Thursday, April 2, 2020

जीनातमान की चिठ्ठी और मुन्ना खुड्डी की दगाबाजी के बीच गमलू कुच्चू की याद


पिछले कुछ दिनों से हर दोपहर सजने वाली चुस्सू महफ़िल में भाग लेने की नीयत से मैं लफत्तू के घर पहुंचा. उसका मूड उखड़ा हुआ लग रहा था और उसने मुझसे कोई बात नहीं की. लेटा-लेटा अपने सिरहाने धरी दवाइयों की शीशियों को उलट-पुलट कर व्यस्त होने का दिखावा करता रहा. मैं उसे अपनी नई मोहब्बत और मुन्ना खुड्डी की हरामजदगी के बारे में बताना चाहता था लेकिन उसका चेहरा बता रहा था कि वह किसी भी तरह की बात करने के मूड में नहीं है. दो-चार मिनट की खामोशी के बाद उसने अनमनी सी आवाज निकालकर मुझसे कहा, “आज बन्तू और दगुवा नईं आने वाले है. तू बी अपने घल जा और पलाई कल. तुदको नैन्ताल जाने की तयारी कलनी है. यहाँ आके तैम बलबाद मत कल.” मैंने उसकी बात को सुने बगैर ही कहना शुरू किया, “याल लफत्तू कल शाम क्या हुआ ना. वो नसीम अंजुम नहीं है नसीम अंजुम ...” “मेले कद्दू में गयी नतीम अंदुम फतीम अंदुम. तू अपने घल जा. मुदको बुखाल आ ला थुबे थे. पल्छान मत कल.” मैं समझ गया लफत्तू किसी बात को लेकर उखड़ा हुआ था. मैंने रुआंसी सूरत बनाते हुए उसके कमरे से रुखसत ली. “अरे कहाँ जा रहा है बेटा. खीर बना रही हूँ तुम्हारे लिए.” मुझे जाता देख लफत्तू की मम्मी ने रसोई से बोलना शुरू किया. मैं बाहर वाले कमरे में आ चुका था जहाँ उसकी दोनों बहनें सांपसीढ़ी खेल रही थीं. मैं तेज-तेज चलता हुआ बाहर निकल आया. मुझे तुरंत लालसिंह के पास पहुँच कर अपना दुःख सुनाना था. टट्टी मास्साब के ट्यूशन में अभी बहुत देर थी. घासमंडी के विस्तार में लकड़ी-घास के गठ्ठर बिकने के लिए धरे जा चुके थे. जंगल से उन्हें इकठ्ठा कर के लाईं औरतें गपिया रही थीं. पशु अस्पताल के बाहर परित्यक्त पड़े खोमचे के नीचे रहने वाली चितकबरी कुतिया ने कुछ समय पहले बच्चे दिए थे. महीने भर के हो चुके ये आधा दर्जन पिल्ले दुनिया भर के खेल खेलने में मसरूफ रहा करते थे. फिलहाल वे कहीं से हासिल किये गए एक फटे कुरते को नेस्तनाबूद करने का प्रोजेक्ट उठाये हुए थे. लालसिंह दुकान पर नहीं था. मैंने दूर से देख लिया मुंह में बीड़ी लगाए उसके पापा आदतन केतली धो रहे रहे थे. मैं अपनी जगह पर थम गया और सोचने लगा संकट की इस घड़ी में अब किसके पास जाया जा सकता है. झूठा मुन्ना खुड्डी मेरे पैसे नहीं दे रहा था, शाम को एक घंटे टट्टी मास्साब की दुर्गन्ध झेलनी थी, नसीम अंजुम ने दिल की लपट में सुबह से ही अपनी हांडी चढ़ा दी थी और घर वाले मुझे सुबह-शाम उपदेश देने से बाज नहीं आ रहे थे. ऊपर से मेरे जीवन का सूरज, मेरा उस्ताद लफत्तू मुझसे नाराज हो गया था. मुझे रोने का मन करने लगा. मुझे एक पिक्चर का वह सीन भी याद आया जिसमें समुन्दर के किनारे खड़ा, डूबते सूरज को देखता हीरो मोहम्मद रफ़ी का एक उदास गाना गाता है. कुछ भी करने से लाचार सड़क पर ठिठका खड़ा मैं कुछ तय करता, बंटू की आवाज आई, “ऊपर आ जा. पापा बरेली से शोले का रिकॉर्ड लाये हैं. जल्दी आ जा. आइसक्रीम भी लाये हैं.” वह अपनी खिड़की से मुंह बाहर निकाल कर पुकार रहा था. जिस तरह सब कुछ लुट चुकने के बाद भी एक सच्चा आशिक अपनी महबूबा की उसी गली में बार-बार फेरा मारने जाता है, जहां उसे बोरा भर-भर गालियाँ खाने को मिलती हैं और लतियाया-दुत्कारा जाता है, ‘शोले’ के रेकॉर्ड का नाम सुनते ही मैं अपने सारे गम भूल गया और मेरे कदम बंटू के घर की तरफ खिंच गए जो रेकॉर्ड की सुई हाथ में थामे उसे काले चक्के पर रखने का इन्तजार कर रहा था. डायलॉग चल रहे थे और मैं दस मिनट के भीतर गब्बर के रामगढ़ पहुँच गया था. रेकॉर्ड का खोल थामे बंटू लगातार कमेंट्री कर रहा था, “इसमें अमीताच्चन और धरमेंदर ने भौत अच्छा काम किया है पापा बता रे थे. और जो ये सफ़ेद साड़ी वाली ज्या भादुड़ी है ना इसने बी. तुझे पता है अमीताच्चन और जया भादुड़ी सच्ची मुच्ची वाली शादी कर के अब रामगढ़ में ही रहते हैं. और जो ये ठाकुर है न ठाकुर मतलब संजीव कुमार बिलकुल इसके जैसा ही कुर्ता मामाजी लखनऊ से लेकर आने वाले हैं मेरे लिए. आजकल इंडिया आये हुए हैं ना ...” रेकॉर्ड भी बंटू का था और उसका खोल भी. मैंने उससे एक बार खोल दिखा देने की याचना की तो उसने मुझे खारिज करते हुए कहा, “गंदा हो जाएगा पापा कह रहे थे.” इतनी बेइज्जती के बावजूद मैं बैठा रहा और कनखियों से कंधे पर फीतों वाली काली कमीज पहने गब्बर के चेहरे को देखने की कोशिश करता रहा. मुझे उस क्षण का इन्तजार था जब गब्बर सांभा से पूछता है, “कितने आदमी थे?” रामनगर के पिक्चर हॉल मालिकों पर गुस्सा आना शुरू हुआ. जिस गब्बर सिंह को अब तक कई दफा देख चुकना था उसकी एक असल झलक तक देखने को मैं तरस रहा था. इसके बावजूद लफत्तू ने बड़े लौंडों से सुनी-सुनाई बातों की मदद से खुद को हमारे लिए गब्बर के रूप में स्थापित कर रखा था. रेकॉर्ड सुनते हुए मुझे यह बहुत शर्म का विषय लगा कि मेरी अन्तरंग पहचान मंडली में एक भी ऐसा नहीं था जिसने साक्षात शोले देख ली हो. बस बंटू के पापा देख चुके थे लेकिन एक तो वे बंटू के पापा थे दूसरे काला चश्मा पहनते थे. काशीपुर के चैती मेले में शोले को लगे हुए एक साल बीतने को आया था लेकिन रामनगर के पिक्चर हॉल वाले अभी तक उसे लेकर नहीं आये थे. हमने सुन रखा था कि पिक्चर में बहुत भयंकर फाइटिंग है और एक गब्बर सिंह है जिसके नाम का सिक्का पूरे देश में ऐसा चला है कि दारासिंह उसके आगे बच्चा नजर आता है. शुक्र था कुछ महीने पहले, जब लफत्तू बीमार नहीं चल रहा था, हमने बाकायदा भीतर बैठ कर हिमालय टाकीज में 'रोटी कपड़ा और मकान' तीन बार देखी थी. भुच्चशिरोमणि मनोज कुमार की इस पिक्चर के दो सबसे बड़े आकर्षण थे. पहला यह कि जिन दिनों 'रोटी कपड़ा और मकान' लगी थी, सदा काली बैलबॉटम धारण करने वाले साईंबाबा का एक रिश्तेदार लौंडा मुरादाबाद से आया हुआ था. वह बेहद सिपला और नक्शेबाज था और हमारा हमउम्र होने के कारण कभी-कभी अपनी बोरियत मिटाने की गरज से हमारे साथ क्रिकेट वगैरह खेलने आ जाता था. अपनी बातों से उसने हमें लगातार दीनताबोध से भरा कि मुरादाबाद के सामने रामनगर की औकात एक गाँव से ज्यादा कुछ नहीं. वह नौ बार शोले देख चुका था. उससे हमारी यारी होने का कोई नैसर्गिक चांस नहीं था लेकिन उससे अंतरंगता होने की सबसे बड़ी वजह पिक्चरों का वह कीड़ा था जिसने उसे भी उसकी देह में उसी गुप्त जगह पर काटा था जहां हम पहले ही से नासूर पाले बैठे थे. उसी ने बताया कि 'रोटी कपड़ा और मकान' नई पिक्चर है और उसने नहीं देख रखी है. हम रामनगर वालों के लिए यही तथ्य बहुत बड़े सम्मान का विषय था जिसे हम लम्बे वक्फे तक विक्टोरिया क्रॉस की तरह लटकाए घूमते रहे. 'रोटी कपड़ा और मकान' का दूसरा आकर्षण यह था कि उस में रामनगर के हर छोकरे की महबूबा जीनातमान थी और खूब थी. उसमें दुनिया भर में मशहूर, अचूक टौंचे वाला मदन पुरी भी था जिसके हरामीपन के हम सब मुरीद थे और जब तक वह स्क्रीन पर रहता हमारे भीतर मीठी ऐंठन जैसा कुछ लगातार चुभता रहता. असल में हम जीनातमान के आशिक होने के साथ साथ मदन पुरी के गुलाम भी थे. वैसा कमीना गद्दार हिन्दी की पिक्चरों में फिर कभी नहीं आया. उस समय तक हम अमीताच्चन और ससी कपूर जैसे लौंडे एक्टरों के बारे में ज्यादा मालूमात नहीं रखते थे अलबत्ता सतरूघन सिन्ना, राजेस खन्ना और देबानन के अलावा एक सीमा तक उस समय तक के सबसे मनहूस एक्टर राजेंदर कुमार को अपने नगर के पिक्चर हॉल मालिकों की कामचोरी और काइयांपन के कारण भली तरह पहचानने लगे थे क्योंकि वे बार-बार तीन-चार साल पुरानी फिल्म को नई पिक्चर कह कर एडवरटाइज करते थे और साल में दो-दो दफा 'मुग्लेआजम', 'लैला मंजूर' और 'मंगू' को दो-दो हफ्ते चलाने की गंदी आदत से लाचार थे. नतीजतन ये तीन फ़िल्में हमें रट गयी थीं. पिक्चर हॉल मालिकों के ऐसे घिनौने करतब ही अमूमन हमारी बातचीत के सबसे ज्वलंत विषय हुआ करते. इस मायने में 'रोटी कपड़ा और मकान' को रामनगर के हिसाब से काफी नई पिक्चर माना जा सकता था. हमने पिक्चर के जितने मजे लूट सकते थे लूटे. सारे गाने हमें रट गए और साथ होने पर हम दोस्त उन्हें गाया करते. इसके नतीजे में हमारे तोतले और जांबाज सेनापति लफत्तू ने एक नई सांस्कृतिक विधा का आविष्कार किया जिसके अंतर्गत वह 'हाय हाय ये मजबूली' पर अपनी जाँघों, सीने और माथे पर थाप मारता हुआ ऐसा कव्वालीनुमा कैबरे करता था कि उसके शुरू होने पर हमें शरमाकर मंडली में से अपने से छोटी उम्र के बच्चों को बाहर चले जाने को कहना पड़ता. वे शिकायत करते तो हम उनसे कहते - "बच्चों के मतलब का आइटम नहीं है बेटे!" एक दिन जब लफत्तू का यह कार्यक्रम चल रहा था, फुच्ची कप्तान ने गाने को बीच में टोक कर लफत्तू से उस लाइन का मतलब पूछा जिसमें जीनातमान दो टकियाँ दी नौकरी में अपने लाखों के सावन के जाने का उलाहना देती हुई भारत कुमार को लपलपा रही होती है. जाहिर है न लफत्तू को दो टकियाँ और लाखों के सावन का का अर्थ आता था न हम में से किसी और को. इतना ऊंचा काव्य समझने लायक बालिग अभी हम नहीं हुए थे. इसके बाद हुए लम्बे विचार-विमर्श के बाद तय पाया गया कि चूंकि मैं अपनी क्लास के सबसे होशियार बच्चे के तौर पर स्थापित हो चुका था, अगले दिन स्कूल में गंगाप्रसाद 'गंगापुत्र' मास्साब उर्फ़ प्याली मात्तर से मुझे इस सवाल का जवाब पूछना था. प्याली मात्तर ने अटेंडेंस ली ही थी, मैंने पूछ ही लिया. इसके बाद अपना सुतली वाला चश्मा उतार कर उन्होंने मुझे और आगे की सीट पर बैठे बच्चों को इतना मारा कि उनकी संटी टूट गयी. वे कांपते हुए चीख रहे थे, "एक तरफ जो है इन्द्रा गांधी ने इमरजन्टी लगा रखी है और तुम पिद्दियों की पिछाड़ी में सावन की आग लग रही है हरामजादो! अपने माँ-बापों से पूछना सालो ..." वे गालियाँ बकते जाते थे और संटियाँ मारते जाते थे. जाहिर है अपने माँ-बापों से क्या किसी से भी इस खतरनाक गाने का अर्थ पूछने की हिम्मत हममें से किसी की भी न थी. हाँ कई हफ़्तों तक हम इस एक बात को लेकर असमंजस में रहे कि हमारी जानेमन, हमारे ख़्वाबों की मलिका जीनातमान ऐसा हौकलेट गाना गाने को राजी कैसे हो गयी जिसका जिक्र भर करने से बुढ्ढा प्याली मात्तर जल्लाद में बदल गया. “प्याली मात्तर और इन्द्रा गांधी सई लोग नईं हैं बेते!” – लफत्तू ने फैसला सुनाया था. ‘शोले’ का रेकॉर्ड बज रहा था और मेरा दिमाग लफत्तू के साथ बिठाये स्वर्णिम समय की स्मृतियों में गोते खा रहा था. अचानक गब्बर का वह डायलॉग आ गया, “जो डर गया वो मर गया!” पिछले कुछ समय से इस डायलॉग पर सिर्फ और सिर्फ लफत्तू का कॉपीराइट था और मैं बेचैन होने लगा. बंटू कमेंट्री करता जा रहा था, “मामाजी बता रे थे जब ठाकुर और धरमेंदर-अमीताच्चन वाले सीन की शूटिंग चल रही थी तो वहां इतनी भीड़ इकठ्ठी हो गयी थी कि सरकार को डर के मारे दिल्ली से दो हजार पुलिसवाले बुलाने पड़ गए थे. बंटू मेरे व्याकुल मन के भीतर लगातार मठ्ठा डाल रहा था और मैं उकताने लगा था जब भाग्यवश सड़क से “बीयोओओओई!” का हांका लगा. मैंने झटपट खिड़की से झांक कर देखा. अपनी आधी आँख को चौथाई मारता बागड़बिल्ला खड़ा था और बाहर आने का इशारा कर रहा था. मैं जाने लगा तो बंटू बोला, “रुक ना. इतनी गर्मी में कहाँ जा रहा है! अभी मम्मी लोग आ जाएंगे तो आइसक्रीम खिलाऊंगा. पापा कह रहे थे ...” मैंने मन ही मन बंटू के पापा को अपने कद्दू पर बिठाया और मिनट से पहले बागड़बिल्ला और मैं लालसिंह की दुकान पर बैठे दूध-बिस्कुट का आनंद लूट रहे थे. बाजार से सौदा-पत्तर निबटा कर लालसिंह लौट आया था और मुझे छेड़ रहा था, “बड़ा कैरी माल आया था बे तेरे घर में. कौन है ये नई लौंडिया?” अब मुझे लालसिंह पर गुस्सा आने लगा. वह मेरी माशूका को लौंडिया कह रहा था. मैंने अधखाया बिस्कुट चीकट मेज पर रखा और बाहर निकलने लगा, “लौंडिया नहीं है तेरी भाभी है यार लालसिंग. हर बात में इतनी मजाक ठीक नहीं होती हाँ!” “अबे हरामी!” लालसिंह ने उसी मोहब्बत से मुझे पुचकारा जिसके चलते वह मुझे अपने माँ-बाप से बड़ा अभिभावक लगता था. “इधर आ के बैठ और अपना बिस्कुट ख़तम कर. ऐसे मेरी बात का बुरा मानेगा तो हो गया तेरा नैनताल जाना.” अब तक बागड़बिल्ले ने अपनी जेब से एक कागज़ का टुकड़ा निकाल लिया था. उसने मुझे पढ़ने को दिया. देखते ही मैं फुच्ची कप्तान की हैण्डराइटिंग पहचान गया. “क्या है?” मैंने उखड़ते हुए पूछा. “चिठ्ठी है. फुच्ची ने कहा है तू ठीक कर देना.” “किसको लिखनी है?” मैंने पूछा तो उसने दो उँगलियों की मदद से किया जाने वाला वही अश्लील संकेत किया और लार टपकाता, मुदित होता हुआ बोला, “जीनातमान को. और किसको.” मैंने गौर किया जीनातमान का नाम आते ही लालसिंह चौकन्ना हो गया. उसने मेरे हाथ से कागज़ छीना और उसका मजमून देखने के बाद बागड़बिल्ले को लताड़ लगाई, “और कोई काम नहीं रह गया इस लौंडे को कि साले उस भुसकैट देसी लौंडे के लिए लवलेटर लिखता रहे. बिचारे को पढ़ाई करनी है. इम्त्यान देना है. नैनताल के हौस्टिल में जाना है. फुच्ची का क्या है. आज साला अपने बाप के साथ छर्री कप-पलेट बेच रहा है कल कच्छे-बंडी बेचने लगेगा. हुंह! कबी साला मधुबाला के लिए चिठ्ठी लिखो कभी उस बिचारी लड़की के लिए.” इसमें कोई शक नहीं था कि इन परम हरामी किस्म के यार-दोस्तों की संगत ने मुझे भी परम हरामी बना दिया था. हालांकि अभी मुझे पक्का नहीं था लेकिन लालसिंह की आवाज की टोन से शक होने लग गया था कि मामला एक फूल दो माली टाइप का है. “अब देख लेना यार” कहता हुआ बागड़बिल्ला जाने लगा, “मुझे भवानीगंज जाना है. बाबू ने दो हप्ते से एक खाट दे रक्खी रिपेर करने को. साला बना केई नईं दे रहा कब से...” बागड़बिल्ला नज़रों से गायब हुआ तो लालसिंह मेरी बगल में आकर बैठ गया. “देख यार. तू होशियार लौंडा है. कुछ दिन ढंग से पढ़-हढ़ ले और जा नैनताल के हौस्टिल. इस साले रामनगर में रखा ही क्या हुआ. भूसा हुआ साला भूसा. यहाँ रहेगा तो मेरी तरह कप-पलेट धोता रहेगा. और कुछ नहीं. और ज़रा ये इस टाइप के लौंडों से दूर रहा कर. मैं अभी लफत्तू के घर से आ रहा हूँ. उसकी मम्मी ने बकरी का दूध मंगाया था. बड़ी मुश्किल से बम्बाघेर में मिला साला.” इसके बाद लालसिंह ने मुझे सूचित किया कि लफत्तू मुझसे नाराज था. जगुवा पौंक और बागड़बिल्ले की चुगलखोरी की पुरानी आदत की वजह से लफत्तू को पिछली रात ही पता चल गया था कि मैंने और मुन्ना खुड्डी ने उस दिन चम्बल भ्रमण के बाद मंदिर लूटा था और यह भी कि लूट की रकम में से मुझे अपना हिस्सा नहीं दिया गया था. “और ये तेरी भाभी वाला क्या चक्कर है बे?” उसने मेरी पसलियों को कोंचते हुए पूछा. जीवन हजार आशंकाओं और भयों से भर रहा था. कुछ ही देर में टट्टी मास्साब ट्यूशन पढ़ाने आने वाले थे. नसीम अंजुम के आने से पहले मुझे अपने आपको भरसक स्मार्ट बना लेना था. बिना बात के लफत्तू नाराज हो गया था. मेरी निगाह सामने पशु अस्पताल के गेट पर चली गयी. खेलने से थक चुके पिल्ले अपनी माँ से चिपके हुए दूध पी रहे थे. और भीतर देखने पर वह घर नजर आता था जिसमें कुच्चू और गमलू रहते थे. कुच्चू और गमलू जिनमें से एक के लिए इतने महीनों बाद भी बीमार लफत्तू का दिल अब तक धड़कता था. मैं लगातार स्वार्थी होता जा रहा था. मैं अपने उस्ताद की बातों पर कम ध्यान दे रहा था. अभी तीन दिन पहले ही तो वह उदास होकर मुझ से पूछ रहा था, “कुत्तू-गम्लू क्या कल्ले होंगे यार हल्द्वानी में. कां होंगे बिताले?” मैं अचानक ओट में जाने को मजबूर हो गया. एक चमकदार तितली से सजे बालों का जूड़ा बनाए, हाथों में दो कापियां लिए, नीले रंग का स्कर्ट-टॉप पहने टक-टक करती नसीम अंजुम मेरे घर की तरफ जा रही थी. लालसिंह भी उसे ही देख रहा था.

1 comment:

sushil shivhare said...

वाह - वाह , सहज,मनमोहक,धारावाहिक,प्रस्तुति।फिर से बचपन मे ले जाने के लिए धन्यवाद,गज़ब की लेखनी.......