गुलाबी रंग का तोता बनाते बनाते हमें क़रीब दो महीने बीते. पहले छमाही इम्त्यान की अफ़वाह हवा में थी. आल्ट की क्लास के चलते चित्र बनाने में मेरी दिलचस्पी समाप्त होने लगी थी. प्राइमरी स्कूल के ज़माने में मेरी ड्राइंग अच्छी समझी जाती थी और मुझे शिवाजी और महाराणा प्रताप के चित्र बनाने में महारत हासिल थी. लेकिन तिवारी मास्साब की आल्ट के चक्कर में मेरी अपनी आल्ट की ऐसी तैसी हो चुकी थी.
आल्ट के अलावा मुझे जिन दो विषयों से ऊब सी होने लगी थी वे थे बाणिज्ज और सिलाई-कढ़ाई. बाणिज्ज तो तब भी ठीक था पर सिलाई की क्लास का खास मतलब मेरी समझ में नहीं आता था. ऊपर से यह विषय पूरे तीन साल तक खेंचे जाने थे.
सिलाई की क्लास भूपेस सिरीवास्तव मास्साब लेते थे. सिरीवास्तव मास्साब देखने में किसी भी एंगल से दर्ज़ी नज़र नहीं आते थे. सिलाई की पहली क्लास के बाद जब मैं आवश्यक चीजों की लिस्ट लेकर घर पहुंचा तो जाहिर है मेरे नए स्कूल और वहां पढ़ाए जाने वाले विषयों को लेकर तमाम तरह के मज़ाक किए गए. मुझे अच्छा नहीं लगा पर मजबूरी थी. प्लास्टिक का अंगुस्ताना, धागे की रील, कैंची इत्यादि लेकर रोज़ स्कूल जाने की जलालत वही समझ सकता है जिसे साईंस की क्लास में पन्द्रह दिन तक कछुवा देखना पड़े या दो माह तक गुलाबी तोता बनाना पड़े.
भूपेस सिरीवास्तव मास्साब ने शुरू में हमें एक सफ़ेद कपड़े पर सुई धागे की मदद से कई कारनामे करने सिखाए. इन कारनामों में मुझे धीरे धीरे तुरपाई के काम में मज़ा आने लगा था. बहनों के लतीफ़ों के बावजूद मुझे अपनी पुरानी पतलूनों और घुटन्नों की मोहरियों की तुरपाई उखाड़ना और नए सिरे से उसे करना अच्छा लगता था. एकाध माह तक हमें फ़न्दों की बारीकियां सिखाई गईं. अंगुस्ताना काफ़ी आकर्षित करने लगा था. सिरीवास्तव मास्साब ने क्लास में उस के इस्तेमाल का तरीका सिखा दिया था सो मैं जान बूझ कर तुरपाई करने में सुई को अंगुस्ताने से लैस अपनी उंगली में खुभाने का वीरतापूर्ण कार्य किया करता था. पड़ोस में रहने वाली सिलाई बहन जी के नाम से विख्यात एक आंटी मेरे इस टेलेन्ट से बहुत इम्प्रेस्ड हो गई थीं.
एक रोज़ सिरीवास्तव मास्साब ने हमसे अगली क्लास के लिए पुराने अख़बार लाने को कहा. लफ़त्तू तब तक महाचोर के रूप में इस क़दर विख्यात हो चुका था कि घर पर उसे एक पुराना अख़बार तक लाने नहीं दिया जाता था. जब वह एक बार ड्रेस पहन कर रेडी हो जाता तो उसके पिताजी उसे दुबारा पूरी तरह नंगा करते और बस्ता ख़ाली करवा कर बाकायदा उसकी तलाशी लेते थे. उस के लिए भी अख़बार मैं ही ले गया.
सिलाई की पहली क्लास में हमें बच्चों की चड्ढी बनाना सिखाया गया. पहले अखबार पर नीली चॉक से बच्चों की चड्ढी की नाप बनानी होती थी. मास्साब ज़ोर-ज़ोर से बोलते हुए हमें माप लिखाया करते थे.: "एक से दो पूरी लम्बाई तीस सेन्टीमीटर ... दो से तीन मुड्ढे की लम्बाई दस सेन्टीमीटर ... इत्यादि ..." उस के बाद बनी हुई चड्ढी को काटना होता था और अखबार पर ही सुई से लम्बे टांके मार कर इस कारनामे को अंजाम दिया जाता था. बच्चों की चड्ढी भी हमने करीब महीने भर बनाई.
ख़ैर. छमाही इम्त्यान घोषित कर दिए गए थे और पहला परचा भिगोल का था. तिवारी मास्साब ने इम्त्यान से पहले पांच सवाल लिखा दिये और "जेई पूछे जांगे परीच्छा में सुतरो" कह कर हमें उन के जवाबों का घोटा लगाने का आदेश दे दिया. घोटा अच्छे से लगाया जाना था क्योंकि फ़ेल होने की सूरत में हम सबको गंगाराम की मदद से हौलीकैप्टर बनाए जाने की धमकी भी मिल गई थी.
बाद में जब इम्त्यान निबट चुके थे और हम दिसम्बर की एक सुबह बाहर धूप में लगी भिगोल की कच्छा पढ़ रहे थे, अचानक लालसिंह कहीं से हमारी इमत्यान की कापियां बगल में थामे तिवारी मास्साब के नज़दीक पहुंचा.
"जिन सुतरों के नम्बर आठ से कम होवें बो सारे क्लास छोड़ कर धाम पे कू लिकल जां ... और जिनके चार से कम होवें बो अपने चूतड़ों की मालिश कल्लें ..." गंगाराम को बाहर निकालते हुए तिवारी मास्साब ने धमकाया.
कुल बीस नम्बर का परचा था और ज़्यादातर लड़्कों के आठ या बारह नम्बर थे. लफ़त्तू तक आठ नम्बर ले आया था.
"जे असोक पांड़े कौन हैगा बे?"
मुझे तुरन्त लगा कि मैं फ़ेल हो गया हूं और मुझे घर की याद आने लगी और मैं आसन्न पिटाई के भय में रोने रोने को हो गया. कांपता हुआ मैं खड़ा हुआ तो मुझे अच्छी तरह देखकर मास्साब बोले: "क्यों बे सुतरे, नकल की थी तैने?"
मुझे काटो तो खून नहीं. इसके पहले कि मैं रोने लगता, लफ़त्तू ने मित्रधर्म का निर्वाह किया और अपनी जगह पे खड़ा हो गया.
"क्या है बे चोट्टे?" तिवारी मास्साब भी लफ़त्तू की ख्याति से अनजान नहीं थे.
"मात्ताब मेले पलोस मे रैता हैगा असोक और भौत होत्यार है"
"होस्यार है तो बैठ जा. बीस में बीस लाया है सुतरा!"
तिवारी मास्साब और मेरे बीच हुआ यह पहला और अन्तिम वार्तालाप था.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
7 comments:
हा हा हा स्कुल के दिन याद करवा दिये आपने तो सर जी
मस्त है जी ..हम को भी भिगोल के पाठक मास्साब याद आ गये.
यो लपूझन्ना स्योरिन ते स्योरिन नकल कियो होगो।
भिगोल में बीश में बीश - बब्बा हो -
होस्यार सुतरे को होली की होली है - शुभकामनाएं, बधाईयां, मबरूक (अरबी में) - मनीष
Video Slots
Be aware that the payout numbers could apply to a financial institution of machines versus individual items , 카지노사이트 and not all machines in that row pays out the identical
एक तो यह कि लफत्तू को अखबार भी ले जाने नहीं दिया गया😄😄।
फ़िर कि, वाकई में अशोक जी, इन चड्ढी सिलने जैसे कार्यों को मैं बहुत ही उपयोगी कौशल मानता हूं😄। आपने कलम से अपनी जादूगरी दिखाई, लेकिन छोटी उम्र से ही पैसे कमाने की ऐसी कलाओं का प्रशिक्षण देना, खताड़ी जैसे भारत के बहुत से मुहल्लों के बच्चों के लिए सरकार द्वारा लिया गया बहुत ही महत्वपूर्ण और कल्याणकारी कदम था। अब तो 8वीं तक सिर्फ़ और सिर्फ़ काले अक्षर ही रटाए जाते हैं। कौशल के नाम पर एक कम्प्यूटर थोड़ा सिखाया जाता है। पर इन कौशलों का अपना महत्व है ही।
Post a Comment