Friday, October 12, 2007

बागड़बिल्ले का टौंचा माने ...




रामनगर आने के बाद मुझे भाषा के विविध आयामों से परिचित होने का मौका भी मिला. मुझ से थोड़ा बड़े यानी करीब बारह-तेरह साल के लड़के गुल्ली डंडा और कंचे खेला करते थे. लफत्तू मेरी उमर का था लेकिन चोर होने के कारण ये बड़े लड़के उसे अपने साथ खेलने देते थे. उस का नया दोस्त होने के नाते मुझे खेलने को तो कम मिलता था लेकिन मैं उन के कर्मक्षेत्र के आसपास बिना गाली खाए बना रह सकता था. गुल्ली-डंडा खेलते वक़्त वे मुझे अक्सर पदाया करते थे लेकिन मैं उन के साथ हो पाने को एक उपलब्धि मानता था और ख़ुशी-ख़ुशी पदा करता था.

कभी-कभी (ख़ास तौर पर जब लफत्तू अपने पापा के बटुए से चोरी कर के आया होता था), ये लड़के घुच्ची खेलते थे. घुच्ची के खेल में कंचों के बदले पांच पैसे के सिक्कों का इस्तेमाल हुआ करता था. पांच पैसे में बहुत सारी चीज़े आ जाया करतीं. लफत्तू इस खेल में अक्सर हार जाता था क्योंकि उसका निशाना कमजोर था. वह आमतौर पर अठन्नी या एक रूपया चुरा के लाता था. बड़े नोट न चुराने के पीछे उसकी दलील यह होती थी कि उन्हें तुड़वाने में रिस्क होता है.

घुच्ची में पांच पैसे के सिक्के चाहिऐ होते थे जो वह आमतौर पर शेरदा की चाय की दुकान से या जब्बार कबाड़ी से चुराई गयी अठन्नी-चवन्नी तुड़ा कर ले आता था. एक बार वह पूरे पांच का नोट चुरा लाया था. वह मुझे अपने साथ लक्ष्मी बुक डिपो ले कर गया. वहाँ जा कर उसने मुझसे कहा कि मैं अपने लिए 'चम्पक' या 'नन्दन' खरीद लूँ. मुझे अपने साथ वह इसलिये लेकर गया था कि मुझे बकौल उसके होस्यार माना जाता था. और ऐसे बच्चों पर कोई शक नहीं करता.

कृतज्ञ होकर मैंने नन्दनखरीद ली. पांच का नोट मेरे हाथ से लेते हुए लक्ष्मी बुक डिपो वाले लाला ने एक नज़र मेरे उत्तेजना से लाल पड़ गए चेहरे पर डाली लेकिन कहा कुछ नहीं. फिर उसने मेरे पिताजी का हाल समाचार पूछा. गल्ले से पैसे निकालते हुए उस ने तनिक तिरस्कार के साथ लफत्तू की तरफ देखते हुए मुझी से पूछा :

इस लौंडे का भाई आया ना आया लौट के?”

सारा शहर जानता था कि लफत्तू का बड़ा भाई पेतू हाईस्कूल में तीसरी दफ़ा फेल हो जाने के बाद घर से भाग गया था.

अपने पैते काटो अंकलजी और काम कलोलफत्तू ने हिकारत और आत्मविश्वास का प्रदर्शन करते हुए अपनी आंखें फेर लीं.

ये आजकल के लौंडे …” कहते हुए लाला ने मेरे हाथ में पैसे थमाए. लफत्तू की हिम्मत पर मैं फिदा तो था ही अब उसका मुरीद बन गया.

हम देर शाम तक मटरगश्ती करते रहे थे. बादशाहों की तरह मौज करने के बावजूद दो का नोट बचा हुआ था. घर जाने से पहले घुच्ची के अड्डे पर सिक्कों की कमी का तकनीकी सवाल उठा. बदकिस्मती से उस दिन शेरदा की दुकान बन्द थी और जब्बार कबाड़ी भी कहीं गया हुआ था. मजबूर होकर लफत्तू साह जी की चक्की पर चला गया. साह जी ने लफत्तू को टूटे पैसे तो नहीं दिए उसके पापा को ज़रूर बता दिया. उस रात लफत्तू को उसके पापा ने नंगा कर के बैल्ट से थुरा था. तब से लफत्तू ने अठन्नी, चवन्नी या हद से हद एक का नोट की लिमिट बाँध ली. चक्की पर हुए हादसे के बाद नन्दनघर ले जाने की मेरी हिम्मत नहीं थी सो मैं उसे रास्ते में गिरा आया.

घुच्ची खेलने में बागड़बिल्ला के नाम से मशहूर एक आवारा लड़का उस्ताद था. उसकी एक आंख में कुछ डिफ़ेक्ट था और उसे गौर से देखने पर ऐसा लगता था कि पांच के सिक्के पर निशाना लगाने के वास्ते भगवान ने उसे रेडीमेड आंखों की जोड़ी बख्शी थी. उसकी छोटी आंख वाली पुतली का तो साइज़ भी पांच पैसे के सिक्के जैसा हो चुका था. बागड़बिल्ला नित नए-नए मुहाविरे बोला करता था. संभवत: वह स्वयं उनका निर्माण करता था क्योंकि इतने साल बीत जाने के बाद भी मैंने उसके बोले जुमले आज तक न किसी शहर में सुने हैं न ही किसी दूसरे के मुखारविन्द से. उसके मुहाविरों को मैं अक्सर पाखाने में या नहाते समय धीरे-धीरे बोला करता था. उस वक्त ऐसी झुरझुरी होती थी जैसी कई सालों बाद पहली बार सार्वजनिक रूप से एक बड़ी गाली देते हुए भी नहीं हुई.

निशाने को बागड़बिल्ला टौंचाकहा करता था. लेकिन टौंचे का असली ख़लीफ़ा तो हमारे शहर और जीवन से कई प्रकाशवर्ष दूर बम्बई में रहता था. जिस दिन कोई दूसरा लड़का जीत रहा होता था बागड़बिल्ला उसकी दाद देता हुआ भारतीय फिल्मों के एक चरित्र अभिनेता को रामनगर के इतिहास में स्वणार्क्षरों में अंकित करता अपना फेवरिट जुमला उछालता था : आज तो मदनपुरी के माफिक चल्लिया घनसियाम का टौंचा. 

3 comments:

काकेश said...

घुच्ची तो हमुन ले खेल राखी दाज्यू.

आज आपने बचपन की याद दिला दी.

http://kakesh.com

शिरीष कुमार मौर्य said...

क्या बात है साब जी ! सही चिल्लया जे टौंचा! जारी रक्खो, बड़ा माल बनेगा!

अभिनव said...

बढ़िया...