Thursday, April 9, 2020

एक्सीडेंट, जेम्स बॉन्ड और लौंदियों के तक्कल में बलबादी



लालसिंह की तमाम हिदायतों पर मैंने रात भर विचार करने के उपरान्त अगली सुबह नाश्ता वगैरह समझ कर मैं लफत्तू के घर की तरफ लपका. उसकी संगत के बगैर मेरे सारे जीवन की ऐसी तैसी हो जानी थी सो मामले के थोड़ा भी बिगड़ने से पहले मैं उससे माफी मांग लेना चाहता था.
सियाबर बैदजी की दुकान के अहाते में रात भर के थके कोई दर्जन भर आवारा कुत्ते लापरवाह सो रहे थे. उनकी तरफ एक निगाह मार कर मैं छलांगों में चलता हुआ शेरसिंह के खोखे तक आ पहुंचा था. जैसे ही लफत्तू के घर की तरह मुड़ा मैंने पाया लफत्तू के सामने वाले मकान के आगे मनहूस सूरतें बनाए आठ-दस लोग भीड़ बना कर खड़े थे. इस मकान में कलूटे फुच्ची की लपट अर्थात जीनातामान रहती थी. कुछ भी सोच पाने से पहले ही मुझे ठिठक जाना पड़ा क्योंकि अचानक भीतर से दो-तीन स्त्री आकृतियाँ बाहर आकर बाकायदा जोर-जोर से रोने लगीं. रोने वालियों में जीनातामान भी थी. उसने विचित्र सी काट वाला वही झबला पहना हुआ था जो इधर के महीनों में मेरे मोहल्ले की औरतों के बीच सबसे लोकप्रिय घरेलू पोशाक के रूप में स्थापित हो चुका था. मैक्सी कहे जाने वाली इस बेहद चकरघिन्नी टाइप पोशाक को पहने औरतें फूले हुए गुब्बारों जैसी नजर आया करती थीं. खुद मेरी माँ कभी-कभार उसे पहनने लगी थी और जब-जब वह ऐसा करती मैं उसे सीधी आँख से नहीं देख पाता था. बहरहाल नाक को एक हाथ से ढंके जीनातामान सुबक रही थी और उसे देखते ही लगता था उसके घर में कोई अनिष्ट घट गया है.
कुछ देर असमंजस में खड़े रहने के बाद मैंने बजाय लफत्तू के घर जाने के शेरसिंह के खोखे की आड़ हो जाना बेहतर समझा. कुछ न कुछ सनसनीखेज जरूर घटा था और मौके पर मौजूद रह कर मैं इस घटना का प्रत्यक्षदर्शी बनना चाहता था. मेरी पूरी मित्रमंडली हमेशा ऐसी सनसनीखेज कहानियों-ख़बरों की प्रतीक्षा में रहती थी अलबत्त उन्हें लेकर आने का ठेका अमूमन लफत्तू, फुच्ची कप्तान या बागड़बिल्ले का होता था. लालसिंह की दुकान पर अक्सर ऐसे समाचारों का पारायण और पोस्टमार्टम करते इन फसकी-गपोड़ियों को देख कर मुझे अपने रूखे अनुभवहीन जीवन को लेकर कोफ़्त होती थी. मेरे पास कभी भी ऐसी कोई कहानी नहीं रही थी. यह मौक़ा था.
भीड़ बढ़नी शुरू हो गयी थी और मनहूस आकृतियों की संख्या दो दर्जन के आसपास पहुँचने को थी. फिर लफत्तू की मम्मी का आना हुआ जो कुछ कहती हुईं जीनातमान और रोती औरतों को घर के भीतर ले गईं. अचानक दूर हाथीखाने वाले मोड़ पर तीन-चार लोग दिखाई दिए. वे तेज कदमों से घटनास्थल के पास पहुँचने ही वाले थे जब मैंने देखा उनका नेतृत्व लफत्तू के पापा कर रहे थे. भीड़ ने देखा तो उन्हीं की दिशा में लपकी.
लफत्तू के पापा ने भीड़ से जल्दी-जल्दी कुछ कहा और मेरी तरफ आने लगे. मैं थोड़ा और दुबक गया. उन्होंने मुझे देखा ही नहीं और जल्दी-जल्दी डग भरते हुए घासमंडी के मोड़ और उससे भी आगे तक पहुँच गए. मनहूस भीड़ छितर चुकी थी. उस में शामिल तीन-चार आदमी लफत्तू के पापा का अनुसरण करते दिखाई दिए. घर की स्त्रियाँ एक बार फिर से बाहर सड़क पर आ गयी थीं और लफत्तू की मम्मी के समझाने के बावजूद उस गतिविधि में लिप्त हो गयी थीं कोर्स में लगने वाली एक कहानी में जिसे बुक्का फाड़ कर रोना लिखा गया था.
यानी घटनास्थल यहाँ नहीं है – मेरे चालाक मस्तिष्क ने सूचना दी. यानी घटनास्थल वहां है जहाँ लफत्तू के पापा गए हैं. लेकिन कहाँ?
मन में ढेर सारी उत्सुकताएँ भरती जा रही थीं जिनका जवाब शेरसिंह के खोखे की बगल में बह रही नाली में तो मिलने से रहे. मैं घासमंडी की तरफ मुड़ ही रहा था कि ऊपर घर की खिड़की से आवाज आई. माँ बुला रही थी.
जीने की सीढ़ियों पर ही मां से मुलाक़ात हो गयी. उसके क़दमों तेजी बता रही थी कि वह भी जीनातमान के घर जा रही थी. सेकेण्ड के एक लाखवें हिस्से भर की उस मुलाक़ात में भी माँ ने मुझे एक डांट पिला ही दी, “अपनी किताबें ढंग से नहीं सम्हाल सकता! कोई काम तो ठीक से कर लिया कर.” 
घर में घुसते ही छोटी बहनों ने उंगली के इशारे से दालान के उस हिस्से की तरफ मेरा ध्यान दिलाया जहाँ रोशनदान से आ रही कड़ियल धूप के एक बड़े से चौकोर में मेरी किताबें सूखने को फैलाई गयी थीं.
“तूने लोहे वाली अलमारी के नीचे अपना बस्ता डाला हुआ था. कल जब वो तेरे ट्यूशन वाले सर का बच्चा आया था ना तो उसके जाने के बाद फर्श को धोया था मम्मी ने. अभी ठहर जा वापस आ कर तेरी क्या हालत करती हैं वो!” 
मैं हैरान हो कर सोच रहा था कि क्या मेरे हर संकट और हर त्रासदी का मखौल उड़ाने और उनका मजा लूटने वाली अपनी इन सगी कुटुम्बिनियों से बड़ा भी मेरा कोई शत्रु हो सकता है.
छत की तरफ जाने लगा तो बीच वाली बहन ने निस्पृह भाव से जैसे हवा को सूचित करते हुए कहा – “वो लफत्तू लोगों के सामने नहीं रहते वो नए वाले किरायेदार. उनका अभी सुबह एक्सीडेंट हो गया. काशीपुर से यहाँ आ रहे थे बस से. एक ट्रक से टक्कर हो गयी हिम्मतपुर के नजदीक. सात लोग मर गए. सबको रामनगर के अस्पताल में ला रहे हैं बंटू के पापा बता रहे थे.”   
नाली की बास सूंघने को मजबूर छुपे हुए, जेम्स बॉन्ड बने हुए मौके पर मौजूद रहते हुए मुझे इतनी बड़ी सूचना का एक रेशा तक छूने को नहीं मिला था जबकी घर में बैठीं, परांठे बेलातीं, गुट्टे खेलतीं मेरी बहनें उस सूचना की इतनी मोटी रस्सी बटकर उस पर जा आने कब से झूल रही थीं.
ढाबू की छत पर अवस्थित अपने गुप्त ठिकाने पर मैंने हाल ही में जुगाड़ किये गए कर्नल रंजीत के एक और पुराने जासूसी उपन्यास के फटे पन्ने जमा कर रखे थे. बंटू उन्हीं में से एक का मजा लेने में व्यस्त था जब मैं वहां पहुंचा. बहनों के माध्यम से अभी अभी अर्जित किये गए सूचना भण्डार को बांटने का मौक़ा था.
“वो लफत्तू लोगों के सामने जो जीनातमान रहती है ना उसके पापा आज सुबह एक्सीडेंट में मर गए. काशीपुर से बस में आ रहे थे. ट्रक ने ठोक दिया ट्रक ने. बारह-पन्द्रह लोग मर गए मेरे पापा बता रहे थे.”
बंटू ज़रा भी इम्प्रेस नहीं हुआ. लुगदी-पन्ने पर आँख गड़ाए-गड़ाए बेपरवाही से बोला, “मरा-वरा कोई नहीं है. पापा गए थे सुबह-सुबह मोटरसाइकिल ले कर. थोड़ी चोट वगैरह आई है बता रहे थे.”
मेरी पहली सनसनीखेज रिपोर्टिंग बुरी तरह फेल हो गयी थी. मैं झेंपता हुआ छत की मुंडेर पर चला गया और बाहर देखने लगा. लालसिंह की दुकान में पाली बदलने का समय हो रहा था. उसके पापा बाहर निकलते हुए लालसिंह को कुछ हिदायत दे रहे थे. लालसिंह ने धुली हुई कप-प्लेटें काउंटर पर लगाना शुरू कर दिया था. मेरे प्राण में प्राण आये.
मैं हरिया हकले वाली चोर सीढ़ी से निकलने लगा तो बंटू बोला, “ठहर ना. मैं किताब ख़तम कर लूं तो आइसक्रीम खाने घर चलते हैं.”
उसकी आइसक्रीम का मतलब मैं समझता था और अपनी और बेइज्जती करवाने के मूड में न था.
“बाद में आऊंगा” कह कर मैं उतरने को ही था कि बंटू ने किताब पढ़ते हुए ही पूछा, “ये सुडौल का क्या मीनिंग होता है बे?
मैं समझ गया उसके हाथ किताब का सबसे मजेदार हिस्सा लग गया था और अपने जन्मजात हॉकलेटपने के चलते वह उसे समझने से लाचार था. मन ही मन इस बात को समझ कर मुदित होते हुए मैंने उसके सवाल की अनदेखी की और भागता हुआ लालसिंह के पास पहुँच गया.
“अबे हरामी. आ बैठ.”
मुझे देखते ही उसने मुझे एक बिस्कुट दिया और गिलास में दूध-शक्कर डाल कर उसे चम्मच से हिलाना शुरू कर दिया.
“कैसी चल रही बेटे आसिकी? कब कर्रिया क्वीन कवर?” वह नसीम अंजुम को लेकर मुझे छेड़ने के मूड में था. वह आगे कुछ कहता उसके पहले ही मैंने सनसनी फैलाई, “जीनातमान के पापा का आज सुबह एक्सीडेंट हो गया. काशीपुर से बस में आ रहे थे. ट्रक ने ठोक दिया बिचारों को. बीस-पच्चीस लोग मर गए मेरे पापा बता रहे थे.”
लालसिंह के चेहरे पर आये भावों ने मुझे बता दिया कि वह घटना से अनभिज्ञ था. मैंने अपना सुबह का अर्जित अनुभव बांटना शुरू किया ही था कि सामने से घासमंडी की तरफ जाती आठ-दस बदहवास औरतों की भीड़ गुज़री. मेरी और लफत्तू की मांओं के अलावा उनमें जीनातमान भी थी. उसने अब भी वही झबला पहना हुआ था.
“ओत्तेरी!” कह कर लालसिंह लपक कर काउंटर फांदता हुआ सड़क पर खड़ा हो गया. “तू यहीं बैठ ज़रा. मैं पांच मिनट में आया.” वह भागता हुआ औरतों से भी आगे निकल गया.
लालसिंह ने वापस आने में आधा घंटा लगाया. किस्मत से उस पूरे अंतराल में सिर्फ एक ही ग्राहक आया जिसे दही चाहिए था. काउंटर पर दही न देख कर मैंने उसे मना किया तो अपना चश्मा कनपटियों के ऊपर खोंसते हुए उसने मुझे कुछ देर घूर कर देखने के बाद पूछा, “जो लौंडा यहाँ रोज बैठा करे वो तेरा बड़ा भैया हैगा?
हाँ में सिर हिलाते हुए मैंने अपनी नसों में गौरव और खुशी की मीठी झुरझुरी को बहता महसूस किया. मैंने अपने सपनों में लालसिंह को ही अपना बड़ा भाई माना था. आज उसकी स्वीकारोक्ति भी कर ली.
“पड़ाई-लिखाई में धियान दिया करै बेटे इस उमर में. सरौसती मैया की पूजा किया करैगा तो लछमी मैया अपने आप तेरे धोरे आ जांगी. सिकायत करूंगा तेरे बाप से मैं.” अकेला बच्चा देखते ही हर कोई भाषण पिलाने का मौक़ा तलाश लेता है – मैंने तय किया अब से बड़ों से कभी कोई बात नहीं की जाएगी. मेरे बखत के ज्यादातर बड़े अश्लील और श्रीहीन थे.
लालसिंह के आने के बाद स्थिति स्पष्ट हुई. एक्सीडेंट हुआ था. और जीनातमान के पापा बस में बैठकर काशीपुर से रामनगर आ रहे थे. पीरूमदारा के पास चाय-पानी के लिए गाड़ी ठहरी. वे उतर रहे थे जब बगल से गुजर रहे एक दूधिये की मोटरसाइकिल उनसे टकरा गयी. पैर टूट गया था. दस-बारह टाँके लगे थे और दो दिन में उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिलने वाली थी.
“बस्स!” मैंने तनिक निराश होकर पूछा, “कोई डैथ-वैथ नहीं हुई?
“अबे डैथ-हैथ होती होगी वो उस अंग्रेज मास्टरानी के शहर में. ये रामनगर है बेटे रामनगर.” उसने मेरी खोपड़ी पर एक प्यार भरी चपत लगाते हुए आँख मारी, “ और स्साले ये नहीं बोल सकता कि अच्छा हुआ तेरे ससुर जी बच गए लालसिंह.”
मैं कुछ समझने की कोशिश करता उसके पहले ही उसने दो उंगली वाला अश्लील निशान बनाते हुए कहा, “अभी चुप करा के आ रहा हूँ तेरी भाभी को! बिचारी सुबह से रो-रो के आधी हो गयी थी.”
जीनातामान के लिए लालसिंह की मोहब्बत मेरे लिए खबर थी. यह उसके लिए प्रसन्न होने और जश्न मनाने का समय था लेकिन मेरे विचार किसी दूसरी दिशा में मुड़ चले.
तीन-चार दिन पहले ही फुच्ची कप्तान ने भी वही अश्लील निशान बनाते हुए जीनातामान को मेरी भाभी बनाने संबंधी अपने इरादे से वाकिफ कराया था. 
मैंने नकली मुदित होते हुए लालसिंह को अपनी होने वाली भाभी को लेकर काफी देर तक छेड़ा. जब वह पर्याप्त छिड़ गया और जब लाज उसके होंठों पर झेंपभरी हंसी बनकर कनपटियों तक पसर गयी तो मेरे भीतर हमेशा बैठा रहने वाला चोट्टा दार्शनिक मोड में आ गया.
पिक्चरों से सीखा था था कि हीरोइनें चाय वालों से मोहब्बत नहीं करती थीं. वे कलूटे लड़कों से भी मोहब्बत नहीं करती थीं. जीनातमान के सामने लालसिंह और फुच्ची कप्तान की दाल गलने वाली नहीं थी. बिना प्रेम के वह बिचारी अपना जीवन कैसे काटेगी. उसके साथ जंगल में गाने कौन गायेगा. 
मैं देख रहा था कि मैंने सुबह से एक बार भी नसीम अंजुम के बारे में नहीं सोचा था. मधुबाला स्मृति से गायब होने को थी. जहाँ तक गोबरडाक्टर की बेटियों की बात थी अगर वे अभी सामने आ जाएँ तो भी कुच्चू-गमलू के चेहरों में मुझसे फर्क नहीं हो सकेगा. मुझे अपने नकली आशिक होने पर जो भी शक था वह छंट रहा था. सच तो यह था कि मैंने लाल सिंह की अनुपस्थिति में सिर्फ और सिर्फ जीनातमान के बारे में सोचा था.
यह भी सच था कि जीनातमान के आगे अभी मैं बच्चा था. मैं छठी में था और वह शायद कॉलेज पूरा कर चुकी थी. लेकिन जिस तरह एक पिक्चर में हीरो-हीरोइन उम्र में बड़ा अंतर होने के बावजूद शादी कर के खुशी खुशी जीवन बिता ले जाते थे, वैसे ही अगर कभी उसकी मेरी शादी हो गयी तो मैं सबसे पहले उसके लिए एक हीरे की अंगूठी खरीदूंगा और उसकी उंगली में पिरोते हुए उससे कहूंगा, “देखो ये झबला मत पहनना कभी. तुम पर सूट नहीं करता. तुम्हें मेरी कसम है झबला कभी मत पहनना.”
लालसिंह से कुछ बहाना बना कर मैं अस्पताल के बाहर तक पहुँच गया. हालांकि मुझे पता था कि मेरे और लफत्तू के मम्मी-पापा वहीं थे और उनको दिखाई दे जाने पर फटकार पड़ने का चांस था अलबत्ता मुझे उम्मीद थी कि मुझे झबलाधारिणी जीनातामान दिख जाएगी और उसे एक दफा ढंग से देख कर मैं अपनी भावनाओं की सही-सही तौल कर सकूंगा.
अस्पताल के सामने स्थित बीज भण्डार की फैली हुई इमारत का एक कोना छिपने के लिए मुफीद जगह थी. मैं जगह देख ही रहा था कि रानीखेत जाने वाली सड़क की ओर से फुच्ची कप्तान आता नजर आया. इसी का मुझे भय था. मैंने कार्यक्रम में तुरंत परिवर्तन किया और उसकी नजर बचाकर सीधा बौने के ठेले पर मौज लूटने चला गया. बमपकौड़े ने रूह और जिस्म को तरावट पहुंचाई और आगामी प्रेम-योजना की बाबत विचार करता मैं घर की राह लग लिया.
पिछले ही दिन की तरह टट्टी मास्साब के आने से एक घंटे पहले ही नसीम अंजुम घर पहुँच चुकी थी और मेरी माँ-बहनों से बतिया रही थी.
“हम क्या बताएं आंटी आज सुबह क्या हुआ कि हमारी नींद थोड़ा पहले खुल गयी. पापा-मम्मी सोये हुए थे और नसीम अंजुम जाग गईं. अब हमने याद करने की कोशिश की कि हमने ऐसा कौन सा ख़्वाब देखा था जिसकी वजह से हम इतना जल्दी उठ गए. दिमाग पे जोर डाला तो याद आया कि हम तो सपने में स्कूल जा रहे थे अकेले अकेले. तो आंटी क्या हुआ ना कि हम जा रहे थे तो सामने से ये इतना बड़ा बब्बर शेर आ के खड़ा हो गया. हमें तो बहुत डर लगा. अकेले थे ना. तो नसीम अंजुम करे तो क्या करे ....”
मैं घुसा तो उसकी बकर-बकर चल रही थी. मैंने चोर निगाहों से उसकी दिशा में देखा. मेरा मुंह खुला का खुला रह गया. वह सुर्ख लाल फ्रॉक पहले साधना कट बाल काढ़ कर आई थी. वह हमेशा उस जगह बैठती थी जहाँ उस के चेहरे पर धूप पड़े. फिर वह अपनी अंगूठी वाली उंगली से अपनी नाक या गाल को सहलाती ताकि उसके नगीने से प्रतिविम्बित होकर जादुई रोशनी निकले और किसी पतंगे की तरह मैं उसमें कैद कर लिया जाऊं.
यह असह्य था. आँखें चौंधिया गयी थीं और अब मैं जीनातमान के नहीं नसीम अंजुम के बारे में सोच रहा था. मैंने भीतर घुसते ही बाहर का रुख किया तो माँ ने घुड़का, “अब कहाँ चले साहबजादे!”
मैंने बताया कि मुझे लफत्तू से कुछ काम है और यह भी कि मैं ट्यूशन से पहले पहले लौट आऊंगा.
लफत्तू के साथ सम्बन्ध ठीक करने में आधा मिनट लगा. उसे पिछली कोई भी बात याद नहीं थी. उलटे उसने मुझे दो दिन तक उसकी खबर न लेने के लिए लताड़ा. हम जैसे ही अकेले हुए मैंने उसके सामने पिछली सारी चीजें उगल दीं – मुन्ना खुड्डी, चम्बल, मंदिर की लूट, टट्टी मास्साब का बेटा, फुच्ची और बागड़बिल्ले का कमीनापन, जीनातमान के बाप का एक्सीडेंट, लालसिंह की मोहब्बत और आखिरकार अपने मन में चल रही नसीम-जीनातमान कशमकश.
“अपनी पलाई में मन लगा बेते. बलबाद हो दाएगा लौंदियों के तक्कल में!” गुरु होने का फर्ज निभाते हुए उसने सलाह दी.

5 comments:

ptkala said...

Ab sir ye to koi bat nahi hoti apne followers ko aaise hi beech majhdhar mein chor dena.. Hum to time loop mein hi atak kar reh jate hai... Lafatoo kab theek hoga.. Jeenatamman kis ki taraf jayegi.. Aur aap aur naseem bano ka tatti master beda par karwa payenge ya nahi.. Sirji kitna suspense... Aur kitna lamba lamba.. Aaisa na ho jaye ki kisson ke pora hone se pehle ji kai padhotagan ehlok mein apni yatra poori kar lein...

ptkala said...
This comment has been removed by the author.
Unknown said...

Nice

सञ्जय झा said...

Bahut waqt nikal liya........लपूझन्ना के पाठक का क्या कसूर है ....... होली तक एक सुपरहिट इस्टोरी आनी चाहिए । सादर।।

राज नारायण said...

वाह ! मज़ा आ गया. किसागोई का मज़ा किस्से में नहीं बल्कि इस भाषा शैली में है.