Saturday, April 4, 2020

पीरूमदारा वाली पुस्पा का भूत, नारवे की राद्धानी और टट्टी मात्तर का पूत



दूधिये वाली गली से सीधे न जाकर दाएं हाथ को पड़ने वाले बेहद संकरे शॉर्टकट को पकड़ने पर एक डेड एंड मिलता था. यहाँ पर अवस्थित खंडहर चहारदीवारी के पीछे बरसों से अधबने छोड़े गए एक खंडहर दोमंजिले मकान के बारे में मशहूर था कि उसमें भूतों का डेरा है. कान में तब तक पड़ी उड़ती-उड़ती बातों से इतनी जानकारी मिली थी कि पीरूमदारा में खेती करने वाले एक अमीर परिवार ने इस मकान को उस साल बनाना शुरू किया था जब हिमालय टॉकीज में राजेंदर कुमार-मीनाकुमारी की ‘दिल एक मंदिर’ की सिल्वर जुबली मनाई गयी थी. दूसरी मंजिल का लिंटर डाला जा रहा था जब भवनस्वामी की इकलौती बेटी पुस्पा का पैर सरिया में लिपझा और ऊंचाई से सड़क पर गिरने के कारण उसकी मौत हो गयी. कुछ बरस थमे रहने के बाद निर्माण का काम फिर से चालू होने के साथ ही तब तक भूत बन चुकी पुस्पा ने कामगारों को इतना तंग किया कि कुछ ही समय बाद पीरूमदारा वालों की कोठी का नाम सुनते ही रामनगर तो क्या मुरादाबाद-रामपुर तक के मिस्त्री-मजदूर डर के मारे हाथ खड़े कर देते.
पीरूमदारा वालों की इस कोठी में पुस्पा के अलावा कुल कितने भूत रहते थे इस बाबत रामनगर में विभिन्न मत चला करते थे. मोहल्ले के सबसे पुराने माने जाने वाले सियाबर बैद जी के हवाले से बताया जाता कि पुस्पा की मौत के दस-बारह बरस बाद उसके माँ-बाप भी भगवान के प्यारे होने के साथ ही भूत बन कर अपनी बेटी के साथ रहने आ गए. अपने लखुवा निवासी मामा को उद्धृत करता बागड़बिल्ला बड़े आत्मविश्वास से बताता था कि जिस दिन पुस्पा मरी थी, कपड़े की दुकान  पर काम करने वाले उसके प्रेमी ने उसी दिन सबके सामने जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी और वह भी पीरूमदारा वालों की कोठी में आ बसा था. बाद में इस प्रेतयुगल का ब्याह हुआ और उनके भूतिया बच्चे पैदा हुए. पुस्पा के माँ-बाप के दुनिया भर के रिश्तेदार-परिचितों पर तरह-तरह के अहसान थे जिन्हें तारने की नीयत से जो जब-जहां मरता गया तब-वहां से भूत बनकर सीधा खताड़ी मोहल्ले में आकर बसता गया. यों भूतों की आबादी एक से लेकर साठ-सत्तर तक बताई जाती थी.
एक बार हम कंचे खेल रहे थे जब जगुवा पौंक ने फुसफुस आवाज में बताकर हमें डराने की कोशिश की थी कि उसके पापा ने पिछली रात उस भुतहा कोठी में लाइटें जली देख कर चारदीवारी के भीतर जाकर देखा था. अन्दर दावत चल रही थी - “बाबू कैरे थे सौ से कम आदमी तो क्या ही होगा.”  
जगुवा की बात को हवा में उड़ाते हुए लफत्तू ने कहा था – “थबते पैली बात तो आप छमल्लें पीलूमदाले वाले भूत खाना नईं खाते. बिताले तत्ती कलने कां जाएंगे? औल दूथली बात ये कि भूत लाइत देखते ई थुप दाते हैं. आँखों में खुदली हो जाने वाली हुई बितालों को.”
जगुवा लफत्तू के अकाट्य तर्कों का जवाब सोच ही रहा था जब दार्शनिक मुद्रा धारण करता हुआ लफत्तू बोला -  “दब थब थालों ने भूती बन्ना था तो मकान बनाने की क्या जरूअत थी. मैदान केई एक कोने में पले लैते. जब मन कलता पित्तल देख आते, दब मन कलता बौने का बमपकौला थूत आते. कोई पैते जो क्या माँगता बितालों से.”
नसीम अंजुम मेरे घर पहुँच चुकी थी जबकि लालसिंह की दुकान में टंगी धुआंखाई, टूटे कांच वाली घड़ी की सुइयां बता रही थीं कि टट्टी मास्साब को आने में अभी पूरा एक घंटा बाकी था. जाहिर था वह मेरी बहनों के साथ गप्पें मारने की फुर्सत में आई थी. उसके लिए दिल में समाई हुई मेरी मोहब्बत आँखों के रास्ते बयान हो गयी होगी जिसे लाल सिंह ने तुरंत ताड़ लिया.
“भौस्सई दिख री जे लौंडिया बे! जेई हैगी मेरी भाभी?” लालसिंह जानता था मैं शरमा जाऊँगा. “अब जा क्यों ना रिया अपनी लेला के पास. यहाँ दुकान के धोरे खड़ा रेगा तो रामनगर की जो पब्लिक है ना भौत जालिम है साली. भले-भालों को फत्तर मार-मार के मजनू बना दिया करे बेटे.”
लालसिंह वाकई बहुत प्यारा था. उसकी हर मीठी झिड़की और छेड़ में मोहब्बत ठुंसी होती थी. उस पल मुझे एक बार मन हुआ कि सब कुछ छोड़छाड़ के लालसिंह के घर शिफ्ट हो जाऊं जहाँ मैं और नसीम अंजुम शादी करके उसकी सेवा करने अपना जीवन बिता देते जैसा एक पिक्चर में जानी राजकुमार ने किया था.
रामनगर आने के बाद पहली बार यह हुआ था कि अपना कोई रहस्य मैंने लफत्तू से साझा नहीं किया था. मैंने उसे नसीम अंजुम के बारे में बताने की कोशिश की तो थी लेकिन उसने सुनने से साफ़ इनकार कर दिया था. मेरे मन में अब तक वही फांस अटकी हुई थी. मुझे किसी भी तरह अपने गुरु लफत्तू की शरण में जाना था.  
थोड़ा संजीदा होकर मैंने लालसिंह से पूछ ही लिया, “ये लफत्तू जो बिना बात नाराज हो रहा मेरे से उसका क्या करूं यार लालसिंह?”
“करना क्या है! सीधा उसके घर जा और बता दे उसको अपनी और मुन्ना खुड्डी की करतूतों के बारे में. साले मंदिर से भी कोई पैसे चुराता है क्या? और हाँ ...” उसने सामने धरे एक मर्तबान को खोलते हुए उसमें से एक परचा निकाला और मुझे थमाते हुए कहा, “जाएगा तो लफत्तू से कहना इसमें उसके बैंक का हिसाब लिखा हुआ है. ब्याज लगा के पूरे उन्नीस रुपे सत्तर पैसे बन गए फरवरी के लास्ट तक.”
मैंने अचरज में भर कर इतनी लम्बी-चौड़ी रकम की तफसीलों वाले कागज़ को फैलाकर देखा. एक जगह मेरा नाम लिखा था और उसके आगे दो रुपये और कुछ पैसे लिखे हुए थे. मेरे कुछ पूछने से पहले ही लालसिंह बोला, “बौने के यहाँ जो तेरा हिसाब था वो किलियर किया मैंने इसमें से.” यानी मैं लफत्तू का देनदार बन चुका था. अब यह एक और मुसीबत आन पड़ी थी.
“हूं” कह कर मैंने परचा जेब में डाला और लफत्तू के घर की तरफ बढ़ चला. पता नहीं मन में कौन सा चोर बैठा हुआ था कि वहां जाने के बजाय मेरे कदम दूधिये वाली गली की तरफ मुड़ गए. पिछवाड़े के रास्ते से मैं पहले हाथीखाने पहुंचा और वहां से नहर वाला शॉर्टकट लेकर भवानीगंज.
भवानीगंज के निषिद्ध इलाके में घुसते ही मेरा मन हमेशा एक अजीब सी उत्तेजना से भर जाया करता था. ढंग से सोचा जाय तो वह दुश्मन का इलाका था जहां अकेले पाए जाने पर हमारे मोहल्ले वाले लौंडों की बात-बेबात ठुकाई किये जाने की परम्परा थी.
मुझे खुद समझ में नहीं आ रहा था कि मैं वहां गया ही क्यों था. अब भयभीत होने की वेला थी. मेरे कदमों में सुरक्षित ठिकाने तक पहुँचने की बेचैनी और घबराहट आ गयी. सड़क पर आँख गड़ाए मैं थाणे के नजदीक पहुँचने को ही था जब कानों में एक वयस्क आवाज पड़ी, “ओये हरी निक्कर वाले लौंडे!”
हरी निक्कर मैंने ही पहनी हुई थी. डरते-डरते मैंने आवाज की दिशा में देखा. अपनी दूकान के बाहर बुरादे और लकड़ी की छीलन को कट्टों में भरता अतीक बढ़ई मुझसे मुखातिब था.
“वो काणी आँख वाला लौंडा तेरा दोस्त है ना?” वह बागड़बिल्ले के बारे में पूछ रहा था.
“हाँ तो!” मैंने भरसक आवाज में मजबूती लाते हुए जवाब दिया.
“एक महीने से एक खाट दे के गया हुआ है रिपेरिंग के लिए. लेने ना आया अब तक. मिलेगा तो उस्से कहियो उठा के ले जाए फ़ौरन से पैले. साली रामनगर की दीमकें अपनी पे आ गयीं ना तो बारूदा बी ना बचेगा उसकी खाट का. कह दीयो उससे.”
अब मुझे बागड़बिल्ले पर गुस्सा आने लगा. एक तो साले के चक्कर में लफत्तू मुझसे उखड़ गया था ऊपर से दो कौड़ी का अतीक भड़ई चौराहे पर उसके नाम से मेरी बेइज्जती कर रहा था. उसकी बात का कोई उत्तर दिए बिना मैं तेज क़दमों से चलता हुआ असफाक डेरी सेन्टर और केन्द्र तक आ पहुंचा. यहाँ से घासमंडी दिखना शुरू हो जाती थी यानी अपना इलाका. ट्यूशन का समय हो रहा था और अब मुझे मोहब्बत पर ध्यान देना शुरू करना था.
घर पहुंचा तो कोहराम मचा हुआ था.
टट्टी मास्साब अपने पूरे कुनबे के साथ ट्यूशन पढ़ाने समय से आधा घंटा पहले घर पर पधार चुके थे. अर्थात उनके साथ गुरुमाता और डेढ़ साल का गुरुपुत्र मिंकू भी आया था. मुझे याद आया पिछली शाम टट्टी मास्साब के घर से निकलते हुए मेरी मां उनसे कह रही थी, “कभी भाभी को भी घर लाइए जोशी जी.” 
जोशी जी उर्फ़ मथुरादत्त जोशी उर्फ़ टट्टी मास्साब ने मां की इच्छा पूरी करने में ज़रा भी देर नहीं लगाई. उनके लिए चाय-नाश्ता बन रहा होगा जब मिंकू ने अपने पाजामे में टट्टी कर दी थी और सबकी निगाह से बचता-बचाता करीब दस मिनट तक बगैर पैजनिया बजाये इस कमरे से उस कमरे ठुमक चलत रामचंद्र करता रहा. जब तक उसके इस नैसर्गिक कर्म के भभके की भनक माँ-बहनों को लगी तब तक समूचा घर लिथड़ चुका था.
घर में घुसते ही मैंने पाया कि हाथ में पोंछा लिए जमीन घिसती एक अजनबी औरत के नेतृत्व में मेरे घर की सभी स्त्रियां कहीं न कहीं, एक हाथ से नाक दबाये दूसरे से पोंछा लगाने में मसरूफ थीं.
“यहाँ भी हाँ थोड़ा सा दिदी” लोहे की अलमारी की तरफ इशारा करती अजनबी औरत माँ से कह रही थी. नसीम अंजुम भी अपनी नाक दबाये हकबकाई हुई एक कोने में सिमटी खड़ी थी. टट्टी मास्साब के हाथों में पिद्दी पिछाड़ी उघाड़े उनका अभिमन्यु उलटा स्थापित थे और वे हाथ में उसका पाजामा लेकर “पानी कहाँ मिलेगा भाभीजी पानी” कह रहे थे.     
सारे घर में मिंकूनिर्मित खट्टी दुर्गन्ध फ़ैली हुई थी. मैं अन्दर घुसता उसके पहले ही बड़ी बहन ने मुझे घुड़की देते हुए कहा, “अभी वहीं रह बाहर.” उसने मुझे ऐसी निगाह से देखा जैसे कि सब कुछ मेरे ही कारण घटा हो जो एक लिहाज से सच भी था. टट्टी मास्साब मुझे पढ़ाने आये थे. मैंने तार्किक होकर सोचना शुरू किया तो पाया कि इस घटना के लिए मेरे माता-पिता जिम्मेदार थे. न उनके मन में मुझे हॉस्टल भेजने का ख़याल आता न ट्यूशन जैसी वाहियात चीज होती.
बड़ी बहन के कहने पर अब नसीम अंजुम भी दरवाजे से बाहर आकर मेरे साथ खड़ी हो गयी. अचानक मिंकूगंध के ऊपर से तैरता हुआ मुलायम खुशबू का एक झोंका मेरे आसपास की हवा में आकर ठहर गया. एक पल को मैं घर के भीतर चल रहे धत्कर्म को भूल गया. एक पल को यह भी भूल गया कि मैली हरी निक्कर, बूटों वाली आसमानी पोलीएस्टर कमीज और हवाई चप्पल पहने मैं अप्सरा सरीखी नसीम अंजुम की बगल में सकपकाया, शर्मिन्दा खड़ा किसी भिखारी जैसा लग रहा होऊँगा.
“देखिये नसीम अंजुम को आइडिया आया है कि जब तक आंटी लोग सफाई कर रहे हैं आप और मैं नीचे जाकर कल के लेसन को रिवाइज कर लेते हैं.” मुझे याद आया वह खुद को नसीम अंजुम कहकर संबोधित करती थी और अपने बारे में इस तरह बोलती थी जैसे खुद कोई और हो और नसीम अंजुम कोई और.
मैंने चौंक कर हाँ-हूँ किया तो बोली, “अरे कोई कतल करने को थोड़े ही कह रही हूँ आपसे. चलिए दो मिनट को नीचे चलते हैं.” उसने मेरा हाथ थामा और सीढ़ियां उतरती हुई मेरी माँ को सुनाते हुए कहने लगी, “आंटी हम ज़रा नीचे खड़े हैं. अशोक के साथ कल का लेसन रिवाइज कर लेते हैं ज़रा सा.”
हम जीने के सामने वाले ऊंचे चबूतरे पर खड़े थे जिसके ठीक सामने सड़क थी. बाईं तरफ सकीना का मोहल्ला था जबकि दाईं तरफ देखने पर घासमंडी और उसके सामने लालसिंह की दुकान नजर आती थी. नसीम अंजुम की कोमल गिरफ्त से अपना हाथ छुड़ा कर मैं दरवाजे की आड़ हो गया ताकि लालसिंह मुझे देख न ले.
“देखिये अंकल ने हमें बताया था कि आप बहुत ज्यादा होशियार हैं. कल हमने आपकी वो वाली कापी भी देखी थी जिसमें आप ने पोयट्री लिख राखी थी. हम तो कहते हैं नसीम अंजुम ने आज तक ऐसी हैण्डराइटिंग किसी की नहीं देखी. माशाअल्लाह आप तो आर्टिस्ट हैं.”
मैं शर्म, अपमान और झेंप से जमीन में गड़ता जा रहा था. मेरी वह कापी मेरी माशूका को दिखाने की पिताजी को ऐसी क्या जल्दी थी. मुझे मालूम था मेरी पोयट्री बहुत बचकानी थी और नसीम अंजुम अवश्य ही मेरा मखौल उड़ाने की नीयत से ऐसा कह रही थी.
“अच्छा हम बकबक बंद करते हैं अपनी. हमारी आदत ही ऐसी है ना. क्या करें. ये बताइये कल क्या पढ़ाया आपको सर ने. हमारी अम्मी बता रही थीं कि नसीम अंजुम नैनीताल के स्कूल में एडमीशन का इम्तहान बहोत बहोत मुश्किल होता है. हर किसी को नहीं मिल जाता एडमीशन. दुनिया भर के बच्चे आते हैं दुनिया भर के.”
वह एक दो मिनट ऐसे ही बोलती रही. सांस के थोड़ा सामान्य होते ही मैंने आँख उठाकर कुछ पल को नसीम अंजुम का चेहरा देखा. वह कल से भी ज्यादा खूबसूरत लग रही थी. उसके घुंघराले बालों की एक लट बार-बार उसके माथे पर ढुलक आती जिसे वापस करने के लिए वह बड़ी अदा से अपनी अंगूठी लगी उंगली का इस्तेमाल करती. मेरा कलेजा हलक में आ गया था और मुंह से बोल फूटना बंद हो चुका था. मुझे एक-एक कदम फूंक-फूंक कर उठाना होगा. यह खेल कुच्चू-गमलू वाले खेल जैसा सित्तिल नहीं होने वाला है गब्बर!  मेरा मन मुझे चेता रहा था. मैं मिमियाता हुआ कुछ कहता ऊपर से माँ की आवाज आई, “आ जाओ नसीम बेटे. आ जाओ तुम दोनों. सब साफ़ हो गया है अब.”
आँखें मिचमिचाते टट्टी मास्साब ने अपना आसन ग्रहण कर लिया था. गुरुपत्नी और गुरुपुत्र गुसलखाने में मुब्तिला थे जहाँ से चपत लगाने और गुरुपुत्र के ट्यां-ट्यां कर रोने की ध्वनियाँ रिस कर आ रही थीं.
टट्टी मास्साब ने हमसे कापियां निकलवा कर फिजूल चीजें लिखवाना शुरू किया, “नारवे की राद्धानी है ओसिलो जिम्बाब्वे की राद्धानी हरारी. कनेडा की मुदरा है डालर और जापान की मुदरा येन.”
“आजकल जन्नल नॉलेज पर बड़ा धियान दे रही सरकार तो जिस बच्चे ने सारी दुनिया की राद्धानियाँ और मुदराएं रट ली उसका आधा एडमीसन तो समझो वैसे ही हो गया.” स्वयं पर मुदित होते, इस्लामाबाद-वियेना लिखवाते हुए वे अपने आप को आश्वस्त करते जाते थे. मुझे यह सब पहले से ही रटा हुआ था. घर पर बड़े भाई-बहनों के लिए आने वाली कंपटीशन की किताबों में हर महीने इस लिस्ट से सामना होता था. बोर होकर मैंने कापी में स्कूल में सीखी चित्रकला का रियाज करते हुए स्कूल जाती हुई लड़की का वही चित्र बनाना शुरू किया जिसे बनाने में अब तक मुझे महारत हो गयी थी.
गंभीर होने का नाटक करते हुए मैं कापी को मेज के नीचे घुटनों पर धरे था. अचानक आँख उठी तो पाया नसीम अंजुम का ध्यान मेरी ड्राइंग पर था. उस एक पल में मैंने उसकी आँखों में प्रशंसा का भाव भी देख लिया. उसने मुझे खुद को देखता हुआ देखा तो सकपका गयी और टट्टी मास्साब को देखने का नाटक करने लगी.
सतत रो रहे गुरुपुत्र की ट्यां-ट्यां धीरे-धीरे प्वाप्वा-प्वाप्वा में बदलती जा रही थी और घर की हवा में पार्श्वसंगीत का काम कर रही थी. आखिरकार झल्ला कर हमारी क्लास को रोक कर टट्टी मास्साब अपनी पत्नी से मुखातिब होकर जोर से बोले, “अरे मार डालोगी क्या मिंकुवा को. लाओ यहाँ ले कर आओ.”
मिंकुवा को उसकी अनावृत्त पिछाड़ी समेत लाया गया. प्वाप्वा की गोदी में आते ही वह चुप हो गया. उसकी बड़ी-बड़ी काजल लगी आँखों के कोरों पर बड़े बड़े आंसू ठहरे हुए थे और वह टुकुर टुकुर हम दोनों को देखने लगा था. पुत्र के गोद में आते ही टट्टी मास्साब का पितृप्रेम जाग उठा और वे हमारी क्लास रोक कर उस से तुतला कर बोलने लगे, “त्या तिया बदमाथ बत्ते ने. तत्ती कल दी तत्ती. बदमाथ बत्ता दां बी दाता है तत्ती कल देता है. इत बत्ते की हम भौत पित्तीपित्ती कलेंगे. तत्ती कलता है बदमाथ ...”
पूत और पूत की तत्ती के प्रति उनके प्रेम का झरना सूरदास के भजनों की तरह अनवरत बह रहा था. मैंने मन ही मन रामनगर के हरामी लौंडों की आदमी को पहचानने की प्रतिभा को दाद दी. ऐसे वाहियात और मनहूस आदमी का नाम टट्टी मास्साब के अलावा कुछ और धरा गया होता तो ब्रह्माण्ड का संतुलन बिगड़ चुकना था.
अपनी गुलाबी पेन्सिल की नोंक चमकीली दांतों के बीच दबाये नसीम अंजुम मुझे देख कर हौले-हौले मुस्करा रही थी. क्या हुआ अगर अपनी माशूका के साथ इतने करीब होने का मौक़ा पहली बार तब मिल रहा है जब घर भर में मिंकू की दुर्गन्ध फ़ैली हुई है. क्या हुआ अगर मैं हरी निक्कर, आसमानी पोलीएस्टर कमीज और हवाई चप्पल पहने हुए उस राजकुमारी के सामने हौकलेट नजर आ रहा हूँ. मेरा चांस बन रहा था. बकौल लफत्तू खिचड़ी को अभी देर तक पकाते रहने की जरूरत थी.

3 comments:

ptkala said...

Wah wapas a gaye welcome welcome.. Hum to pichle kai sal se jab tab lapoojhanna par lafatto ke hal chal janne a jate the par aage pata hi nahi chal raha tha....ab to aapne achanak jhadi laga di... Bahut accha likhte hi aap aaisa lagta hai ki hum vahin par hain.. Dhanayavad..

सञ्जय झा said...

🙏🌹🌹

smith said...

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