बन्टू के एक मामा विदेश में रहा करते थे. उनका पूरा परिवार हफ़्ते-दस दिन के लिए रामनगर आया. इन दिनों में बन्टू ने मुझे और लफ़त्तू को अपनी अनदेखी से इस कदर जलील किया कि एक शाम घुच्ची-प्रतियोगिता के उपरान्त उचाट होकर खेल मैदान की चारदीवारी पर विचारमग्न लफ़त्तू ने बन्टू के परिवार की स्त्रियों को याद करते हुए आदतन ज़मीन पर थूकते हुए कहा: "थाला बन्तू अपने को ऐते छमल्लिया जैते तत्ती कलने बी कोत-पैन्त पैन के दाता होगा."
"तल" कह कर उसने मेरा हाथ थामा और मुझे खींचता हुआ बौने के ठेले की दिशा में ले चला. घुच्ची से बचे पैसों से उसने मुझे बमपकौड़ा सुतवाया. पहली बार बमपकौड़ा इस कदर बेस्वाद लगा था मुझे. मिर्चभरी चटनी के कारण बह आई अपनी पिचकी नाक को लफ़त्तू ने आस्तीन से पोंछा और बन्टू द्वारा हाल में प्रदर्शित की गई नक्शेबाज़ी को लानतें भेजते हुए घोषणा की: "कौन थाला बन्तू का मामा लामनगल में ई रैने वाला ऐ बेते! लात्त में लौतेगा तो गब्बल के पात ई ना बेते. तब देकना यां पे बिथाऊंगा थाले को!" कहकर लफ़त्तू ने अपनी नेकर के गुप्त स्थान की तरफ़ इशारा किया, मुझे आंख मारी और " ... दान्त तत ... उहुं ... उहुं ... " गाते, मटकते अपनी नैसर्गिक लय को प्राप्त कर लिया. मुझे मेरे घर के बाहर छोड़कर उसने बन्टू की खिड़की की तरफ़ मुंह उठाया और "ओबे मामू ... बीयो ... ओ ...ओ ...ओ... ई..." का नारा बुलन्द किया.
बन्टू के मामा उस के लिए एक फ़ैन्सी टाइप का कैरमबोट लाए थे - खरगोश-बिल्ली इत्यादि के आकर्षक काल्टूनों से सुसज्जित गोटियों का सैट और सुर्ख़ लाल श्टैकर. इस के अलावा बन्टू के लिए काला चश्मा- चाकलेट-जाकिट-लाल पाजामा-माउथऑर्गन और जाने क्या-क्या. बन्टू दिन के किसी एक पहर मेरे पास आता, इन में से किसी एक चीज़ को मुझे दिखा कर ललचाता और ज्यों ही मैं उसे छूने को होता, "न्ना! तू तोड़ देगा! भौत महंगा है बता रहे थे मामाजी!" कहकर छलांगें मारता वापस अपने घर बक़ौल लफ़त्तू अपने मामू के पास अपनी देह के क्षेत्रविशेष की हत्या करवाने चला जाता.
क्लास में अरेन्जमेन्ट में एक रोज़ नेस्ती मास्टर उर्फ़ विलायती सांड यानी टुन्ना झर्री के पिताश्री की बारी लगी. परम मनहूस नेस्ती मास्टर को देख कर लगता था जैसे एक करोड़ मक्खियों का अदॄश्य दस्ता उनके मुखमण्डल के चारों को भिन्नौटीकरण में लीन हो. नेस्ती मास्टर बम्बाघेर में रहा करते थे. जाहिर है उनका महान पुत्र टुन्ना भी वहीं रहता था. हमारा क्लासफ़ैलो जगदीस जोसी उर्फ़ जगुवा पौंक भी इसी मोहल्ले का बाशिन्दा था.क्लास में घुसते ही नेस्ती मास्टर ने जगदीस को ताड़ लिया और बिना अटैन्डेन्स लिए उस से पूछा: "टुन्ना को देखा तैने?"
"नईं मास्साब"
"अच्छा!" कहकर नेस्ती मास्टर ने एक कराह जैसी जम्हाई ली और कुर्सी पर लधर गए. लधरावस्था में ही उन्होंने जगुवा पौंक से कहा "ये रईश्टर में सब बच्चों के नाम के आगे उपस्थित लिख दीजो जगुवा" और आंखें मूंदे क्लास को निर्देशित करते हुए चेताया: "अब चुपचाप बैठे रइयो सूअरो! और खबरदार जो तंग करा तो!"
नेस्ती मास्टर को आलस्य के अलावे दो अन्य जैविक क्रियाओं में महारत हासिल थी. वे ख़र्राटे भरते हुए भी अपने स्थूल पृष्ठक्षेत्र को बांईं तरफ़ से ज़रा सा उठा कर करीब हर चौदह मिनट के उपरान्त संगीतमय वायु विसर्जन कर लेते थे और हर सोलहवें मिनट पर "ख्वाक्क" करते हुए थूक का एक परफ़ेक्ट गोला हवा में उछालते थे जिसकी ट्रैजेक्टरी उनकी वर्षों की तपस्या के बाद इतनी सध चुकी थी कि सीधी निकटतम नाली के बीचोबीच गिरती - हमेशा.
इस प्रकार थूकते, विसर्जित आवाज़ें निकालते विलायती सांड मास्साब दो पीरियड तक खर्राटे मारते रहे.
"इत्ते खतलनाक मुजलिम का बाप इत्ता तूतिया बेते! बली नाइन्तापी ऐ दद थाब, बली नाइन्तापी ऐ! तुन्ना पता नईं कैते पैदा कल्लिया इत थुकैन-गनैन मात्तल ने! हत थाले को!" लफ़त्तू ने खिड़की से बाहर फांदते हुए दबी आवाज़ में कहा.
बाहर से उसने मुझे भी कूद जाने का इशारा किया तो मैंने निगाहें फेर लीं. लफ़त्तू " ... दान्त तत ... उहुं ... उहुं ... " गुनगुनाता खेल मैदान से होता हुआ बमपकौड़े के ठेले तक पहुंच चुका था.
नेस्ती मास्टर के जाते ही घन्टा बजना शुरू हुआ तो बजता ही रहा. कुछ सीनियर लौंडे आकर बता गए कि परजोगसाला सहायक चेतराम की बीवी मर गई है और सारे बच्चों को असेम्बली मैदान पर जमा होना है.
धूल-हल्ले-चीखपुकार इत्यादि के बीच अन्ततः जब चीज़ें सामान्य हुईं तो गोल्टा मास्साब ने लौडश्पीकर पर एलौंस किया कि स्कूल के परजोगसाला सहायक सिरी चेतराम जी की जीबनसंगिनी जी उहलोक यात्रा पर निकल गईं हैं जिसकी एवज़ हम लोग दो मिनट का मौन रखेंगे.
ऐसा कहते ही गोल्टा मास्साब चुप हो गए और उनकी निगाहें जूतों से चिपक गईं. जाहिर है हम से भी यही उम्मीद की जाती थी. लफ़त्तू पता नहीं कब और किस रास्ते से वापस आकर मेरे ठीक पीछे खड़ा हो चुका था. मैंने निगाह उठाकर चारों तरफ़ देखा. ज़्यादातर लोग सिर झुकाए थे. कुछेक लड़के खीसें निपोरे अपनी शरारतों में व्यस्त थे. मगर बोल कोई नहीं नहीं रहा था - लफ़त्तू के सिवा. फ़ुसफ़ुस फ़ुसफ़ुस करते हुए उसने मुझे सूचित किया कि बन्टू का अंग्रेज़ मामा वापस चला गया है और यह भी कि मौन के बाद छुट्टी हो जानी है. छुट्टी के बाद उसने मेरी तरफ़ से भी यह तय कर लिया था कि हम लोग सीधे वापस घर न जा कर पहले जगदीस जोसी के साथ बम्बाघेर जाएंगे और हुआ तो टुन्ना दर्शन कर आएंगे. बन्टू को नहीं ले जाया जाएगा क्योंकि वह दगाबाज़ इन्सान है.
लफ़त्तू यह सब बता ही रहा था कि आसपास की एक कतार से किसी एक लड़के की हंसी छूटने की आवाज़ आई. उसका हंसना था कि तकरीबन आधे लड़के अपनी दबी हुई हंसी पर कन्टौल न कर सके. दो-चार सेकेन्ड बीते और सम्भवतः दो ऑफ़ीशियल मिनट पूरे हो गए. जैसे छापामार दस्ते पहाड़ों के बीच अवस्थित दर्रों के बीच से अचानक प्रकट होकर लापरवाह पुलिसवालों की ठुकाई कर जाया करते हैं उसी अन्दाज़ में सारे मास्टरों ने दो मिनट का मौन ख़त्म होते ही असेम्बली मैदान को जलियांवालाबाग में तब्दील कर दिया. मुर्गादत्त मास्साब ने जरनील डायर के रूप में अपने आप को स्वतः नियुक्त कर लिया था. बच्चों की धुनाई चल रही थी और स्वर्ग से इस दॄश्य का अवलोकन कर रही परजोगसालासहायकार्धांगिनी की आत्मा को शान्ति प्राप्त हो रही थी.
लफ़त्तू और मुझे भी बेफ़िजूल बिलावजह कुछेक सन्टियां खानी पड़ीं.
जलियांवालाबाग काण्ड की वजह से लगी चोटों और दर्द के बावजूद लफ़त्तू द्वारा निर्धारित कार्यक्रम में कोई तब्दीली नहीं आई. जगदीस जोसी उर्फ़ जगुवा पौंक के नेतृत्व में मैं और लफ़त्तू बम्बाघेर में प्रवेश कर चुके थे. किसी पिक्चर में देखे गए राजकुमार जानी की अदा से मैं अपनी निगाहें किसी जासूस की भांति भरसक चौकस बनाए हुए था कि कहीं ऐसा न हो टुन्ना सामने से गुज़र जाए और हम उसके दर्शन भी न कर सकें.
जगुवा बहुत उत्साहपूरित था. वह रास्ते भर हमें टुन्ना के ऐतिहासिक कारनामों और उसकी अकल्पनीय उपलब्धियों के बारे में तीन-चार महाग्रन्थों की सर्जना कर चुका था. जीनातमान के नाच के बाद मुसलिए लौंडों द्वारा टुन्ना को पीटे जाने की ख़बर उसे थी पर उस बाबत उसने ज़्यादा बातें नहीं कीं क्योंकि इस में बम्बाघेर मोहल्ले की बेज्जती खराब होने का चान्स था. हम खुद इस बारे में बहुत ऑथेन्टिक कुछ नहीं जानते थे. ऊपर से हम टुन्ना की कर्मस्थली में पर्यटक बन कर जा रहे थे सो चुप लगा जाने में ही हमारी बेहतरी थी.
लफ़त्तू के घर पर एक शानदार कैरमबोट था. सप्ताह-दो सप्ताह में एक बार हम बच्चों को उस पर हाथ साफ़ करने का मौका मिलता था. लफ़त्तू कमेन्टेटर सलाहकार का काम किया करता था. जगदीस जोसी से हमारी निकटता इसी कैरमबोट से जुड़ी हुई थी. एक दफ़ा वह अपने किसी रिश्तेदार के घर अपने परिवार के साथ आया था जब हमें सड़क पर कैरम खेलता देख कर उसने अपनी माता से रिश्तेदार के घर जाने के बजाय हमारे साथ खेलने की इजाज़त ले ली. दयावान लफ़त्तू ने उसे एक टीम का मेम्बर बना लिया. खेल शुरू होते ही न खेलता हुआ भी लफ़त्तू क्यून को लेकर खस तरह से संजीदा और इमोशनल हो जाया करता. जिसके हाथ में श्टैकर होता, वह अपरिहार्य रूप से उसे "ओबे क्यून कबल कल्ले!" की सलाह देने में ज़रा भी देर नहीं लगाता. इस से होता यह था कि खिलाड़ियों का कन्सन्ट्रेशन भंग होता और खेल बहुत लम्बा खिंच जाता.
जगदीस बहुत तेज़ी से गोटियां पिल कर रहा था और अप्ने कैरम कौशल से हमारे कॉन्फ़ीडेन्स की ऐसीतैसी किये हुए था. जगदीस की टीम की एक गोटी बची हुई थी और हमारी सात या आठ. क्यून अभी कबल होना बाकी थी. "हनुमान्दी का नाम ले के क्यून कबल कल्ले बेते" कहता हुआ लफ़त्तू उत्साहातिरेक में उछल रहा था.
जगदीस ने श्टैकर जमाया, कैरमबोट के कोने पर से फूंक मार कर पौडर उड़ाया और निगाहें पिल से तकरीबन चिपकी हुई क्वीन पर लगाईं. इन फ़ैक्ट कोई बच्चा भी उसे भीतर डाल सकता था और इसके अलावा कवर वाली गोटी भी पिल में ढुलक पड़ने को तैयार थी. जगदीस ने निशाना साधकर शॉट मारा पर श्टैकर फ़ुस्स पटाखे जैसा रपटा और आधे कैरमबोट की दूरी भर पार कर सका. जगदीस की खूब थूथू हुई. एक राउन्ड के बाद श्टैकर पुनः जगदीस के पास था और खेल की हालत कमोबेश वही थी. "पौंकना मत बेते" कहकर लफ़त्तू ने उसका हौसला बढ़ाया. किसी भी काम की मंज़िल पर पहुंचने से ऐन पहले नर्वस होकर घुस जाने को रामनगर में "पौंक जाना" कहते थे. इस बार भी जगदीस का श्टैकर फ़ुस्सा गया. अगली पांच-छः बार भी. राउन्ड हम लोग जीते और जगदीस जोसी जगुवा पौंक की उपाधि से सम्मानित हो गया.
क्वीन कवर करने को लफ़त्तू एक दूसरे अर्थ में प्रयुक्त किया करता. मुझे मेरी मोहब्बतों के लिए लाड़ से छेड़ता वह अपनी दो उंगलियों को एक खास अंदाज़ में मोड़कर मुझसे कहता: "मदुबाला मात्तरानी की क्यून कबल कलेगा बेते." फिर कमीनी हंसी हंसकर आगे जोड़ता "जगुवा की तरै पौंकना मती बेते!"
जगुवा पौंक हमें ज़िद कर के अपने घर ले गया. उसकी माता ने हमें परांठे और पालक की सब्ज़ी खिलाई. जगदीस का छोटा भाई भी था - परकास. परकास तरबूज़े का एक बहुत बड़ा टुकड़ा भकोसने में लगा हुआ था और हमें ताक रहा था. लफ़त्तू ने इशारा कर के उसे अपने पास बुलाया तो जगदीस बोला "उसके पैर खराब हैं. चल नहीं सकता परकास."
न मुझसे उसके बाद पराठा खाया गया न परकास की तरफ़ देखा गया. बाहर आए तो जगुवा ने करीब बीस मीटर दूर से हमें एक घर दिखाते हुए कहा: "वां रैता है टुन्ना झर्री!"
नेस्ती मास्टर बरामदे में बैठे थे. स्कूल से वापस आकर वे रामनगर के अधेड़ नागरों की औपचारिक राष्ट्रीय पोशाक अर्थात पट्टे का धारीदार घुटन्ना और दर्ज़ी द्वारा सिली गई तिरछी जेब वाली बण्डी धारण कर चुके थे. वे बीड़ी पी रहे थे और प्रिंसीपल साहब के दफ़्तर के बाहर लगे 'प्रैक्टिस मेक्स अ मैन परफ़ैक्ट' के नारे से प्रेरित होकए नाली में थूकने की विधा के रियाज़ में व्यस्त थे. उनकी पिछाड़ी यदा कदा एक तरफ़ को ज़रा सा उठती थी और आसपास के माहौल थोड़ा सा आयुर्वेदिक हो जाता.
"हत! थाला पादू मात्तर" कहकर लफ़त्तू ने जवाबी थूक निकाला और करते हुए कहा: "तुन्ना के छामने इत मात्तर की हिम्मत ना होती होगी पादने की! थाला थुकैन मात्तर!"
इतने मे टुन्ना सिर झुकाए घर के भीतर से बाहर अहाते में आया. हम पानी के पब्लिक नल की आड़ में हो गए. टुन्ना के हाथ में गिलास या कटोरी जैसा कोई बर्तन था जिसे उसने नेस्ती मास्टर को प्रस्तुत किया. नेस्ती मास्टर ने उसे टुन्ना के हाथ से तकरीबन छीनकर झपटा और झटके से ज़मीन पर दे मारा. टुन्ना उसे उठाने नीचे झुका तो उसके पिताश्री ने उसकी पिछाड़ी पर दुलत्तीनुमा लात धरी और "ख्वाक्क!" कर के नाली की दिशा में थूक का गोला प्रक्षेपित किया.
महानायक टुन्ना अपने घर में कुत्ते से गई गुज़री ज़िन्दगी बिताने को विवश था. और यह दॄश्य हम से आगे नहीं देखा जा सका.
"पिछले साल टुन्ना की भैन खलील नाई के साथ भाग गई थी. कटुवों ने उसका नाम भी बदल दिया था कह रहे थे. एक महीना पहले टुन्ना की मां भी मर गई. जभी से नेस्ती मास्साब पागल टाइप हो गए हैं. टुन्ना बिचारे को खाना भी बनाना पड़ता है. अब टुन्ना खाना बनाए या मुसलियों को ठोकने डाम पे जाए. तू ई बता यार लफ़त्तू!"
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14 comments:
हक फ़िन और टॉम पर ट्वेन की कहानी कहां बुझाती थी ! ’वायु-प्रवचन’ पर किसी महाकवि की अमर पंक्तियां जो ’पाद-विचार” नाम से जानी जाती हैं स्मरण हो आईं :
सूँ-सुसकारी-ब्रह्महत्यारी,
टाँय - टूँय कुछ मध्यमा,
धसकहवा पाद- प्राण घात ॥
@afltaaon ji aisa hi kuch maine bhi sunatha:
uttam xxxx dhadaka,
madhyam dhur-*dhur,
prangathika fusfusyia...
अधो वायु विसर्जन चिकित्सकीय दृष्टी कोण से एक गंभीर विषय है ,भले ही नागर जन नाक भौं सिकोडें और बताते हैं की ग्रीन हॉउस इफ्फेक्ट का एक बड़ा कारण भी है ये .
कुल मिलाकर आज की कड़ी संजीदा सवालात से रू- ब-रू कराती है !
क्या कहे भाई शब्दों का ऐसा झप चिक मेला लगाया है की .मन डूबा तैरता फिरता है.....झकास लेखन है जी...कुछ चुने हुए टुकडो पर एक निगाह फिर मारे जी.............
अपने स्थूल पृष्ठक्षेत्र को बांईं तरफ़ से ज़रा सा उठा कर करीब हर चौदह मिनट के उपरान्त संगीतमय वायु विसर्जन कर लेते थे और हर सोलहवें मिनट पर "ख्वाक्क" करते हुए थूक का एक परफ़ेक्ट गोला हवा में उछालते थे जिसकी ट्रैजेक्टरी उनकी वर्षों की तपस्या के बाद इतनी सध चुकी थी कि सीधी निकटतम नाली के बीचोबीच गिरती - हमेशा.
श्टैकर फ़ुस्स पटाखे जैसा रापता
कमीनी हंसी
परकास.
पट्टे का धारीदार घुटन्ना और दर्ज़ी द्वारा सिली गई तिरछी जेब वाली बण्डी धारण कर चुके थे
नेस्ती .....
वैसे नेस्ती शब्द ठेठ यु पि का शब्द है ...बड़ा भला सा लगा यहांं इस कम्पूटरवा में
are these ur fotoz on the top ?
Sir
I am highly impressed with the quintessential ideology and thoughts you have.The way u narate your thoughts and a dip-dop flow with unique words..is marvellous Certainly you are a signature in the world of bloggers. My earnest regards and request for you to carry on with your writing. We need to come affront in order to mask off , so called intelligentsia of the day, as they are nothing but puppet in the hands of market driven and US monitored socio -cultural terrorism with effective control over political economy of mass media.
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Once we come across your regularity over posting, it would give an easy access to the internationally acclaimed web news portal www.swarajtv.com as a senior journalist , which is an up surging movement steered by prominent journalist of the world, who aspire for alternative media and believe in complete-swaraj.
Thanks and regards
Kanishka Kashyap
Content-Head
Swaraj TV
Contact -09711411023 (Delhi)
greatkanishka@gmail.com
kanishka@swarajtv.com
लप्पूझन्ना पुस्तक के रूप में जब भी प्रकाशित करेंगे आपने हस्ताक्षरों वाली एक प्रति मेरे लिए सुरक्षित रखिएगा।
घुघूती बासूती
हम तो लप्पूझन्ना पढ़कर कैसी भी टिप्पणी के काबिल ही नहीं रहते!
जय हो.... बहुत बढिया। मामा जी के जाने के बाद बंटू की क्या गत की लफत्तू ने?
Maharaj, agle lekh ka besabri se intjar ho raha hai!!
कितना रसीला-हंसीला-हंसीना गद्य है भाई।
very very sweet ashok ji....
i m impressed !!
कहाँ गायब हो गए सरकार. अगली पोस्ट कब चेपोगे..........
Ashok bhai, choti hi sahee lekin please ek nayee post to likh hi dalo, waise aaapke is blog ko jitnee baar padho utna hi anand aata hai....Thanks
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