Friday, August 8, 2008

बिग्यान का दूसरा सबक और टेस्टूप

एक महीने कछुआ देखने के बाद हुई सामूहिक धुनाई के बाद वाले रोज़ दुर्गादत्त मास्साब लालसिंह के साथ क्लास में घुसे. लालसिंह अंग्रेज़ी की क्लास में अनुपस्थित था. असेम्बली में टोड मास्साब और दुर्गादत्त मास्साब के बीच चली कोई एक मिनट की बातचीत के बाद उसे जल्दी जल्दी गेट से बाहर जाते देखा गया था. लालसिंह के हाथ में खादी आश्रम वाला गांठ लगा मैला-कुचैला थैला था. मास्साब आदतन कर्नल रंजीत में डूबे हुए थे. लालसिंह ने रोज़ की तरह हमारी अटैन्डेन्स ली. पिछले दिन की ख़ौफ़नाक याद के कारण सारे बच्चे चुपचाप थे. हमने दो कक्षाओं के बीच पड़ने वाले पांचेक मिनट के अन्तराल में स्याही में डुबो कर काग़ज़ की गेंदें फेंकने का खेल भी नहीं खेला.

अटैन्डेन्स के बाद मास्साब ने उपन्यास नीचे रखा और बहुत नाटकीय अन्दाज़ में बोले: "कल तक हम ने जीव बिग्यान याने कि जूलाजी के बारे में जाना. आज से हम बनस्पत बिग्यान माने बाटनी की पढ़ाई शुरू करेंगे."

तब तक लालसिंह मैले थैले से काग़ज़ में लिपटी कोई गोल गिलासनुमा चीज़, एक पुड़िया और पानी से भरा हुआ शेर छाप मसालेदार क्वाटर सजा चुका था. लफ़त्तू ने मुझे क्वाटर, अद्धे और बोतल का अन्तर पहले से ही बता रखा था. उसके पापा इन सब में भरे मटेरियल का नियमित सेवन करते थे और लफ़त्तू एकाधिक बार चोरी से उसे चख भी चुका था. "छाली बली थुकैन होती है. लुफ़्त का भौत मजा आता है छाली में मगल."

मास्साब ने और भी नाटकीय अदाओं के साथ मेज़ पर रखी इन वैज्ञानिक वस्तुओं को उरियां किया. कांच गिलासनुमा चीज़ बहुत साफ़ थी और पतली स्याही से लम्बवत उसमें नियत दूरी पर लकीरें बनी हुई थीं. उसके भीतर गै़रमौजूद धूल को एक अतिशयोक्त फूंक मार कर मास्साब ने दूर किया, उंगली को टेढ़ा कर उसमें दो-चार नाज़ुक सी कटकट की और ऊंचा उठाकर बोले: "देखो बच्चो ये है बीकर. आज श्याम को सारे बच्चे लच्छ्मी पुस्तक भंडार पे जा के इसे ख़रीद लावें. डेड़-दो रुपे का मिलेगा. घरवालों से कह दीजो कि मास्साब ने मंगवाया है."

पुड़िया खोलकर उन्होंने उसके भीतर के भूरे जरजरे पाउडर को ज़रा सा लिया और लकड़ी के बारूदे से हमारा परिचय कराया. "जिस बच्चे के घर पे बारूदे की अंगीठी ना हो बो भवानीगंज जा के अतीक भड़ई के ह्यां से ले आवे. अतीक कुछ कये तो उस से कैना कि मास्साब ने मंगाया है"

शेर छाप का क्वाटर खोल कर उन्होंने हमें पानी दिखाया और पहली बार कोई मज़ाकिया बात बोली "और ये है दारू का पव्वा. दारू पीने से आदमी का बिग्यान बिगड़ जाता है. कोई बच्चा दारू तो नहीं पीता है ना?" बच्चों ने सहमते हुए खीसें निपोरीं.

"सारे बच्चे कल को बिग्यान की बड़ी कापी में बीकर का चित्र बना के लावें. और अब बनस्पत बिग्यान का कमाल देखो." उन्होंने अपने गन्दे कोट की विशाल जेब में हाथ डाला और मुठ्ठी बन्द कर के बाहर निकाली." हमें पता था कि उसमें चने के दाने होंगे क्योंकि हमारी ठुकाई करने के बाद उन्होंने क्लास से बाहर जाते हुए यह अग्रिम सूचना जारी कर दी थी सो उनके इस नाटक को हम दर्शकों की ज़्यादा सराहना नहीं मिली.

"ये हैं चने के दाने. इस संसार में सब कुछ बिग्यान होता है जैसे ये दाने भी बिग्यान हैं. अब देखेंगे बनस्पत बिग्यान का जादू." उन्होंने बीकर में चने के दाने डाले, उसके बाद उन्हें बुरादे से ढंक दिया. बीकर में आधा बुरादा डाल चुकने के बाद उन्होंने आधा क्वाटर पानी उसमें उड़ेला.

"अब इस में से चने उगेंगे"

लालसिंह को बीकर थमाते हुए उन्होंने उसके साथ कछुए वाला व्यवहार करने का आदेश दिया और उपन्यास में डूब गए. लालसिंह ने बीकर दिखाना शुरू किया ही था कि घन्टा बज गया. लालसिंह के हाथ से बीकर लेते हुए मास्साब ने पलटकर कहा: "सारे बच्चे आज श्याम को बाज़ार से बीकर लावें और ऐसा ही परजोग करें. कल सबको चने वाले बीकर लाने हैं."

घर पर हमेशा की तरह साइंस के इस प्रयोग की सामूहिक हंसी उड़ाई गई. लफ़त्तू के घरवालों ने उसे बीकर के पैसे देने से मना कर दिया था सो मैंने मां से यह झूठ बोलकर दो बीकर ख़रीदे कि सबको दो-दो बीकर लाने को कहा गया है.

अगले दिन असेम्बली में कक्षा छः (अ) के हर बच्चे के हाथ में एक बीकर था. केवल नई कक्षा के बच्चों ने इन में दिलचस्पी दिखाई. दुर्गादत्त मास्साब के इस बनस्पत बिग्यान परजोग से बाक़ी के अध्यापक-छात्र परिचित रहे होंगे.

मास्साब ने आकर लालसिंह से अटैन्डेन्स के बाद हर बच्चे का बीकर चैक करने को कहा. बीकर चैक करने के बाद हमारे लिए ख़ास बनाई गईं काग़ज़ की छोटी पर्चियां जेब से निकालकर मास्साब ने हम से उन पर अपना-अपना नाम लिखने और परजोगसाला से लालसिंह द्वारा लाई गई आटे की चिपचिप लेई से उन्हें अपने बीकरों पर चिपकाने को कहा. "जब चिप्पियां लग जावें तो सारे बच्चे बारी-बारी से नलके पे जाके हाथ धोवें औए साफ़ सूखे हाथों से बीकरों को परजोगसाला में रख के आवें" घड़ी की तरफ़ एक बार देख कर मास्साब ने एक उचाट निगाह डालते हुए हमें आदेश दिया.

मोतीराम परशादीलाल इन्टर कालिज की परजोगसाला एक अजूबा निकली. एक बड़ा सा हॉल था, जिस में घुसते ही क़रीब सौएक टूटी कुर्सियां और मेज़ें औंधी पड़ी हुई थीं. उनके बीच से रास्ता बनाते हुए आगे जाने पर एक तरफ़ को बड़ी-बड़ी मेजें थीं - एक पर शादी का खाना बनाने में काम आने वाले बड़े डेग-कड़ाहियां-चिमटे-परातें बेतरतीब बिखरे हुए थे. एक मेज़ के ऊपर कर्नल रंजीत वाली एक अधफटी किताब धूल खा रही थी. वह दुर्गादत्त मास्साब की मेज़ थी. इसी पर हमने अपने बीकर क्रम से रखने थे. किताब मैंने दूर से ताड़ ली थी. मेरे त्वरित, गुपचुप, लालचभरे इसरार पर लफ़त्तू लपक कर गया और चौर्यकर्म में अपनी महारत का प्रदर्शन करते हुए किसी और बच्चे के मेज़ तक पहुंचने देने से पेशतर उसने किताब चाऊ की और कमीज़ के नीचे अड़ा ली और मुझे आंख भी मारी. बीकर रखने के बाद मेरी निगाह दूसरी तरफ़ गई. जहां-तहां टूटे कांच वाली कुछ अल्मारियां थीं जिनकी बग़ल खड़ा में चेतराम नामक लैब असिस्टैन्ट ऊंची आवाज़ में हम से जल्दी फूटने को कह रहा था. इतनी सारी व्यस्तताओं और हड़बड़ी के बावजूद मुझे भुस भरे हुए कुछ पशु-पक्षी इन अल्मारियों के भीतर दिख ही गए. और एक संकरी ताला लगी अल्मारी के भीतर खड़ा एक कंकाल भी जिसने कर्नल रंजीत के साथ अगले कई महीनों तक मेरे सपनों में आना था.

अगले बीसेक दिन बिग्यान की क्लास का रूटीन यह तय बताया गया कि अंग्रेज़ी की क्लास के तुरन्त बाद हमें परजोगसाला जाकर अपने - अपने बीकरों में पानी देना होता था, उसके बाद सम्हाल कर इन्हें क्लास में लाकर अपने आगे रख कर अटैन्डेन्स दी कर बीकर की परगती को ध्यान लगाकर देखना होता था. मास्साब के घड़ी देख कर बताने के बाद घन्टा बजने से दस मिनट पहले हमें इन बीकरों को वापस परजोगसाला जाकर रखना होता.

पहले तीन-चार दिन तो मुझे लगा यह भी मास्साब की कोई ट्रिक है जिस से बोर करने के बाद वे हमें एक बार पुनः मार-मार कर बतौर तिवारी मास्साब हौलीकैप्टर बनाने की प्रस्तावना बांध रहे हैं. पांचवें दिन बीकर के तलुवे में पड़े चने के दानों में कल्ले फूट पड़े और बीकर को नीचे से देखने पर वे शानदार नज़र आते थे. भगवानदास मास्साब इस घटना से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने पांच मिनट तक उपन्यास नीचे रख कर हमें बनस्पत बिग्यान की माया पर एक लैक्चर दिया.

परजोगसाला जाकर मैं सबसे पहले पानी न देकर कंकाल को देखता और उसे पास जा कर छूने का जोख़िमभरा कारनामा अंजाम देने की कल्पना किया करता. इधर मैंने चोरी छिपे ढाबू की छत के एक निर्जन कोने में कर्नल रंजीत के फटे उपन्यास के सारे पन्ने कई बार पढ़ लिए थे. उस के बारे में फिर कभी. चोरी-चोरी मास्साब के उपन्यासों के कवर देखते हुए अब मुझे कुछ कुछ समझ में आने लगा था और कर्नल का इन्द्रजाल सरीखे रहस्य लोक से परिचित क़िस्म की सनसनी होने लगी थी.


दस- बारह दिन बाद नन्हे से पौधे वाक़ई चार-पांच सेन्टीमीटर की बुरादे की परत फ़ोड़कर बाहर निकल आए. इन दिनों पूरी क्लास भर मास्साब के चेहरे पर परमानन्द की छटा झलकती रहती थी. लालसिंह सारे काम करता और ख़ुद उन्हें उपन्यास पढ़ने के सिवा कुछ नहीं करना होता था.

चने के पौधे दो-तीन सेन्टीमीटर लम्बे हो गए थे और बुरादे से अब बदबू भी आने लगी थी. किसी-किसी बीकर के भीतर फफूंद उग आई थी. एक दिन उचित अवसर देख कर मास्साब क्लास से मुख़ातिब हुए: "चने का झाड़ कितने बच्चों ने देखा है?" कोई उत्साहजनक उत्तर न मिलने पर पहले उन्होंने लालसिंह से किसी खेत से चने का झाड़ लाने को कहा और अपना लैक्चर चालू रखते हुए कहना शुरू किया: "चने का झाड़ बड़े काम का होता है. उसमें पहले हौले लगते हैं फिर चने और चने को खाकर सारे बच्चे ताकतवर बनते हैं. सूखे चने को पीसकर बेसन बनता है जिसकी मदद से तलवार अपने होटल में स्वादिस्ट पकौड़ी बनाता है." पकौड़ी का नाम आने पर उन्होंने अपना थूक गटका, "सारे बच्चों के पौधे भी एक दिन चने के बड़े झाड़ों में बदल जावेंगे. तो आज हम आडीटोरियम के बगल में इन पौधों का खेत तैयार करेंगे. जब खूब सारे चने उगेंगे तो हम उन चनों को बन्सल मास्साब की दुकान पे बेच आवेंवे. उस से जो पैसा मिलेगा, उस से सारे बच्चे किसी इतवार को कोसी डाम पे जाके पिकनिक करेंगे.

"लालसिंह हमें आडीटोरियम के बगल में इन पौधों को रोपाने ले गया और वहां जाकर भद्दी सी गाली देकर बोला: "मास्साब भी ना!"

इसके बावजूद हमारे उत्साह में क़तई कमी नहीं आई और आसपास पड़े लकड़ी-पत्थर की मदद से खेत खोदन-निर्माण और पौधारोपण का कार्य सम्पन्न हुआ. घन्टा बज चुका था और हम अपने-अपने बीकर साफ़ करने के उपरान्त उन्हें अपने बस्तों में महफ़ूज़ कर चुके थे.

छुट्टी के वक़्त स्कूल से लौटते हुए कुछेक बच्चे सद्यःनिर्मित खेत के निरीक्षणकार्य हेतु गए. बीच में बरसात की बौछार पड़ चुकी थी. लफ़त्तू भागता हुआ मेरे पास आया: "लालछिंग सई कैलिया था बेते. भैंते मात्तर ने तूतिया कात दिया. छाले तने बलछात में बै गए. अब बेतो तने औल कल्लो दाम पे पुकनिक". उस कब्रगाह पर जा पाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई.

तीन हफ़्ते की मेहनत का यूं पानी में बह जाना मेरे लिए बहुत बड़ा हादसा था. इस वैज्ञानिकी त्रासदी से असंपृक्त दुर्गादत्त मास्साब ने अगले रोज़ न लालसिंह से चने के झाड़ के बाबत सवालात किए, जिसे लाना वह भूल गया था, न चनोत्पादन की उस महत्वाकांक्षी खेती-परियोजना का ज़िक्र किया. अपनी जेब से कर्नल की चमचमाती नई किताब के साथ उन्होंने जेब से परखनली निकाली और उसी नाटकीयता से पूछा: "इसका नाम कौन बच्चा जानता है?" लालसिंह ने भैंसे यानी दुर्गादत्त मास्साब को कल से भी बड़ी गाली देते हुए हमें बिग्यान की इस तीसरी क्लास के बारे में एडवान्स सूचित कर दिया था. "परखनाली मास्साब!" उत्तर में एक कोरस उठा.

"परखनाली नहीं सूअरो! परखनली कहा जावे है इसे! और कल हर बच्चा बाज़ार से दो-दो परखनलियां ले के आवेगा. कल से हम बास्पीकरण के बारे में सीखेंगे. आज श्याम को सारे बच्चे लच्छ्मी पुस्तक भंडार पे जा के ख़रीद लावें. आठ-बारह आने में आ जावेंगी ..."

लालसिंह की गुस्ताख़ी का उन्हें भान हो गया होगा. पहली बार उसकी तरफ़ तिरस्कार से देखते हुए उन्होंने क़रीब-क़रीब थूकने के अन्दाज़ में हमसे कहा: "इंग्लिस में टेस्टूप कहलाती है परखनली. आई समझ में हरामियो?"

Thursday, August 7, 2008

दड़ी का छेत्रफल, परसुराम और मांबदौतल

हरेमोहन बन्सल मास्साब हमारे गड़त यानी मैथ्स के गुरूजी थे. परचूने की उनकी दुकान स्कूल के गेट से कोई बीस मीटर दूर थी. दुकान पर गालियां बकने में पी एच डी कर चुके उनके वयोवृद्ध पिताजी बैठा करते थे. इस लिहाज़ से हरेमोहन बन्सल मास्साब स्कूल में अक्सर पार्ट टाइम मास्टरी किया करते थे. वे जब बोलते थे तो लगता था उन्होंने मुंह में कुन्दन दी हट्टी की स्वादिष्ट रबड़ी ठूंस रखी हो. अलबत्ता उनके शब्द इस बेतरतीब और भद्दे तरीके से बाहर आया करते थे कि लगता उनकी सांस अब रुकी तब रुकी.

उनका एक बेहद मोटा बेटा था जो अक्सर दुकान के वास्ते थोक खरीदारी के सिलसिले में क्लास में आकर उनसे पैसे लेने आता था. मास्साब एक एक नोट गिन के उसे दिया करते थे और उसके साथ हमेशा बड़ी हिकारत से पेश आते थे. वह मुंह झुकाए सुनता रहता और अपनी धारीदार पाजामानुमा पतलून की जेब में हाथ डाले डोलता रहता. उसका आना हमारे लिए एक तरह का छोटा-मोटा इन्टरवल हो जाता क्योंकि मास्साब के हाथ से नोट लेकर वह सवालिया निगाहों से उन्हें देखता रहता. फूंफूं करते तनिक आगबबूला मास्साब उसे साथ लेकर क्लास से बाहर सड़क पर ले जाते और अपनी समझ में न आने वाली ज़ुबान में हिसाब समझाते - गड़तगुरुपुत्र एकाध बार नोटों को जेब में अन्दर-बाहर करता. क़रीब पन्द्रह मिनट तक चलने वाले इस कार्यक्रम के दौरान लालसिंह हमें मास्साब की दुकान के अद्भुत क़िस्से सुनाया करता.

स्कूल पास कर चुकी कई पीढ़ियों ने मास्साब की दुकान में जाकर पहले दो-चार सौ का सामान तुलाने और उसके बाद लाल मूंग की टाटरी मांगने की परम्परा क़ायम की थी. इस अबूझ पदार्थ का नाम लेते ही दुकान में मौजूद मास्साब के पिताश्री का पारा चढ़ जाया करता था. वे लाठी-करछुल-तराजू-बाट उठा लेते और नकली गाहकों की टोली खीखी करती अपनी जान बचा कर भागने का जतन करने लगती थी. कभी कभी स्वयं मास्साब भी इस कार्य में संलग्न पाए जाते. दुकान से होने वाले इस साप्ताहिक गाली-पुराण में 'अपने बाप से मांग लाल मूंग की टाटरी' का जयघोष बुलन्द होते ही मास्साब पिता की सेवा करने हेतु क्लास छोड़ दुकान की तरफ़ लपक लेते थे. लालसिंह हमें इस जुमले का कोई साफ़ अर्थ नहीं बता पाया. न ही लफ़त्तू. इन दोनों को रामनगर की सारी गालियां याद थीं पर लाल मूंग की टाटरी को लेकर बहुत संशय था और निश्चय ही जिज्ञासा भी. यह दोनों भावनाएं अब भी जस की तस बरक़रार हैं. शायद वह कोई वस्तु न होकर बन्सल परिवार की छेड़ भर रही होगी.

मास्साब ने हमें सबसे पहले बर्ग, आयत, त्रिकोड़ आदि के फ़ार्मूले रटाए और उसके बाद इन पर आधारित सवाल. हममें से कई बच्चों की 'फ़िक' से हंसी छूट जाती जब वे सवाल लिखाना शुरू करते: "चौबीस बर्ग फ़ुट के छेत्रफल की एक दड़ी की लम्बाई छै फ़ुट है. तो दड़ी की चौड़ाई बताइये." दरी को दड़ी कहने के कारण उन्हें दड़ी मास्साब के नाम से जाना जाता था. शुरू में दड़ी शब्द सुनकर हंसी आती थी पर बाद में आदत पड़ गई. संभवतः मास्साब को भी अपने इस दूसरे नाम का ज्ञान था. डंडा वे भी लेकर आते थे पर इस्तेमाल कभी नहीं करते थे. तिवारी मास्साब के मुकाबले वे बहुत शरीफ़ लगा करते थे. डंडे का इस्तेमाल करने की नौबत गड़त की किताब से सवाल लिखाते ही आई. इस में दड़ी के बदले खस की टट्टी की लम्बाई-चौड़ाई के बाबत सवालात थे. मास्साब के मुखारविन्द से इस द्विअर्थी 'टट्टी' शब्द का निकलना, हमारा हंसते हुए दोहरा और डंडे पड़ते ही तिहरा होना एक साथ घटा.

दड़ी मास्साब गाली नहीं देते थे - न पढ़ाते वक़्त, न डांटते वक़्त, न पीटते वक़्त. गाली देने का कार्य आधिकारिक रूप से थोरी मास्साब और दुर्गादत्त मास्साब के अलावा एक और मास्साब के पास था. इन मास्साब को कुछ पढ़ाते हम ने कभी नहीं देखा. स्कूल कैम्पस में आवारा टहल रहे बच्चों के साथ मौखिक रूप से पिता और जीजा का रिश्ता बनाते भर देखे जाने वाले ये मास्साब भी रिश्ते में प्रिंसिपल साहब के मामा और दुर्गादत्त मास्साब के चचेरे-ममेरे भाई थे. पन्द्रह अगस्त को उन्होंने हारमोनियम पर 'दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल' (जिसके लफ़त्तूरचित संस्करण की एक बानगी आप पिछली पोस्ट में देख चुके हैं) और 'इन्साफ़ की डगर पे बच्चों दिखाओ चलके' (यानी 'बौने का बम पकौड़ा बच्चो दिखाओ चख के') बजाया था. लफ़त्तू का कहना था कि अक्सर लौंडों जैसी पोशाक पहनने वाले और एक तरफ़ को सतत ढुलकने को तैयार बालों का झब्बा धारण करने वाले ये वाले मास्साब हारमोनियम बजाते हुए अपने को लाजेस्खन्ना का बाप समझते थे. यह तमीज़ तो हमें बड़ा होने पर आई कि वे असल में अपने को लाजेस्खन्ना का नहीं देबानन का बाप समझते थे. दुर्गादत्त मास्साब का भाई होने के कारण उन्हें मुर्गादत्त मास्साब की उपाधि प्रदत्त की गई थी.

मुर्गादत्त मास्साब रामलीला में परसुराम का पाट खेलते थे. मुझे अल्मोड़ा की रामलीला की बहुत धुंधली याद थी. उस में भी बस सीता स्वयंवर में सदैव जोकर का पाट खेलने वाले कपूर नामक एक कपड़ाविक्रेता की. इसके अलावा वहां चलना और चढ़ना बहुत पड़ता था. पैंठपड़ाव में लगे विशाल शामियाने में प्लेन्स की पहली रामलीला देखना आधुनिक कलाजगत से मेरा पहला संजीदा परिचय था. रात को हम मोहल्ले के बच्चे किसी एक बड़े के निर्देशन में वहां पहुंचकर आगे की दरियों पर अपनी जगहें बना लेते. घर से थोड़ा बहुत पैसा मिलता था सो बौने की बम पकौड़ों, सिघाड़े की कचरी, जलेबी और काले नमक के साथ गरम मूंगफली की बहार रहती. रामलीला देखते देखते हमें 'मैं तो ताड़िका हूं, ताड़-तड़-तड़-ताड़ करती हूं' और 'रे सठ बालक, ताड़िका मारी!' बहुत अट्रैक्टिव डायलाग लगे और हम कई दिन तक लकड़ी की तलवारें बनाकर एक दूसरे पर इन की प्रैक्टिस करते रहे.

मुर्गादत्त मास्साब के अतिलोकप्रिय परसुराम-अभिनय के बाद क्लास के आधे लड़के उनके फ़ैन हो गए लेकिन लफ़त्तू ज़्यादा इम्प्रेस्ड नहीं हुआ. और उसकी टेक थी कि वे अपने को लाजेस्खन्ना का बाप समझते थे.

रावण का पाट खेलने वाला रामनगर फ़िटबाल किलब का गोलकीपर शिब्बन लफ़त्तू का रोल मॉडल था. दीवाली की छुट्टियों के दिनों हम ढाबू की छत पर रामलीला खेलते थे. बंटू परसुराम बनता था, और सांईबाबा का छोटा भाई सत्तू अंगद. इनकी डायलागबाज़ी के उपरान्त रावण का दरबार लगता. एक पिचके कनस्तर पर जांघ पर जांघ चढ़ाए बैठा, रावण बना लफ़त्तू बड़ी अदा से कहता था: "नातने वाली को पेत किया जाए".

एकाध उपस्थित लड़कियां थोड़ा झेंप और ना नुकुर के बाद नाचने वाली के रोल के लिए खुद को तैयार करने लगतीं. 'केवल पुरुषों के लिए' वाले रामलीला-संस्करण में अभिनेता कम होने की सूरत में बंटू और सत्तू इन भूमिकाओं के लिए ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हो रहते थे.

प्लास्टिक के एक पुराने टूटे मग में हवारूपी शराब भरे उसका मन्त्री यानी मैं सदैव तत्पर रहा करता था.

पहले वह 'मुग़ल-ए-आज़म' से सीखा हुआ एक डायलाग फेंकता: "मांबदौतल अब आलाम कलेंगे". इसके बाद वह जांघों को बदल कर हाथ से नृत्य चालू करने का इशारा करके मुझे आंख मारता और आदेश देता: "मन्त्ली मदला लाओ".