एक शहर है रामनगर. जिला नैनीताल. राज्य उत्तराखंड.
मुझे अपना शुरुआती लड़कपन इस महान शहर के सबसे महान मोहल्ले खताड़ी में
काटने का सुअवसर प्राप्त हुआ था. पहली मोहब्बत भी मुझे इसी मोहल्ले में हुई थी.
करीब आठ नौ साल का था जब मेरे पिताजी का ट्रांसफर पहली दफा प्लेन्स
में हुआ था. इस के पहले हम अल्मोड़ा रहते थे. इत्तेफ़ाक़ से पिताजी ने जो मकान किराए
पर लिया था, वह रामनगर के भीतर बसने वाले दो मुल्कों के बॉर्डर
पर था. आज़ाद भारत के हर सभ्य नगर की तरह रामनगर के भी अपने अपने हिंदुस्तान और
पकिस्तान थे.
हमारे घर से करीब तीसेक मीटर दूर मस्जिद थी. सुबह से रात तक मस्जिद
से पांच बार अजान आती थी. मैंने पहली बार जाना था कि मुसलमान भी कोई शब्द होता है
और इसका मतलब इस तरह के लोगों से है जो सुबह से शाम तक गाय भैंस खाते रहते हैं और
बहुत पलीत होते हैं . हर अज़ान के बाद मुझे माँ और पिताजी का भुनभुनाना याद है.
नजदीक ही एक मंदिर से दिन भर लाउडस्पीकर पर मुकेश का गाया रामचरितमानस का घिसा हुआ
रिकार्ड किसी मरियल गधे जैसा रेंकता रहता था.
हमारे घर के सामने एक बड़ा सा खाली मैदान था ... ना, रामनगर के भूगोल पर अभी नहीं.
मस्जिद के सामने सब्जी वालों की दूकानें थीं. हमारे घर की सब्ज़ी शरीफ़
की दुकान से आती थी. सब्जी लेने मेरी माँ जाती थी : उसके साथ अक्सर कोई पड़ोसन होती
थी. वह जब भी सब्जी लेकर वापस आती थी, उसके पास मुसलियों
के बारे में कहने को कुछ न कुछ नया ज़रूर होता था. ज़ाहिर है वह नया हमेशा मुसलमानों
के भीतर छिपे शैतान के किसी अवगुण का बखान हुआ करता था.
मुझे मुसलमानों से बच कर रहने की तमाम हिदायतें मिली हुई थीं.
मुसलमानों के बारे में मेरा सामान्य ज्ञान, रामनगर में बने
मेरे पहले दोस्त लफत्तू की दी हुई सूचनाओं से हर रोज़ समृद्ध होता रहता था. लफत्तू
तोतला था और एक नंबर का चोर. पढने में बेहद कमजोर लफत्तू को उसके घरवाले प्यार से
बौड़म कह कर बुलाया करते थे. कभी कभी जब माँ को रसोई में ज़्यादा काम होता तो धनिया,
पोदीना जैसी छोटी चीज़े लाने को मुझे जाना होता था. "सरीफ से
कहना पैसे कल देंगे. और लफत्तू को ले जान साथ में." बुरादे की अंगीठी के
सामने बैठी माँ जब मुझे हिदायत देती तो मेरे मन में एक अजीब सी हुड़क होती थी. डर
भी लगता था.
मस्जिद से लगे पटरों पर बच्चा दूकानें होती थीं. "सफरी पांच की
दो" "कटारी पांच की दो" ... की आवाजें लगाते बच्चे तमाम तरह की
शरारतें करते रहते थे और बिजनेस भी.
उस दिन लफत्तू के साथ "मुछलमानों" के मोहल्ले में घुसते ही, हमेशा की तरह "ह्याँ आ बे हिंदू के" कह कर एक बच्चा दूकानदार ने
हमें डराने की कोशिश की. लेकिन लफत्तू के साथ होने से मेरी हिम्मत नहीं टूटती थी
और मैं उन लड़कों की तरफ देखता भी नहीं था. शरीफ़ अपनी दुकान से उन बच्चों पर
दुनिया भर की लानतें भेजा करता था. पोदीने की गड्डी लिए लफत्तू और मैं वापस आ रहे
थे जब मैंने एक पल को पटरे पर लगी दुकानों की तरफ आंख उठाई.
"हे भगवान" मेरे दिल का एक टुकड़ा जैसे तिड़क
कर रह गया. छः सात साल की एक लड़की छोटे-छोटे कुल्हड़ो में खीर बेच रही थी - "खील
ले लेयो, खील ले लेयो". और उस की आँखें मुझ पर लगी हुई
थीं. मेरा सारा पेट जैसे फूल कर गले में अटक गया. मैं उस की सारी खीर खरीद लेना
चाहता था लेकिन जेब में एक पैसा भी नहीं था. "खील खागा?" उस ने वहीं से मुझ से चिल्ला कर कहा. अमरूद, इमली
बेच रहे बाक़ी बच्चों ने कुछ कहा होगा, लेकिन मैं पता नहीं
किस तरह से हिम्मत करता हुआ उस के सामने खड़ा हो गया. "कित्ते की है?"
मैंने पूछा. "तू हिंदू हैगा. तेरे लिए फिरी." उसने एक
कुल्हड़ मेरी तरफ बढाया और फुसफुसा के बोली "सकीना हैगा मेरा नाम. सादी करेगा
मुझसे?"
पता नहीं लफत्तू कब कैसे मुझे हाथ खींचता हुआ वापस घर लाया. खाना
खाने के बहुत देर तक मुझे नींद नही आयी. " सादी करेगा मुझसे?" यही बार बार दिल में गूँज रहा था. सकीना की सूरत, उस
के चमचमाते दांत, उसकी मुस्कान.
"जल्दी सोता
क्यों नहीं!" मुझे माँ ने झिड़की लगाई.
माँ को क्या पता था मुझे सकीना से मोहब्बत हो गई थी. और मोहब्बत में
नींद किसे आ सकती है.
कुछ ही दिन पहले 'बनवारी मधुवन' पिक्चर हॉल में पिताजी ने हमें एक पिक्चर दिखाई थी. पिक्चर के लास्ट में
हीरोईन हीरा खा के खुदकशी कर लेती है. मरी हुई हीरोईन का हाथ थामे हीरो रोता हुआ
बार बार कहता जाता है: "तुमने ऐसा क्यों किया मीना? क्यों
किया ऐसा?"
मेरी नींद उड़ी हुई थी और पिक्चर का लास्ट सीन लगातार मेरे जेहन में
घूम रहा था. मुझे पहली मोहब्बत हुई थी और मेरी कल्पना पागल हो गई थी. मेरे घर
वालों ने सकीना से मेरी शादी से मना कर दिया है. "एक मुसलिये की बेटी को बहू
बनाएगा तू...? पैदा होते ही मर क्यों नहीं गया..." ये सारे
डायलाग बाकायदा भीतर गूँज रहे थे. फिर मैं खुदकशी कर लेता हूँ . माँ-बाप छाती पीट
रहे हैं. ऐसे में सकीना की एंट्री होती है : "तुमने ऐसा क्यों किया ... क्यों
किया ... अशोक ..." वह रोती जाती है. अब तक मैं बड़ी मुश्किल से रुलाई रोक
पाया था. सकीना के विलाप के बाद मैं तकिये के नीचे सिर दबाये रोने लगा.
बत्ती बंद की जा चुकी थी. पिताजी एक बार मेरे सिरहाने तक आये.
उन्होने मुझे पुकारा तो मैंने गहरी नींद का बहाना बना लिया.
"इतवार को सारे बच्चों को डाक्टर के पास कीड़ों की
दवा खिलाने ले जाना पड़ेगा. प्लेन्स का पानी ठीक नही होता." पिताजी धीमी आवाज़
में माँ को बता रहे थे.