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Wednesday, February 27, 2013

स्टेट बैंक ऑफ धकियाचमन

लफत्तू के भाई ने इन पैसों को अपने पापा की जेब से चुराया था जिन्हें पराक्रमी लफत्तू उसकी जेब से अंटी कर लाया था. मेरे लिए यह कल्पना ही सिहरा देने वाली थी की लफत्तू अपने भाई जैसे जल्लाद की जेब काट सकने का कारनामा अंजाम दे सकता था. इस में डबल खतरा था लेकिन लफत्तू कहता था की बेते बखत एता ई एगा दब कोई किती के कते पे पेताब बी फ़ोकत में नईं कलता और गब्बल के किसी न डरने की उसकी ऐंठ तो थी ही.

इसी सम्मलेन को जारी रखते हुए हम घर की राह पर थे जब लालसिंह की दूकान आ गई. फुच्ची और कलूटे गेटकीपर की संगत में लालसिंह बीड़ी पीना सीख चुका था. सो वे तीनों दूकान के सामने, लालसिंह के पापा की अनुपस्थिति की मौज काटते हुए नवधूमकेतुवतार बने हुए छुट्टी के बाद स्कूल से घर न लौटने वाले नौसिखुवा घुच्ची खिलाड़ियों का प्रदर्शन देखते हुए जब तब कोई सलाहनुमा गाली सज्जित टुकड़ा उनकी दिशा में प्रक्षेपित करते हुए नए लौंडों को अपने अनुभव से आतंकित किए जाते थे.

“अबे ह्वां से खड़ा होके टौंचा लगा बे मिद्दू के ...”

“मने ये तो बम्बाघेर से लौट कर आए हैं ससुरे टुन्ना की ससुराल से ...”

कलूटा गेटकीपर उम्र में इन तीनों में सब से सयाना था और एक आँख घुच्चीक्रीड़ा पर लगाए दूसरी से स्कूल से घर ही लौट रहे मालों को ताड़ भी रहा था. मासूम लेकिन शर्तिया प्रतिभासंपन्न जुआरी बच्चे कुछ देर तक इन वरिष्ठ खिलाड़ियों की बातें सुनते रहे पर उनमें जो सबसे दबंग टाइप का छोकरा था, वह इस अनावश्यक व्यवधान से जब ख़ासा आजिज आ गया तो उसने “बीड़ी सूतते रहो दद्दा और बतख के बच्चे को गोता लगाना ना सिखाओ. हम भवानीगंज से आए हैं और जो ये पिक्चर हॉल वाले दद्दा जो इसके अलावे कर रहे हैं उन्हें बता दीजो कि तुम्हारे खताड़ी वाले आसिक साईं बाबा मंजूर को हमने जित्ते फत्तर मारे हैं उत्ते इन्ने टिकट ना काटे होंगे. ...”

यह एक आसन्न अन्तर्मोहल्लीय युद्ध के शुरू होने लायक उकसावा था. यानी घुच्ची के क्षेत्र में अरसे से सर्वमान्य चैम्पियन माने जाने वाले भवानीगंज के स्कूली छोकरे अब खताड़ी आकर अपनी धौंस दिखा रहे थे और वो भी फुच्ची कप्तान और लालसिंह जैसे वेटरनों के सामने. “तेरी ...” कहते हुए ज्यों ही गेटकीपर इस बदकार लौंडे की तरफ बढ़ने को हुआ भवानीगंज के सूरमा ने झुके झुके ही मुठ्ठी भर मिट्टी ज़मीन से उठाकर उसकी तरफ फेंकी. कलूटा गेटकीपर अर्ध चित्त होकर गिरने को ही हुआ कि घुच्चीदल अपने अपने पांच पैसों के खजाने उठाकर नहर की दिशा वाले शॉर्टकट से भवानीगंज की तरफ भाग चला.

लफत्तू इस सारे घटनाक्रम को निर्विकार भाव से देखता रहा और उसने एक बार भी अपनी किसी भी तरह की राजनैतिक प्रतिबद्धता ज़ाहिर नहीं की. मैं तनिक हैरान था जबकि लालसिंह आहत लग रहा था. कलूटा गेटकीपर अर्धचित्तावस्था में ही एक एक को देख लेने की बातें करता हुआ आँखें मल रहा था. लालसिंह ने उसे लोटा भर पानी दिया. अपनी आँखें वगैरह धो चुकने के बाद “आ बे” कहकर वह फुच्ची को अपने साथ तकरीबन धकियाता हुआ भवानीगंज के उसी शॉर्टकट की राह निकल चला. दो-चार मिनट की इस अप्रत्याशित वारदात के बाद जब माहौल सामान्य सा हुआ तो लालसिंह ने सवालिया निगाहों से लफत्तू पर नज़र डाली.

लफत्तू बिना कुछ कहे मेरा हाथ थामे दूकान के भीतर घुसा और पटरेनुमा बेंच पर बैठते हुए उसने लालसिंह से कुछ न कहते हुए मंथर स्वर में ज़मीन से कहना चालू किया “बीली पीना छई बात नईं ऐ बेते. औल बीली पी के गाली देना भौत गलत. ऊपल थे बत्तों को. गेतकीपल का काम ऐ पित्तल तलाना औल गब्बल का काम ऐ दकैती कलना. ...” अपना प्रवचन जारी रखते हुए उसने अपनी नेकर की भीतरी जेबनुमा जुगाड़ से पांच का वही नोट लालसिंह से समक्ष प्रस्तुत कर दिया.

“अबे हरामी! ... ये कहाँ से चाऊ किया बे? ...” लालसिंह अभी अभी घटी पराजय को जैसे सेकेण्ड भर में भूल गया और नोट को उलट पुलट कर देखने लगा.

“तूलन वाला नईं ऐ बेते ... औल अथली ऐ ... औल बेते येल्ले ...” उसी गुप्त जुगाड़स्थल से इस दफा उसने दस का उस से ज्यादा मुड़ातुड़ा नोट निकाल कर मेरी और लालसिंह दोनों की हवा सरका दी.

यानी पंद्रह रुपए! उफ़!

एक पिक्चर में बैंक लूटने के बाद विलेन जब खुशी में ठठा कर हँसता था उसी तरह हँसने की इच्छा हो रही थी. सामने पिछले हफ्ते हुई बारिश की वजह से बन गए एक गंदले चहबच्चे में सूअर के कोई दर्जन भर बच्चे अपना मेकअप कर रहे थे और पन्द्रह रूपए थामे अतीव प्रमुदित लालसिंह कभी हमें कभी सूअर के बच्चों को देखता. लफत्तू ने बैंक डकैती का खुलासा करते हुए बताया कि दस का वह अतिरिक्त नोट भी उसने घर की दुछत्ती में मौजूद अपने बड़े भाई के उस खजाने से गायब किया था जिसे वह पापा की जेब काट काट भरा करता था.

“बला हलामी बनता ऐ थाला!” इतनी दफा पिट चुकने और जहां-तहां अपमानित किए जा चुकने के बाद लफत्तू के मन में भाई के लिए हिकारत के सिवा कुछ नहीं बच रह गया था.

अब सवाल था इतनी बड़ी रकम का किया क्या जाए. पिक्चर, बमपकौड़ा, किराए की साइकिल और घुच्ची वगैरह पर रईसों की तरह खर्च करने पर भी हद से हद दो-तीन रुपए फुंक सकने थे. लालसिंह ने स्वयंसेवी बैंकर बनने का प्रस्ताव दिया तो डकैतदल ने तुरंत अपनी सहमति दे दी. “हरामी हो पर प्यारे बहुत हो तुम सालो ...” कहते हुए लालसिंह ने जताया कि सब कुछ ठीकठाक है और हमारे सम्बन्ध उतने ही मीठे बने रहने वाले हैं.

घर जाने से पहले दूध-बिस्कुट का आख़िरी भोग लगाते हुए लालसिंह ने हमें कुच्चू और गमलू की बाबत ज़रा सा छेड़ना चाहा पर कुछ सोचकर वह चुपा गया.

***

लफत्तू के घर के सामने वाले घर में इधर जल्द ही एक नए माल के आने का चर्चा क्या छिड़ा रामनगर भर के सारे छिछोरे इस नई बला के बारे में खुसरफुसरलीन हो गए. मोहब्बत में दोहरी-तिहरी मार खा चुके मुझ जन्मजात आसिक के लिए, बावजूद लफत्तू के टूटे हुए दिल के, यह दिलासा देने वाली खबर थी. कम से कम अब यह तो न होगा कि लालसिंह की दूकान से चोरों की तरह पसू अस्पताल की तरफ मनहूस चेहरा बनाए अपनी महबूबा की एक चोर झलक पाने के चक्कर में घंटों गदहापच्चीसी में व्यस्त रहा जाए. लफत्तू के घर की खिड़की से सामने वाले घर का विहंगम दृश्य दिखाई देता था. इसी महीने उस घर में रहने वाली दो प्रौढ़ तोंदियल दंपत्ति-आत्माएं ट्रांसफर होकर कहीं चली गयी थीं. अगला किरायेदार परिवार अगले महीने आना वाला था और वह एक दफा आकर घर का मुआयना कर गया था. उक्त मुआयने के वक़्त बदकिस्मती से मैं मौके पर मौजूद न था, न ही लफत्तू. हाँ फुच्ची कहता था कि वह वहाँ था और यह भी कि आने वाले माल के “इतने बड़े बड़े हैं मने ...” कहता हुआ लार टपकाने की एक्टिंग करता हुआ वह हमें लैला मंजूर वाली नौटंकी के पोस्टर की याद दिलाना न भूलता. अलबत्ता इत्ते बड़े बड़े हमारे किसी काम के न थे. हमें तो आसिकी करनी थी – सच्ची मुच्ची वाली – हीरा खा कर जान दे देने वाली आसिकी.

लफत्तू इस नए माल के इंतज़ार को लेकर न तो उत्साहित दीखता था न आश्वस्त – हमारी बेहद अन्तरंग बातचीतों में जब भी मैं चोर दरवाज़े से कुच्चू-गमलू का ज़िक्र करता, उसका चेहरा बुझ जाया करता और ऐसा करने से अब मैं गुरेज़ करता था.

घासमंडी के मुहाने के ठीक ऊपर जिस स्पॉट पर मोर्रम की बूंदी खाते हुए हमारी सुताई हुई थी, स्कूल के छुट्टी हो जाने के कारण आज वहाँ पर समय जाया करने की नीयत से पढ़ाई का खेल चल रहा था. पढ़ाई का खेल माने सबने एक अक्षर से शुरू होने वाली चीज़ों, फिल्मों, और शहरों-देशों-नदियों इत्यादि के नाम बताने होते थे. खेल में मेरे और लफत्तू के अलावा बंटू, जगुवा पौंक और नॉन-प्लेइंग खिलाड़ी के तौर फुच्ची कप्तान और उसके साथ आया उसका छोटा भाई मुन्ना खुड्डी मौजूद थे.

नियम यह था कि अपनी बारी आने पर जवाब न दे सकने वाले को पहले ‘डी’ की पदवी हासिल होती थी. दूसरी असफलता पर यह ‘डी ओ’ हो जाती और छः पराजयों के बाद ‘डी ओ एन के ई वाइ’ यानी डोंकी यानी गधे की पदवी मिलते ही खेल से बाहर हो जाना था.

‘र’ से रामनगर ‘ब’ से बम्बई जैसी आसान राहों से चलता खेल जब तक ‘ज्ञ’ से ज्ञानपुर जैसे पड़ावों तक पहुंचा तब तक मैं और जगुवा खेल से बाहर होकर गधे बन चुके थे. बंटू और लफत्तू के बीच ‘ज’ को लेकर चैम्पियनशिप के फाइनल की जंग जारी थी. हारने की कगार पर पहुँच चुके लफत्तू ने जब ‘ज’ से दंगलात यानी जंगलात कहा तो बंटू ने विरोध जताते हुए कहा कि ऐसी कोई जगह नहीं होती. लफत्तू का दावा था कि होती है. बंटू हारने से डरता था और उसने अपनी पुरानी टैक्टिक्स अपनाते हुए झूठमूठ रोने का बहाना करते हुए घर चले जाने की धमकी दी. लफत्तू ने अपनी हार मान ली और बंटू से वापस लौटने को कहा. बंटू तुरंत लौट आया.

आगामी कार्यक्रम अर्थात पितुवा के बाग में चोरी के नीबू सानने को लेकर कोई बात चलती फुच्ची का भाई मुन्ना खुड्डी बोला – “कोई हमसे मने खेल के दिखइए न. आप तो बहुत्ते बच्चा गेम खेलते हैं.”

इस चुनौती को लफत्तू ने अन्यमनस्क तरीके से स्वीकार किया क्योंकि इस नए छोकरे को भी खताड़ी में एंट्री लेने से पहले सबक सिखाया जाना ज़रूरी था. जब दोनों खिलाड़ी कोई दस मिनट की कुलेल के बाद भी बराबरी पर थे और हम बाकी बोरियत से भर चुके थे, लफत्तू ने माहौल भांपते हुए मुझे अस्थाई जज बनाकर एक निर्णायक सवाल पूछने को कहा.

दिमाग पर खूब जोर डाल कर मैंने सबसे मुश्किल अक्षर यानी ‘ढ’ से शुरू होने वाले शहर का नाम बताने का चैलेन्ज फेंका. पहली बारी मुन्ना खुड्डी की थी. थोड़ी देर रुआंसा सा होकर वह बोला “इस से कोई नाम होता ही नहीं ... बेईमानी मत कीजिये न.”

लफत्तू ने ठठाकर कहा “ अबे याल धिकुली” – और वह जीत गया. मुन्ना की निराशा अकथनीय थी क्योंकि इन दिनों उसके पापा रामनगर से दसेक किलोमीटर दूर ढिकुली में ही बिजनेस कर रहे थे.

रुआंसे मुन्ना के बड़े भाई की हैसियत से फुच्ची ने एक और चुनौती दी – “अरे बच्चे को हरा के खुस होइएगा ... तनी एक ठो नाम और बतइए जो जानें ...”

“तू बता दे याल. मैं तो गब्बल ऊं बेते ...”

“अब टालिए नहीं न ... कह दीजिए नहीं आता बात खतम ...”

“तूतिया थाले ... तुदे अपने ई गाँव का नाम नईं मालूम - धकियातमन!”

लफत्तू को याद था कि पिछले ही हफ्ते फुच्ची ने हमें अपने गाँवनुमा कस्बे ढकियाचमन के बारे में बताया था. दोनों ढकियाचमनगौरव अपनी ही ज़मीन पर हार गए थे. इसके पहले कि उनका नैराश्य चरम पर पहुँचता लफत्तू ने सबको इस जीत की खुशी में बमपकौड़ा खिलाने की दावत दी. फुच्ची ने तनिक संशय से पहले लफत्तू को फिर हम सब को देखा.

“अले भौत पेते एं बेते गब्बल के पात. औल गब्बल अपने पेते अब बैंक में लकता ऐ ...”

फुच्ची कुछ नहीं समझा. लेकिन दावत बकायदा हुई. बौने ने पैसे नहीं मांगे और “ठीक है बाबू जी!” कह कर हमारे तृप्त शरीरों को विदा किया.

मैकेनिकों वाली गली के आगे से गुजरते हुए उसने मुन्ना के कंधे पर हाथ रख कर कहा “दलते नईं एं बेते ... किती ते नईं ... और आप थमल्लें इत्ता खलाब बखत तल्लिया दब कोई किती के कते पे पेताब बी फ़ोकत में नईं कलता ... बी यो ओ ओ ओ ओ ई ...!”