Thursday, April 15, 2010

गब्बल थे बी खतलनाक इन्छान कताई मात्तर

लफ़त्तू की हालत देख कर मेरा मन स्कूल में कतई नहीं लगा. उल्टे दुर्गादत्त मास्साब की क्लास में अरेन्जमेन्ट में कसाई मास्टर की ड्यूटी लग गई. प्याली मात्तर ने इन दिनों अरेन्जमेन्ट में आना बन्द कर दिया था और हमारी हर हर गंगे हुए ख़ासा अर्सा बीत चुका था. कसाई मास्टर एक्सक्लूसिवली सीनियर बच्चों को पढ़ाया करता था, लेकिन उसके कसाईपने के तमाम क़िस्से समूचे स्कूल में जाहिर थे. कसाई मास्टर रामनगर के नज़दीक एक गांव सेमलखलिया में रहता था. अक्सर दुर्गादत्त मास्साब से दसेक सेकेन्ड पहले स्कूल के गेट से असेम्बली में बेख़ौफ़ घुसते उसे देखते ही न जाने क्यों लगता था कि बाहर बरसात हो रही है. उसकी सरसों के रंग की पतलून के पांयचे अक्सर मुड़े हुए होते थे और कमीज़ बाहर निकली होती. जूता पहने हमने उसे कभी भी नहीं देखा. वह अक्सर हवाई चप्पल पहना करता था. हां जाड़ों में इन चप्पलों का स्थान प्लास्टिक के बेडौल से दिखने वाले सैन्डिल ले लिया करते.

कसाई मास्टर की कदकाठी किसी पहलवान सरीखी थी और दसवीं बारहवीं तक में पढ़ने वाले बच्चों में उसका ख़ौफ़ था. थोरी बुड्ढे और मुर्गादत्त मास्टर के धुनाई-कार्यक्रम कसाई मास्टर के विख्यात किस्सों के सामने बच्चों के खेल लगा करते. बताया जाता था कि कसाई मास्टर की पुलिस और सरकारी महकमों में अच्छी पहचान थी और उसके ख़िलाफ़ कुछ भी कह पाने की हिम्मत किसी की नहीं हुआ करती थी. लफ़त्तू के असाधारण सामान्यज्ञान की मार्फ़त मुझे मालूम था कि अगर कभी भी कसाई मास्टर का अरेन्जमेन्ट में हमारी क्लास में आना होगा तो हमें बेहद सतर्क रहना होगा क्योंकि कसाई मास्टर का दिमाग चाचा चौधरी की टेक पर कम्प्यूटर से भी तेज़ चला करता था. यह अलग बात है कि कम्प्यूटर तब केवल शब्द भर हुआ करता था - एक असम्भव अकल्पनीव शब्द जिसके ओरछोर का सम्भवतः भगवान को भी कोई आइडिया नहीं था. लफ़त्तू के कहने का मतलब होता था कि कसाई मास्टर को स्कूल भर में पढ़ने वाले हर बच्चे के विस्तृत बायोडाटा ज़बानी याद थे. "बला खतलनाक इन्छान है कताई मात्तर बेते! बला खतलनाक! गब्बल थे बी खतलनाक!"

तो गब्बरसिंह से भी खतरनाक इस कसाई मास्टर की क्लास में एन्ट्री कोई ड्रामाई नहीं हुई. कसाई ने खड़े खड़े ही बहुत आराम से ख़ुद ही अटैन्डैन्स ली और जब "प्यारे बच्चो!" कहकर कुर्सी पर अपना स्थान ग्रहण किया, मुझे लफ़त्तू की बातों पर से अपना विश्वास एकबारगी ढहता सा महसूस हुआ. कसाईमुख को थोड़ा गौर से देखने पर पता चलता था कि उसकी दाईं आंख बागड़बिल्ले की भांति एलएलटीटी यानी लुकिंग लन्डन टॉकिंग टोक्यो यानी ढैणी थी. बाईं भौंह के बीचोबीच चोट का पुराना निशान उस मुखमण्डल को ख़ासा ख़ौफ़नाक बनाता था. सतरुघन सिन्ना टाइप की मूंछें धारण किये, ऐसा लगता था, मानो कसाई अपने आप को जायदै ही इस्माट समझने के कुटैव से पीड़ित था. कसाई के अधपके बाल प्रचुर मात्रा में तेललीपीकरण के बावजूद किसी सूअर के बालों की तरह कड़े और सीधे थे. उन दिनों पराग पत्रिका में एक उपन्यास धारावाहिक छप कर आ रहा था. उपन्यास का नायक भारत की राष्ट्रीय पोशाक यानी पट्टे के घुटन्ने के अतिरिक्त किसी भी तरह के मेक अप में विश्वास नहीं रखता था. कसाई के अटैन्डेन्स लेते लेते छिप कर देखते हुए एकाध मिनट से भी कम समय में मुझे यकीन हो गया कि उक्त उपन्यास के लेखक ने कसाई मास्टर के चेहरे का विषद अध्ययन करने के बाद ही उपन्यास के नायक का वैसा हुलिया खींचा होगा. मुझे यह कल्पना करना मनोरंजक लगा कि कसाई मास्टर केवल घुटन्ना पहने कैसा नज़र आएगा.

अटैन्डेन्स हो चुकी थी और "प्यारे बच्चो!" कहते हुए कुर्सी में बैठते ही कसाई मास्टर किसी ख्याल में संजीदगी से तल्लीन हो गया. क्लास के बाकी बच्चों की तरह मैं भी अगले दो पीरियड के दौरान किसी भी स्तर के कैसे भी हादसे का सामना करने को तैयार था. अचानक कुर्सी से एक अधसोई सी आवाज़ निकली: "पत्तल में खिचड़ी कितने बच्चों ने खाई है?"

कुछ समय से क्लास में बस कभी कभी ही आने वाले लालसिंह के सिवाय किसी भी बच्चे का हाथ नहीं उठा. लालसिंह के उठे हुए हाथ को ख़ास तवज्जो न देते हुए कसाई मास्टर ने कहा - "यहां से कुछ दूरी पर कालागढ़ का डाम हैगा. मैं सोच रहा हूं कि तुम सारे बच्चों को किसी इतवार को म्हां पे पिकनिक पे ले जाऊं. आशीष बेटे, ह्यां कू अईयो जरा!" आशीष क्लास में नया नया आया था और वह भी अपने आप को जायदै ही इस्माट समझने के कुटैव से पीड़ित था. उसका बाप रामनगर का एसडीएम टाइप का बड़ा अफ़सर था और यह तथ्य उसकी हर चालढाल में ठसका ठूंसने का वाज़िब और निहायत घृणास्पद कारण था. कि कसाई मास्टर आशीष को नाम से जानता है, हमारे लिए क्षणिक अचरज का विषय बना. आशीष कसाई मास्टर की बगल में खड़ा था. मास्टर का अभिभावकसुलभ प्रेम से भरपूर हाथ उसकी पीठ फेर रहा था. "आशीष के पिताजी रामनगर के सबसे बड़े अफ़सर हैंगे. कल मुझे इनके घर खाने पर बुलवाया गया था. व्हईं मुझे जे बात सूझी की आशीष की क्लास के सारे बच्चों को कालागढ़ डाम पे पिकनिक के बास्ते ले जाया जाबै. और साहब ने सरकारी मदद का मुझे कल ही वादा भी कर दिया है. तो बच्चो अपने अपने घर पे बतला दीजो कि आने बालै किसी भी इतवार को पिकनिक का आयोजन किया जावैगा. पिकनिक में देसी घी की खिचड़ी बनाई जाएगी और उसे पत्तलों में रखकर सारे बच्चे खावेंगे. खिचड़ी खाने का असल आनन्द पत्तल में है. ..."

खिचड़ी, पत्तल, देसी घी, कालागढ़, डाम, साहब, आशीष, पिकनिक इत्यादि शब्द पूरे पीरियड भर बोले गए और कसाई मास्टर का हाथ लगातार आशीष की पीठ को सहलाता रहा. घन्टी बजने ही वाली थी जब "ऐ लौंडे, तू बो पीछे वाले, ह्यां आइयो तनी!"

पैदाइशी बौड़म नज़र आने वाले इस लड़के का नाम ज़्यादातर बच्चे नहीं जानते थे. उसकी पहचान यह थी कि उसके एक हाथ में छः उंगलियां थीं. कसाई मास्टर की टोन से समझ में आया कि पैदाइशी बौड़म को कुछ खुराफ़ात करते हुए देख लिया गया था. वह मास्टर की मेज़ तक पहुंचा, कसाई ने एक बार उसे ऊपर से नीचे तक देखा. "जरा बाहर देख के अईयो धूप लिकल्लई कि ना." क्लास का दरवाज़ा खुला था और अच्छी खासी धूप भीतर बिखरी पड़ी थी. पैदाइशी बौड़म की समझ में ज्यादा कुछ आया नहीं लेकिन डर के मारे कांपते हुए कक्षा के बाहर जाकर आसमान की तरफ़ निगाह मारने अलावा उसके पास कोई चारा नहीं था. वापस लौटकर उसने हकलाते हुए कहा "न्न्निकल रही मास्साब..."

"तो जे बता कि धूप कां से लिकला करे?" पैदाइशी बौड़म ने फिर से हकलाते हुए कहा "स्स्सूरज से मास्साब ..."

"जे बता रात में क्या निकला करे?" पैदाइशी बौड़म के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना कसाई ने कहा: "रात में लिकला करै चांद. और चांद की वजै से रात में तारे भी लिकला करै हैं. तारे वैसे तो दिन में भी लिकला करै हैं पर सूरज की वजै से दिखाई ना देते."

पैदाइशी बौड़म के कन्धे पर हाथ रखकर क्रूर आवाज़ में कसाई मास्टर बोला: "इस बच्चे को दिन में तारे देखने का जादै सौक हैगा सायद जभी तो खीसें निपोर रिया था." इतना कहते कहते उसने अपनी कमीज़ की जेब से एक नई पेन्सिल निकाली और पैदाइशी बौड़म के छः उंगली वाले हाथ को ज़ोर से अपनी मेज़ पर रख दिया. किसी कुशल कारीगर की भांति उसने पैदाइशी बौड़म की उंगलियों के बीच एक ख़ास स्टाइल में पेन्सिल फ़िट की और अगले ही क्षण अपने दूसरे हाथ से पैदाइशी बौड़म के हाथ को इतनी ज़ोर से दबाया कि उसकी आंखें बाहर आने आने को हो गईं. उसकी बाहर निकलने को तैयार आंखों के कोरों से आंसू की मोटी धार बहना शुरू हो गई थी. करीब आधा मिनट चले इस जघन्य पिशाचकर्म को भाग्यवश पीरियड की घन्टी बजने से विराम मिला. मास्साब ने पेन्सिल वापस अपनी जेब में सम्हाली और वापस लौटते पैदाइशी बौड़म की पिछाड़ी पर एक भरपूर लात मारते हुए हमें चेताया: "सूअर के बच्चो! मास्साब की बात में धियान ना लगाया और जादै नक्सा दिखाया तो एक एक को नंगा कर के लटका दूंगा."

पैदाइशी बौड़म के प्रति किसी प्रकार की सहानुभूति व्यक्त करने का मौका नहीं मिल सका क्योंकि तिवारी मास्साब क्लास के बाहर खड़े थे. तिवारी मास्टर उर्फ़ थोरी बुड्ढे ने गुलाबी तोता बनाने में हमें पारंगत बना चुकने के बाद इधर दोएक महीनों से इस्कूल जाती लौण्डिया बनवाना चालू किया था. कन्धे पर बस्ता लगाए और दो हाथों में गुलदस्ता थामे स्कर्ट-ब्लाउज़ पहनने वाली घुंघराले बालों वाली यह बदसूरत लौण्डिया बनाना ज़्यादातर बच्चों को अच्छा लगता था. लफ़त्तू की रफ़ कॉपी इस्कूल जाती लौण्डिया के बेडौल अश्लील चित्रों से अटी पड़ी थी.

किसी तरह स्कूल खत्म हुआ. मैं मनहूसियत और परेशानी का जीता जागता पुतला बन गया था लफ़त्तू के बिना. घर पहुंच कर बेमन से मैंने कुछ दूध नाश्ता समझा और कपड़े बदल कर नहर की तरफ़ चल दिया. मैं नहर की दिशा में मुड़ ही रहा था कि घासमण्डी के सामने की अपनी दुकान से लालसिंह ने आवाज़ लगाकर मुझे बुलाया. अभी वह स्कूल की पोशाक में ही था. उसके पापा कहीं गए हुए थे और वह लफ़त्तू को लेकर चिन्तित था. उसने मुझे लफ़त्तू का सबसे करीबी दोस्त समझा, इतनी सी बात से ही मेरी मनहूसियत कुछ कम हो आई. सही बात तो यह थी कि मुझे पता ही नहीं था कि लफ़त्तू को असल में क्या हुआ था. वह बीमार था और बहुत बीमार था. बस. मैंने लालसिंह को सुबह वाली बात बता दी कि कैसे मैंने लफ़त्तू के मम्मी-पापा को उसे मुरादाबाद वाली बस की तरफ़ ले जाते देखा था और कैसे वह कांप रहा था गर्मी के बावजूद.

लफ़त्तू के बारे में दसेक मिनट बातें करने के बाद मेरे मन से जैसे कोई बोझा उतरा. लालसिंह ने दूध-बिस्कुट सुतवाया. पेट भरा होने के बावजूद लालसिंह की दुकान का दूध बिस्कुट कभी भी पिरोया जा सकता था. दूध-बिस्कुट सूतते हुए अचानक मेरी निगाह पसू अस्पताल की तरफ़ गई. जब से गोबरडाक्टर कुच्चू गमलू नाम्नी हमारी काल्पनिक प्रेयसियों के साथ हल्द्वानी चला गया था, मेरी उस तरफ़ देखने की इच्छा तक नहीं होती थी.

मुझे अनायास उस तरफ़ देखता देख लालसिंह कह उठा - "ये नया गोबरडाक्टर साला अपने बच्चों को लेकर नहीं आनेवाला है बता रहे थे. नैनीताल में पढ़ती है इसकी लौण्डिया. भौत माल है बता रहा था फ़ुच्ची ..."

फ़ुच्ची! यानी फ़ुच्ची कप्तान! नैनीतालनिवासिनी कन्या के बाबत चलने ही वाली मसालापूरित बातचीत को मैंने काटते हुए लालसिंह से पूछा कि फ़ुच्ची कप्तान कहां है. "अबे कल ही वापस आया है फ़ुच्ची रामनगर. साला और काला हो गया है. ..."

फ़ुच्ची के रामनगर पुनरागमन के समाचार ने मुझे काफ़ी प्रसन्न किया. फ़ुच्ची मेरे उस्ताद लफ़त्तू का भी उस्ताद था सो उसके माध्यम से लफ़त्तू के स्वास्थ्य के बारे में आधिकारिक सूचना प्राप्त कर पाने की मेरी उम्मीदों को बड़ा सहारा मिला. लालसिंह की दुकान से नहर की तरफ़ जाने के बजाय मैं अपने घर की छत पर पहुंच गया. दर असल मैं कुछ देर अकेला रहना चाहता था. बन्टू को वहां न पाकर मुझे तसल्ली हुई. अपनी छत फांदकर मैं ढाबू की छत पर मौजूद पानी की टंकी से पीठ टिकाए बैठने ही वाला था कि उधर हरिया हकले वाली छत की साइड से बागड़बिल्ला आ गया. लफ़त्तू और फ़ुच्ची जैसे घुच्ची-सुपरस्टारों की गैरमौजूदगी के कारण बागड़बिल्ला अब तकरीबन बेरोजगार हो गया था और दिन भर आवारों सूअरों की तरह यहां वहां भटका करता. नीचे सरदारनी के स्कूल में मधुबाला ट्य़ूशन पढ़ने आए बच्चों को कोई इंग्लिश पोयम रटा रही थी. कुछ देर इधर उधर की बातें करने के बाद बागड़बिल्ले ने असली बात पर आते हुए मुझसे आर्थिक सहायता का अनुरोध किया. दर असल उसे घर से अठन्नी देकर दही मंगवाया गया था. हलवाई की दुकान तक पहुंचने से पहले ही घुच्ची खेल रहे बच्चों को देख कर उससे रहा नहीं गया जहां वह पांच मिनट में सारे पैसे हार गया. बागड़बिल्ले जैसे टौंचा उस्ताद का घुच्ची में हारना आम नहीं होता था. मेरे पास पच्चीस तीस पैसे थे जो मैंने उसे अगले दिन वापस किये जाने की शर्त पर उसे दे दिये, हालांकि मैं जानता था कि बागड़बिल्ला किसी भी कीमत पर उन पैसों को वापस नहीं चुका सकेगा. वह बहुत गरीब परिवार से था और उसकी मां इंग्लिश मास्टरानी के घर बर्तन-कपड़े धोने का काम किया करती थी. जाते जाते उसने एक बात कहकर मुझे उत्फुल्लित कर दिया - "फ़ुच्ची तुझे याद कर रहा था यार!" मेरे यह पूछने पर कि फ़ुच्ची कहां मिलेगा उसने अपनी चवन्नी जैसी आधी आंख को चौथाई बनाते हुए दोनों हाथों की मध्यमा उंगलियों को मिला कर घुच्ची का सार्वभौमिक इशारा बनाते हुए कहा - "वहीं! और कहां!"

मैं नीचे उतर कर भागता हुआ साह जी की आटे की चक्की के आगे से होता हुआ घुच्चीस्थल पहुंचा पर खेल निबट चुका था और खिलाड़ियों के बदले वहां नाली पर पंगत बनाकर बैठे छोटे बच्चे सामूहिक निबटान में मुब्तिला थे. ये इतने छोटे थे कि उनसे अभी अभी सम्पन्न हुए खेल और उसके खिलाड़ियों के बारे में कोई जानकारी हासिल हो पाने का कोई मतलब नहीं था.

घुच्चीस्थल से आगे का जुगराफ़िया मेरे लिए ज़्यादा परिचित न था सो मैं मन मारे वापस घर की तरफ़ चल दिया. बस अड्डे पर आखिरी गाड़ी आ लगी थी. और दिन होता तो लफ़त्तू और मैं डिब्बू तलाशने वहां ज़रूर जाते. माचिस के लेबेल इकठ्ठा करने के शौक को किनारे कर हमने तीन चार महीनों से डिब्बू यानी सिगरेट के खाली डिब्बे इकठठा करने का शौक पाल लिया था. डिब्बू इकठ्ठा करना माचिस के लेबेल इकठ्ठा करने की बनिस्बत ज़्यादा एडल्ट माना जाता था क्योंकि डिब्बुओं के साथ भी घुच्ची जैसा एक जुए वाला खेल खेला जा सकता था.

इतने में मेरी निगाह बस से बाहर उतरते मनहूस सूरत बनाए लफ़त्तू के पापा पर पड़ी. बस से बाहर उतरने वाले वे आखिरी आदमी थे. यानी लफ़त्तू और उसकी मां वहीं हैं मुरादाबाद में. मेरा अनुमान गलत भी हो सकता था क्योंकि यह सम्भव था कि वे दोनों दिन के किसी पहर वापस लौट आए हों और ... और ...

गांठ लगा वही थैला लफ़त्तू के पापा के कन्धे पर टंगा था. दिन भर की पस्ती और थकान उनके चेहरे और देह पर देखी जा सकती थी. मेरे लिए यह निर्णायक क्षण था. मैं लपकता हुआ उनके सामने पहुंचा और "नमस्ते अंकल" कह कर उनके सामने स्थिर हो गया. उन्होंने अपना धूलभरा चश्मा आंखों से उतारा और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए मरियल आवाज़ में कहा "जीते रहो बेटे, जीते रहो."

"अंकल लफ़त्तू ..."

"भर्ती करा दिया बेटा मुरादाबाद में उसको. तेरी आन्टी भी वहीं है ..."

मुझे लफ़त्तू को अस्पताल में भर्ती कराए जाने की इमेज काफ़ी मैलोड्रैमैटिक और फ़िल्मी लगी और मुझे पिक्चरों में देखे गए सफ़ेद रंग से अटे अस्पतालों और मरीज़ों वाले सारे सीन याद आने लगे. मैं कुछ और पूछता, वे मेरे सामने से घिसटते से अपने घर की दिशा में चल दिए.

13 comments:

मैथिली गुप्त said...

लफत्तू को हुआ क्या है?
पिछली बार बौने का बमपकौड़ा भी नहीं खाया था लफत्तू ने, जल्दी से लफत्तू को वापिस लाईये अशोक भाई

अफ़लातून said...

आह लफ़त्तू , वाह लफ़त्तू, चपले रहे लफ़त्तू ।(ज्ञानेन्द्रपति की कविता की पंक्ति-’आह खरपत्तू,वाह खरपत्तू ’ से प्रेरित टीप)

दीपा पाठक said...

बढ़िया..चाचा चौधरी का दिमाग और कंप्यूटर ने स्कूल की गर्मियों की छुट्टियों की याद दिला दी।

DHARMENDRA LAKHWANI said...

Bahut-bahut dhanyawaad... lekin laftu ki baat adhuri rah gayee....

PD said...

तिवारी मास्टर उर्फ़ थोरी बुड्ढे ने गुलाबी तोता बनाने में हमें पारंगत बना चुकने के बाद इधर दोएक महीनों से इस्कूल जाती लौण्डिया बनवाना चालू किया था. कन्धे पर बस्ता लगाए और दो हाथों में गुलदस्ता थामे स्कर्ट-ब्लाउज़ पहनने वाली घुंघराले बालों वाली यह बदसूरत लौण्डिया बनाना ज़्यादातर बच्चों को अच्छा लगता था. लफ़त्तू की रफ़ कॉपी इस्कूल जाती लौण्डिया के बेडौल अश्लील चित्रों से अटी पड़ी थी.

आह निकल गया मुंह से.. एक लफत्तू मेरे साथ भी था छठी कक्षा में.. सुना है आजकल साईकिल मिस्त्री बन गया है झारखंढ के चक्रधरपुर कसबे में.. :)

लफत्तू को जल्दी ठीक कीजिये.. अब ये ना कहियेगा कि जल्दी ठीक नहीं हो सकता है.. जब टीवी पर मरे हुए जिन्दा हो जाते हैं तो लफत्तू तो बस बीमार है..

ghughutibasuti said...

लफत्तू की चिंता सता रही है। आशा है उसके स्वास्थ्य लाभ की खबर जल्दी पढ़ने को मिलेगी।
घुघूती बासूती

Unknown said...

अरे, लफत्तू को क्या हुआ। क्या हुआ उसे...। अचानक अस्पताल?

डॉ .अनुराग said...

एक एक शब्द चित्र ने लफत्तू की एक रूप रेखा सी खींच दी है ....कई वाक्य सरसरी तौर पे पढ़े जाने जैसे नहीं है .... उन्हें बड़ी मेहनत से गढ़ा गया है .वे कहानी को अनावश्यक विस्तार नहीं देते ...उसकी सरंचना में ओर जान फूंक देते है ........यदि मुझे ब्लॉग के दस फेवरेट करेक्टर चुनने को कहा जाया तो लफत्तू उनमे हमेशा रहेगा

Ek ziddi dhun said...

Aur Laftu ko kuchh hua to lekhak ki khair nahi. samajh leejyo

Unknown said...

सच कहूँ तो पहली बार पढ़ने में उतना मज़ा नहीं आया...लफत्तू की बहुत कमी खल रही है...!!!
जल्दी से लफत्तू को कहानी में वापस लाइए.... फिर हम उसके साथ पिकनिक चलेंगे....!
और हाँ... बिना उसके ठीक हुए भी नहीं जायेंगे... पक्का....! हाँ नहीं तो....!!

Deepti said...

Kal 1 mitra ne is blog se parichay karvaaya...maine kal aur aaj mein shuru se ant tak saari posts padh daali hai, blog duniya mein aaye do varsh beet chuke hain...ab tak sa sabse behtareen blog hai ye...laftu ki beemaari ko jaldi theek kar den...lapujhanne ki jaan hai laftu...:))

Smart Indian said...

रश्क होता है तुम्हारे हिस्से में आये बचपन की सम्पन्नता देखकर. एक पंजाबी मित्र के श्लोक में कहूं तो:
ज़िंदगी तो तेरी है,
हमने तो बस
जगह घेरी है.


अगली कड़ी का बेसब्री से इंतज़ार है.

दीपक बाबा said...

अशोक जी, लफ़त्तू की बहुत याद आ रही है, उसे तुरंत ठीक कीजिये. हाँ एक बात और, क्या आप बता सकते हैं की आगे जिंदगी के इस्कूल में लफ़त्तू का इम्तिहान कैसे रहा, माने आजकल क्या कर रहा है. क्योंकि 'बेते गब्बल जिंदगी से घब्लाता नहीं.'