Monday, March 3, 2008

एक क़स्बे का जुगराफ़िया वाया थोरी मास्साब

एम पी इन्टर कालिज में सबसे ज़्यादा ख़ौफ़ था तिवारी मास्साब का। तिवारी मास्साब को प्रागैतिहासिक समय से थोरी बुढ्ढा कहा जाता था। मास्साब की रंगत कोयले के बोरे को शर्मिन्दा करने को पर्याप्त थी। वे हमें चित्रकला यानी की आल्ट सिखाने के अलावा भूगोल यानी भिगोल भी पढ़ाया करते थे।

शुरू शुरू में तो उनकी ज़बान मेरी समझ में आती ही न थी पर जब एक दफ़े लफ़त्तू ने मुझे बताया कि वे दर असल हमें गालियां देते थे तो मैं उनसे और ज़्यादा ख़ौफ़ खाने लगा। "सुतरे" (यानी ससुरे) उनका फ़ेवरिट शब्द था। और उन्हीं दिनों रिलीज़ हुई 'शोले' के असरानी की अदा के साथ उन्होंने पहली बार क्लास में एन्ट्री ली थी : "अंग्रेज़ों के टैम का मास्टर हूं सुतरो! बड़े-बड़े दादाओं का पेस्साब लिकला करे मुझे देख के। मेरी क्लास में पढ़ाई में धियान ना लगाया तो सुतरो मार मार के हौलीकैप्टर बना दूंवां!"

मास्साब के पास एक पुराना तेल पिया हुआ डंडा था। 'गंगाराम' नामक यह ऐतिहासिक डंडा उनकी बांह में इतनी सफ़ाई के साथ छुपा रहता था कि जब पहली बार क्लास के पीछे के बच्चों को उस का लुफ़्त मिला था मेरी समझ ही में नहीं आया कि मास्साब को वह डंडा मिला कैसे। उन दिनों घुंघराले झब्बा बालों वाले एक विख्यात बाबा ने हवा से घड़ियां और भभूत पैदा करने की परम्परा चालू की थी - मुझे लगा हो न हो मास्साब को कोई दैवी शक्ति हासिल है। लेकिन जल्द ही लालसिंह ने हमें गंगाराम की कई महागाथाएं सुनाईं।

मास्साब का व्यक्तिगत जीवन मुझे बहुत आकर्षित करता था लेकिन बहुत आधिकारिक तौर पर उनके बारे में किसी को भी ज़्यादा मालूम नहीं था। उनका एक बेटा इंग्लैण्ड में रहता था क्योंकि वे हर हफ़्ते हम में से किसी होस्यार बच्चे को नज़दीक के पोस्ट ऑफ़िस भेज कर विदेशी लिफ़ाफ़ा मंगाया करते थे। इन्टरवल के समय उन्हें कालिज से लगे तलवार रेस्टोरेन्ट में तन्मय हो कर चिठ्ठी लिखते देखा जाता था। उनकी एक लड़की भी थी जो चौथी क्लास में कहीं पढ़ा करती थी। उसे किसी ने देखा नहीं था। लेकिन तिवारी मास्साब अपने हर दूसरे किस्से में उसका ज़िक्र किया करते थे। इन वाले कि़स्सों में तिवारी मास्साब खुद ही हमें डराने के लिए अपने आप को किसी भुतहा फ़िल्म के खलनायक की तरह पेश किया करते थे।

खैर। आल्ट की शुरुआती क्लासों में हमें ऑस्टवाल्ड का रंगचक्र बना कर लाने को कहा जाता था। बाहर से बहुत आसान दिखने वाला यह चक्र बनाने में बहुत मुश्किल होता था। एक तो उसे बनाने की जल्दी, फिर उसे सुखाने की बेचैनी: रंगों का आपस में मिल जाना और एक दूसरे में बह जाना आम हुआ करता था। हमारे पड़ोस में एक मोटा सा आदमी रहता था। उसके गोदामनुमा कमरे की हर चीज़ मुझे जादुई लगा करती थी। अजीब अजीब गंधों और विचित्र किस्म के डिब्बों, बोरियों और कट्टों से अटा हुआ उसका कमरा मेरे लिए साइंस की सबसे बड़ी प्रयोगशाला था। उसी की मदद से मैंने सेल से चलने वाला पंखा बनाया, उसी कमरे में मैंने रेडियो की बैटरी को पंखे के रेगूलेटर से जोड़ने का महावैज्ञानिकी कारनामा अंजाम दिया था। जब मैं ऑस्टवाल्ड के रंग चक्र से बुरी तरह ऊब गया तो गोदाम वाले सज्जन ने ऑस्टवाल्ड में दिलचस्पी लेनी पैदा की। मेरी ड्राइंग वैसे खराब नहीं थी लेकिन ऑस्टवाल्ड ने मेरे घोड़े खोल दिये थे। मैं गोदाम के कबाड़ में डूबा रहता था और ये साहब बहुत ध्यान लगा कर मेरा आल्ट का होमवर्क किया करते थे। रंग को सुखाने की इन की बेचैनी मुझ से भी ज़्यादा होती थी। एक बार इस बेचैनी में आल्ट की कॉपी को पम्प वाले स्टोव के ऊपर अधिक देर तक रहना पड़ा और कॉपी तबाह हो गई थी। इस हादसे के बावजूद मुझे तिवारी मास्साब के डंडे का स्वाद नहीं मिला क्योंकि मैं क्लास में होस्यार के तौर पर स्थापित हो चुका था। इस घटना का ज़िक्र फिर कभी।

क़रीब महीने भर तक ऑस्टवाल्ड के रंग चक्र से जूझने के बाद तिवारी मास्साब को हम पर रहम आया और हम ने चिड़िया बनाना सीखना शुरू किया। मास्साब सधे हुए हाथों से ब्लैकबोर्ड पर बिना टहनी वाले एक पेड़ पर बेडौल सी चिड़िया बना देते थे और हम सब ने उस की नकल बनानी होती थी। मैंने कहा था कि मेरी ड्राइंग बुरी नहीं थी सो मैंने नकल सबसे पहले बना ली। मास्साब बाहर मैदान में पतंगबाज़ी देखने में मसरूफ़ थे; मैंने अपनी कॉपी उन्हें दिखाई तो उन्होंने सर से पांव तक मुझे देखकर कहा :

"भौत स्याना बन्निया सुतरे! इस में रंग तेरा बाप भरैगा!"

इस के पहले कि चिड़िया की रंगाई के बारे में मैं उन से कुछ पूछता, मास्साब ने खुद ही मेरी उलझन साफ़ कर दी:

"अब घर जा कै इस में गुलाबी रंग कर के लाइयो"

इस अस्थाई अपमान का जवाब मैंने अपनी कलाप्रतिभा द्वारा देने का फ़ैसला कर लिया था। घर पर सारे लोगों ने उस बेडौल चिड़िया का मज़ाक बनाया लेकिन मुझे तो उसी चिड़िया को रंगकर तिवारी मास्साब की दाद चाहिए थी। उल्लू, गौरैया और ऑस्ट्रिच मे मेलजोल से बनी चिड़िया का पेट ज़रूरत से ज़्यादा स्थूल था और क्लास में जिस चिड़िया को मास्साब ने बनाया था उस की आंख सबसे विचित्र जगह पर थी। आंख, आंख की जगह पर न हो कर गरदन के बीचोबीच बनाया करते थे तिवारी मास्साब. अपने आप को वाक़ई ज़्यादा स्याना बनते हुए मैंने चिड़िया की आंख को सही जगह पर बना दिया था. ऊपर से इस चिड़िया का रंग गुलाबी था.

सुबह क्लास का हर बच्चा गुलाबी रंग की दयनीय चिड़िया बना कर लाया था. लफ़त्तू की चिड़िया सबसे फ़द्दड़ बनी थी. लालसिंह को अपनी सीनियोरिटी के कारण इस कलाकर्म से दो-तीन साल पहले मुक्ति मिल चुकी थी.

मास्साब को चिड़िया दिखाने का पहला नम्बर मेरा था. मास्साब ने किसी सधे हुए कलापारखी की तरह मेरी कॉपी को आड़ा तिरछा कर के देखा.

"जरा पेल्सिन लाइयो"

मैंने उन्हें पेन्सिल दी तो उन्होंने चिड़िया की गरदन के बीचोबीच पेन्सिल से एक गोला बना कर कहा:

"सुतरे, ह्यां हुआ करै आंख! पैले वाली मेट के नई वाली में रंग कर लाइयो कल कू."

मैं पलट कर अपनी सीट पर जा रहा था कि उन्होंने मुझे फिर से बुलाया :

"जब आल्ट पूरी हो जा तो नीचे के सैड पे लिख दीजो 'तोता'."

उस के कई सालों बाद तक "लिख दे तोता" रामनगर के लौंडे मौंडों में बहुत पॉपुलर हुआ।

एक दिन अचानक पता चला कि थोरी बुडढा हमें भूगोल भी पढ़ाया करेगा। "लिख दे तोता" कांड के बाद मेरे मन से उन के लिये सारी इज़्ज़त खत्म हो गई थी।

अंग्रेज़ों के ज़माने वाला मास्टर और दादाओं के पेस्साब और मार मार के हॉलीकैप्टर वाली प्रारंभिक स्पीच के उपरान्त मास्साब ने गंगाराम चालीसा का पाठ किया। इस औपचारिक वार्ता के बाद वे गम्भीर मुखमुद्रा बना कर बोले: "कल से सारे सुतरों को मैं भिगोल पढ़ाया करूंगा। भिगोल के बारे में कौन जाना करै है?" हम ने भूगोल का नाम सुना था भिगोल का नहीं। यह सोचकर कि शायद कोई नया विषय हो, सारे बच्चे चुप रहे। गंगाराम का भय भी सता रहा था।

"भिगोल माने हमारा इलाका। पैले हमारा कालिज, बा कै बाद पिच्चर हाल, बा कै बाद ह्यां कू तलवार का होटल और व्हां कू प्रिंसपल साब का घर। ..."

मास्साब की आवाज़ को काटती हुई लफ़त्तू की आवाज़ आई : " माट्साब, आपका घर किस तरफ़ कू हैगा?"

एक बित्ते भर के 'सुतरे' से मास्साब को ऐसी हिमाकत की उम्मीद न थी।

"कुत्ते की औलाद, खबीस, सुतरे! ..." कहते हुए मास्साब ने अपना गंगाराम बाहर निकाल लिया और लफ़त्तू की कतार में बैठे सारे बच्चों को मार मार कर नीमबेहोश बना डाला।

गुस्से में कांप रहे थे तिवारी मास्साब। अपनी कर्री आवाज़ में उन्होंने भिगोल की क्लास के अनुशासन के नियम गिनाए: "जिन सुतरों को पढ़ना हुआ करे, बो ह्यां पे आवें वरना धाम पे कू लिकल जाया करें। और रामनगर के चार धाम सुन लो हरामज़ादो! इस तरफ़ कू खताड़ी और उस तरफ़ कू लखुवा (लखनपुर नाम का यह मोहल्ला लखुवा कहे जाने पर ही रामनगर का हिस्सा लगता था. लखनपुर से उस के किसी संभ्रान्त बसासत होने का भ्रम होता था)। तीसरा धाम हैगा भवानीगंज और सबसे बड़ा धाम हैगा कोसी डाम (कोसी नदी पर बने इस बांध पर टहलना रामनगर में किया जा सकने वाला सबसे बड़ा अय्याश काम था)।"

"और जो सुतरा तिवारी मास्साब की नजर में इन चार जगहों पर आ गया, उसको व्हंईं सड़क पे जिन्दा गाड़ के रास्ता हुवां से बना दूंवां ..."

7 comments:

Udan Tashtari said...

लिख दे तोता...:) वाह जी वाह, आप तो एकदमे होस्यार निकले. बढ़िया लगा पढ़कर.

siddheshwar singh said...

वाकई तिवारी मास्साब ने बचपन में ही पैचान लिया था कि 'हुस्यार बेट्टा एक दिनां नाम करैगा.
कर भी रिया है .बोफ़्फ़ाईन

Unknown said...

याने सब जुगराफ़िया गंगाराम की समझ का नतीजा है - दूसरी पारी अच्छी निकल रही है - rgds- manish

azdak said...

सही है, गुरु..

Pratyaksha said...

बढ़िया बढ़िया ..फिर आगे ?

ghughutibasuti said...

आपका भिगोल और आल्ट तो गजब का हो गया होगा। मजा आ गया।
घुघूती बासूती

bawlabasant said...

student or children born in neolibrel era cant enjoy these experience bcz the relation between masterji and student are changed .even i can enjoy this after sharaab in my blood.