखाते मास्साब डंडे, रजिस्टर
और चॉक के टुकड़ों के साथ किसी बेरहम यमराज की तरह कत्लोगारत पर उतर आए थे. उनके
सामने जो पड़ा उसकी शामत आई. कई बच्चे एक डेस्क से दूसरी पर कूदते अपनी जान बचा रहे
थे. जो ज्यादा स्मार्ट थे वे खिड़की फांद कर बाहर भाग गए.
आठ
दस मिनट तक चले इस खून खच्चर के बाद मास्साब फिर से किताब में डूब चुके थे.
ज्यादातर बच्चे सुबक रहे थे. लालसिंह जो इस गुस्से को कई दफा देख चुका था एक कोने
पर खड़ा बेमन से कछुए के उसी विशेष हिस्से में अपनी उंगली घुसा रहा था.
कछुए
में हमारी सारी दिलचस्पी अब खत्म हो चुकी थी. घंटा बजा तो मास्साब इस तरह उठे जैसे
कुछ हुआ ही न हो. हमारी जिन्दगानियां लुट चुकी थीं और कछुआ वापस उनकी जेब में था.
लालसिंह की तरफ देखते हुए उन्होंने सारी क्लास को संबोधित किया:
“कल हम देखेंगे कि बीकर कैसा होता है और लकड़ी के बारूदे की मदद से बीकर में
चने कैसे उगते हैं. …”
उनका
हाथ जेब में गया तो संभवत: वहां कछुआ उनकी उंगलियों को छू गया होगा. उन्हें कुछ
याद सा आया और बाहर जाते जाते थमते हुए उन्होंने पूछा:
“कछुआ सारे बच्चों ने देख लिया कि नहीं … ”
*इस
पोस्ट को यहां सुना जा सकता है:
संडे स्पेशल: आज सुनिये लपूझन्ने का बचपन और कर्नल रंजीत
11 comments:
अच्छा तो ऐसा ठैरा!
एक तो शहर रामनगर, फिर अशोक दा का बयान! उसे हम वली समझते जो न बादाख्वार होता !
मजेदार विवरण। हमारे स्कूल में भी एक बिष्ट मास्साब थे। उन्हें कर्नल रंजीत पढने का तो नहीं लेकिन फसक-फराल में बहुत मज़ा आता था। कोई भी दूसरा मास्साब या दीदी उनको बात करने के लिए मिल ही जाते थे और हमारी गणित की कक्षा बिना पढाई के खत्म हो जाती थी। अगर बच्चों के शोरगुल से उनकी बातचीत में बाधा आती तो समझ लीजिए उनकी देह में साक्षात दुर्वासा मुनि अवतरित हो जाते थे।
बहुत बढ़िया भाई. अब बीकर की कहानी भी लिखिये.
दीपा जी फसक-फराल क्या है?
गप्प मारने के लिए पहाङी में बहुत से शब्द इस्तेमाल होते हैं फसक मारना भी उनमें से एक है। फसक-फराल तब बोलते हैं जब गप्पबाजी कुछ लंबी खींचे। क्यों अशोकदा मैं ठीक हूं ना?
ashokda chup kyon?
ये किस्सा भी अच्छा ही लगा हो.लेकिन खताड़ी तो अल्मोड़ा में होने वाला हुआ क्या रामनगर में खताड़ी है.
अरे रामनगर के "खताड़ी" के सामने अल्मोड़ा का "खत्याड़ी" पानी भरे. अल्मोड़े वाले को शहर खा गया है मगर रामनगर वाला शहर को खाने का माद्दा रखता है.
भाई इस पोस्ट को तो पढ़ा भी और सुना भी, दोनों में बड़ा मज़ा आया.. अशोकजी आप अब प्रेरित करने लगे हैं हमको भी अपने संस्मरण कुरेदने के लिए... हमारे भी एक मास्टर साहब थे जिनकी कथा परम आनंददायी है.. देखिये यदि इस आलस पर विजय प्राप्त कर सके तो लिखेंगे...
Bahut badhiya detailed description of a village school.it is appriciating and encouraging.keep writing and keep telling to us about your wonderful experiences and shandaar descriptions.
with regards
Dr.Bhoopendra
बड़ा शानदार और रोचक अंदाज़ में वर्णन किया है आपने अपने बचपने का,पढ़कर सारी तस्वीर जैसे सामने घूमने लगी.आपकी लेखनी में ताक़त है.बधाई.
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