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Tuesday, November 27, 2007

मोबीन भाई और अताउल्ला पेलवान



रक्षाबन्धन के समय मोबीन भाई और अताउल्ला पेलवान रामनगर आया करते थे : बस एक रोज़ के लिए। उनके आने की तारीख मौखिक समाचारों के माध्यम से शहर भर में फैल जाया करती थी। आमतौर पर वे रक्षाबन्धन के एक दिन पहले आया करते थे। यह कोई नहीं जानता था कि वे कहां से आते थे। कोई कहता था मोबीन भाई ठाकुरद्वारे के थे और अताउल्ला पेलवान कालाढूंगी के। कुछ लोगों का कयास था कि दोनों असल में चचेरे भाई थे और चोरगलिया के रहने वाले थे। जो भी हो उनका शहर में आना किसी लाटसाहब के दौरे की तरह हुआ करता था।

मोबीन भाई तनिक लम्बे कद के थे : छरहरी देह काजल लगी आंखें और मुंह में हमेशा पान की गिलौरी। लफत्तू को मोबीन भाई दुनिया के सबसे इस्माट आदमी लगते थे। उसका तो यह भी कहना था कि मोबीन भाई बम्बई चले जाएं तो मुकद्दर के सिकन्दर अमीताच्चन की दुकान बन्द करवा दें। मोबीन भाई हमेशा काली बैलबॉटम और काली शर्ट पहने होते थे और बेहद सीरियस रहते थे।

अताउल्ला पेलवान जैसा कि नाम से जाहिर है पहलवानी ठाठ की कदकाठी के मालिक थे। चारखाने की लुंगी और ढीला कुरता डाले पहलवान के गले में तमाम तरह के गंडे हुआ करते थे। वे मोबीन भाई से उमर में बड़े थे और उनकी कनपटियों पर उम्र की दस्तक की चांदी दिखा करती थी।

मोबीन भाई और अताउल्ला पेलवान जिस तरह तूफान की तरह आया करते थे उनकी रूखसती भी वैसी ही शिताब होती थी। उन्हें कहीं और जाना होता था और रक्षाबन्धन का पूरा दिन वे पीरूमदारे में गुजारते थे।

मोबीन भाई और अताउल्ला पेलवान की पतंगबाजी देखने को खेल का मैदान ठसाठस भरा होता था। सुबह से ही छोकरे मांझा सद्दी गुल्ली और चरखी - घिर्री के चक्करों में लगे रहते थे। मैदान में लाउडस्पीकर पर ‘मेरे ख्वाजा …’ टाइप कव्वालियां बजा करती थीं और मौके का फायदा उठाकर चाट पकौड़ी खीर अमरूद वाले अपने ठेले ले आया करते थे। बमपकौड़े वाला बौना इस खास अवसर पर जलेबियां भी बनाया करता था।

फिर किसी एक पल दोनों खलीफा आपस में धीरे धीरे बतियाते मैदान में तशरीफ लाया करते और चन्द ही पलों में उनके गिर्द बच्चों की भीड़ लग जाती थी। फिर बुजुगार्न बच्चों को डपट कर भगाने की कोशिश करते और दोनों उस्तादों के इस्तकबाल में लाउडस्पीकर पर बकायदा तकरीर होती। यह तकरीर आमतौर पर गोल्टा मास्साब किया करते थे। एक साल जब मास्साब का एक बेटा नहर में डूब गया था यह तकरीर पालीवाल वैद्यजी ने की थी : वैद्यजी जाने क्या महोदय महोदय कह कर सब को बोर रहे थे जब भीड़ ने उन्हें हूट किया था।

बहरहाल दोनों पतंगबाज शुरूआती शिष्टाचार निबटाने के उपरान्त अपने अपने कोनों पर चले जाते थे। दोनों के बीच पूरे मैदान का फासला होता था। दोनों के गिर्द उनके शागिर्द और फैन खड़े रहा करते। फिर दोनों अपने अपने कुशलतम स्थानीय शागिर्द को पतंग उड़ाने को कहा करते थे। दस पांच पतंगें आजमाने के बाद ये शागिर्द सबसे अच्छी पतंग को काफी लम्बी उड़ान दे चुकने के बाद और अपने अपने हुनर के हिसाब से दर्शकों का मनोरंजन कर चुकने के बाद उस्तादों की स्वीकृति की बाट देखते थे।

मोबीन भाई अपनी पतंग पहले सम्हाला करते थे। पतंग सम्हालने के बाद वे कनखियों से पेलवान साब की तरफ निगाह मारते थे। पेलवान साब सहमति में सिर भी झुकाते थे और एक हाथ जरा सा उठा कर मोबीन भाई को आशीर्वाद भी देते। तमाशबीनों में एक उत्तेजना फैल जाती थी जब दोनों के पेंच शुरू होते।

यह तो करीब पन्द्रह बीस साल बाद हुआ जब मैंने बाबा नज़ीर अकबराबादी को पढ़ना शुरू किया। अब लगता है काश कोई तब यह सुना देता:


गर पेच पड़ गए तो यह कहते हैं देखियो
रह रह इसी तरह से न अब दीजै ढील को
“पहले तो यूं कदम के तईं ओ मियां रखो”
फिर एक रगड़ा दे के अभी इसको काट दो।

हैगा इसी में फ़तह का पाना पतंग का।।

और जो किसी से अपनी तुक्कल को लें बचा
यानी है मांझा खूब मंझा उनकी डोर का
करता है वाह वाह कोई शोर गुल मचा
कोई पुकारता है कि ए जां कहूं मैं क्या

अच्छा है तुमको याद बचाना पतंग का …


(नज़ीर अकबराबादी साहब की ‘कनकौए और पतंग’ का एक हिस्सा)

मोबीन भाई और अताउल्ला पेलवान की पतंगबाज़ी चलती रहती थी और दर्शकसमूह जब-तब ‘अशअश’ कर उठता था। तमाम तरह के दांवपेंच चला करते थे और आखिरकार जब किसी एक की पतंग कट जाती थी दोनों खलीफा खेल को इस वैराग्य के साथ छोड़ देते मानो कोई गमी हो गई हो।

मोबीन भाई और अताउल्ला पेलवान एक दूसरे से बतियाते हुए खेल के मैदान के बाहर आ जाते थे। उनके पीछे भीड़ हुआ करती। फिर वे दोनों खताड़ी के मोड़ पर आते आते कहीं गुम हो जाते थे : मेरे बचपन से कभी न गुम होने को।