Wednesday, September 17, 2008

बास्पीकरण और तत्तान के पीते थुपा धलमेन्दल

हैलन का डान्स देखने और बमपकौड़े का लुफ़्त उठाने के ऐवज में गोलू और लफ़त्तू की बच्चा पीठों को गोलू के इंग्लिछ मात्तर पापा उर्फ़ टोड मास्साब के बेशुमार सन्टी-प्रहार झेलने पड़े थे. इस सनसनीख़ेज़ घटना के उपरान्त कई दिनों तक कनिष्ठ व वरिष्ठ टोडद्वय स्कूल नहीं आए. इस बाबत लगातार फैलाई जा रही अफ़वाहों का बोगदा फूलता ही गया, हालांकि वस्तुस्थिति की ऑथेन्टिक जानकारी किसी को नहीं थी.

अंग्रेज़ी की कक्षाएं बन्द हो गई थीं और उस पीरियड में सीनियर बच्चों को पढ़ाने वाले एक बहुत बूढ़े मास्साब अरेन्जमेन्ट के बतौर तशरीफ़ लाया करने लगे. वे बहु्त शरीफ़ और मीठे थे. वे एक प्रागैतिहासिक चश्मा पहनते जिसकी एक डण्डी थी ही नहीं. डण्डी के बदले वे एक सुतलीनुमा मोटा धागा बांधे रहते थे जो उनके एक कान के ऊपर से होकर खोपड़ी के पीछे से होता हुआ दूसरे कान पर सुसज्जित डण्डी के छोर पर किसी जुगाड़ से फंसाया जाता था. चश्मे के शीशे बहुत मोटे होते थे और लगता था कि शेरसिंह की दुकान वाले चाय के गिलासों की पेंदियों को लेन्स का काम करने हेतु फ़िट किया गया हो. उनके पास 'गंगाजी का बखान' नामक एक कल्याणनुमा किताब हमेशा रहती थी. किताब के लेखक का नाम गंगाप्रसाद 'गंगापुत्र' अंकित था. वे उसी को सस्वर पढ़ते और भावातिरेक में आने पर अजीब सी आवाज़ें निकाल कर गाने लगते.

यह रहस्य कोई एक हफ़्ते बाद लालसिंह के सौजन्य से हम पर उजागर हुआ कि गंगाप्रसाद 'गंगापुत्र' कोई और नहीं स्वयं यही बूढ़े मास्साब हैं. मास्साब का शहर में यूं भी जलवा था कि 'गंगोत्री चिकित्सालय' नाम से वे एक आयुर्वेदिक, यूनानी दवाख़ाना चलाते थे. गंगाप्रसाद 'गंगापुत्र' आकंठ गंगाग्रस्त थे और हर पीरियड में अपने महाग्रंथ से हमारी ऐसीतैसी किया करते. वे थोड़ा सा तुतलाते थे और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी में लिखी अपनी ऋचाओं को सुनाने के उपरान्त उनकी संदर्भरहित व्याख्या किया करते: "कवि कैता है कि प्याली गंगे, मैं तो तेरा बच्चा हूं! और गंगामाता कवि से कैती है कि मेरे बच्चे मैं तो तेरी मां हूं! फिर कवि कैता है कि प्याली गंगे, हमने तुज पे कित्ते अत्याचार किए ..."

एक साइड से लफ़त्तू की दबी सी आवाज़ आती: "जित का बत्ता इत्ता बुड्डा है वो गंगा कित्ती बुड्डी होगी बेते! दला पूतो तो प्याली मात्तर ते!" गंगाप्रसाद 'गंगापुत्र' के कानों पर जूं भी नहीं रेंगती और उनका प्याली गंगे पुराण रेंगता जाता. लालसिंह ने यह भी बाद में बताया कि मास्साब को दिखाई भी बहुत कम देता है और सुनाई भी. लफ़त्तू ने गंगाप्रसाद 'गंगापुत्र' का नामकरण 'प्याली मात्तर' कर दिया था और यह नाम सीनियर्स तक में चर्चा का और जूनियर्स में लफ़त्तूकेन्द्रित ईर्ष्या का विषय बन गया.

इधर कुछ व्यक्तिगत कारणों से दुर्गादत्त मास्साब लम्बे अवकाश पर चले गए थे और टोड मास्साब की क्लास के तुरन्त बाद पड़ने वाले उनके वाले पीरियड में भी यदा-कदा प्याली मात्तर हमारी क्रूरतापूर्ण हर-हर गंगे किया करते थे. लफ़त्तू लगातार बोलता रहता था और पिक्चरों की कहानी सुनाना सीख चुकने के अपने नवीन टेलेंट पर हाथ साफ़ किया करता: "... उत के बाद बेते, हौलीतौप्तल छे धलमेन्दल भाल आया और उतने अदीत छे का - तुम थब को तालों तलप छे पुलित ने घेल लिया ऐ, अपनी पित्तौल नीते गेल दो. ... उतके बाद बेते अदीत एक तत्तान के पीते थुप के धलमेन्दल छे कैता है - मुदे मालने ते पैले अपनी अम्मा की लाछ ले दा इन्पैत्तल! ... धलमेन्दल कैता है कुत्ते थाले, मैं तेला खून पी दाऊंगा ... "

एक तरफ़ से तोतली हर-हर गंगे, दूसरी तरफ़ से धरमेन्दर और अजीत के क्लाइमैक्स वाले तोतले ही डायलॉग्स और बाकी दिशाओं से स्याही में डूबी नन्ही गेंदों का फेंका जाना - यह नित्य बन गया दृश्य जब एक दिन हमारी कक्षा के पास से टहलते जा रहे प्रिंसीपल साहब ने देखा तो वे पीतल के मूठवाली अपनी आभिजात्यपूर्ण संटी लेकर हम पर पिल पड़े. जब तीन चार बच्चों ने दहाड़ें मार-मार कर रोना चालू किया, तब जाकर प्याली मात्तर ने गंगपुराण बन्द किया और आंखें उठाकर नवागंतुक प्रिंसीपल साहब की आकृति को श्रमपूर्वक पहचाना. कुछ औपचारिक बातचीत के बाद दोनों गुरुवर कुछ गहन विचार विमर्श करते हुए कक्षा के बाहर दरवाज़े पर खड़े हो गए. इतने में प्रिंसीपल साहब के मामा यानी मुर्गादत्त मास्साब उर्फ़ परसुराम वहां से पान चबाते निकले. क्लास के बाहर खड़े प्रिंसीपल साहब और प्याली मात्तर को वार्तालापमग्न देख उन्होंने पीक थूकी और उक्त सम्मेलन में भागीदार बनने की नीयत से उस तरफ़ आने लगे.

दरवाज़े पर मुर्गादत्त मास्साब ने "प्रणाम कक्का" कहते हुए प्याली मात्तर के पैर इस शैली में छुए मानो उनकी जेब काट रहे हों या होली के टाइम किया जाने वाला आकस्मिक मज़ाक कर रहे हों. प्रिंसीपल साहब की तरफ़ उन्होंने एक बार को भी नहीं देखा और आधे मिनट से कम समय में सारी बात समझ कर प्रिंसीपल साहब के हाथ से संटी छीनी और "अभी देखिये कक्का" कहते हुए हम पर दुबारा हाथ साफ़ किया. "अपनी मां-भैंनो से पूछना हरामज़ादो मैं तुम्हारे साथ क्या-क्या कर सकूं हूं. और खबरदार जो साला एक भी भूतनी का रोया तो!" एक हाथ से संटी को मेज पर पटकते और दुसरे से अपने देबानन-स्टाइल केशझब्ब को सम्हालते उन्होंने इतनी तेज़ आवाज़ निकाली कि अगल-बगल की सारी क्लासों के अध्यापक बाहर आकर कक्षा छः (अ) की दिशा में ताकीकरण-कर्म में तल्लीन तथा व्यस्त हो गए.

घन्टा बजने के बाद मास्टरों के तिगड्डे के लिए हम जैसे मर गए. वे ख़रामा-ख़रामा मुर्गादत्त मास्साब का अनुसरण करते किसी दिशा में निकल पड़े. "छाला हलामी लाजेस्खन्ना का बाप!" औरों को बचाने के चक्कर में अपने पृष्ठक्षेत्र पर असंख्य संटियां खा चुके लफ़त्तू ने ज़मीन पर थूका. "इत्ते तो दुल्गादत्त मात्तर छई है याल!"

लफ़त्तू की दुआ सुनी गई और अगले रोज़ प्याली-गंगे की चाट का ठेला उठते ही अपने पुरातन धूल खाए कोट और हाथों मे सतत विराजमान कर्नल रंजीत समेत दुर्गादत्त मास्साब सशरीर उपस्थित थे.

"टेस्टूपें कल ले आबें सारे बच्चे! और दस-दस पैसे भी!" अटैन्डेन्स से उपरान्त यह कहकर वे उपन्यास पढ़ने ही वाले थे कि उन्हें पता नहीं क्या सूझा. उन्होंने उपन्यास जेब के हवाले किया और कुर्सी पर लधर गए. "मैं मुर्दाबाद गया था बच्चो! मुर्दाबाद भौत बड़ा सहर है. और हमाये रामनगर जैसे, आप समल्लें, सौ सहर आ जावेंगे उस में."

मुरादाबाद में दुर्गादत्त मास्साब की ससुराल थी जहां उनके ससुर दरोगा थे. इतनी सी बात बताने में उन्होंने बहुत ज़्यादा फ़ुटेज खाई और हमें छोटे क़स्बे का निवासी होने के अपराधभाव से लबरेज़ कर दिया. आख़िर में उन्होंने एक क़िस्सा सुनाया: "परसों मैं और मेरा साला जंगल कू गए सिकार पे. और सिकार पे क्या देखा तीन बब्बर सेर रस्ता घेरे खड़े हैं. जब तक कुछ समजते तो देखा कि दो बब्बर सेर पीछे से गुर्राने लगे. हमाये साले साब तो, आप समल्लें, व्हंई पे बेहोस हो गए. मैंने सोची कि दुर्गा आत्तो तेरी मौत हो गई. मुझे तुम सब बच्चों की याद भी आई. मैंने सोची अगर मैं मर गया तो तुमें बिग्यान कौन पढ़ाएगा. और टेस्टूपें भी बेकार जावेंगी. मैंने दो कदम आगे बढ़ाए तो सबसे बड़ा सेर बोला: 'मास्साब आप जाओ! हम तो सुल्ताना डाकू का रस्ता देख रये हैं.' अब मेरी जान में जान आई मगर साले साब तो बेहोस पड़े थे. तब उसी बड़े सेर ने हमाये पीछे खड़े एक सेर से कई कि साले साब को अपनी पीठ पे बिठा के जंगल के कोने तक छोड़िआवे. तो आप समल्लें कि जंगल का छोर आने को था कि साले साब को होस आ गया. मेरे पीछे सेर ऐसे चलै था जैसे कोई पालतू कुत्ता होवे. साले साब की घिग्घी बंध गई जब उन्ने खुद को सेर की पीठ पे देखा. ..."

क़िस्सा ख़त्म होते न होते घण्टा बजा और मास्साब ने हमें बताया कि कैसे साले साहब की जान बचाने की वजह वे से मुरादाबाद में रामनगर का झंडा फ़हरा कर लौटे हैं. सारे बच्चे नकली ठहाके लगा कर ताली पीटने लगे. उनका क़िस्सा कोरी गप्प था पर दुर्गादत्त मास्साब जैसे ज़ालिमसिंह के मुंह से उसे सुनना ख़ुशनुमा था. इस पूरे पीरियड में लफ़त्तू मास्साब के नए जुमले "आप समल्लें" को पकड़ने वाला पहला बच्चा था: "आप छमल्लें मात्ताब छमज लये हम थब तूतियम छल्फ़ेत हैं."

तूतियम छल्फ़ेत यानी चूतियम सल्फ़ेट हमारे जीवन में अग्रजों के रास्ते पहुंची पहली कैमिकल गाली थी. अगले ही दिन पता चला कि दुर्गादत्त मास्साब भी इस गाली के दीवाने थे.

अगले दिन अटैन्डेन्स दुर्गादत्त मास्साब ने ली. इस दौरान लालसिंह ने सारे बच्चों से दस-दस के सिक्के इकठ्ठे किये और बन्सल मास्साब की दुकान से जल्दी जल्दी दो थैलियां ले कर वापस लौटा. एक थैली में चीनी थी और दूसरी में नमक.

मास्साब के पीछे-पीछे हम सब क़तार बना कर परखनलियों की अपनी-अपनी जोड़ियां लेकर परजोगसाला की तरफ़ रवाना हुए. परजोगसाला-सहायक चेतराम ने मास्साब को नमस्ते की और हिकारत से हमें देखा. हलवाई के उपकरणों, भूतपूर्व बारूदा-बीकरों वाली मेज़ों और कंकाल वाली अल्मारियों के आगे एक बड़ा दरवाज़ा था. इसी के अन्दर थी परजोगसाला की रसायनविज्ञान-इकाई. विचित्रतम गंधों से भरपूर इस कमरे में तमाम शीशियों में पीले, हरे, नीले, लाल, बैंगनी द्रव भरे हुए थे. बीकर और कांच के अन्य उपकरणों की उपस्थिति में वह सचमुच साइंस सीखने वाली जगह लग रही थी.

तनिक ऊंचे एक प्लेटफ़ॉर्म पर मास्साब खड़े हुए. लालसिंह के हाथ से चीनी-नमक लेकर उसे चेतराम को थमा कर मास्साब ने गला खंखार कर कहना शुरू किया: "बच्चो, आज से हम बास्पीकरण सीखेंगे. चाय बनाते हुए जब पानी गरम किया जावे है तो उसमें से भाप लिकलती है. इसी भाप को साइंस में बास्प कहा जावे है. और अंग्रेज़ी में आप समल्लें इस का नाम इश्टीम होता है. चाय की गरम पानी को कटोरी से ढंक दिया जावै तो भाप बाहर नईं आ सकती और कटोरी गीली हो जा है. और जो चीज़ गीली होवै उसे द्रब कया जावे. द्रब से भाप बने तो बिग्यान में उसे बास्पीकरण कैते हैं और जब भाप से द्रब बने तो द्रबीकरण. आज हम परजोग करेंगे बास्पीकरण का."

चेतराम चीनी और नमक को अलग-अलग ढक्कन कटे गैलनों में पानी में घोल चुका था और मास्साब को देख रहा था. "अब सारे बच्चे अपनी टेस्टूपों में अलग - अलग नमक और चीनी का घोला ले लेवें और चेतराम जी से सामान इसू करा लें."

चेतराम ने हर बच्चे को परखनली पकड़ने वाला एक चिमटा और एक स्पिरिट-लैम्प इसू किया. हमने इन उपकरणों की मदद से दोनों परखनलियों के घोले को सुखाना था. यह कार्य बहुत जल्दी-जल्दी किया गया. स्पिरिट लैम्प की नीली लौ पर टेस्टूप में खदबदाते पानी को देखना मंत्रमुग्ध कर लेने वाला था. मास्साब बता चुके थे कि परजोग की कक्षा दो पीरियड्स तक चलनी थी. लफ़त्तू जैसा बेचैन शख़्स तक मन लगा कर परखनली पर निगाहें टिकाए था.

कुछ देर बाद सारा पानी सूख गया और परखनलियों के पेंदों में बर्फ़ जैसी सफ़ेद तलछट बची. यह नमक और चीनी था जिसे हमने बरास्ता बास्पीकरण नमक और चीनी से ही बनाया था. दूसरा घन्टा बजने में बहुत देर थी और स्पिरिट लैम्पों के साथ कुछ और करने की इच्छा बहुत बलवती हो रही थी. लफ़त्तू ने यहां भी अवांगार्द का काम किया और रंगीन शीशियों से दो एक द्रब निकालकर परखनली में गरम करना शुरू किया. लफ़त्तू की देखादेखी एक-एक कर सारे बच्चों ने अलग - अलग रसायन-निर्माण का प्रोजेक्ट उठा लिया. हवा में अजीबोग़रीब गंधें और धुंए फैलना शुरू होने लगे. इस का पहला क्लाइमैक्स एक मुन्ना टाइप बच्चे की टेस्टूप के 'फ़टाक' से फूटने के साथ हुआ.

इसे सुनते ही दुर्गादत्त मास्साब का "हरामज़ादो!" कहते हुए उपन्यास छोड़ना था और सारे बच्चों ने स्पिरिट लैम्पों से हटाकर अपनी टेस्टूपें लकड़ी के स्टैंडों में धंसा दीं. लाल आंखों से एक-एक बच्चे को घूरते दुर्गादत्त मास्साब सारी क्लास से कुछ कहने को जैसे ही लफ़त्तू के पास ठिठके, लफ़त्तू के बनाए रसायन वाली परखनली से तेज़-तेज़ धुंआ निकलना शुरू हुआ. मास्साब की पीठ उस तरफ़ थी. घबराया हुआ लफ़त्तू परजोगसाला से द्वार तक लपक चुका था. अचानक से परखनली और भी तेज़ फ़टाक के साथ चूर-चूर हो गई. मास्साब घबरा कर हवा में ज़रा सा उछले. पलटकर उन्होंने "साले चूतियम सल्फ़ेट! इधर आ हरामी!" कहकर लफ़त्तू को मारने को अपना हाथ उठाया पर तब तक लफ़त्तू संभवतः बौने के ठेले तक पहुंच चुका था.

"जिस साले ने मुझ से पूछे बिना एक भी सीसी छुई तो सारी सीसियां उसकी पिछाड़ी में घुसा दूंगा. अब चलो सालो फ़ील्ड पे ..."

लतियाते-फटकारते हमें फ़ील्ड ले जाया गया जहां तेज़ धूप में मुर्गा बना कर हमारे भीतर बची-खुची वैज्ञानिक-आत्मा के बास्पीकरण का सफल परजोग सम्पन्न हुआ.

Thursday, September 11, 2008

फ़ुच्ची कप्तान की आसिकी

लफ़त्तू के साथ पढ़ाई-लिखाई से सम्बन्धित बहुत ज़्यादा बातें नहीं होती थीं. हां, यदि घर से कोई चीज़ स्कूल ले कर जानी होती जैसे बारूदा एक्स्पेरीमेन्ट के लिए बीकर या सिरीवास्तव मास्साब की सिलाई-कक्षा हेतु पिलाश्टिक का अंगुस्ताना तो लफ़त्तू के लिए वे चीज़ें मैं लेकर जाया करता. इस कार्य को मैं मित्रतापूरित उत्साह के साथ अंजाम देता. हम दोनों के बीच इस तरह की कोई समझौता वार्ता नहीं हुई थी पर एक आपसी अंडरस्टैंडिंग थी कि लफ़त्तू की चीज़ें ख़रीदने के लिए मैं मां से झूठ बोल लेता था जबकि बौने के ठेले पर होने वाले हमारे बमपकौड़ायोजनों में अपने पापा की जेब से चुराए पैसों से लफ़त्तू पेमेन्ट किया करता.

इधर के दिनों में टौंचा-उस्ताद बागड़बिल्ले का कार्यक्षेत्र खताड़ी से आगे भवानीगंज तक पसर चुका था. बागड़बिल्ले के कुशल नेतृत्व और निर्देशन में वरिष्ठ-कनिष्ठ दोनों प्रकार के लफ़ंडर लौंडे घुच्ची के खेल को रामनगर की गली-गली में फैला देने के महती अनुष्ठान में जान दे देने के हौसले के साथ तन-मन और पांच पैसे के सिक्कों के साथ जुट चुके थे. बड़े भाइयों-चाचाओं-मामाओं इत्यादि द्वारा कभी किसी लड़के के साथ सद्यःघटित सार्वजनिक मारपीटीकरण और अपमानीकरण की अफ़वाहें तमाम मसालों मे लपेटकर हमारे इन्टरवल-सम्मेलनों का विषय बनतीं पर इन सब से उदासीन और अभूतपूर्व जिजीविषा से लबालब ये जांबाज़ जिस खेल पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का क़ौल उठा चुके थे, उस से उन्हें अब परमपिता भी विरत नहीं कर सकता था.

यही दिन थे जब अपने अनुभव-जगत की विस्तृतता के कारण लफ़त्तू मुझे, मेरा हमउम्र होने के बावजूद, अपने से बहुत-बहुत बड़ा लगने लगा था. इधर उसने नियमित रूप से क्लास गोल करने का रिवाज़ चलाया जो घुच्चीप्रेरित बच्चों में जल्दी पॉपुलर हो गया. लफ़त्तू बागड़बिल्ले का अच्छा दोस्त था और उसके कॉन्फ़ीडेन्स और तोतले किन्तु प्रभावकारी वाकचातुर्य के कारण उसकी उपस्थिति की क्लास में बास्पीकरण सीखने में नहीं बल्कि घुच्ची-अभियान के प्रचार-प्रसार में अधिक दरकार होती थी.

डरना लफ़त्तू ने अब और भी कम कर दिया था. अपने पापा की अंग्रेज़ी की उन्हीं के मुंह के सामने ऐसी-तैसी फेर चुकने के बाद से अब उसने गब्बर का डायलॉग मारना भी बन्द कर दिया था. वह इस मामले में अब बहुत कर्मठ हो चुका था.

छत पर क्रिकेट खेलते हुए लफ़त्तू की उपस्थिति लगातार कम होती जा रही थी और हमें उसमें मज़ा आना क़रीब-क़रीब बन्द हो गया था. कभी-कभी मैं और बंटू बैट-बल्ला छोड़ छत से भावपूर्ण मुद्रा में खेल मैदान को देखा करते और फिर किसी क्षण सड़क पर आकर घासमण्डी का रुख़ करते.शाम के समय घूमने जाने को घर से थोड़ा दूर अवस्थित घासमण्डी को बंटू के पापा ने हमारी लिमिट तय किया हुआ था. घासमण्डी की सरहद पर मरियल कुत्तों की तरह खड़े, मजबूत आवारा कुत्तों को बेख़ौफ़ लड़ते-भौंकते देखते हुए से हम 'असफाक डेरी सेन्टर और केन्द्र' के सामने वाली गली की तरफ़ निगाह चिपका लेते. बहुत संजीदगी से अपने हाथों से भंगिमाएं बनाते, नवघुच्चीवादियों के लैक्चर देते या स्वयं घुच्ची खेलते लफ़त्तू की झलक देखने को मिल जाती तो हमें अजीब-अजीब लगने लगता. हमारी मानसिक हालत किसी असहाय, विवश ग़ुलाम की सी होती और हम बहुत मनहूस चेहरों के साथ, क़रीब-क़रीब रोते हुए वापस लौटते.

जिस दिन हमारे लिए ख़ास फ़ुरसत निकालकर लफ़त्तू क्रिकेट खेलने आता, उसके पास हमें बताने को बेतहाशा क़िस्से होते. खताड़ी में अपना झंडा गाड़ चुकने के बाद कैसे उसने भवानीगंज में अपना सिक्का जमा लिया था, यह हमारे लिए रश्क का विषय होता. उसके चमत्कार-लोक में प्रवेश कर पाने की हमारी आकुलता से भरपूर उत्कंठा और भी बलवती हो जाया करती.

इधर लफ़त्तू की अंतरंग मित्रमंडली का विस्तार हो चुका था. उसकी बातों से ज्ञात होता था कि फ़ुच्ची कप्तान नामक एक नए आए लड़के का उसके जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ चुका था.

फ़ुच्ची के पापा रेडीमेड कपडों और प्लास्टिक के जूतों की रेहड़ी लगाते शहर-दर-शहर भटका करते थे. उसी क्रम में वे कुछ समय पहले रामनगर आ बसे थे. उनकी भाषा बहुत ज़्यादा देसी थी. फ़ुच्ची हमसे तीनेक साल बड़ा रहा होगा. शहर-शहर, नगर-नगर घूम चुकने के बाद उसका अनुभव-जगत बहुत संपन्न था और हम सबकी स्पृहा का बाइस भी. 'छठी फ़ेल' की उच्चतम शिक्षाप्राप्त फ़ुच्ची बहुत सांवला था और बात-बात पर "मने, मने" कहता था.

उसका नाम फ़ुच्ची धरे जाने का क़िस्सा लफ़त्तू ने हमें मौज ले ले कर सुनाया था. किसी गली में घुच्ची खेल रहे लौंड-समूह के पास जाकर उसने पूछा:"मने इस खेल की नाम बतइये तनिक!" नाम बताए जाने पर उसने किसी ख़लीफ़ा की तरह जेब से पांच के सिक्के निकालते हुए कहा: "हम भी खेलेंगे फ़ुच्ची!"

"अबे फ़ुच्ची नहीं घुच्ची! घुच्ची ... घुच्ची!" लौंडसमूह के अंतरंगतापूर्ण सामूहिक अट्टहास में इस कलूटे देसी लड़के को फ़ुच्ची नाम से आत्मसात कर लिया गया.

फ़ुच्ची के साथ 'कप्तान' की पदवी दिए जाने का कारण स्वयं फ़ुच्ची की एक आदत में छिपा हुआ था. अपनी वाकपटुता के कारण वह हर जगह दिखाई देने लगा था. बच्चे जहां कहीं कुछ भी खेल रहे होते थे, वह वहां पहुंच जाता और फट से दो टीमों का निर्माण कर देता. "अपनी टीम के कप्तान हम बन गए, बाकी वाले अपना छांट लें!" - यह उसका तकिया कलाम था और अन्ततः उसके नाम के साथ नेमेसिस की तरह जुड़ गया.

रामनगर में इतने समय से खेलते हुए हमें कभी कप्तानी जैसे विषय पर सोचने की प्रेरणा तक नहीं मिली थी और फ़ुच्ची ने आते ही खु़द को आधे बच्चों का कप्तान बना लिया. इस से उसका क़द, इज़्ज़त और नाम तीनों की लम्बाई बढ़ी. कप्तानी के साथ फ़ुच्ची ऑब्सेशन की हद तक जुड़ा हुआ था. हरिया हकले के मकान से होते हुए हमारी छत तक पहुंचने का रास्ता उसे लफ़त्तू बता चुका था. एकाध बार उसने मेरे साथ बैटमिन्डल भी खेली थी. छत पर हम दो ही थे. उसने कहा: "इधर वाले के कप्तान हम. और उधर वाले का मने आप छांट लें!" मेरा मन कुढ़न और खीझ से भर गया था पर मुझे चुप रहना पड़ा क्योंकि कुछ भी हो फ़ुच्ची उन दिनों मेरे उस्ताद लफ़त्तू का उस्ताद बना हुआ था.

एक दिन देर शाम को सियार की सी आवाज़ निकालते हुए लफ़त्तू ले घर के बाहर "बी ... यो ... ओ ... ओ ... ई" का लफ़ाड़ी-संकेत किया तो डरते-सहमते मैं ज़ीना उतर कर बाहर निकला. हांफ़ते हुए लफ़त्तू ने मुझे काग़ज़ का एक पर्चा थमाया और वापस भागता हुआ बोला: "इत को थीक कल देना याल. कल छुबै फ़ुत्ती को देना है!"

मैंने वापस आकर होमवर्क में मुब्तिला होने का बहाना बनाया और पर्चा किताब के बीच छिपा लिया. हालात सामान्य होते ही मैंने पर्चा खोला. लफ़त्तू की अद्वितीय हैंडराइटिंग सामने थी.

जैसे बचा खुचा ज़रा सा भात आवारा बिल्लियों के लिए धूप में रखे जाने और न खाये जाने पर टेढ़े-मेढ़े कणों में बदल जाता है, कुछ वैसी ही हैंडराइटिंग में लफ़त्तू ने फ़ुच्ची के बदले लिखा था:

"मेरी चीटडी पड के नराज न होना.

मे तुमरा आसिक हु.

सादी कर.

तुमरा

फुच्चि"


उफ़! यानी लवलैटर! मेरे सामने जीवन में देखा गया पहला प्रेमपत्र पड़ा हुआ था - यह दीगर बात थी कि वह प्रॉक्सी था और मुझे उसे "थीक" करना था.

पहले तो मैंने लफ़त्तू के प्रति ज़रूरत से ज़्यादा कृतज्ञताभाव महसूस किया कि उसने इस अतिमहत्वपूर्ण प्रोजेक्ट के लिए मुझे छांटा. उसके बाद मैं उस बदनसीब पर्चे को अपना लिखा पहला प्रेमपत्र बनाने के प्रयासों में जुट गया. मैंने अपने मन में तब तक देखी गई सारी फ़िल्मों और सुने गए सारे गानों की फ़ेहरिस्त बनाई और रात को ज़्यादा होमवर्क मिले होने का झूठ बोलते हुए देर तक जग कर अन्ततः एक आलीशान इज़हार-ए-मोहब्बत लिख मारा. शुरू में मैंने सकीना को संबोधित किया, पर उसके बहुत छोटी होने के कारण मेरी कल्पना सीमित हो जा रहि थी, सो बाद का हिस्सा मेरी नई प्रेमिका मधुबाला मास्टरानी से मुख़ातिब था. अन्त में "आपका अपना फ़ुच्ची" लिखने से पहले मैंने चांद-तारे तोड़ लाने की बात लिखी थी.

सुबह स्कूल जाते हुए कांपते हाथों से मैंने लफ़त्तू को उसकी "चीटडी" थमाई. उसने मुझे एक मिनट रुकने को कहा. वह भागता हुआ घासमंडी की तरफ़ गया और मिनट से पहले वापस आ गया. वापस भागते हुए वह बार-बार मुझे आंख मार रहा कि काम बन गया, चिट्ठी फ़ुच्ची को डिलीवर हो गई.

सांस थमने के बाद वह बोला "बले आतिक बन लए फ़ुत्ती! लौंदियाबाद छाले! तित्ती लिकाने को बोल्ल्या ता तो मैंने कया अतोक लिक देगा." उसने पहली बार अहसानमन्द होते हुए मेरा हाथ दबाया.

स्कूल आने पर उसने हाथी जैसा चेहरा बनाते हुए, ब्रह्मवाक्य जारी करते हुए कहा "बलबाद हो जागा फ़ुत्ती!"

असेम्बली के बाद इन्टरवल के बीच चार पीरियड काटना मेरे लिए एक युग बिताने जैसा हुआ. यानी कोई लड़की है जो फ़ुच्ची को भा गई है. फ़ुच्ची जैसे कलूटे कप्तान का प्यार में गिर पड़ना मेरे लिए अविश्वसनीय था. कौन-कैसी होगी वह - विषय पर सोचते हुए मुझे कई विचार आए.

कहीं ऐसा तो नहीं कि फ़ुच्ची मेरा पत्ता काट कर मधुबाला को चिट्ठी दे आने की फ़िराक में हो. आजकल बैटमिन्डल खेलने वो जभी आता है जब मास्टरनी ट्यूशन पढ़ा रही होती है. और मधुबाला क्या जाने कि चिट्ठी फ़ुच्ची ने नहीं मैंने लिखी है.

पछाड़ें मारती, बेकाबू रोती, गिरती-पड़ती, आत्महत्या का ठोस फ़ैसला ले चुकी हीरोइन का विम्ब अब मेरे मन में प्यार-मोब्बत की सघनतम इमेज के रूप में स्थापित हो चुका था. क्या मधुबाला वैसा कुछ करेगी?

मेरा मन फ़ुच्ची की शकल नोंच लेने का हो रहा था.

अगर मधुबाला तक वाक़ई फ़ुच्ची ने चिट्ठी पहुंचा दी और उसने ज़हर खा लिया तो लफ़त्तू इस सारे मामले पर कैसे रियेक्ट करेगा?

...

इन्टरवल का घन्टा बजते ही लफ़त्तू मुझे घसीट कर बौने के ठेले पर ले गया. फ़ुच्ची हमें प्रतीक्षारत मिला. बिना किसी दुआ सलाम के लफ़त्तू ज़ोर से बोला: "आत के पैते फ़ुत्ती देगा!" उसने पहले मुझे, फिर क्रमशः बौने और फ़ुच्ची को आंख मारी. बौना पत्तल बनाने लगा और हमारा महाधिवेशन चालू हो गया.

"दखिये, इतना तो हम समझ लिए कि आप को अच्छा लिखना आती है. मगर आप मने ये क्या आपका अपना ढिम्मक ढमकणा लिखे! अरे जिन्दगानी का बात है. हम तो फैसला किए हैं के आज चिट्ठी और कल सादी. ... अरे तनी कोई सेर-ऊर तो लिखिए न! ... सायरी-दोहा वगेरा ..."

उसने जेब से सलीके से मोड़ा हुआ पर्चा निकाला और वहीं नीचे बैठ कर अपनी जांघ पर फैला लिया.

मेरे पत्र में यह सुधार किया गया था कि सबसे ऊपर पानपत्रद्वय अंकित कर दिए गए थे - एक के भीतर लिखा था 'एफ़' दूसरे के भीतर 'टी'. एक टेढ़ा तीर दोनों पत्रों को जोड़ रहा था और 'टी' वाले जोड़बिन्दु से दो बूंदें टपक रही थीं. इन विवरणों को मैंने चोर निगाह से ताड़ लिया और मन अचानक टनों बोझ उतर जाने जितना हल्का हो गया. 'एफ़' माने फ़ुच्ची. और 'टी' माने कोई भी, मधुबाला नहीं.

"याल बलिया छायली लिक कोई फ़ुत्ती भाई की तरप से. भाबी खुत हो जाए कैते बी! क्यों फ़ुत्ती बाई?" लफ़त्तू 'टी' को भाभी कह रहा था - यानी मामला वाक़ई संजीदा था.

मैं भी फ़ुच्ची का लाया लाल कलम ले कर संजीदा हो गया. "आपका अपना फ़ुच्ची" के नीचे 'दोहा' लिख कर मैंने अंडरलाइन कर दिया. मैं मधुबाला की याद और प्रेरणा की प्रतीक्षा कर रहा था . लफ़त्तू और फ़ुच्ची झल्लाहट, उम्मीद और बेकरारी से मेरा मुंह ताक रहे थे. आख़िरकार वह क्षण आ ही गया. दोहा लिखने के बाद प्रसन्नता के अतिरेक में कांपते सद्यःप्रेमग्रस्त फ़ुच्ची ने हमें एक-एक बमपकौड़ा और टिकवाया.

दोहा था:

"अजीरो ठकर अब कां जाइयेगा
जां जाइयेगा मुजे पाइयेगा"

Thursday, September 4, 2008

इंग्लिछ मात्तर का बेता हो के लोता है बेते!

टोड मास्साब की पढ़ाई अंग्रेज़ी ज़्यादातर बच्चों की समझ में नहीं आती थी. क्लास के अधिकतर बच्चे नॉर्मल स्कूल या बम्बाघेर नम्बर दो के सरकारी प्राइमरी स्कूल से पांचवीं पास थे. इन स्कूलों में अंग्रेज़ी नहीं सिखाई जाती थी. लफ़त्तू, मैं और क़रीब बीसेक बच्चे मान्टेसरी स्कूल या शिशु मन्दिर से आए थे जहां पहली ही कक्षा से इसे सिखाए जाने पर ज़ोर था.

टोड मास्साब की कक्षा में अंग्रेज़ी वाली कापी में ए बी सी डी लिखाने से शुरुआत हुई. मास्साब का लड़का गोलू भी हमारे साथ था और उसकी पढ़ाई बम्बाघेर नम्बर दो में हुई थी. जाहिर है गोलू को भी ए बी सी डी नहीं आती थी. और यह सर्वज्ञात तथ्य टोड मास्साब के ग़ुस्से और झेंप का बाइस बना करता था.

लफ़त्तू को गोलू से संभवतः इसलिए सहानुभूति थी कि गोलू हकलाता था. पहली बार कक्षा में पिता द्वारा सबके सामने पीटे जाने और जलील किए जाने के बाद गोलू इन्टरवल में रो रहा था. अपने पापा की जेब पर सफलतापूर्वक हाथ साफ़ करके आया लफ़त्तू मुझे बौने का बमपकौड़ा खिलाने ले जा रहा था जब उसकी निगाह गोलू पर पड़ी.

"इंग्लिछ मात्तर का बेता हो के लोता है बेते!" कह कर उसने गोलू को मोहब्बतभरी तोतली डांट पिलाते हुए बमपकौड़ा अभियान का हिस्सा बना लिया. " मेले पापा तो मुदे लोज धूनते हैं, मैं कोई लोता हूं कबी! गब्बल छे छीक बेता गब्बल छे: जो दल ग्या वो मल ग्या बेते." किंचित सहमा हुआ, लार टपकाता गोलू कभी लफ़त्तू के कॉन्फ़ीडेन्स को देखता कभी हरे पत्ते में सजे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ, स्वादिष्टतम बम-पकौड़े को. कभी उसकी निगाह स्कूल की तरफ़ उठ जाती.

"ततनी दालियो हली वाली औल लाल मिल्चा" कहकर उसने अपना पत्तल बौने के सामने किया. "अभी लेओ बाबूजी" बौना सदा की तरह तत्परता से बोला. यह लफ़त्तू की ख़ास अदा थी जब वह मिर्चा खा पाने की अपनी कैपेसिटी से सामने वाले को आतंकित किया करता. उसकी तनिक पिचकी नाक से एक अजस्र धारा बह रही होती थी पर वह बौने से कहता: "औल दो!"

गोलू के हावभाव बता रहे थे कि वह पहली बार इस प्रकार के कार्यक्रम में हिस्सेदरी कर रह था. पिता की झाड़ और संटी की मार भूलकर वह ज्यों त्यों पकौड़ा निबटाने में लगा था. मैं और गोलू नए खेल के पोस्टर देखने में मशगूल थे.

"नया खेल लगा है बाबूजी! आज ही शुरू हुआ है." अपनी कलाई पर बंधी कोयले और धुंए जैसे डायल वाली, सुतली से कलाई में लपेटी घड़ी पर निगाह मारते हुए बौने ने आगामी बिज़नेस की प्रस्तावना बांधना चालू किया, "हैलन का डान्स हैगा इस में. अभी चल्लिया होगा. आपके इस्कूल में तो अभी टैम हैगा. देखोगे बाबूजी?" इस आश्वस्तिपूर्ण वक्तव्य में इसरार कम था नए ग्राहक को फंसाने की चालबाज़ी ज़्यादा. "नए वाले बाबूजी से क्या पैसा लेना."

लफ़त्तू ने जेब से दो का नोट निकाला और जब तक वह गोलू को पिक्चर देखने का तरीक़ा बताता, मेरी निगाह अपने घर की छत पर गई. मां कपड़े सुखाने डाल चुकने के बाद बाहर देख रही थी. मुझ डरपोक को लगा कि वह सीधा हमें ही देख रही है. मैं बिना बताए जल्दी-जल्दी क्लास की दिशा में बदहवास भाग चला. इस हड़बड़ी में कक्षा के दरवाज़े पर मैं सीधा अपने बड़े भाई से टकरा गया जो मुझे इन्टरवल के बाद घर बुलाने आया था. मेरे ध्यान में नहीं रहा था कि उस दिन हमें गर्जिया मंदिर लाना था. सामने से सिलाई वाले सिरीवास्तव मास्साब आते दिखे तो भाई ने उन्हें एक कागज़ दिखाया. उनके मुंडी हिलाने पर हम घर की दिशा में चल पड़े.

लफ़त्तू और गोलू के साथ क्या बीती होगी - यह मेरी कल्पना की उड़ान के लिए बहुत बड़ी थीम थी.

हम शाम को घर लौटे. थोड़ी ही देर बाद दरवाज़े पर लफ़त्तू के पापा मौजूद थे. मैं बेतरह डर गया और थरथर कांपने लगा. लेकिन वे मेरे लिए जोकर के मुंह वाला मीठी सौंफ़ का डिब्बा लाए थे. डब्बा लेकर मैं छत पर बंटू के साथ क्रिकेट खेलने चला गया. बंटू नई गेंद लाया था और हमारा स्वयंसेवक अम्पायर महान लफ़त्तू हरिया हकले की छत फांदता आ रहा था.

बहुत ही अनौपचारिक तरीके "क्या कैलये मेले पापा" पूछते हुए उसने बंटू से गेंद ली और "खेल इश्टाट" का ऑर्डर दिया. मैं बैटिंग कर रहा था पर मेरा मन बेहद व्याकुल था. जाहिर है लफ़त्तू जानता था कि उसके पापा मेरे घर में बैठे पिताजी से बात कर रहे थे. स्कूल में गोलू के अन्जाम की खौ़फ़नाक कल्पनाओं में मैं रामनगर-गर्जिया-रामनगर यात्रा में चिन्ताग्रस्त रहा था.

मैं पहली बॉल पर आउट होता रहा और बंटू ख़ुशी ख़ुशी मेरी गेंदों की धुनाई करता रहा. देर से शुरू हुआ खेल जल्दी निबट गया. घर जाने से पहले लफ़त्तू ने कमीज़ ऊपर की और पीठ पर पड़े नीले निशानों की मारफ़त सूचना दी कि उसकी और गोलू की टोड मास्साब ने संटी मार-मार कर खाल उधेड़ डाली थी. उसके बाद लफ़त्तू के पापा को स्कूल बुलाया गया. और यह भी कि उसके पापा ने उस से कुछ नहीं कहा बल्कि उसे भी जोकर के मुंह वाला मीठी सौंफ़ का डिब्बा दिया.

अगले दिन और उसके बाद के कई दिन तक न टोड मास्साब स्कूल आए न गोलू. कोई कहता था लफ़त्तू के पापा ने टोड मास्साब को जेल भिजवा दिया और गोलू को मरेलिया हो गया. हुआ जो भी हो, लफ़त्तू की और मेरी अपनी दिनचर्या में एक परिवर्तन यह आया कि हमें सुबह छः बजे लफ़त्तू के पापा ने अंग्रेज़ी पढ़ानी चालू कर दी. यह मेरे घर उनके आने के अगले दिन से शुरू हुआ.

मेरी ही तरह लफ़त्तू के भी बहुत सारे भाई-बहन थे और हमारी पढ़ाई के समय वे कभी-कभार परदों के पीछे नज़र आ जाया करते थे. इस पढ़ाई के दौरान उसकी बड़ी बहन हमें दूध-बिस्कुट भी परोसा करती थी. असल बात यह थी कि मैं एक ही दिन में ताड़ गया था कि लफ़त्तू के पापा की ख़ुद की अंग्रेज़ी कोई बहुत अच्छी नहीं थी. वे पिथौरागढ़ी कुमाऊंनी मिश्रित हिन्दी में हमें इंग्लिस पढ़ाते थे. 'वी' को 'भी' कहते थे, जो मुझे बहुत अटपटा लगता. लेकिन लफ़त्तू की दोस्ती के कारण मैं इस कार्यक्रम में बेमन से हिस्सा लेता और हां-हूं कहा करता.

बस अड्डे से माचिस की डिब्बियों के लेबल खोजने का प्रातःकालीन आयोजन बाधित हो गया था और कभी-कभार घुच्ची खेलने का भी. क़रीब एक हफ़्ता हुआ होगा जब एक रोज़ लफ़त्तू पर जैसे शैतान सवार हो गया. दूध-बिस्कुट आते ही लफ़त्तू ने कापी बन्द की, एक सांस में दूध पिया, जेब में चार बिस्कुट अड़ाए और कापी को ज़मीन पर पटक कर, बस अड्डे और उस से भी आगे भाग जाने से पहले अपने पापा से बोला: "वल्ब को तो भल्ब कहते हो आप! क्या खाक इंग्लिछ पलाओगे पापा?"