Thursday, August 7, 2008

दड़ी का छेत्रफल, परसुराम और मांबदौतल

हरेमोहन बन्सल मास्साब हमारे गड़त यानी मैथ्स के गुरूजी थे. परचूने की उनकी दुकान स्कूल के गेट से कोई बीस मीटर दूर थी. दुकान पर गालियां बकने में पी एच डी कर चुके उनके वयोवृद्ध पिताजी बैठा करते थे. इस लिहाज़ से हरेमोहन बन्सल मास्साब स्कूल में अक्सर पार्ट टाइम मास्टरी किया करते थे. वे जब बोलते थे तो लगता था उन्होंने मुंह में कुन्दन दी हट्टी की स्वादिष्ट रबड़ी ठूंस रखी हो. अलबत्ता उनके शब्द इस बेतरतीब और भद्दे तरीके से बाहर आया करते थे कि लगता उनकी सांस अब रुकी तब रुकी.

उनका एक बेहद मोटा बेटा था जो अक्सर दुकान के वास्ते थोक खरीदारी के सिलसिले में क्लास में आकर उनसे पैसे लेने आता था. मास्साब एक एक नोट गिन के उसे दिया करते थे और उसके साथ हमेशा बड़ी हिकारत से पेश आते थे. वह मुंह झुकाए सुनता रहता और अपनी धारीदार पाजामानुमा पतलून की जेब में हाथ डाले डोलता रहता. उसका आना हमारे लिए एक तरह का छोटा-मोटा इन्टरवल हो जाता क्योंकि मास्साब के हाथ से नोट लेकर वह सवालिया निगाहों से उन्हें देखता रहता. फूंफूं करते तनिक आगबबूला मास्साब उसे साथ लेकर क्लास से बाहर सड़क पर ले जाते और अपनी समझ में न आने वाली ज़ुबान में हिसाब समझाते - गड़तगुरुपुत्र एकाध बार नोटों को जेब में अन्दर-बाहर करता. क़रीब पन्द्रह मिनट तक चलने वाले इस कार्यक्रम के दौरान लालसिंह हमें मास्साब की दुकान के अद्भुत क़िस्से सुनाया करता.

स्कूल पास कर चुकी कई पीढ़ियों ने मास्साब की दुकान में जाकर पहले दो-चार सौ का सामान तुलाने और उसके बाद लाल मूंग की टाटरी मांगने की परम्परा क़ायम की थी. इस अबूझ पदार्थ का नाम लेते ही दुकान में मौजूद मास्साब के पिताश्री का पारा चढ़ जाया करता था. वे लाठी-करछुल-तराजू-बाट उठा लेते और नकली गाहकों की टोली खीखी करती अपनी जान बचा कर भागने का जतन करने लगती थी. कभी कभी स्वयं मास्साब भी इस कार्य में संलग्न पाए जाते. दुकान से होने वाले इस साप्ताहिक गाली-पुराण में 'अपने बाप से मांग लाल मूंग की टाटरी' का जयघोष बुलन्द होते ही मास्साब पिता की सेवा करने हेतु क्लास छोड़ दुकान की तरफ़ लपक लेते थे. लालसिंह हमें इस जुमले का कोई साफ़ अर्थ नहीं बता पाया. न ही लफ़त्तू. इन दोनों को रामनगर की सारी गालियां याद थीं पर लाल मूंग की टाटरी को लेकर बहुत संशय था और निश्चय ही जिज्ञासा भी. यह दोनों भावनाएं अब भी जस की तस बरक़रार हैं. शायद वह कोई वस्तु न होकर बन्सल परिवार की छेड़ भर रही होगी.

मास्साब ने हमें सबसे पहले बर्ग, आयत, त्रिकोड़ आदि के फ़ार्मूले रटाए और उसके बाद इन पर आधारित सवाल. हममें से कई बच्चों की 'फ़िक' से हंसी छूट जाती जब वे सवाल लिखाना शुरू करते: "चौबीस बर्ग फ़ुट के छेत्रफल की एक दड़ी की लम्बाई छै फ़ुट है. तो दड़ी की चौड़ाई बताइये." दरी को दड़ी कहने के कारण उन्हें दड़ी मास्साब के नाम से जाना जाता था. शुरू में दड़ी शब्द सुनकर हंसी आती थी पर बाद में आदत पड़ गई. संभवतः मास्साब को भी अपने इस दूसरे नाम का ज्ञान था. डंडा वे भी लेकर आते थे पर इस्तेमाल कभी नहीं करते थे. तिवारी मास्साब के मुकाबले वे बहुत शरीफ़ लगा करते थे. डंडे का इस्तेमाल करने की नौबत गड़त की किताब से सवाल लिखाते ही आई. इस में दड़ी के बदले खस की टट्टी की लम्बाई-चौड़ाई के बाबत सवालात थे. मास्साब के मुखारविन्द से इस द्विअर्थी 'टट्टी' शब्द का निकलना, हमारा हंसते हुए दोहरा और डंडे पड़ते ही तिहरा होना एक साथ घटा.

दड़ी मास्साब गाली नहीं देते थे - न पढ़ाते वक़्त, न डांटते वक़्त, न पीटते वक़्त. गाली देने का कार्य आधिकारिक रूप से थोरी मास्साब और दुर्गादत्त मास्साब के अलावा एक और मास्साब के पास था. इन मास्साब को कुछ पढ़ाते हम ने कभी नहीं देखा. स्कूल कैम्पस में आवारा टहल रहे बच्चों के साथ मौखिक रूप से पिता और जीजा का रिश्ता बनाते भर देखे जाने वाले ये मास्साब भी रिश्ते में प्रिंसिपल साहब के मामा और दुर्गादत्त मास्साब के चचेरे-ममेरे भाई थे. पन्द्रह अगस्त को उन्होंने हारमोनियम पर 'दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल' (जिसके लफ़त्तूरचित संस्करण की एक बानगी आप पिछली पोस्ट में देख चुके हैं) और 'इन्साफ़ की डगर पे बच्चों दिखाओ चलके' (यानी 'बौने का बम पकौड़ा बच्चो दिखाओ चख के') बजाया था. लफ़त्तू का कहना था कि अक्सर लौंडों जैसी पोशाक पहनने वाले और एक तरफ़ को सतत ढुलकने को तैयार बालों का झब्बा धारण करने वाले ये वाले मास्साब हारमोनियम बजाते हुए अपने को लाजेस्खन्ना का बाप समझते थे. यह तमीज़ तो हमें बड़ा होने पर आई कि वे असल में अपने को लाजेस्खन्ना का नहीं देबानन का बाप समझते थे. दुर्गादत्त मास्साब का भाई होने के कारण उन्हें मुर्गादत्त मास्साब की उपाधि प्रदत्त की गई थी.

मुर्गादत्त मास्साब रामलीला में परसुराम का पाट खेलते थे. मुझे अल्मोड़ा की रामलीला की बहुत धुंधली याद थी. उस में भी बस सीता स्वयंवर में सदैव जोकर का पाट खेलने वाले कपूर नामक एक कपड़ाविक्रेता की. इसके अलावा वहां चलना और चढ़ना बहुत पड़ता था. पैंठपड़ाव में लगे विशाल शामियाने में प्लेन्स की पहली रामलीला देखना आधुनिक कलाजगत से मेरा पहला संजीदा परिचय था. रात को हम मोहल्ले के बच्चे किसी एक बड़े के निर्देशन में वहां पहुंचकर आगे की दरियों पर अपनी जगहें बना लेते. घर से थोड़ा बहुत पैसा मिलता था सो बौने की बम पकौड़ों, सिघाड़े की कचरी, जलेबी और काले नमक के साथ गरम मूंगफली की बहार रहती. रामलीला देखते देखते हमें 'मैं तो ताड़िका हूं, ताड़-तड़-तड़-ताड़ करती हूं' और 'रे सठ बालक, ताड़िका मारी!' बहुत अट्रैक्टिव डायलाग लगे और हम कई दिन तक लकड़ी की तलवारें बनाकर एक दूसरे पर इन की प्रैक्टिस करते रहे.

मुर्गादत्त मास्साब के अतिलोकप्रिय परसुराम-अभिनय के बाद क्लास के आधे लड़के उनके फ़ैन हो गए लेकिन लफ़त्तू ज़्यादा इम्प्रेस्ड नहीं हुआ. और उसकी टेक थी कि वे अपने को लाजेस्खन्ना का बाप समझते थे.

रावण का पाट खेलने वाला रामनगर फ़िटबाल किलब का गोलकीपर शिब्बन लफ़त्तू का रोल मॉडल था. दीवाली की छुट्टियों के दिनों हम ढाबू की छत पर रामलीला खेलते थे. बंटू परसुराम बनता था, और सांईबाबा का छोटा भाई सत्तू अंगद. इनकी डायलागबाज़ी के उपरान्त रावण का दरबार लगता. एक पिचके कनस्तर पर जांघ पर जांघ चढ़ाए बैठा, रावण बना लफ़त्तू बड़ी अदा से कहता था: "नातने वाली को पेत किया जाए".

एकाध उपस्थित लड़कियां थोड़ा झेंप और ना नुकुर के बाद नाचने वाली के रोल के लिए खुद को तैयार करने लगतीं. 'केवल पुरुषों के लिए' वाले रामलीला-संस्करण में अभिनेता कम होने की सूरत में बंटू और सत्तू इन भूमिकाओं के लिए ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हो रहते थे.

प्लास्टिक के एक पुराने टूटे मग में हवारूपी शराब भरे उसका मन्त्री यानी मैं सदैव तत्पर रहा करता था.

पहले वह 'मुग़ल-ए-आज़म' से सीखा हुआ एक डायलाग फेंकता: "मांबदौतल अब आलाम कलेंगे". इसके बाद वह जांघों को बदल कर हाथ से नृत्य चालू करने का इशारा करके मुझे आंख मारता और आदेश देता: "मन्त्ली मदला लाओ".

10 comments:

मैथिली गुप्त said...

बेहद बेहद बेहद दिलचस्प, इत्ती जबरदस्त किस्सागोई !

siddheshwar singh said...

गज़ब किया रे!

pallavi trivedi said...

waah...bada mazedar kissa sunaya.....laajwab.

अजित वडनेरकर said...

बहुत खूब।
ऐसी क़िस्सागोई के शैदाई हैं हम।
जारी रखें।
लगता है लपूझन्ना का मतलब
अब तलाशना ही होगा।

ghughutibasuti said...

वाह! हमें भी अपने बचपन में देखी रामलीलाएँ याद आ गईं।
घुघूती बासूती

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

बेहद दिलचस्प और सजीव द्र्श्योँ को ऐसे खास अँदाज मेँ बयाँ करने के लिये शुक्रिया !-
बहुत हँसी आई :)
- लावण्या

Manish Tripathi said...

बहुत अच्छा है. अपना बचपन याद आ गया सर जी
मनीष त्रिपाठी

Anita kumar said...

हा हा ! मदा (मजा) आ गया रे, ऐसी ही और यादें पेत किया जाए

बालकिशन said...

बहुत खूब.
रोचक प्रस्तुति है.
आपका अंदाजेबयां जबरदस्त है.

Deepti said...

अत्भुद!!..इतना सुंदर ब्लॉग है आपका, हम भी उप के १ छोटे से शहर से हैं, काफी सारी बातों से रिलेट कर सकते हैं| मतलब मज़ा लगा दिया आपने...:))...बाकी गढ़वाल से भी सम्बन्ध रखते हैं....तो उस तरफ की कहानियां पढ़ के मन प्रसन्न हो गया...:))..लिखते रहें....शुरू से सब पढ़ रहे हैं..:)