Tuesday, July 28, 2009

ज्याउल, उरस की मूफल्ली, मोर्रम और ब्रिच्छारौपड़ - ४

हालांकि ज्याउल के घर हम उसके बड्डे पर जा चुके थे, यह बात मेरे परिवार में किसी को मालूम न थी. रात को खाना खाते वक्त जब मैंने अगले दिन ज्याउल के घर जाने की अनुमति मांगी तो उसे मिल ही जाना था क्योंकि पिताजी पहले ही मुझे उसके साथ दोस्ती बढ़ाने को कह चुके थे. मां ने थोड़ा सा मूंह बनाया और बोली : "यहीं क्यूं नहीं बुला लेता है उस को? कोई जरूरी है उस के यहां जाना?"

"अरे जाने दो यार बच्चों को ऐसे ही दुनियादारी पता चलती है" कह कर फ़ैसला मेरे पक्ष में सुना दिया गया.

अगले दिन मैं तैयार हो कर ज्याउल के घर जाने ही को था कि मां ने कहा: "रुक एक मिनट को."

वह भाग कर मन्दिर वाले कोने में गई और वहां कुछ देर रूं-रूं जैसा करती रही. वापस आ कर उसने मेरे माथे पर भभूत का टीका लगाया और काला धागा मेरी गरदन के गिर्द बांध दिया: "वहां खाना हाना मत कुछ. और डर लगेगा तो हनुमान चालीसा का जाप कर लेना. एक बजे तेरे बाबू आ के ले जाएंगे तुझे."

पूर्वनिश्चित कार्यक्रमानुसार लफ़त्तू मुझे बस अड्डे के पीछे खड़ा मिला. मेरे माथे पर भभूत लगी देख कर बोला: "अबी तू बत्ता ऐ बेते. थोता ता बत्ता." उसकी मंशा मुझे अपमानित करने की नहीं थी पर मुझे अपमानित महसूस हुआ. मैंने झटके में माथा रूमाल से साफ़ किया और अपनी मां के उक्त कृत्य को डिफ़ेन्ड करते हुए कहा कि मां ने अपना काम किया मैंने अपना.

उसने मेरा हाथ थाम के कहा: "बुला नईं मानते याल!"

हिमालय टाकीज़ पार करते न करते उस पर पुरानी रौ छा गई. उसने दो उंगलियां मुंह में घुसेड़कर सीटी बजाना भी सीख लिया था. सत्तार मैकेनिक की दुकान के बाहर उसने इस कला का प्रदर्शन किया और जल्द ही "...उहूं ... उहूं ...दान्त तत ... दान्त तत ..." की मटकदार चाल में पहुंच गया. मैं हैरान हो जाता था उसे देख कर. अभी अभी इसके पापा ने इसकी चमड़ी उधेड़ी है मगर ये किसी से डरता ही नहीं. उसके मुझ पर ऐसे ऐसे अहसानात थे मगर उसने एक बार भी किसी का हवाला देकर मेरी बेज्जती खराब नहीं की थी जैसा बन्टू हर दूसरी बार किया करता था.

ज्याउल के घर पर हमारा इन्तज़ार हो रहा था. आसमानी लिबास ने आज गुलाबी रंग चढ़ा लिया था. उसने हमें दूर से देख लिया और हमें उसका "ज़िया भाई! ज़िया भाई!" कहते हुए भीतर जाते बोलना सुनाई दे गया. ज्याउल की अम्मी ने हमारे सिरों पर हाथ फिराये और अल्ला-अल्ला चाबी-ताला जैसा कुछ कहा. गुलाबी लिबास ने हमें "आदाब भाईजान" कहा और अन्दर कहीं चला गया. ज्याउल हमें अपने कमरे में ले जाते हुए बोला "ये हमारी बाजी हैं"

'बाजी' शब्द का मतलब पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी - बस मन में दस-बीस सवाल भर उमड़े. ज्याउल के पास बहुत सारी किताबें थीं. मैंने इतनी किताबें दुकान को छोड़कर कभी-कहीं नहीं देखी थीं - किताबें कुच्चू गमलू के पास भी थीं पर ज्याउल का कलेक्शन अविश्वसनीय था. ज्याउल ने हमें स्पैलिंग वाला खेल खेलने का प्रस्ताव दिया. लफ़त्तू ने एक लोटपोट निकाल ली थी और वह किसी भी तरह का खेल खेलने के मूड में न था. "तुम दोनो खेलो याल. मुदे नईं आती इंग्लित फ़िंग्लित! ..."

हमारा स्क्रैबल करीब एक घन्टा चला. इस दरम्यान शरबत, सिंवई, समोसे इत्यादि का भोग लग चुका था. हमारे स्क्रैबल को गुलाबी पोशाक बाजी के रूप में एक उम्दा दर्शक मिल गया था. बाजी शायद ज्याउल से एकाध साल बड़ी थीं. हर नए शब्द पर "बहुत अच्छे भाईजान!" कहना उनका ताज़ा तकिया कलाम था शायद.

लोटपोट में नकली व्यस्त लफ़त्तू ने अपना चेहरा इस कदर छुपाया हुआ था कि अगर आधे घन्टे वहां रहने पर बाजी "आप नहीं खेलेंगे?" नहीं पूछती तो हम उसे भूल ही जाते. "लफ़त्तू को खेल पसन्द नहीं हैं. उसे कॉमिक अच्छे लगते हैं." मैंने लफ़त्तू का बचाव करते हुए कहा. "कोई बात नहीं, कोई बात नहीं" कहकर उन्होंने हमारे उत्साहवर्धन में जुट जाना बेहतर समझा.

स्क्रैबल के बाद हम लोग बाहर बरामदे में आ गए. सामने नहर बहती थी और दूर टुन्नाकर्मस्थली यानी कोसी डाम की झलक दिख रही थी. "आओ बच्चो! खाना लग गया!" अन्दर से ज्याउल की मम्मी की आवाज़ आई तो मेरी फूंक सरक गई.

सिंवई, समोसे, शरबत तक तो ठीक था पर पूरा खाना. अगर घर में मां को पता लग गया तो? और मान लिया खाने को गाय-हाय हुई तब? ... मैं कोई बहाना सोच ही रहा था कि लफ़त्तू ने मेरी बांह थामी और आश्वस्त करते हुए अपने साथ भीतर डाइनिंग टेबल पर ले चला. बढ़िया साफ़ सफ़ेद तश्तरियां करीने से लगी हुई थीं. ज्याउल की अम्मी ने मटर की खुशबूदार तहरी और दही के डोंगे खोले और बोली "बच्चों के हिसाब से मिर्च बिल्कुल नहीं डाली है बेटे. लो."

जीवन में मैंने तब तक नहीं जाना था कि मटर की तहरी जैसी सादा चीज़ इस कदर स्वादिष्ट भी हो सकती है. उसे सूतते हुए न तो मां की बातें याद आईं न तहमत से ढंके मीट से लदे हाथठेले की. खाना खा चुकने के बाद मुरादाबादी घेवर मिला बतौर स्वीटडिश.

हमारे जाने का समय होने को था और मैं पिताजी का इन्तज़ार कर रहा था जब ज्याउल की अम्मी ने बताया कि ऑफ़िस से चपरासी आकर बता गया था कि पिताजी व्यस्त होने के कारण नहीं आ सकेंगे. मुझे थोड़ा तसल्ली हुई कि वापसी में लफ़त्तू और मैं कुछ देर और मौज कर सकेंगे.

ज्याउल, उसकी अम्मी और बाजी हमें कालोनी के गेट तक छोड़ने आए. "आते रहना बेटा! वरना ज़िया तो अकेले में हर बखत किताबों में ही मुंह डाले रहते हैं. घर पर सब को हमारा सलाम कहना."

मुसलमान घर में लंच कर चुकने जैसा अविश्वसनीय कारनामा कर चुकने का सदमा एकाध मिनट रहा जब लफ़त्तू बोला: "द्‍याउल कित्ता अत्त ऐ ना. और उतकी मम्मी बी." वह विचारमग्न होने को था जब मैंने मुसलमान घर में लंच करने के बाबत उसके विचार पूछे. "अले हता याल! इत्ते प्याल छे तो मेली मम्मी ने मुदे कबी नईं खिलाया. कुत नईं होता मुछलमान हुछलमान! बत घल पे मत कैना. द्‍याउल ते मैं कै दूंगा कि तेले घल पे नईं कएगा."

घर पर छोटी बहनों के सिवा कोई न था. वे अपनी गुड़ियों के बचकाने खेलों में मुब्तिला थीं. मैंने इत्मीनान की सांस ली कि तुरन्त खाना खाने को कोई नहीं कहेगा. देह में गरदन गरदन तलक स्वाद अटा हुआ था.

एक शाम हम क्रिकेट खेल रहे थे. लफ़त्तू हरिया हकले की छत पर पहुंचा दी गई गेंद लाने गया. इस बार गेंद असल में दूधिये वाली गली में चली गई थी. इन्हीं दिनों फ़ील्डिंग में यह नियम लागू किया गया था कि सड़क या दूधिये वाली गली में गेंद पहुंचाने वाले को ही उसे लाना होगा. लफ़त्तू ने अपनी स्वयंसेवी फ़ील्डिंग संस्था बन्द कर दी थी.

बन्टू नीचे गया तो मैं और लफ़त्तू छत की मुंडेर पर अपनी मुंडियां टिकाए नीचे झांक कर देखने लगे. बन्टू को गेंद नज़र नहीं आ रही थी और वह इधर उधर खोज रहा था. अचानक हमारे ऐन नीचे हरिया के घर का दरवाज़ा खुला और हमारी उम्मीदों को ग्रहण लगाता कुच्चू-गमलू का खिलखिल करते बाहर आना घटित हुआ. उनके पीछे पीछे हरिया निकला और उसके बाद हरिया की बहन और उसकी मां.

"हो गई बेते तेली भाबी की थादी फ़ित्त हलिया के तात. मैं कै ला था ना थाले ने फंता लिया ऐ उतको."

जब तक बन्टू गेंद लाता, हम दोनों बौने के ठेले की तरफ़ निकल चुके थे. इधर मेरे मामा आए थे. और जाने से पहले सब से छिपा के मुझे पांच का नोट दे गए थे सो पैसे की इफ़रात थी. बमपकौड़ा पेट में जाते ही हमारे दिमाग थोड़ा स्थिर हो जाया करते और तब ऐसी संकटपूर्ण वेलाओं में हम किसी भी विषय पर लॉजिकली सोच पाते थे.

"तल. लालछिंग के पात तलते ऐं."

लालसिंह किस्मत से दुकान पर अकेला बैठा माचिस की तीली की मदद से कनगू निकाल रहा था. हमें देखा तो उसका चेहरा अचानक खिल गया. "इत्ते टैम से कां थे बे हरामियो."

दूध-बिस्कुट की मौज काटी गई. लालसिंह ने तड़ से हमारे सामने सवाल उछाला: "गोबरडाक्टर तो जा रहा हल्द्वानी. ट्रान्सफ़र हो गया बता रहे थे. अब तेरा क्या होगा कालिया?" उसने प्यार से लफ़त्तू की ठोड़ी सहलाई.

"होना क्या ऐ. आपका नमक खाया है छलकाल" अप्रत्याशित रूप से कालिया बन गया लफ़त्तू. फ़िर जल्दी से पाला चेन्ज कर के गब्बर बन कर बोला: "ले बेते अब गोली खा!"

अपने नन्हे हाथों को जोड़कर उसने पिस्तौल की सूरत दी और अपनी ही कनपटी पर लगा कर कहा: "धिचक्याऊं! धिचक्याऊं! धिचक्याऊं!" और मर गया. लालसिंह हंसते हंसते पगला गया था. "सालो जल्दी जल्दी आया करो यहां. इत्ती बोरियत होती है साली."

लालसिंह लफ़त्तू की ऐक्टिंग से इम्प्रेस्ड था पर मुझे पता था यह लफ़त्तू की डिफ़ेन्स मैकेनिज़्म काम कर रही थी अपने ऊपर आए ऐसे व्यक्तिगत विषाद के अतिरेक से लड़ने को. लफ़त्तू तो तब भी नहीं रोया था जब उसके पापा उसे सड़क पर नंगा कर के जल्लादों की तरह थुर रहे थे.

नहीं. लफ़त्तू तब भी नहीं रोया.

न तब. न बाद में.

(जारी - कल अगली लास्ट किस्त)

पिछली कड़ियां:

पहला हिस्सा

दूसरा हिस्सा

तीसरा हिस्सा

6 comments:

डॉ .अनुराग said...

जे हो लाफ्तू बाबा की.......ले अब गोली भी खा...... कसम से झक्कास .....

मैथिली गुप्त said...

कहां तो तीन महीने से इन्तजार
और अब कल से आज तक एक साथ चार किश्तें!
अब पता चला कि दिल्ली में बरसात क्यों हुई!

Gyan Dutt Pandey said...

अब क्या? मुसलमान के घर खा लिये, अब क्या?
हाय राम! :)

vineeta said...

इस बार तो खुश कर दिया आपने अशोक भाई... जमाये रहिये...लुत्फ़ आ रहा है.

महेन said...

हेटट्रिक लगा दी सीधे सीधे.

pistolbhai said...

lafattu ke defance managment ne mujhe bhi uska murid bana diya, wo bhi mera wastab ban gaya hai.
bahut sundar aisa dost mujhe bhi mila hai jiske bahut ehsanat hai lekin kabhi meri beizzati kharab nahi ki.