Wednesday, July 29, 2009

ज्याउल, उरस की मूफल्ली, मोर्रम और ब्रिच्छारौपड़ - ५

ज्याउल के घर का खाना याद आते ही मुंह में पानी भर आता. एक बार मैंने ज्याउल से ऐसा कहा तो वह मेरे और लफ़त्तू के लिए अलग से प्लास्टिक के डब्बे में मटर की तहरी बनवा कर लाया और अपनी अम्मी का सन्देशा भी कि हम जब चाहें तहरी खाने उनके घर आ सकते हैं. बल्कि इसी इतवार को क्यूं नहीं आ जाते.

इन्टरवल में जब सारे बच्चे खेलमैदान की तरफ़ भाग चले हम तीनों ने क्लासरूम में रहकर ही अपना गुप्त लंच कार्यक्रम आयोजित किया. छोटा सा प्लास्टिक का डब्बा और खाने वाले दो भुखाने सूरमा. न पेट भरा न मन. पर लुफ़्त आ गई.

अगले दो इतवार हमने ज्याउल के घर इस लुफ़्त का क्लाइमेक्स भी महसूस किया. इस में बाधा बन कर आईं कुछ छुट्टियां. ज्याउल अपने नानाजान के घर फ़रुक्खाबाद चला गया था इन छुट्टियों में.

हमारा दिगम्बर तैराकी और पॉलियेश्टराम्बर कायपद्दा कार्यक्रम अपने उरूज पर आ जाता था इस तरह की छुट्टियों में. एक बार थक कर चूर हम लोग घरों को लौट रहे थे तो ऐसे ही बातों बातों में इस बात पर बहस चल निकली कि छुट्टियां किस बात की चल रही हैं. गोलू ने अपने पापा के हवाले से बतलाया कि कुछ त्यौहार एक साथ पड़ गए और बीच में इतवार भी. एक दिन बाद मोर्रम था. मोर्रम माने कोई मुसलमान त्यौहार. पिछली बार मोर्रम के टाइम हम लोग रानीखेत किसी शादी में गए हुए थे. उस मोर्रम के ताजियों और ढोल-दमामों वगैरह की बाबत लफ़त्तू और बन्टू ने मुझे इतने किस्से सुनाए थे कि इस त्यौहार का नाम आने से मुझे कुछ उत्साह महसूस हुआ.

इधर लफ़त्तू के व्यवहार में धीरे धीरे कुछ परिवर्तन आने शुरू हो गए थे. उसने कायपद्दा खेलना बन्द कर दिया था. हम आम की डालियों पर चढ़े रहते और वह पानी में डूबा अधडूबा रहता. बहुत बोलता भी नहीं था. न शामों को क्रिकेट खेलने आता. हां हर शाम लालसिंह की दुकान पर हम ज़रूर जाते थे. मेरी निगाहें पसू अस्पताल के गेट से लगी रहा करतीं पर लफ़त्तू किसी दूसरे ग्रह पर पहुंच चुका था. यदा कदा वह कोई अश्लील गाना सुनाता या किसी पिक्चर के डायलाग ताकि लालसिंह उसकी उदासी को ताड़ न ले.

मुझे उस्ताद का यह रूप कतई पसन्द नहीं आ रहा था. लेकिन मैं असहाय था. मेरी इतनी ताब न थी कि उस के लिए कुछ भी कर सकूं. मैं हिम्मत कर के गमलू कुच्चू का नाम ले लेता तो वह "हता थाले को याल" कहता सड़क पर पड़े पत्थरों को लतियाता दूर तक ठेलता ले जाता. कभी कभी वह बिला वजह अपने आप से "हत थाले की" कहता.

लेकिन मोर्रम की सुबह वह "बी ... यो ... ओ ... ओ ... ई. .." करता सड़क पर से मुझे बुला रहा था. मैंने झटपट चप्पल पहनी और अपने शान्तिवन अर्थात बौने के ठेले की तरफ़ चल पड़े.

"बेते पितले छाल इत्ते बले बले धोल बज रये थे मोर्रम पे कि कान फूत गए ते. औल इते बले ऊंते उंते तादिये ... आप छमल्लेवें ... तेले घल की थत तक. बन्तू ते पूत लेना. मैं तो तुदे ये कैने आया ऊं कि तू दलना मत धोल छाले ऐते बदते ऐं ... "

हमने पेटों में प्रिय व्यंजन पिरोया और बहुत दिनों बाद फ़र्श से चिपक कर आधे घन्टे कोई पिक्चर देखी.

मोर्रम के जुलूस की आवाज़ें शाम चार बजे से पाकिस्तान के किसी सुदूर हिस्से से सुनाई देना शुरू हो गई थीं. समय बीतते बीतते ढोलों की थापें तेज़ होती गईं. करीब साढ़े छः बजे जुलूस पाकिस्तान सीमा पर था. हमारी छत पर दर्शकों का मजमा लगा हुआ था.

बहुत दूर तक लोगों का हुजूम नज़र आ रहा था. जुलूस में बीच बीच में बड़े बड़े शानदार ताजिये नज़र आ रहे थे. बेहतरीन कलाकारी के नमूने ये चमचमाते ताजिये मैं पहली बार देख रहा था. जुलूस में सबसे आगे बैन्डवाली एक गाड़ी पर दो बड़े बड़े ढोल बजाए जा रहे थे. गाड़ी के आगे अपनी छातियां पीटते करीब सौ बच्चे थे. वे बार बार गाड़ी के पास जाते है वहां से उन्हें कुछ मिलता जिसे अपने मुंहों में ठूंसकर वे सीना फ़ोड़ने में जुट जाते. पीछे पता नहीं कितने सारे तो ताजिये थे और कितने लोग. बैन्डगाड़ी हमारे घर से दसेक मीटर दूर रह गई होगी जब ढोल बजाने वालों के भीतर जैसे कोई देवता घुस गया. खुले सीनों वाले चार-चार हट्टे कट्टे आदमी ढोल पीट रहे थे और सचमुच घर की दीवारों की एक एक ईंट बजती महसूस हो रही थी. ताजिये वाकई बहुत ऊंचे थे और लगता था कि ऊपर टंगे बिजली के तारों में लिपझ जाएंगे.

ढोलों की आवाज़ बिल्कुल कानफोड़ू थी. ऐसी उत्तेजना मुझे कभी महसूस नहीं हुई थी. बैन्डगाड़ी के पीछे बड़ी उम्र के पगलाए से लड़कों-आदमियों को अपने सीनों और पीठों पर रस्सियां-सोंटियां बरसाते हुए "या अली या अली" कहते देखना अजब सनसनी भर देने वाला था. इस सारे कोलाहल को देखते कुछ भी सुनाई दे रहा था. मुझ से सट कर खड़े बन्टू की लगातार कमेन्ट्री चालू थी. अलबत्ता लफ़त्तू ने जब कान से अपना मुंह सटाकर "तल बेते" कहा तो उस पागलपन के बीच भी मैंने उसकी आवाज़ सुन ली. उसने आंख मार कर मुझे अपने पीछे आने को कहा.

(जारी - कल अगली लास्ट किस्त. हर हाल में. अभी कहीं जाना पड़ रहा है.)

6 comments:

दीपा पाठक said...

बहुत दिनों बाद आना हुआ, न जाने क्यों लफ्त्तू की उदासी रिस कर पोस्ट में भी तारी हो गई है, शायद मोहर्रम का असर हो। बहुत अच्छी पोस्ट। अगले ही दिन पूरी करने के वादे का क्या हुआ?

eSwami said...

टिप्पणियां भी नहीं पढीं ३,४,५ एक के बाद एक पढ डाले.. अब अगले लेख तक रिविजन का टाईम!
कुछ तो बात है, लफ़त्तू की उदासी बेकल कर रही है!

के सी said...

* बेवजह नहीं है लफ़त्तू की उदासी

* अगले दिन का इंतजार कट ही जायेगा

* आखिरी किस्त का ऐलान हजम नहीं हो रहा

vineeta said...

ise samaapt mat kiijiye....bahut achaa lagta hai padhna...

डॉ .अनुराग said...

आखिरी किस्त ???? लगता है व्यस्तता ने हाथ पकड़ लिए है ...रवानगी को काहे रोक रहे है ....???कुछ शब्द कमाल के है मसलन मुलाहिज़ा फरमाए ......
दो भुखाने सूरमा ओर लुफ़्त का क्लाइमेक्स

Ashok Pande said...

मित्रो अगली पोस्ट लफ़त्तूनामे की आख़िरी पोस्ट नहीं है. वह तो इस विशेष एपीसोड की आख़िरी किस्त है.

आपके सरोकार का मैं आदर करता हूं.