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Tuesday, March 31, 2020

तत्ती मात्तर की जहरीली सांस और अंगूठी वाली लड़की से आशिकी



शहर में हमारे स्कूल के अलावा दसवीं तक का एक सरकारी स्कूल भी था जिसे नार्मल स्कूल कहा जाता था. बहुत मोटे कांच का चश्मा पहनने वाले छोटे कद के मथुरादत्त जोशी वहीं प्रिन्सिपल थे और अंगरेजी पढ़ाते थे. मेरे पिताजी की उनसे पुरानी जान-पहचान थी और ज़माना उन्हें टट्टी मास्साब कहता था. इस नाम के पीछे एक छोटी सी कथा थी जिसे रामनगर का बच्चा-बच्चा जानता था. कई बरस पहले यूं हुआ कि उनके पढ़ाये सारे बच्चे हाईस्कूल बोर्ड में अंगरेजी के परचे में फेल हो गए. उन्होंने असेम्बली से पहले इन सारे बच्चों को धूप में मुर्गा बनाया और बाद में उन्हें सार्वजनिक फटकार लगाते हुए एक लंबा सा लेक्चर पिलाया जिसका अंत इस ब्रह्मवाक्य में हुआ – “तुम सालों ने मेरी साल भर की मेहनत को टट्टी बना दिया.”

तब से टट्टी मास्साब का ये हाल बन गया था कि रामनगर बाजार में वे जहाँ भी जाते कोई न कोई शरारती लड़का उनके पीछे से आकर कहता “टट्टी” और भाग जाता. वे पलट कर देखते, मोटे कांच के पीछे से अपनी छोटी-छोटी आँखों को मिचमिचाते और दुर्वासा का पार्ट खेलना शुरू करते. ऐसा करते हुए वे उस लड़के के खानदान की महिलाओं को बहुत शिद्दत से तब तक याद करते रहते जब तक कि कोई शरीफ आदमी उन्हें किसी दूसरे काम में न उलझा लेता.      

फिलहाल  पिछले कुछ दिनों से मैं देख रहा था कि रात का खाना खाते समय माँ पिताजी से बार-बार मेरी आगे की पढ़ाई और भविष्य को लेकर कोई न कोई बात छेड़ देती. मुझे नैनीताल के किसी हॉस्टल में डालने की बात भी चला करती. इसी का परिणाम हुआ कि टट्टी मास्साब मुझे ट्यूशन पढ़ाने आने लगे.

पहली शाम उन्होंने ग्रामर का जो चैप्टर पढ़ाना शुरू किया वह मुझे पहले से ही आता था. मैंने हूँ-हाँ करते हुए वह पूरा घंटा बड़ी मुश्किल से बिताया. मैंने पांच मिनट के अंदर ताड़ लिया था कि उनकी निगाह बहुत कमजोर है. वे मुझसे लिखने को कहते और मैं कॉपी में आड़ी-तिरछी लाइनें खींचता रहता. सबसे बड़ी मुश्किल उनकी सांस से थी जिसकी स्थाई तुर्शी नित्य एक क्विंटल प्याज के सेवन से अर्जित की गयी थी. मैं भरसक खुद को उनकी सांस से दूर रखने की कोशिश करता रहा लेकिन उनका भभका तमाम सुरक्षा दीवारों को भेदता हुआ नथुनों में किसी जहरबुझे तीर की तरह घुस जाता.

उनके घर से बाहर निकलते ही मैंने लफत्तू के घर की तरफ दौड़ लगा दी.

लफत्तू अकेला लेटा हुआ पंखे को तक रहा था. मुझे देख कर उसने उठने की कोशिश की लेकिन एक कराह के साथ उसका सिर तकिये पर ढह गया. मैंने गौर से उसे देखना शुरू किया. तेज बुखार की वजह से उसका चेहरा लाल पड़ा हुआ था. मरियल टहनियों की तरह उसकी बांहें उसकी कमीज से बाहर निकली हुई थीं. मैंने उसका हाथ थमा और इधर-उधर देखते हुए पूछा – “आंटी लोग कहाँ हैं?”

“पता नईं बेते. अबी तक तो यईं थे थब.”

औपचारिकता करना कभी किसी ने नहीं सिखाया था. यह भी नहीं पता था कि मरीज से उसका हाल कैसे पूछा जाता है. मैं अचानक बहुत रुआंसा हो गया और तकरीबन सुबकते हुए मैंने अपने दूसरे हाथ को उसके गाल पर लगाया. वह तप रहा था.
उसने मेरे हाथ पर अपना जलता हुआ, हड़ियल हो चुका हाथ रख दिया. मेरी रुलाई फूट पड़ी.

“क्या कल्लाए बेते. पल्छान क्यों होरा. गब्बल भौत जल्दी बित्तर से भाल आके थाकुल के कुत्तों के तुकले-तुकले कल देगा. दल मत मुदे कुत नी होगा.”

मैं और जोर से रोने लगा और सुबकते हुए उसे बताने लगा कि मुझे नैनीताल हॉस्टल भेजने की तैयारी चल रही है और यह भी कि आज शाम से मुझे टट्टी मास्साब ने ट्यूशन पढ़ाना भी शुरू कर दिया है.

दो तीन मिनट हम दोनों चुप रहे. उसकी पलकें गीली होने लगी थीं. उसने गाल पर धरे मेरे हाथ को अपने हाथ से खूब कस लिया. थोड़ी देर बाद उसके गला खंखारते हुए किसी अभिभावक की तरह मुझे समझाना शुरू किया -

“तू तो वैतेई इत्ता होस्यार है बेते. तत्ती मात्तर बी कोई मात्तर है. जो बुड्डा अपनी तत्ती बी साफ नईं  कर सकता गब्बल के दोत्त को क्या खा पलाएगा. औल ...” वह श्रमपूर्वक उठ बैठा और अपनी लय में आता हुआ बोला, “नैन्ताल कोई थाला इंग्लित मात्तरानी के बाप के जो क्या है कि थाला कोई लामनगल वाला वां नईं जा सकता. वां जाके उसके लाल बैलबौटम भाई की भेल पे दो लात माल के कैना कि बेते भौत नक्तेबाजी ना झाड़, गब्बल तेले नैन्ताल को लूटने आने वाला है. बत के रइयो ...”

नैनीताल जा कर इंग्लिश मास्टरानी और उसके भाई के साथ पुराना हिसाब चुकता करने की संभावना से मैं थोड़ा खुश हुआ और गौर से लफत्तू का चेहरा देखने लगा. बीमारी ने उसके चेहरे को क्लांत बना दिया था लेकिन उसकी पिचकी नाक और चमकती आँखों की नक्शेबाजी ज़रा भी कम नहीं हुई थी.

मुझे कुछ काम याद आया और मैं जाने के लिए उठा.

“ओये!” मैं दरवाजे पर पहुंचा ही था कि लफत्तू ने मुझे आवाज दी, “बीयोईईई...” वह आँख मार रहा था.

“बीयोईईई...” मैंने उस्ताद का अनुसरण किया.

बाहर लफत्तू की मां और उसकी दोनों बहनें खड़े थे. उनके माथे पर लगा ताजा टीका बता रहा था वे किसी मंदिर से वापस आ रहे थे. मुझे देख कर उसकी माँ ने मुस्कराते हुए मेरे सिर पर हाथ फिराया और कहा – “दिन में एक बार तो आ जाया अपने दोस्त का हाल समाचार पूछने. मम्मी कैसी हैं तेरी?”   

लालसिंह चाय के गिलास धोने में मसरूफ था. दुकान के सामने से मुझे गुजरता देखते ही वह चिल्लाया, “तेरे घर पे माल आया है बे और तू यहाँ घासमंडी में डोई रहा है. जल्दी जा तेरा भाई तेरे बारे में पूछ रहा था अभी.”

मेरे घर पर कौन आया हो सकता है. यह सोचता हुआ मैं वापस घर का जीना चढ़ने लगा. वैसे मुझे अभी मुन्ना खुड्डी से मिलने जाना था. उसने पिछली लूट का मेरा हिस्सा मुझे अभी तक नहीं दिया था.

दरवाजा खुला हुआ था और बैठक के कमरे से आवाजें आ रही थीं. किसी बिल्ली की तरह दबे पांव अन्दर घुसा ही था कि नाक में रसोई से आती खुशबू घुसी. ऐसे खुशबू बहुत ख़ास मौकों पर आती थी. जब भी घर में कोई महत्वपूर्ण मेहमान आया होता, माँ बाजार से डबलरोटी मंगवा कर ब्रेड पकौड़े बनाया करती. कुंदन दी हट्टी से दही-इमरती भी मंगाया जाता. 

मैं बैठक में जाने के बजाय रसोई में चला गया. तीनों बहनें मां की मदद करने के नाम पर भीड़ बनाए खड़ी थीं. ट्रे में कप-प्लेट सजाकर रखे हुए थे.

“था कहाँ तू? इतनी देर से तुझे ढूंढ रहे हैं सारे मोहल्ले में. इत्ती सारी चीजें लानी थी बाजार से!” मुझे घुड़कते हुए माँ ने कहा, “और ये भिसौण जैसी शकल बना के कहाँ से आ रहा है. चल जल्दी से हाथ-मूं धो के बैठक में जा. वो जंगलात वाले तेरे बाबू के कोई दोस्त आये हैं. जा के अच्छे से नमस्ते कहना उनको. ऐसे ही मत बैठ जाना गोबर के थुपड़े जैसा.”

मेरे दिमाग में दस तरह की चीजें चल रही थीं और माँ मुझे हाथ-मुंह धोने को कह रही थी. मैं अनमना होकर फिर से बाहर निकलने की फिराक में था कि बैठक से पिताजी की आवाज आई, “अरे ज़रा अपने लाड़ले को भेजो तो!”

इसके पहले कि माँ दुबारा से डांट लगाती मैं खुद ही नजरें झुकाए बैठक की तरफ चल दिया. अब होना यह था कि नए मेहमानों के सामने मेरी नुमाइश की जानी थी और मुझसे बहुत सारी चीजें सुनाने को कहा जाना था जिसके बाद मेहमानों ने “आपका बच्चा तो बहुत होशियार है पांडे जी!” कहते हुए ब्रेड पकौड़ों पर हाथ साफ़ करते जाना था. हर दो-चार महीनों में होने वाले इस कार्यक्रम से मुझे ऊब होती थी. मैं होशियार हूँ तो क्या. मेरे कद्दू से!

बैठक में घुसते ही मुझे काठ मार गया. मेरी बहनों की नयी-नयी बनी दोस्त नसीम अंजुम लाल रंग का घेरदार फ्रॉक पहने बाप जैसे दिखाई देते एक आदमी और हेमामालिनी जैसी दिखाई देती एक औरत के साथ चुपचाप बैठी थी. पिताजी उन्हें कुछ बता रहे थे.

मैं अपनी घर की पोशाक यानी निक्कर और पोलीयेस्टर की कमीज पहने था.

“आओ पोंगा पंडित!” पिताजी को मेरी सार्वजनिक भद्द पीटनी होती तो वे मुझे इसी नाम से पुकारा करते. मुझे बहुत गुस्सा आता था.

मैं सकुचाता हुआ तखत के कोने पर बैठ गया और फर्श पर निगाह गड़ाए अपनी नुमाइश लगाए जाने का इन्तजार करने लगा. पिताजी मेरे बारे में कुछ भी आंय-बांय बोलते इसके पहले ही मां और बहनें चाय-नाश्ते की ट्रे ले कर आ गए. भीड़ की वजह से अचानक माहौल बदल गया. “अरे भाभी जी” “अरे भाईसाब” “लो बेटे” जैसे शब्दों से बैठक का कमरा गुंजायमान हो गया. मैंने मौका ताड़ा और बाहर सटकने की तैयारी करने लगा. 

उठते हुए मैंने एक नजर नसीम अंजुम पर डाली. वह मुझे ही देख रही थी. उसने अपने हाथ में ब्रेड पकौड़ा थामा हुआ था और उसकी अंगूठी का वही जालिम नगीना खिड़की से आती धूप में जगमगा रहा था और उसकी चमक की अस्थाई उसकी नाक की ऐन नोंक के ऊपर स्थापित थी. वह मुझे देख रही थी और उसके चेहरे पर शरारत भरी मुस्कराहट थी. मैंने गौर किया वह बहुत खूबसूरत थी. रामनगर और पिक्चर वाली दोनों मधुबालाओं से अधिक खूबसूरत. सकीना से और कुच्चू-गमलू से अधिक खूबसूरत. मैं हैरान हो रहा था कि जब पिछली बार वह हमारे घर पर आई थी तो इस बात पर  मेरा ध्यान क्यों नहीं गया. सेकेण्ड के एक हिस्से में मुझे अपने दिल का फिर से चकनाचूर होना महसूस हुआ. पहली नज़र की मोहब्बत का तकाजा था कि मुझे वहीं बैठा रहना था लेकिन मैं उस नाजनीना के सामने किसी भी कीमत पर अपनी बेइज्जती नहीं कराना चाहता था. मौका देखते ही मैंने दौड़ लगा दी और बाहर सड़क पर आ गया.

मुन्ना वहीं मिला जहाँ उस वक्त उसे होना था. वह और फुच्ची अपने बाप के ठेले पर खड़े गाहकी निबटा रहे थे. उसके पापा ने स्टील के कपों का धंधा शुरू किया था जो चल निकला था. उनके अपने गांव ढकियाचमन से थोड़ा आगे मौजूद हापुड़ की किसी फैक्ट्री में बनने वाले ये कप समूचे भारत की रसोइयों में फैल गए थे. मेरे घर में भी आधा दर्जन आ चुके थे. ये कप कम हुआ करते थे धोखा ज्यादा. पहली बार ऐसे कप में चाय दिए जाने पर मेहमान कहता था – “अरे इतनी सारी!” इन कपों को बनाने वाले वैज्ञानिकों ने स्टील की दो परतों को इस तरह कप की सूरत में ढालने का कारनामा अंजाम दिया था कि दो परतों के बीच ढेर सारी हवा होती थी. नतीजतन मुख्य चषक का आयतन बाहर से दीखने वाले चषक के आयतन का एक चौथाई हुआ करता था. उसमें उतनी ही चाय आती थी जिसे दो घूँट में निबटाया जा सके. हाँ पेश किये जाते समय वह अपनी असल मात्रा से कई गुना नजर आती. इसके अलावा पीने वाली जगह पर जहाँ ज्यादातर कपों की दो परतों के बीच जोड़ होता था, चाय डालने के बाद छोटे-छोटे बुलबुलों की खदबद भी शुरू हो जाती थी. यह वैज्ञानिक प्रक्रिया होती थी जिसे देखना दुर्गादत्त मास्साब के मुझ काबिल चेले के लिए खासी दिलचस्पी पैदा करता था.

ये कप जिस दौर में रामनगर की बाजार में आया था, देश में इमरजेंसी चल रही थी. इमरजेंसी का अर्थ मुझे इतना ही मालूम था कि वह कोई ऐसी चीज है जिसकी वजह से जनता को बहुत काम करना पड़ रहा है. मेरे पिताजी भी अक्सर सुबह जल्दी दफ्तर जाते और देर में लौटा करते. इमरजेंसी का दूसरा मतलब नसबंदी नाम की कोई अश्लील चीज भी थी जिसका मतलब समझने लायक हम नहीं हुए थे अलबत्ता उसे लेकर हमसे थोड़ी अधिक उम्र के लौंडे एक दूसरे के साथ वयस्क किस्म के मजाक किया करते थे. 

मुन्ना ने मुझे देखा और आँख मार कर इशारा किया कि मैं बौने के ठेले पर उसका इन्तजार करूं. मैं वहां जाने के बजाय नजदीक ही खेल मैदान की चहारदीवारी पर बैठ गया और दिन भर में घटी चीजों की बाबत सोचने लगा.

टट्टी मास्टर से पढ़ने में ज़रा भी मजा नहीं आया था. मां-पिताजी से जल्दी ही इस बारे में निर्णायक बातचीत करनी पड़ेगी वरना प्याज की बदबू के कारण मेरी मौत तय थी. बीमार लफत्तू की शकल सामने घूमने लगी तो मैंने उससे ध्यान हटाने की कोशिश की. मैदान का मेरी तरफ वाला हिस्सा किराए की साइकिल का लुत्फ़ लूट रहे बच्चों  से भरा हुआ था. घुटे सिर वाला मेरी उम्र का एक लड़का केवल धारीदार पट्टे का पाजामा पहने बड़ों की साइकिल पर कैंची चलाना सीख रहा था. मैंने गौर से उसे देखना शुरू किया. साइकिल चलाना मुझे लफत्तू ने ही सिखाया था. दिमाग लौट कर वापस उसी के बारे में सोचने लगा. अगर लफत्तू सचमुच में मर गया तो मेरा क्या होगा. इस विचार के आते ही मैं व्याकुल हो गया और झटपट अपनी जगह से उठ कर बौने की शरण में पहुँच गया.

मैं दूसरा बमपकौड़ा दबा रहा था कि सामने से लचम-लचम चलता आता मुन्ना नमूदार हुआ.

“क्या गुरु मने अकेले अकेले” उसने आँख मारने की रामनगरी अदा सीख ली थी.

उसने पहले तो मेरे पैसों से एक बमपकौड़ा सूता और जब डकैती के पैसों के बंटवारे की बात आई तो कहने लगा – “दखिये हम भूल गए थे और सुबह जब अम्मा ने हमारा पजामा धोने के लिए लिया तो हमें खयाल ही नहीं रहा. पहले तो अम्मा ने जेब से सारी रकम निकाल ली और उसके बाद बाबू को बता दिया. बहुत मार खाए हैं कसम से सुबे-सुबे.”

वह साफ झूठ बोल रहा था लेकिन मेरे पास मन मसोस कर रह जाने के कोई चारा न था. मैं तय कर चुका था कि इस मामले में सुनवाई करवाने के लिए हाईकोर्ट यानी लालसिंह के पास जाना पडेगा.

झूठ बोलने की मक्कारी वाली टोन को जारी रखते हुए उसने मुझसे पूछा – “चम्बल चलिएगा?

पैसों का नुकसान होने के कारण मेरा मूड उखड़ गया था और होमवर्क करने का बहाना बनाकर मैंने मुन्ना खुड्डी से विदा ली. सूरज के ढलने में अभी बहुत समय था. मैदान के दूर वाले छोर पर पहुँचते ही मैंने घर की दिशा में देखा. लफत्तू और मेरी बहनें छत पर बैटमिन्डल खेल रही थीं, बैठक के कमरे की बत्ती जली हुई थी और बस अड्डे के बीचोबीच खड़े बरगद के पेड़ पर घर लौटते हजारों कौओं की कांव-कांव ने आसमान को पाट रखा था.

अचानक मुझे थकान महसूस हुई और मैंने घर जाना तय किया. घर में घुसते ही पिताजी ने धर लिया. आदर्श पुत्र के गुणों और सामाजिक आचरण के नियमों के विषय पर ढेर सारे लेक्चर पिलाए गए और अंत में सूचित किया गया कि कल से टट्टी मास्साब के साथ मेरे साथ नसीम अंजुम भी ट्यूशन पढ़ा करेगी क्योंकि उसे भी नैनीताल के हॉस्टल में भेजा जाने वाला है.
“दिमागदार लड़की है. उसके साथ कुछ दिन पढ़ाई करोगे तो थोड़ा शऊर आ जाएगा तुम्हें. वरना ...” मुझे फिर से पोंगा पंडित कहा जा रहा था लेकिन मैंने सिर्फ नसीम अंजुम सुना.

अब मुझे सचमुच एकांत चाहिए था. मां-पिताजी की निगाहों से किसी तरह बचता-बचाता मैं पीछे के रास्ते से सीधा ढाबू की छत पर पहुँच गया.

नसीम अंजुम! नसीम अंजुम! नसीम अंजुम! – हर कदम के साथ मेरा दिल धप-धप कर रहा था. मुझे खुद नहीं पता था मेरे हरजाई दिल के भीतर का वास्तविक प्रेम इसी अपूर्व सुन्दरी के लिए कहीं छिपा हुआ था. वह बहुत बातूनी थी लेकिन उससे ज्यादा खूबसूरत थी. उसका ऊंचा खानदान और कपड़ों के चयन में उसकी नफीस पसंद उसे मेरे लिए आदर्श प्रेमिका बनाते थे. अगले कुछ दिन उसके साथ ट्यूशन पढ़ने का मौक़ा मिल रहा था और मेरे पास ऊंचे दर्जे की इस दुर्लभ मोहब्बत को सैट कर लेने का सुनहरी मौक़ा था. इस उपलब्धि के लिए हर रोज एक घंटे तक टट्टी मास्साब की जहरीली दुर्गन्ध झेलने का पराक्रम दिखाना होगा.

लफत्तू के पापा अक्सर हमें आधे-पौन घंटे के उपदेश देने के बाद उपसंहार करते हुए कहा करते थे – “मरे बिना स्वर्ग जो क्या मिल सकने वाला हुआ रे बौड़मो!” उनकी बात पहली दफा समझ में आ रही थी.  

Wednesday, May 18, 2016

भोर सुहानी चंचल बालक और जैहनूमान

लफ़त्तू अब भी मुरादाबाद में भर्ती था और उसकी सलामती की बाबत न लालसिंह के पास कोई सूचना थी न फ़ुच्ची के पास. मेरी बहनें लफ़त्तू की बहनों की दोस्त थीं और उनसे कुछ पूछना मुझे गवारा न था क्योंकि लफ़त्तू को हमारे घर पर बहुत बड़ा चोट्टा समझा जाता था. जब-तब उसके पापा गांठ-लगा थैला किए मुरादाबाद जाने वाली बस के इन्तज़ार में बस अड्डे पर खड़े नज़र आते और मेरा कलेजा गले में किसी फांस की तरह अटक जाया करता. कायपद्दातैराकीबैटमिन्डल और क्रिकेट वगैरह सारी गतिविधियों पर विराम लग चुका था और मेरा मन लगातार किसी आसन्न बुरी ख़बर से कांपा करता.

गर्मियां आया चाहती थीं और लम्बी छुट्टियां भी. गर्मियों का मतलब होता था जुल्मी की बक्से वाले वाली कुल्फीलाला की पिस्ते वाली लस्सीपोदीने वाला गन्ने का रसआमतरबूजलम्बी दोपहरियाँ और घर आने वाले मेहमानों की बाढ़ का बंद हो जाना. मेरे घर पर जाड़ों भर रिश्तेदार-मेहमानों का तांता लगा रहता जो पता नहीं कहाँ-कहाँ से आकर हमारे घर के अलग-अलग कमरों में अपनी-अपनी सुविधा के हिसाब से नत्थी होते रहते थे – चूंकि घर से नेरा ताल्लुक सिर्फ खाने और सोने तक महदूद हुआ करता थाइन अतिथियों के समय-समय आते रहने से मुझे बहुत दिक्कत नहीं होती थी. बस माँ और बहनों को बुरादे की अंगीठी के सामने बैठे-बैठे हर रात एक करोड़ रोटियाँ बेलते-सेंकते देखना मुझे नहीं भाता था.

हमारे एक दद्दा थे जिनकी खुराक अड़तीस-चालीस रोटी की हुआ करती थीएक चचा कहीं से आते थे और बड़े भाई को अहर्निश बस त्रिकोण-वर्ग-आयत कराते रहते थेएक मामू थे जिनकी पीठ सदैव फोड़े-फुंसियों की कॉलोनी बनी रहती थी जिनके इलाज के लिए वे हर साल हफ्ता-दस दिन रामनगर के हर डाक्टर-वैद्य-हकीम के दर पर सवाली बने रहने के उपरान्त थैला भर ट्यूबेंलेपगोलियांकाढ़े वगैरह लेकर वापस अपने घर जाते थेबाबू के बचपन के एक दोस्त थे जो हर होली से हफ्ते भर पहले घर के बैठकखाने पर पड़े तखत को अपना अड्डा बना लेते – इस तखत पर वे दिन भर अधमरे पड़े-लेटे रहते लेकिन शाम होने से लेकर सोने तक उनके भीतर पता नहीं कहाँ से के. एल. सहगल की आत्मा घुस जाती और वे अपनी तनिक नक्कू और अचारी आवाज़ में ‘भोर सुहानी चंचल बालक’ और ‘एक राजे का बेटा’ जैसे सड़ियल क्लासिक गाने गाते रहते. पिताजी वक्त पर घर आ चुके होते तो उनके साथ बैठे ‘वाह साब’ का जाप करते अपनी फाइलें निपटाते रहते वरना सहगल साब खुली खिड़की से बाहर बस अड्डे-खेल मैदान और आटे की चक्की का विहंगम दृश्य देखते ‘प्रीतम आन मिलो’ करते रहते. इस दौरान उन्हें लगातार पानी सी सप्लाई करते रहना होती थी क्योंकि उन्हें पानी की प्यास केवल शाम के बाद से लगना शुरू होती थी. स्टील के बिना हैंडल वाले जग में भर-भर कर पानी उन तक पहुंचाने की जिम्मेदारी बड़े भाई की हुआ करती. लफत्तू उन्हें लगातार तखत पर बैठे देखता तो अपने पापा से सीखी हुई एक कविता फुसफुसाकर बेकाबू हंसता हुआ दोहरा हो जाया करता था-

आइये हुजूर
खाइए खजूर
बैठिये तखत पर
पादिये बखत पर

एक बाबाजी आते थे जिनके आने पर हमें अपनी अंग्रेज़ी ग्रामर की किताबें निकाल कर उनके सामने बैठ जाना होता था. वे घंटों हमें आई एन जी लगाने के नुस्खे सिखाया करते और टाफियां देते जाते. वे कभी-कभार बांसुरी निकाल लेते और उससे कुत्ते के रोने की जैसी आवाजें निकाला करते और हमसे साथ-साथ ‘गोपालागोपाला’ गाने को कहते. टाफी और बांसुरी के इस बेढब सामंजस्य का आकर्षण एक बार लफत्तू को भी मेरे घर बाकायदा कापी-किताब समेत लेकर आया लेकिन उसी शाम को कायापद्दा खेलते हुए उसने बाबाजी को हॉकलेट घोषित करते हुए मुझे चेताया कि बुढ्ढा बाबा हमारे घर पर डकैती डालने की योजना बना रहा है. 

लफत्तू का बीमार होकर यूं मेरे संसार से मुरादाबाद चले जाना बहुत कचोटा करता और उसके बिना रामनगर की हर शै आकर्षणविहीन हो गयी थी. फुच्ची ने मेरे घर पर आकर मुझे अपने साथ ले जाने को कुछ दिनों से नियम बना लिया था. मैं उसके साथ केवल इस वजह से चला जाया करता कि उसके पास पैसे होते थे और मौका-बेमौका गम गलत करने को वह बमपकौड़ा खिलवा दिया करता था. लफत्तू के घर के सामने वाले मकान में नए किरायेदार आ गए थे जिनकी कॉलेजगामिनी मुटल्ली लड़की का नाम फुच्ची ने प्रत्यक्ष कारणों से जीनातमान रख दिया था.

इस मुटल्ली जीनातमान की दोस्ती रामनगर आते ही उसके घर के सामने वाले पप्पी मांटेसरी स्कूल वाली मेरी और फुच्ची की पुरानी लौ अर्थात मधुबाला मास्टरानी से ही गयी थी और ये दोनों हीरोइनें यदा-कदा साथ-साथ जुल्मी के बक्से की कुल्फी खातींफिक्क-फिक्क हंसतीं अपने दुपट्टे संभालतीं नज़र आ जाया करतीं. फुच्ची मुझे हर शाम लफत्तू के घर के सामने से होकर ही कहीं ले जाया करता. कई बार तो एक ही शाम हम उसके सामने से छः-सात बार तक गुज़रा करते. फुच्ची को जीनातमान में न जाने क्या नज़र आता था कि लार टपकाता वह उसके घर की तरफ इतनी बार देखने की नीयत से उसी रास्ते पर से गुज़रता हुआ भी बोर नहीं होता था. एक दिन जब हम साह जी की चक्की से फुच्ची के घर का आटा पिसवा कर लौट रहे थेचौराहे के उस तरफ हाथीखाने की तरफ से जीनातमान और मधुबाला आती नज़र आईं . उनके आगे-आगे हाथी चल रहा था.  फुच्ची ने धप से आटे का थैला नीचे धरा और मेरा हाथ थामकर हाथीखाने की राह लग लिया. हाथी हमसे करीब बीस मीटर दूर था और उसकी टांगों के बीच से दोनों हीरोइनों को देखा जा सकता था. वे बेमतलब मटकती हुईं ,गपियाती हमारी तरफ को आ रही थीं. मैंने एक निगाह फुच्ची के चेहरे पर डाली तो पाया कि उसकी वाकई में लार टपक रही थी. मुझे हंसी आने को हुई कि हाथी अचानक  रुका और उसने बीच सड़क पर ढेर सारा गोबर कर दिया. फुच्ची का सारा रोमांस हाथी के गोबर ने गोबर बना दिया और अचानक हुए इस सार्वजनिक गजगोबरीकरण से हकबकाया नायिकाद्वय अपने होंठों को दुपट्टे से ढांपता वहीं बगल में रहनेवाले पुरिया चोर के घर घुस गया.

नसीम अंजुम का मेरे और मेरी बहनों की जिंदगानियों में आना किसी तिलिस्म की तरह घटा. उसके पापा जंगलात के बहुत बड़े अफसर थे और लखीमपुर से हमारे पड़ोस में हाल ही में शिफ्ट हुए थे. नसीम अंजुम मेरी मंझली बहन की क्लास में पढ़ती थी और हमारे घर पहली बार आने के पंद्रह मिनट के भीतर ही उसने अपनी ठसकेदार भाषा और मुस्कान से घर के हर सदस्य को अपना बना लिया था. वह खुद को कभी भी केवल नसीम कहकर नहीं बल्कि नसीम अंजुम कहकर संबोधित करती थी और अपने बारे में इस तरह बोलती थी जैसे वह खुद कोई और हो – “तो आन्टी अम्मी ने हमसे कहा कि नसीम अंजुम आपका दिमाग खराब हो गया है. अब नसीम अंजुम किसी को कैसे बताएं कि हुआ क्या था. आप ही बताइये आन्टी घर पर जब कोई मेहमान आया हो तो उसे बिना कुछ खिलाये-पिलाए कैसे जाने दे सकते हैं. तो अम्मी घर पे थी नहीं और हमने जोशी अंकल को चाय के साथ वो रात वाले समोसे गरम करके परोसने की ठान ली. अब नसीम अंजुम को क्या पता कि बिजली का हीटर कैसे चलता है. बस लग गया करंट. ये देखिये कित्ता तो बड़ा दाग लगा था.” ऐसा कहकर उसने अपनी नन्हीं सी कलाई को उघाड़कर लखीमपुर में तीन साल पहले लगे करंट के निशान को उरियां किया. “तो जब नसीम अंजुम अब्बू के साथ अस्पताल से वापस घर पहुँचीं तो अम्मी बोलीं नसीम अंजुम आपका दिमाग खराब हो गया है. बताइये ऐसे कोई बोलता है आन्टीतो नसीम अंजुम ने फैसला किया ...” खिलखिलाती हुई वह बकबक करती जाती थी और सामने रखे बिस्कुटों को एक के ऊपर एक रखकर पहले कुतुबमीनार सी बनाती फिर गिराती जाती. उसकी पतली-पतली सुन्दर उँगलियों में से एक पर लगी चमचम करती छोटी सी अंगूठी के नगीने पर जब-जब शाम की धूप सीधी पड़ जातीउसकी नाक के नुकीले छोर पर पर सतरंगी दिपदिप झलमलाने लगती. वह उस वक़्त मुझे अप्रतिम सुन्दर लगी लेकिन बाहर से फुच्ची का “बीयो ... ओ ... ओ ... ई ...” वाला आमंत्रण संकेत दूसरी दफ़ा आते ही मुझे निकलना पड़ा.

फुच्ची के कोयला चेहरे पर पसीने की मोटी-मोटी बूँदें थीं और वह काफी उत्तेजित और व्यग्र लगता था. वह मुझे देखते ही सीधा लालसिंह की दुकान की दिशा में बढ़ चला. पीछे-पीछे मैं पहुंचा तो लालसिंह पहले से ही बाहर खड़ा होकर बस अड्डे की तरफ निगाहें गड़ाए थे. मैंने भी उस तरफ देखा. पहलवान के ठेले पर लफत्तू के माँ-बाप लाल कम्बल में लपेटे लफत्तू को लिटा रहे थे.

मेरे ख़याल से लफत्तू लिकल्लिया!” लालसिंह ने बेहद खतरनाक आवाज़ निकालते हुए थूक गटका.

क्या मतलब बे!” यह फुच्ची था.

मेरी ईजा को भी बाबू ऐसे ही लाये थे मुरादाबाद से.

तेरी ईजा तो बुढ्ढी थी बे. लफत्तू ऐसे कैसे ...

वही तो मैं कह रहा हूँ फुच्चन बेटे. देख कम्बल ज़रा भी हिल नहीं रहा. गया लफत्तू ...” 

लालसिंह दुकान के बाहर धरी बेंच पर अधपसर सा गया. इस वार्तालाप को आगे सुनने की मेरे भीतर ताकत नहीं बची थी और मैं खेलमैदान की तरफ भाग गया. मेरी रुलाई फूट रही थी जबकि चारों तरफ बच्चे साइकिल चला रहे थे. अभी लफत्तू होता तो उस छोटे से बच्चे को साइकिल सिखाने लगता जिससे गद्दी पर नहीं बैठा जा रहा था. मैं भागता भागता बौने के ठेले तक पहुँच गया जहाँ उसके दोनों अधनंगे बच्चे अखबार के टुकड़ों से नाव और जहाज़ बनाने का खेल खेल रहे थे. बौना एक और अखबार का पंखा झल रहा था और उसकी मैली बनियान पसीने से भीगकर भूरी पड़ चुकी थी. उसने मुझे देखा तो तुरंत हरकत में आ गया मसालेदार आलू का गोला बनाने लगा.

जैसे ही मैं उसके ऐन सामने आया उसने मेरी बहती हुई आँखें ताड़ लीं और खुशामदी लहजे में बोला – “सब ठीक तो है ना बाबूजी!

वो लफत्तू ...

इतनी बड़ी त्रासदी घट गयी थी और बौना आलू के गोले को बेसन के घोल में डुबो रहा था.

बहुत दिनों से बड़े वाले बाबूजी नहीं आ रहे ...

उसी की बात तो बता रहा हूँ. लफत्तू मर गया आज ...” यह कहते कहते मैं इतनी जोर जोर से रोने लगा कि साइकिल चला रहे एकाध बच्चों तक ने मेरी तरफ निगाह डाली अलबत्ता वे अपने काम में लगे रहे. बमपकौड़े अब गरम तेल की कढ़ाई में खदबदाने लगे थे और आसपास की हवा सुपरिचित गंध से भारी होती जा रही थी.

ऐसे थोड़े ही होता है बाबूजी. बड़े बाबूजी के घरवाले हनूमान जी के भगत हैं. हनूमान जी ऐसे ही थोड़ी होने दे सकते हैं. बड़े बाबूजी को कुछ नहीं होगा. मुझे पता है ...” बौना ज्ञान गाँठ रहा था और पत्तल बना रहा था.

मेरा रोना अब तकरीबन बंद हो चुका था और बौने के हाथों में धरा पत्तल मेरे सामने था : “खाइए बाबूजी ... पैसे की कोई बात नहीं ...

एक पल को असमंजस हुआ कि दोस्त के मरने पर इतना बेशर्म कैसे हुआ जा सकता है लेकिन बमपकौड़े की महक के आगे मेरी हार हुई और बौना जीत गया. इस फ़ोकट पार्टी के बाद मेरा चित्त थोड़ा शांत हुआ. मैंने पहली बार अकेले बौने के ठेले पर यह कारनामा अंजाम दिया था. अब मुझे दुःख भी कम हो रहा था. पिक्चर देखने का मन कर रहा था. बौने ने एक बार उकसाया तो मैंने फ़ौरन फर्श पर अपना गाल टिकाया और हॉकलेट धरमेंदर की कोई पिक्चर देखने लगा. पिक्चर बीसेक मिनट में धरमेंदर और मुच्छड़ पुलिसवाले के बीच हुई लम्बी वार्ता और जीनातमान के साथ उसके गाना गाने के साथ ख़तम हो गयी.

मैं कपड़े सही करने लगा तो बौना बोला : “चालीस पैसे हुए बाबूजी. अगली बार दे दीजियेगा. अब घर जाइए. हनूमान जी भली करेंगे.” बौने ने अपना सफल व्यापारी रूप दिखाया और जैहनूमान ग्यानगुनसागर गुनगुनाने लगा. दोस्त की मौत के बाद बमपकौड़ा खाना और पिक्चर देखना और वो भी उधार में – अपराधबोध से अटा हुआ मैं जब घर के दरवाज़े पर पहुंचा तो शाम धुंधला चुकी थी. एक निगाह लालसिंह की दुकान की दिशा में डाली तो वहां कुछ भी उल्लेखनीय होता नज़र नहीं आया. मुंह में बीड़ी चिपकाए लालसिंह के बाबू चाय की केतली के मुंह पर फंसे अदरक के टुकड़े को निकाल रहे थे और मेरे दोस्तों का नामोनिशान तक नहीं था. मैं समझ गया वो लफत्तू के घर गए होंगे.

मैं जीना चढ़ ही रहा था कि माँ और मेरी दोनों बहनें एक साथ दरवाज़े से बाहर निकले.

तू था कहाँ ... हर जगह देख आये तुझे. चल अंकल जी के घर चलना है. लफत्तू की मम्मी बुला रही तुझको.

लफत्तू के घर छोटा-मोटा मजमा लगा हुआ था जैसा बंटू के दादाजी के मरने पर लगा था. लफत्तू की बहनें एक कोने में खड़ी थीं और उसका जल्लाद भाई सियाबर बैद जी के कानों में मुंह सटाए जोर-जोर से कुछ कह रहा था. परसूराम मास्साब और विलायती सांड भी नज़र आ रहे थे. माँ ने मेरा और छोटी बहन का हाथ थामा हुआ था और वह वैसे ही हमें घसीटते हुए लफत्तू के घर के भीतर ले गयी. बाहर के कमरे की कुर्सियों पर लफत्तू के पापा और कुछ पड़ोसी विराजमान थे. माँ हमें भीतर के कमरे में ले गयी.

लफत्तू जिंदा था और उसकी नाक बह रही थी. उसकी मम्मी उसे मुसम्मी का शरबत पिला रही थी.   

लफत्तू मरा नहीं था क्योंकि उसको बौने के हनूमानजी ने बचा लिया था.

लफत्तू बहुत बीमार और दुबला दिख रहा था पर मुझ पर निगाह पड़ते ही उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ गयी. उसकी मम्मी के इशारे पर मैं आगे बढ़कर लफत्तू की बगल में बिस्तर पर बैठ गया. मैं उसे गले लगा कर और खूब रोना-पीटना करके अपना जी हल्का कर लेना चाहता था. मैं अपने मन की सारी भावनाएं उसके उसके सामने उड़ेल कर उसका हाथ भी थामे रहना चाहता था लेकिन मैं पैदाइशी घुन्ना था और चुपचाप फर्श पर निगाहें लगाए औरतों की बातें सुनता दुखी होता रहा.

लफत्तू को अगले छः महीने तक स्कूल जाने की इजाजत नहीं थी. उसे हर पंद्रह दिन पर मुरादाबाद ले जाया जाना था. उसके भोजन और दवा में हज़ार तरह की सावधानियां बरती जानी थीं.

दो दिन की देर हुई होती तो हमारा बच्चा तो ...” लफत्तू की मम्मी मेरी माँ को बता रही थीं. “अब की सोमवार को गर्जिया माता के दरबार में हाजिरी लगानी है दिदी! अब तो माता का ही सहारा हुआ हमें ...

कम्बल के नीचे से लफत्तू ने अपना हाथ बाहर निकाला तो कलाई पर चिपकी हुई प्लास्टिक की एक मशीननुमा चीज़ ने मुझे आकर्षित किया.

इसी में डाल के हज़ारों इंजेक्सन लगाए मेरे बच्चे को जल्लादों ने ... इसी में डाल के दिदी ...” लफत्तू की माँ ने अब रोना शुरू कर दिया था. देखादेखी मेरी माँ ने भी वही काम शुरू कर दिया. ज़मीन पर बैठी दो मुटल्ली औरतों ने भी इस कार्यक्रम में शरीक होना अपना फ़र्ज़ समझा और मिनट के भीतर-भीतर कमरे में बकौल लफत्तू मोर्रम का जल्सा शुरू हो गया. बस औरतों के छाती पीटने की कमी बची थी. औरतों की इस बेपरवाह नाटकीयता के चक्कर में मैं लफत्तू को सीधे देख सकने की हिम्मत जुटा सका. मैं उसे देखता हुआ अपने चेहरे को भरसक मनहूस बनाने की कोशिश कर रहा था कि मौके का फायदा उठाकर उसने इंजेक्सन से जख्मी अपने हाथ से मेरी पिद्दी पिछाड़ी पर जोर की चिकोटी काटी और आँख मार कर मंद-मंद मुस्कराने लगा. उसने उंगली से मेरी कमीज़ के आगे के उस हिस्से को छुआ जिस पर मेरे द्वारा अभी अभी किये गए अपराध का सबूत चस्पां था. कमीज़ पर गिरी हुई मिर्चीदार हरी चटनी अब तक सूखी नहीं थी जिसे देखकर उसने अपना पुराना डायलॉग फुसफुसाया “थाले गब्बल के बिना मौद कात लए तुम थब.

अब मुझे सच्ची मुच्ची का रोना आ गया.  

तू जल्दी से ठीक हो जा यार लफत्तू. मेरा कहीं भी मन नहीं लगता.” ऐसे ही एकाध वाक्य मेरे मुंह से निकल सके. लफत्तू ने अपने घायल हाथ से मेरा हाथ थामा और कम्बल के भीतर कर लिया. उसकी हथेली पसीने से भीग गयी थी लेकिन उसने एकाध मिनट तक मेरा हाथ नहीं छोड़ा. उसकी पलकों के कोरों पर भी एक नन्हा सा आंसू ठिठक सा गया था. यह उस्ताद और शागिर्द के दरम्यान लम्बे अरसे बाद हो रहा मूक लेकिन भावपूर्ण संवाद था जिसने आगे के दिनों में हमारी गर्मी की छुट्टियों और नए मोहब्बतनामों की दिशा तय करनी थी. 


लफत्तू की तबीयत का हाल जानने को हमारी समूची मंडली कितनी व्याकुल थी इसका पता दूधिये वाली गली से लगातार आ रही "बीयोओओओई ..." की बेचैन आवाजों से चल रहा था जो बताती थीं कि फुच्ची, मुन्ना खुड्डी, बंटू, लालसिंह, जगुवा पौंक और बागड़बिल्ला वगैरह व्याकुल होकर लफंडर-यूथ बनाए मेरे बाहर आने की प्रतीक्षा कर रहे थे.