शहर में हमारे स्कूल के अलावा दसवीं तक का एक सरकारी स्कूल भी था जिसे नार्मल स्कूल कहा जाता था. बहुत मोटे कांच का चश्मा पहनने वाले छोटे कद के मथुरादत्त जोशी वहीं प्रिन्सिपल थे और अंगरेजी पढ़ाते थे. मेरे पिताजी की उनसे पुरानी जान-पहचान थी और ज़माना उन्हें टट्टी मास्साब कहता था. इस नाम के पीछे एक छोटी सी कथा थी जिसे रामनगर का बच्चा-बच्चा जानता था. कई बरस पहले यूं हुआ कि उनके पढ़ाये सारे बच्चे हाईस्कूल बोर्ड में अंगरेजी के परचे में फेल हो गए. उन्होंने असेम्बली से पहले इन सारे बच्चों को धूप में मुर्गा बनाया और बाद में उन्हें सार्वजनिक फटकार लगाते हुए एक लंबा सा लेक्चर पिलाया जिसका अंत इस ब्रह्मवाक्य में हुआ – “तुम सालों ने मेरी साल भर की मेहनत को टट्टी बना दिया.”
तब
से टट्टी मास्साब का ये हाल बन गया था कि रामनगर बाजार में वे जहाँ भी जाते कोई न
कोई शरारती लड़का उनके पीछे से आकर कहता “टट्टी” और भाग जाता. वे पलट कर देखते,
मोटे कांच के पीछे से अपनी छोटी-छोटी आँखों को मिचमिचाते और दुर्वासा का पार्ट
खेलना शुरू करते. ऐसा करते हुए वे उस लड़के के खानदान की महिलाओं को बहुत शिद्दत से
तब तक याद करते रहते जब तक कि कोई शरीफ आदमी उन्हें किसी दूसरे काम में न उलझा
लेता.
फिलहाल
पिछले कुछ दिनों से मैं देख रहा था कि रात
का खाना खाते समय माँ पिताजी से बार-बार मेरी आगे की पढ़ाई और भविष्य को लेकर कोई न
कोई बात छेड़ देती. मुझे नैनीताल के किसी हॉस्टल में डालने की बात भी चला करती. इसी
का परिणाम हुआ कि टट्टी मास्साब मुझे ट्यूशन पढ़ाने आने लगे.
पहली शाम उन्होंने ग्रामर का जो चैप्टर पढ़ाना
शुरू किया वह मुझे पहले से ही आता था. मैंने हूँ-हाँ करते हुए वह पूरा घंटा बड़ी
मुश्किल से बिताया. मैंने पांच मिनट के अंदर ताड़ लिया था कि उनकी निगाह बहुत कमजोर
है. वे मुझसे लिखने को कहते और मैं कॉपी में आड़ी-तिरछी लाइनें खींचता रहता. सबसे
बड़ी मुश्किल उनकी सांस से थी जिसकी स्थाई तुर्शी नित्य एक क्विंटल प्याज के सेवन
से अर्जित की गयी थी. मैं भरसक खुद को उनकी सांस से दूर रखने की कोशिश करता रहा
लेकिन उनका भभका तमाम सुरक्षा दीवारों को भेदता हुआ नथुनों में किसी जहरबुझे तीर
की तरह घुस जाता.
उनके घर से बाहर निकलते ही मैंने लफत्तू के घर
की तरफ दौड़ लगा दी.
लफत्तू अकेला लेटा हुआ पंखे को तक रहा था. मुझे
देख कर उसने उठने की कोशिश की लेकिन एक कराह के साथ उसका सिर तकिये पर ढह गया.
मैंने गौर से उसे देखना शुरू किया. तेज बुखार की वजह से उसका चेहरा लाल पड़ा हुआ
था. मरियल टहनियों की तरह उसकी बांहें उसकी कमीज से बाहर निकली हुई थीं. मैंने
उसका हाथ थमा और इधर-उधर देखते हुए पूछा – “आंटी लोग कहाँ हैं?”
“पता नईं बेते. अबी तक तो यईं थे थब.”
औपचारिकता करना कभी किसी ने नहीं सिखाया था. यह
भी नहीं पता था कि मरीज से उसका हाल कैसे पूछा जाता है. मैं अचानक बहुत रुआंसा हो
गया और तकरीबन सुबकते हुए मैंने अपने दूसरे हाथ को उसके गाल पर लगाया. वह तप रहा
था.
उसने मेरे हाथ पर अपना जलता हुआ, हड़ियल हो चुका
हाथ रख दिया. मेरी रुलाई फूट पड़ी.
“क्या कल्लाए बेते. पल्छान क्यों होरा. गब्बल
भौत जल्दी बित्तर से भाल आके थाकुल के कुत्तों के तुकले-तुकले कल देगा. दल मत मुदे
कुत नी होगा.”
मैं और जोर से रोने लगा और सुबकते हुए उसे बताने
लगा कि मुझे नैनीताल हॉस्टल भेजने की तैयारी चल रही है और यह भी कि आज शाम से मुझे
टट्टी मास्साब ने ट्यूशन पढ़ाना भी शुरू कर दिया है.
दो तीन मिनट हम दोनों चुप रहे. उसकी पलकें गीली
होने लगी थीं. उसने गाल पर धरे मेरे हाथ को अपने हाथ से खूब कस लिया. थोड़ी देर बाद
उसके गला खंखारते हुए किसी अभिभावक की तरह मुझे समझाना शुरू किया -
“तू तो वैतेई इत्ता होस्यार है बेते. तत्ती
मात्तर बी कोई मात्तर है. जो बुड्डा अपनी तत्ती बी साफ नईं कर सकता गब्बल के दोत्त को क्या खा पलाएगा. औल
...” वह श्रमपूर्वक उठ बैठा और अपनी लय में आता हुआ बोला, “नैन्ताल कोई थाला
इंग्लित मात्तरानी के बाप के जो क्या है कि थाला कोई लामनगल वाला वां नईं जा सकता.
वां जाके उसके लाल बैलबौटम भाई की भेल पे दो लात माल के कैना कि बेते भौत
नक्तेबाजी ना झाड़, गब्बल तेले नैन्ताल को लूटने आने वाला है. बत के रइयो ...”
नैनीताल जा कर इंग्लिश मास्टरानी और उसके भाई के
साथ पुराना हिसाब चुकता करने की संभावना से मैं थोड़ा खुश हुआ और गौर से लफत्तू का
चेहरा देखने लगा. बीमारी ने उसके चेहरे को क्लांत बना दिया था लेकिन उसकी पिचकी नाक
और चमकती आँखों की नक्शेबाजी ज़रा भी कम नहीं हुई थी.
मुझे कुछ काम याद आया और मैं जाने के लिए उठा.
“ओये!” मैं दरवाजे पर पहुंचा ही था कि लफत्तू ने
मुझे आवाज दी, “बीयोईईई...” वह आँख मार रहा था.
“बीयोईईई...” मैंने उस्ताद का अनुसरण किया.
बाहर लफत्तू की मां और उसकी दोनों बहनें खड़े थे.
उनके माथे पर लगा ताजा टीका बता रहा था वे किसी मंदिर से वापस आ रहे थे. मुझे देख
कर उसकी माँ ने मुस्कराते हुए मेरे सिर पर हाथ फिराया और कहा – “दिन में एक बार तो
आ जाया अपने दोस्त का हाल समाचार पूछने. मम्मी कैसी हैं तेरी?”
लालसिंह चाय के गिलास धोने में मसरूफ था. दुकान
के सामने से मुझे गुजरता देखते ही वह चिल्लाया, “तेरे घर पे माल आया है बे और तू
यहाँ घासमंडी में डोई रहा है. जल्दी जा तेरा भाई तेरे बारे में पूछ रहा था अभी.”
मेरे घर पर कौन आया हो सकता है. यह सोचता हुआ
मैं वापस घर का जीना चढ़ने लगा. वैसे मुझे अभी मुन्ना खुड्डी से मिलने जाना था.
उसने पिछली लूट का मेरा हिस्सा मुझे अभी तक नहीं दिया था.
दरवाजा खुला हुआ था और बैठक के कमरे से आवाजें आ
रही थीं. किसी बिल्ली की तरह दबे पांव अन्दर घुसा ही था कि नाक में रसोई से आती
खुशबू घुसी. ऐसे खुशबू बहुत ख़ास मौकों पर आती थी. जब भी घर में कोई महत्वपूर्ण
मेहमान आया होता, माँ बाजार से डबलरोटी मंगवा कर ब्रेड पकौड़े बनाया करती. कुंदन दी
हट्टी से दही-इमरती भी मंगाया जाता.
मैं बैठक में जाने के बजाय रसोई में चला गया.
तीनों बहनें मां की मदद करने के नाम पर भीड़ बनाए खड़ी थीं. ट्रे में कप-प्लेट सजाकर
रखे हुए थे.
“था कहाँ तू? इतनी देर से तुझे ढूंढ रहे हैं
सारे मोहल्ले में. इत्ती सारी चीजें लानी थी बाजार से!” मुझे घुड़कते हुए माँ ने
कहा, “और ये भिसौण जैसी शकल बना के कहाँ से आ रहा है. चल जल्दी से हाथ-मूं धो के
बैठक में जा. वो जंगलात वाले तेरे बाबू के कोई दोस्त आये हैं. जा के अच्छे से
नमस्ते कहना उनको. ऐसे ही मत बैठ जाना गोबर के थुपड़े जैसा.”
मेरे दिमाग में दस तरह की चीजें चल रही थीं और
माँ मुझे हाथ-मुंह धोने को कह रही थी. मैं अनमना होकर फिर से बाहर निकलने की फिराक
में था कि बैठक से पिताजी की आवाज आई, “अरे ज़रा अपने लाड़ले को भेजो तो!”
इसके पहले कि माँ दुबारा से डांट लगाती मैं खुद
ही नजरें झुकाए बैठक की तरफ चल दिया. अब होना यह था कि नए मेहमानों के सामने मेरी
नुमाइश की जानी थी और मुझसे बहुत सारी चीजें सुनाने को कहा जाना था जिसके बाद
मेहमानों ने “आपका बच्चा तो बहुत होशियार है पांडे जी!” कहते हुए ब्रेड पकौड़ों पर
हाथ साफ़ करते जाना था. हर दो-चार महीनों में होने वाले इस कार्यक्रम से मुझे ऊब
होती थी. मैं होशियार हूँ तो क्या. मेरे कद्दू से!
बैठक में घुसते ही मुझे काठ मार गया. मेरी बहनों
की नयी-नयी बनी दोस्त नसीम अंजुम लाल रंग का घेरदार फ्रॉक पहने बाप जैसे दिखाई
देते एक आदमी और हेमामालिनी जैसी दिखाई देती एक औरत के साथ चुपचाप बैठी थी. पिताजी
उन्हें कुछ बता रहे थे.
मैं अपनी घर की पोशाक यानी निक्कर और पोलीयेस्टर
की कमीज पहने था.
“आओ पोंगा पंडित!” पिताजी को मेरी सार्वजनिक
भद्द पीटनी होती तो वे मुझे इसी नाम से पुकारा करते. मुझे बहुत गुस्सा आता था.
मैं सकुचाता हुआ तखत के कोने पर बैठ गया और
फर्श पर निगाह गड़ाए अपनी नुमाइश लगाए जाने का इन्तजार करने लगा. पिताजी मेरे बारे
में कुछ भी आंय-बांय बोलते इसके पहले ही मां और बहनें चाय-नाश्ते की ट्रे ले कर आ
गए. भीड़ की वजह से अचानक माहौल बदल गया. “अरे भाभी जी” “अरे भाईसाब” “लो बेटे”
जैसे शब्दों से बैठक का कमरा गुंजायमान हो गया. मैंने मौका ताड़ा और बाहर सटकने की
तैयारी करने लगा.
उठते हुए मैंने एक नजर नसीम अंजुम पर डाली. वह मुझे ही देख रही
थी. उसने अपने हाथ में ब्रेड पकौड़ा थामा हुआ था और उसकी अंगूठी का वही जालिम नगीना
खिड़की से आती धूप में जगमगा रहा था और उसकी चमक की अस्थाई उसकी नाक की ऐन नोंक के
ऊपर स्थापित थी. वह मुझे देख रही थी और उसके चेहरे पर शरारत भरी मुस्कराहट थी.
मैंने गौर किया वह बहुत खूबसूरत थी. रामनगर और पिक्चर वाली दोनों मधुबालाओं से
अधिक खूबसूरत. सकीना से और कुच्चू-गमलू से अधिक खूबसूरत. मैं हैरान हो रहा था कि
जब पिछली बार वह हमारे घर पर आई थी तो इस बात पर मेरा ध्यान क्यों नहीं गया. सेकेण्ड के एक
हिस्से में मुझे अपने दिल का फिर से चकनाचूर होना महसूस हुआ. पहली नज़र की मोहब्बत
का तकाजा था कि मुझे वहीं बैठा रहना था लेकिन मैं उस नाजनीना के सामने किसी भी
कीमत पर अपनी बेइज्जती नहीं कराना चाहता था. मौका देखते ही मैंने दौड़ लगा दी और बाहर
सड़क पर आ गया.
मुन्ना वहीं मिला जहाँ उस वक्त उसे होना था. वह
और फुच्ची अपने बाप के ठेले पर खड़े गाहकी निबटा रहे थे. उसके पापा ने स्टील के
कपों का धंधा शुरू किया था जो चल निकला था. उनके अपने गांव ढकियाचमन से थोड़ा आगे
मौजूद हापुड़ की किसी फैक्ट्री में बनने वाले ये कप समूचे भारत की रसोइयों में फैल
गए थे. मेरे घर में भी आधा दर्जन आ चुके थे. ये कप कम हुआ करते थे धोखा ज्यादा.
पहली बार ऐसे कप में चाय दिए जाने पर मेहमान कहता था – “अरे इतनी सारी!” इन कपों
को बनाने वाले वैज्ञानिकों ने स्टील की दो परतों को इस तरह कप की सूरत में ढालने
का कारनामा अंजाम दिया था कि दो परतों के बीच ढेर सारी हवा होती थी. नतीजतन मुख्य
चषक का आयतन बाहर से दीखने वाले चषक के आयतन का एक चौथाई हुआ करता था. उसमें उतनी
ही चाय आती थी जिसे दो घूँट में निबटाया जा सके. हाँ पेश किये जाते समय वह अपनी
असल मात्रा से कई गुना नजर आती. इसके अलावा पीने वाली जगह पर जहाँ ज्यादातर कपों
की दो परतों के बीच जोड़ होता था, चाय डालने के बाद छोटे-छोटे बुलबुलों की खदबद भी
शुरू हो जाती थी. यह वैज्ञानिक प्रक्रिया होती थी जिसे देखना दुर्गादत्त मास्साब
के मुझ काबिल चेले के लिए खासी दिलचस्पी पैदा करता था.
ये कप जिस दौर में रामनगर की बाजार में आया था,
देश में इमरजेंसी चल रही थी. इमरजेंसी का अर्थ मुझे इतना ही मालूम था कि वह कोई
ऐसी चीज है जिसकी वजह से जनता को बहुत काम करना पड़ रहा है. मेरे पिताजी भी अक्सर
सुबह जल्दी दफ्तर जाते और देर में लौटा करते. इमरजेंसी का दूसरा मतलब नसबंदी नाम
की कोई अश्लील चीज भी थी जिसका मतलब समझने लायक हम नहीं हुए थे अलबत्ता उसे लेकर
हमसे थोड़ी अधिक उम्र के लौंडे एक दूसरे के साथ वयस्क किस्म के मजाक किया करते थे.
मुन्ना ने मुझे देखा और आँख मार कर इशारा किया
कि मैं बौने के ठेले पर उसका इन्तजार करूं. मैं वहां जाने के बजाय नजदीक ही खेल
मैदान की चहारदीवारी पर बैठ गया और दिन भर में घटी चीजों की बाबत सोचने लगा.
टट्टी मास्टर से पढ़ने में ज़रा भी मजा नहीं आया
था. मां-पिताजी से जल्दी ही इस बारे में निर्णायक बातचीत करनी पड़ेगी वरना प्याज की
बदबू के कारण मेरी मौत तय थी. बीमार लफत्तू की शकल सामने घूमने लगी तो मैंने उससे
ध्यान हटाने की कोशिश की. मैदान का मेरी तरफ वाला हिस्सा किराए की साइकिल का लुत्फ़
लूट रहे बच्चों से भरा हुआ था. घुटे सिर
वाला मेरी उम्र का एक लड़का केवल धारीदार पट्टे का पाजामा पहने बड़ों की साइकिल पर
कैंची चलाना सीख रहा था. मैंने गौर से उसे देखना शुरू किया. साइकिल चलाना मुझे
लफत्तू ने ही सिखाया था. दिमाग लौट कर वापस उसी के बारे में सोचने लगा. अगर लफत्तू
सचमुच में मर गया तो मेरा क्या होगा. इस विचार के आते ही मैं व्याकुल हो गया और
झटपट अपनी जगह से उठ कर बौने की शरण में पहुँच गया.
मैं दूसरा बमपकौड़ा दबा रहा था कि सामने से लचम-लचम
चलता आता मुन्ना नमूदार हुआ.
“क्या गुरु मने अकेले अकेले” उसने आँख मारने की
रामनगरी अदा सीख ली थी.
उसने पहले तो मेरे पैसों से एक बमपकौड़ा सूता और
जब डकैती के पैसों के बंटवारे की बात आई तो कहने लगा – “दखिये हम भूल गए थे और सुबह
जब अम्मा ने हमारा पजामा धोने के लिए लिया तो हमें खयाल ही नहीं रहा. पहले तो अम्मा
ने जेब से सारी रकम निकाल ली और उसके बाद बाबू को बता दिया. बहुत मार खाए हैं कसम
से सुबे-सुबे.”
वह साफ झूठ बोल रहा था लेकिन मेरे पास मन मसोस
कर रह जाने के कोई चारा न था. मैं तय कर चुका था कि इस मामले में सुनवाई करवाने के
लिए हाईकोर्ट यानी लालसिंह के पास जाना पडेगा.
झूठ बोलने की मक्कारी वाली टोन को जारी रखते हुए
उसने मुझसे पूछा – “चम्बल चलिएगा?”
पैसों का नुकसान होने के कारण मेरा मूड उखड़ गया
था और होमवर्क करने का बहाना बनाकर मैंने मुन्ना खुड्डी से विदा ली. सूरज के ढलने
में अभी बहुत समय था. मैदान के दूर वाले छोर पर पहुँचते ही मैंने घर की दिशा में
देखा. लफत्तू और मेरी बहनें छत पर बैटमिन्डल खेल रही थीं, बैठक के कमरे की बत्ती
जली हुई थी और बस अड्डे के बीचोबीच खड़े बरगद के पेड़ पर घर लौटते हजारों कौओं की
कांव-कांव ने आसमान को पाट रखा था.
अचानक मुझे थकान महसूस हुई और मैंने घर जाना तय
किया. घर में घुसते ही पिताजी ने धर लिया. आदर्श पुत्र के गुणों और सामाजिक आचरण
के नियमों के विषय पर ढेर सारे लेक्चर पिलाए गए और अंत में सूचित किया गया कि कल
से टट्टी मास्साब के साथ मेरे साथ नसीम अंजुम भी ट्यूशन पढ़ा करेगी क्योंकि उसे भी
नैनीताल के हॉस्टल में भेजा जाने वाला है.
“दिमागदार लड़की है. उसके साथ कुछ दिन पढ़ाई करोगे
तो थोड़ा शऊर आ जाएगा तुम्हें. वरना ...” मुझे फिर से पोंगा पंडित कहा जा रहा था
लेकिन मैंने सिर्फ नसीम अंजुम सुना.
अब मुझे सचमुच एकांत चाहिए था. मां-पिताजी की
निगाहों से किसी तरह बचता-बचाता मैं पीछे के रास्ते से सीधा ढाबू की छत पर पहुँच
गया.
नसीम अंजुम! नसीम अंजुम! नसीम अंजुम! – हर कदम
के साथ मेरा दिल धप-धप कर रहा था. मुझे खुद नहीं पता था मेरे हरजाई दिल के भीतर का
वास्तविक प्रेम इसी अपूर्व सुन्दरी के लिए कहीं छिपा हुआ था. वह बहुत बातूनी थी
लेकिन उससे ज्यादा खूबसूरत थी. उसका ऊंचा खानदान और कपड़ों के चयन में उसकी नफीस
पसंद उसे मेरे लिए आदर्श प्रेमिका बनाते थे. अगले कुछ दिन उसके साथ ट्यूशन पढ़ने का
मौक़ा मिल रहा था और मेरे पास ऊंचे दर्जे की इस दुर्लभ मोहब्बत को सैट कर लेने का
सुनहरी मौक़ा था. इस उपलब्धि के लिए हर रोज एक घंटे तक टट्टी मास्साब की जहरीली
दुर्गन्ध झेलने का पराक्रम दिखाना होगा.
लफत्तू के पापा अक्सर हमें आधे-पौन घंटे के
उपदेश देने के बाद उपसंहार करते हुए कहा करते थे – “मरे बिना स्वर्ग जो क्या मिल
सकने वाला हुआ रे बौड़मो!” उनकी बात पहली दफा समझ में आ रही थी.
3 comments:
नमस्कार अशोक जी,बहुत समय बाद लप्पुझन्ना की कहानी आगे बड़ी, बहुत ही सुखद अहसास हुआ खासकर लफत्तू से मिलकर पता नहीं क्यों उसका व्यक्तित्व चुम्बकीय लगता है, आशा है कि आगे भी पूरी किश्तें पढ़ने मिलेंगी।।
धन्यवाद अशोक जी।।
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