सियाबर बैद जी के रेज़ीडेन्स-कम-औषधालय का बरामदा शामों को मोहल्ले के बड़े लोगों के बीड़ी फूंकने और गपबाज़ी का सबसे प्रिय स्थान था. इस स्थान हमारा वास्ता बस तभी पड़ता था जब कभी कभार क्रिकेट की गेंद के वहां चली जाया करती. बैद जी को देखकर लगता था कि वे पैदा भी गांधी टोपी पहन कर हुए होंगे. बड़ों की गप्पों को सुनते हुए यह पता चलता था कि आज़ादी से कुछ साल पहले बैदजी अंग्रेज़ों से लड़ते हुए एक बार एक दिन को जेल हो आए थे. इस बात से रामनगर भर में बैदजी का में बड़ा रसूख था और आज़ादी के बाद से लगातार हर स्वतन्त्रता दिवस पर उन्हें किसी न किसी स्कूल में मुख्य अतिथि बनाए जाने का रिवाज़ चल चुका था. इतने सारे सालों तक स्वतन्त्रता दिवसों को स्कूलों में मुख्य अतिथि बनने रहने के बावजूद उनके मुख्य अतिथि बनने के उत्साह में कोई कमी नहीं आई थी. रामनगर में पिछले कोई तीस सालों के दौरान पढ़ाई कर चुके हर किसी शख़्स को उनका भाषण करीब करीब याद हो चुका था. पिछले साल इस अवसर पर हमारे स्कूल में उनके आते ही समूचे स्टाफ़ और सीनियर बच्चों में ख़ौफ़नाक चुप्पी छा गई. प्याली मात्तर के जुड़वां भाई जैसे दिखाई देने वाले बैदजी की ज़बान भी ज़रा सा लगती थी. उन्होंने हमारा ऐसीतैसीकरण कार्यक्रम चालू करते हुए बड़ी देर तक प्याले बच्चो, आदरणीए गुरुजन वगैरह किया और हमें बताया था कि उस दिन स्वतन्त्रता दिवस था और हम उसे मना रहे थे. "ऐते बोल्लिया जैते आप छमल्लें हम कोई दंगलात से आए हैं. थब को पता ए बेते आद के दिन गांदी बुड्डा पैदा हुआ था. ..." फुसफुस ज़ुबान में लफ़त्तू सतत बोले चला जा रहा था. जब मैंने उससे कहा कि गांधी बुड्ढा दो अक्टूबर को पैदा हुआ था तो उसने मुझे डिसमिस करते हुए आधिकारिक लहज़े में वक्तव्य जारी किया : "एकी बात ऐ बेते."
अचानक बैदजी एकताल से द्रुत ताल पर आ गए.
"बली बली योजनाएं बन रई ऐं बच्चो देश के बिकास के लिए ... हमाले पैले पलधानमन्त्री नेरू जी ने दिश के बिकास के लिए बली बली योजनाएं बनाईं ... बली बली मशीनें बिदेस से मंगवाईं ... रेलगाड़ियां और मोटरें मंगवाईं ... पानी के औल हवा के जआज मंगवाए ... तब जा के हमाला बिकास हो रा ए ..." अचानक मैंने सीनियर लौंडसमुदाय के भीतर हो रही गतिविधि पर गौर किया. ऐसा लग रहा था कि वे बैदजी के मुंह से पिछले किसी स्वतन्त्रता दिवस के दौरान सुनी हुई किसी मनोरंजक बात के बोले जाने का बेसब्री से इन्तज़ार कर रहे थे. उनके मुखमण्डल बतला रहे थे कि उन पर हंसी का दौरा पड़ा ही चाहता है.
"नेरू जी ने रामनगर में कोसी नदी पर डाम बनाया ... और ऐसे ई कितने ई सारे डाम बनाए ... यहां से बहुत दूर एक जगे पर उन्ने नागड़ा दन्गल जैसा डाम बनाया ... नागड़ा दन्गल जैसा डाम हमारे देश में ई नईं साली दुनिया में नईं ऐ ..." उनके आख़िरी वाक्य को दबी हुई आवाज़ों में एक साथ कई सारे सीनियर लौंडों ने बाकायदा रिपीट किया और हंसी के दौरे चालू हो गए. मुझे लग रहा था कि अब सामूहिक सुताई अनुष्ठान प्रारम्भ होगा लेकिन मुर्गादत्त मास्टर और प्रिंसिपल साहब के अलावे कई सारे मास्टरों के चेहरों पर भी मुस्कराहट थी. इन अध्यापकों ने सम्भवतः यह भाषण इतनी दफ़ा सुन लिया था कि उनकी बला से बच्चे हंसें या जो चाहे करें. बैदजी अपमान की सारी सीमाओं को पार कर चुके थे और नागड़ा दन्गल जैसे कई दन्गल जीत चुकने के बाद शायद गामा पहलवान से भी नहीं डरते थे.
बैदजी का भाषण अभी और चला. दुर्गादत्त मास्साब ने बेशर्मी की हद पार करते हुए कर्नल रंजीत निकाल लिया था और असहाय प्रिंसिपल साहब अपने रिश्ते के मामू की स्थूल तौंद को उठता-गिरता देखने के अतिरिक्त कुछ भी कर पाने से लाचार थे. मौका ताड़कर बेख़ौफ़ लफ़त्तू बैठे बैठे ही घिसटता हुआ ऑडिटोरियम से बाहर निकल चुका था और सम्भवतः अपने प्रिय डेस्टीनेशन तक पहुंच चुका था. बैदजी के बैठ जाने के बाद मुर्गादत्त मास्टर ने हारमोनियम पर अपने घिसे पिटे दोनों गाने बजाए और हमने भी मजबूरी में उनका यथासम्भव बेसुरा साथ दिया. बांसी कागज़ की तेल से लिथड़ी थैलियों में बूंदी के दो-दो लड्डू थमाकर मिष्ठान्न वितरण हुआ और हम अपने घरों की तरफ़ निकल पड़े.
लफ़त्तू रास्ते में ही टकरा गया. उसकी बहती नाक और मिट्टीसनी कमीज़ बता रहे थे कि वह बमपकौड़े का भरपूर लुत्फ़ उठाने के साथ साथ इधर हिमालय टाकीज़ में लगी फ़िल्म विश्वनाथ का अपना फ़ेवरिट सीन देखकर आ रहा था क्योंकि मुझे देखते ही उसने सतरूघन सिन्ना का परम लफ़ाड़ी पोज़ धारण कर लिया और एक हाथ से अपने बालों को तनिक सहलाते हुए सीरियस आवाज़ में कहा: "दली को आग कैते ऐं औल बेते बुदी को लाक ... और उछ आग से निकले बारूद को विछ्छनात कैते हैं" सतरूघन सिन्ना से वह उन दिनों इस कदर इम्प्रैस्ड था कि ज़ेब में हमेशा एक काली स्कैच पैन रखा करता और मौका मिलते ही अपने होंठों पर उसी की शैली की मूंछें बना लेता.
नज़दीक आकर उसने मेरी पीठ पर धौल जमाई और मज़े लेते हुए पूछा: "बन गया बेते थब का नागलादन्गल. तूतिया ऐं थब छाले." फिर उसने ज़मीन पर गिरा एक कागज़ का टुकड़ा उठाया और उसे मोड़कर अपने सिर पर गांधीटोपी की तरह पहन लिया और बैदजी जैसा मनहूस चेहरा बनाते हुए भाषण देना चालू किया: "बली बली योदनाएं बन लई ऐं ... बले आए नेलू जी ... बले बले दाम बन लए ऐं ... तूतिया थाले नेलू जी ... जाज खलीद लए ऐं ... कूला खलीद लए ऐं ... मेले कद्दू में गए छाले बैदजी और नेलू जी ... तल तैलने तलते ऐं याल" उसके चेहरे पर परम हरामियत का भाव आ चुका था और चाल में दान्त तत वाली ठुमक. एक तो बैदजी के भाषण से मैं चटा हुआ था दूसरे बहुत ज़ोरों की भूख लगी हुई थी सो मैंने उसके साथ नहर जाने के उसके प्रस्ताव पर ज़्यादा तवज्जो नहीं दी और अनमना सा होकर घर के भीतर घुसा.
लड्डू वाली थैली मेरी जेब में किसी मरे मेंढक का सा आभास दे रही थी. ऐसे मरे हुए दो-तीन और मेढक घर पर और धरे हुए थे जिन्हें मेरी बहनें अपने अपने स्कूलों से लाई थीं.
बन्टू के दादाजी के मर जाने की वजह से उसके मम्मी पापा अपने गांव गए हुए थे. इन दिनों बन्टू और उसकी बहन हमारे ही घर खाना खाने आया करते और दोपहरों को मेरा ज़्यादातर समय बन्टू लोगों के घर रामनगर के हिसाब से काफ़ी आलीशान उनके ड्राइंगरूम में सजी वस्तुओं को देखने और बन्टू की ढेर सारी मिन्न्तें करने के बाद रिकार्ड प्लेयर पर मुग़ल ए आज़म के डायलाग सुनने में बीतने लगा था. रिकार्ड के शुरू होते ही "मैं हिन्दोस्तान हूं ..." वाली कमेन्ट्री चालू हो जाती और मेरा मन उर्दू की मीठी मीठी आवाज़ों में हलकोरें खाने लगता. कभी कभार मैं उसके पापा के पुस्तक संग्रह पर निगाह मारा करता. इन किताबों के कवर दुर्गादत्त मास्साब की किताबों जैसे ही बल्कि उनसे भी ज़्यादा खतरनाक हुआ करते थे. इन आवरणों को सुशोभित करती नारियों के बदन पर और भी कम कपड़े होते थे.
इस बाबत जब मैंने लफ़त्तू से उसकी राय पूछी तो उसने फिर वही डिसमिस करने वाली टोन में कहा: "सई आदमी नईं ऐं बन्तू के पापा. आप छमल्लें काला तत्मा पैनने वाला आदमी कबी सई नईं हो सकता.
(जारी)
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Thursday, April 29, 2010
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