Thursday, April 9, 2020

एक्सीडेंट, जेम्स बॉन्ड और लौंदियों के तक्कल में बलबादी



लालसिंह की तमाम हिदायतों पर मैंने रात भर विचार करने के उपरान्त अगली सुबह नाश्ता वगैरह समझ कर मैं लफत्तू के घर की तरफ लपका. उसकी संगत के बगैर मेरे सारे जीवन की ऐसी तैसी हो जानी थी सो मामले के थोड़ा भी बिगड़ने से पहले मैं उससे माफी मांग लेना चाहता था.
सियाबर बैदजी की दुकान के अहाते में रात भर के थके कोई दर्जन भर आवारा कुत्ते लापरवाह सो रहे थे. उनकी तरफ एक निगाह मार कर मैं छलांगों में चलता हुआ शेरसिंह के खोखे तक आ पहुंचा था. जैसे ही लफत्तू के घर की तरह मुड़ा मैंने पाया लफत्तू के सामने वाले मकान के आगे मनहूस सूरतें बनाए आठ-दस लोग भीड़ बना कर खड़े थे. इस मकान में कलूटे फुच्ची की लपट अर्थात जीनातामान रहती थी. कुछ भी सोच पाने से पहले ही मुझे ठिठक जाना पड़ा क्योंकि अचानक भीतर से दो-तीन स्त्री आकृतियाँ बाहर आकर बाकायदा जोर-जोर से रोने लगीं. रोने वालियों में जीनातामान भी थी. उसने विचित्र सी काट वाला वही झबला पहना हुआ था जो इधर के महीनों में मेरे मोहल्ले की औरतों के बीच सबसे लोकप्रिय घरेलू पोशाक के रूप में स्थापित हो चुका था. मैक्सी कहे जाने वाली इस बेहद चकरघिन्नी टाइप पोशाक को पहने औरतें फूले हुए गुब्बारों जैसी नजर आया करती थीं. खुद मेरी माँ कभी-कभार उसे पहनने लगी थी और जब-जब वह ऐसा करती मैं उसे सीधी आँख से नहीं देख पाता था. बहरहाल नाक को एक हाथ से ढंके जीनातामान सुबक रही थी और उसे देखते ही लगता था उसके घर में कोई अनिष्ट घट गया है.
कुछ देर असमंजस में खड़े रहने के बाद मैंने बजाय लफत्तू के घर जाने के शेरसिंह के खोखे की आड़ हो जाना बेहतर समझा. कुछ न कुछ सनसनीखेज जरूर घटा था और मौके पर मौजूद रह कर मैं इस घटना का प्रत्यक्षदर्शी बनना चाहता था. मेरी पूरी मित्रमंडली हमेशा ऐसी सनसनीखेज कहानियों-ख़बरों की प्रतीक्षा में रहती थी अलबत्त उन्हें लेकर आने का ठेका अमूमन लफत्तू, फुच्ची कप्तान या बागड़बिल्ले का होता था. लालसिंह की दुकान पर अक्सर ऐसे समाचारों का पारायण और पोस्टमार्टम करते इन फसकी-गपोड़ियों को देख कर मुझे अपने रूखे अनुभवहीन जीवन को लेकर कोफ़्त होती थी. मेरे पास कभी भी ऐसी कोई कहानी नहीं रही थी. यह मौक़ा था.
भीड़ बढ़नी शुरू हो गयी थी और मनहूस आकृतियों की संख्या दो दर्जन के आसपास पहुँचने को थी. फिर लफत्तू की मम्मी का आना हुआ जो कुछ कहती हुईं जीनातमान और रोती औरतों को घर के भीतर ले गईं. अचानक दूर हाथीखाने वाले मोड़ पर तीन-चार लोग दिखाई दिए. वे तेज कदमों से घटनास्थल के पास पहुँचने ही वाले थे जब मैंने देखा उनका नेतृत्व लफत्तू के पापा कर रहे थे. भीड़ ने देखा तो उन्हीं की दिशा में लपकी.
लफत्तू के पापा ने भीड़ से जल्दी-जल्दी कुछ कहा और मेरी तरफ आने लगे. मैं थोड़ा और दुबक गया. उन्होंने मुझे देखा ही नहीं और जल्दी-जल्दी डग भरते हुए घासमंडी के मोड़ और उससे भी आगे तक पहुँच गए. मनहूस भीड़ छितर चुकी थी. उस में शामिल तीन-चार आदमी लफत्तू के पापा का अनुसरण करते दिखाई दिए. घर की स्त्रियाँ एक बार फिर से बाहर सड़क पर आ गयी थीं और लफत्तू की मम्मी के समझाने के बावजूद उस गतिविधि में लिप्त हो गयी थीं कोर्स में लगने वाली एक कहानी में जिसे बुक्का फाड़ कर रोना लिखा गया था.
यानी घटनास्थल यहाँ नहीं है – मेरे चालाक मस्तिष्क ने सूचना दी. यानी घटनास्थल वहां है जहाँ लफत्तू के पापा गए हैं. लेकिन कहाँ?
मन में ढेर सारी उत्सुकताएँ भरती जा रही थीं जिनका जवाब शेरसिंह के खोखे की बगल में बह रही नाली में तो मिलने से रहे. मैं घासमंडी की तरफ मुड़ ही रहा था कि ऊपर घर की खिड़की से आवाज आई. माँ बुला रही थी.
जीने की सीढ़ियों पर ही मां से मुलाक़ात हो गयी. उसके क़दमों तेजी बता रही थी कि वह भी जीनातमान के घर जा रही थी. सेकेण्ड के एक लाखवें हिस्से भर की उस मुलाक़ात में भी माँ ने मुझे एक डांट पिला ही दी, “अपनी किताबें ढंग से नहीं सम्हाल सकता! कोई काम तो ठीक से कर लिया कर.” 
घर में घुसते ही छोटी बहनों ने उंगली के इशारे से दालान के उस हिस्से की तरफ मेरा ध्यान दिलाया जहाँ रोशनदान से आ रही कड़ियल धूप के एक बड़े से चौकोर में मेरी किताबें सूखने को फैलाई गयी थीं.
“तूने लोहे वाली अलमारी के नीचे अपना बस्ता डाला हुआ था. कल जब वो तेरे ट्यूशन वाले सर का बच्चा आया था ना तो उसके जाने के बाद फर्श को धोया था मम्मी ने. अभी ठहर जा वापस आ कर तेरी क्या हालत करती हैं वो!” 
मैं हैरान हो कर सोच रहा था कि क्या मेरे हर संकट और हर त्रासदी का मखौल उड़ाने और उनका मजा लूटने वाली अपनी इन सगी कुटुम्बिनियों से बड़ा भी मेरा कोई शत्रु हो सकता है.
छत की तरफ जाने लगा तो बीच वाली बहन ने निस्पृह भाव से जैसे हवा को सूचित करते हुए कहा – “वो लफत्तू लोगों के सामने नहीं रहते वो नए वाले किरायेदार. उनका अभी सुबह एक्सीडेंट हो गया. काशीपुर से यहाँ आ रहे थे बस से. एक ट्रक से टक्कर हो गयी हिम्मतपुर के नजदीक. सात लोग मर गए. सबको रामनगर के अस्पताल में ला रहे हैं बंटू के पापा बता रहे थे.”   
नाली की बास सूंघने को मजबूर छुपे हुए, जेम्स बॉन्ड बने हुए मौके पर मौजूद रहते हुए मुझे इतनी बड़ी सूचना का एक रेशा तक छूने को नहीं मिला था जबकी घर में बैठीं, परांठे बेलातीं, गुट्टे खेलतीं मेरी बहनें उस सूचना की इतनी मोटी रस्सी बटकर उस पर जा आने कब से झूल रही थीं.
ढाबू की छत पर अवस्थित अपने गुप्त ठिकाने पर मैंने हाल ही में जुगाड़ किये गए कर्नल रंजीत के एक और पुराने जासूसी उपन्यास के फटे पन्ने जमा कर रखे थे. बंटू उन्हीं में से एक का मजा लेने में व्यस्त था जब मैं वहां पहुंचा. बहनों के माध्यम से अभी अभी अर्जित किये गए सूचना भण्डार को बांटने का मौक़ा था.
“वो लफत्तू लोगों के सामने जो जीनातमान रहती है ना उसके पापा आज सुबह एक्सीडेंट में मर गए. काशीपुर से बस में आ रहे थे. ट्रक ने ठोक दिया ट्रक ने. बारह-पन्द्रह लोग मर गए मेरे पापा बता रहे थे.”
बंटू ज़रा भी इम्प्रेस नहीं हुआ. लुगदी-पन्ने पर आँख गड़ाए-गड़ाए बेपरवाही से बोला, “मरा-वरा कोई नहीं है. पापा गए थे सुबह-सुबह मोटरसाइकिल ले कर. थोड़ी चोट वगैरह आई है बता रहे थे.”
मेरी पहली सनसनीखेज रिपोर्टिंग बुरी तरह फेल हो गयी थी. मैं झेंपता हुआ छत की मुंडेर पर चला गया और बाहर देखने लगा. लालसिंह की दुकान में पाली बदलने का समय हो रहा था. उसके पापा बाहर निकलते हुए लालसिंह को कुछ हिदायत दे रहे थे. लालसिंह ने धुली हुई कप-प्लेटें काउंटर पर लगाना शुरू कर दिया था. मेरे प्राण में प्राण आये.
मैं हरिया हकले वाली चोर सीढ़ी से निकलने लगा तो बंटू बोला, “ठहर ना. मैं किताब ख़तम कर लूं तो आइसक्रीम खाने घर चलते हैं.”
उसकी आइसक्रीम का मतलब मैं समझता था और अपनी और बेइज्जती करवाने के मूड में न था.
“बाद में आऊंगा” कह कर मैं उतरने को ही था कि बंटू ने किताब पढ़ते हुए ही पूछा, “ये सुडौल का क्या मीनिंग होता है बे?
मैं समझ गया उसके हाथ किताब का सबसे मजेदार हिस्सा लग गया था और अपने जन्मजात हॉकलेटपने के चलते वह उसे समझने से लाचार था. मन ही मन इस बात को समझ कर मुदित होते हुए मैंने उसके सवाल की अनदेखी की और भागता हुआ लालसिंह के पास पहुँच गया.
“अबे हरामी. आ बैठ.”
मुझे देखते ही उसने मुझे एक बिस्कुट दिया और गिलास में दूध-शक्कर डाल कर उसे चम्मच से हिलाना शुरू कर दिया.
“कैसी चल रही बेटे आसिकी? कब कर्रिया क्वीन कवर?” वह नसीम अंजुम को लेकर मुझे छेड़ने के मूड में था. वह आगे कुछ कहता उसके पहले ही मैंने सनसनी फैलाई, “जीनातमान के पापा का आज सुबह एक्सीडेंट हो गया. काशीपुर से बस में आ रहे थे. ट्रक ने ठोक दिया बिचारों को. बीस-पच्चीस लोग मर गए मेरे पापा बता रहे थे.”
लालसिंह के चेहरे पर आये भावों ने मुझे बता दिया कि वह घटना से अनभिज्ञ था. मैंने अपना सुबह का अर्जित अनुभव बांटना शुरू किया ही था कि सामने से घासमंडी की तरफ जाती आठ-दस बदहवास औरतों की भीड़ गुज़री. मेरी और लफत्तू की मांओं के अलावा उनमें जीनातमान भी थी. उसने अब भी वही झबला पहना हुआ था.
“ओत्तेरी!” कह कर लालसिंह लपक कर काउंटर फांदता हुआ सड़क पर खड़ा हो गया. “तू यहीं बैठ ज़रा. मैं पांच मिनट में आया.” वह भागता हुआ औरतों से भी आगे निकल गया.
लालसिंह ने वापस आने में आधा घंटा लगाया. किस्मत से उस पूरे अंतराल में सिर्फ एक ही ग्राहक आया जिसे दही चाहिए था. काउंटर पर दही न देख कर मैंने उसे मना किया तो अपना चश्मा कनपटियों के ऊपर खोंसते हुए उसने मुझे कुछ देर घूर कर देखने के बाद पूछा, “जो लौंडा यहाँ रोज बैठा करे वो तेरा बड़ा भैया हैगा?
हाँ में सिर हिलाते हुए मैंने अपनी नसों में गौरव और खुशी की मीठी झुरझुरी को बहता महसूस किया. मैंने अपने सपनों में लालसिंह को ही अपना बड़ा भाई माना था. आज उसकी स्वीकारोक्ति भी कर ली.
“पड़ाई-लिखाई में धियान दिया करै बेटे इस उमर में. सरौसती मैया की पूजा किया करैगा तो लछमी मैया अपने आप तेरे धोरे आ जांगी. सिकायत करूंगा तेरे बाप से मैं.” अकेला बच्चा देखते ही हर कोई भाषण पिलाने का मौक़ा तलाश लेता है – मैंने तय किया अब से बड़ों से कभी कोई बात नहीं की जाएगी. मेरे बखत के ज्यादातर बड़े अश्लील और श्रीहीन थे.
लालसिंह के आने के बाद स्थिति स्पष्ट हुई. एक्सीडेंट हुआ था. और जीनातमान के पापा बस में बैठकर काशीपुर से रामनगर आ रहे थे. पीरूमदारा के पास चाय-पानी के लिए गाड़ी ठहरी. वे उतर रहे थे जब बगल से गुजर रहे एक दूधिये की मोटरसाइकिल उनसे टकरा गयी. पैर टूट गया था. दस-बारह टाँके लगे थे और दो दिन में उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिलने वाली थी.
“बस्स!” मैंने तनिक निराश होकर पूछा, “कोई डैथ-वैथ नहीं हुई?
“अबे डैथ-हैथ होती होगी वो उस अंग्रेज मास्टरानी के शहर में. ये रामनगर है बेटे रामनगर.” उसने मेरी खोपड़ी पर एक प्यार भरी चपत लगाते हुए आँख मारी, “ और स्साले ये नहीं बोल सकता कि अच्छा हुआ तेरे ससुर जी बच गए लालसिंह.”
मैं कुछ समझने की कोशिश करता उसके पहले ही उसने दो उंगली वाला अश्लील निशान बनाते हुए कहा, “अभी चुप करा के आ रहा हूँ तेरी भाभी को! बिचारी सुबह से रो-रो के आधी हो गयी थी.”
जीनातामान के लिए लालसिंह की मोहब्बत मेरे लिए खबर थी. यह उसके लिए प्रसन्न होने और जश्न मनाने का समय था लेकिन मेरे विचार किसी दूसरी दिशा में मुड़ चले.
तीन-चार दिन पहले ही फुच्ची कप्तान ने भी वही अश्लील निशान बनाते हुए जीनातामान को मेरी भाभी बनाने संबंधी अपने इरादे से वाकिफ कराया था. 
मैंने नकली मुदित होते हुए लालसिंह को अपनी होने वाली भाभी को लेकर काफी देर तक छेड़ा. जब वह पर्याप्त छिड़ गया और जब लाज उसके होंठों पर झेंपभरी हंसी बनकर कनपटियों तक पसर गयी तो मेरे भीतर हमेशा बैठा रहने वाला चोट्टा दार्शनिक मोड में आ गया.
पिक्चरों से सीखा था था कि हीरोइनें चाय वालों से मोहब्बत नहीं करती थीं. वे कलूटे लड़कों से भी मोहब्बत नहीं करती थीं. जीनातमान के सामने लालसिंह और फुच्ची कप्तान की दाल गलने वाली नहीं थी. बिना प्रेम के वह बिचारी अपना जीवन कैसे काटेगी. उसके साथ जंगल में गाने कौन गायेगा. 
मैं देख रहा था कि मैंने सुबह से एक बार भी नसीम अंजुम के बारे में नहीं सोचा था. मधुबाला स्मृति से गायब होने को थी. जहाँ तक गोबरडाक्टर की बेटियों की बात थी अगर वे अभी सामने आ जाएँ तो भी कुच्चू-गमलू के चेहरों में मुझसे फर्क नहीं हो सकेगा. मुझे अपने नकली आशिक होने पर जो भी शक था वह छंट रहा था. सच तो यह था कि मैंने लाल सिंह की अनुपस्थिति में सिर्फ और सिर्फ जीनातमान के बारे में सोचा था.
यह भी सच था कि जीनातमान के आगे अभी मैं बच्चा था. मैं छठी में था और वह शायद कॉलेज पूरा कर चुकी थी. लेकिन जिस तरह एक पिक्चर में हीरो-हीरोइन उम्र में बड़ा अंतर होने के बावजूद शादी कर के खुशी खुशी जीवन बिता ले जाते थे, वैसे ही अगर कभी उसकी मेरी शादी हो गयी तो मैं सबसे पहले उसके लिए एक हीरे की अंगूठी खरीदूंगा और उसकी उंगली में पिरोते हुए उससे कहूंगा, “देखो ये झबला मत पहनना कभी. तुम पर सूट नहीं करता. तुम्हें मेरी कसम है झबला कभी मत पहनना.”
लालसिंह से कुछ बहाना बना कर मैं अस्पताल के बाहर तक पहुँच गया. हालांकि मुझे पता था कि मेरे और लफत्तू के मम्मी-पापा वहीं थे और उनको दिखाई दे जाने पर फटकार पड़ने का चांस था अलबत्ता मुझे उम्मीद थी कि मुझे झबलाधारिणी जीनातामान दिख जाएगी और उसे एक दफा ढंग से देख कर मैं अपनी भावनाओं की सही-सही तौल कर सकूंगा.
अस्पताल के सामने स्थित बीज भण्डार की फैली हुई इमारत का एक कोना छिपने के लिए मुफीद जगह थी. मैं जगह देख ही रहा था कि रानीखेत जाने वाली सड़क की ओर से फुच्ची कप्तान आता नजर आया. इसी का मुझे भय था. मैंने कार्यक्रम में तुरंत परिवर्तन किया और उसकी नजर बचाकर सीधा बौने के ठेले पर मौज लूटने चला गया. बमपकौड़े ने रूह और जिस्म को तरावट पहुंचाई और आगामी प्रेम-योजना की बाबत विचार करता मैं घर की राह लग लिया.
पिछले ही दिन की तरह टट्टी मास्साब के आने से एक घंटे पहले ही नसीम अंजुम घर पहुँच चुकी थी और मेरी माँ-बहनों से बतिया रही थी.
“हम क्या बताएं आंटी आज सुबह क्या हुआ कि हमारी नींद थोड़ा पहले खुल गयी. पापा-मम्मी सोये हुए थे और नसीम अंजुम जाग गईं. अब हमने याद करने की कोशिश की कि हमने ऐसा कौन सा ख़्वाब देखा था जिसकी वजह से हम इतना जल्दी उठ गए. दिमाग पे जोर डाला तो याद आया कि हम तो सपने में स्कूल जा रहे थे अकेले अकेले. तो आंटी क्या हुआ ना कि हम जा रहे थे तो सामने से ये इतना बड़ा बब्बर शेर आ के खड़ा हो गया. हमें तो बहुत डर लगा. अकेले थे ना. तो नसीम अंजुम करे तो क्या करे ....”
मैं घुसा तो उसकी बकर-बकर चल रही थी. मैंने चोर निगाहों से उसकी दिशा में देखा. मेरा मुंह खुला का खुला रह गया. वह सुर्ख लाल फ्रॉक पहले साधना कट बाल काढ़ कर आई थी. वह हमेशा उस जगह बैठती थी जहाँ उस के चेहरे पर धूप पड़े. फिर वह अपनी अंगूठी वाली उंगली से अपनी नाक या गाल को सहलाती ताकि उसके नगीने से प्रतिविम्बित होकर जादुई रोशनी निकले और किसी पतंगे की तरह मैं उसमें कैद कर लिया जाऊं.
यह असह्य था. आँखें चौंधिया गयी थीं और अब मैं जीनातमान के नहीं नसीम अंजुम के बारे में सोच रहा था. मैंने भीतर घुसते ही बाहर का रुख किया तो माँ ने घुड़का, “अब कहाँ चले साहबजादे!”
मैंने बताया कि मुझे लफत्तू से कुछ काम है और यह भी कि मैं ट्यूशन से पहले पहले लौट आऊंगा.
लफत्तू के साथ सम्बन्ध ठीक करने में आधा मिनट लगा. उसे पिछली कोई भी बात याद नहीं थी. उलटे उसने मुझे दो दिन तक उसकी खबर न लेने के लिए लताड़ा. हम जैसे ही अकेले हुए मैंने उसके सामने पिछली सारी चीजें उगल दीं – मुन्ना खुड्डी, चम्बल, मंदिर की लूट, टट्टी मास्साब का बेटा, फुच्ची और बागड़बिल्ले का कमीनापन, जीनातमान के बाप का एक्सीडेंट, लालसिंह की मोहब्बत और आखिरकार अपने मन में चल रही नसीम-जीनातमान कशमकश.
“अपनी पलाई में मन लगा बेते. बलबाद हो दाएगा लौंदियों के तक्कल में!” गुरु होने का फर्ज निभाते हुए उसने सलाह दी.

Saturday, April 4, 2020

पीरूमदारा वाली पुस्पा का भूत, नारवे की राद्धानी और टट्टी मात्तर का पूत



दूधिये वाली गली से सीधे न जाकर दाएं हाथ को पड़ने वाले बेहद संकरे शॉर्टकट को पकड़ने पर एक डेड एंड मिलता था. यहाँ पर अवस्थित खंडहर चहारदीवारी के पीछे बरसों से अधबने छोड़े गए एक खंडहर दोमंजिले मकान के बारे में मशहूर था कि उसमें भूतों का डेरा है. कान में तब तक पड़ी उड़ती-उड़ती बातों से इतनी जानकारी मिली थी कि पीरूमदारा में खेती करने वाले एक अमीर परिवार ने इस मकान को उस साल बनाना शुरू किया था जब हिमालय टॉकीज में राजेंदर कुमार-मीनाकुमारी की ‘दिल एक मंदिर’ की सिल्वर जुबली मनाई गयी थी. दूसरी मंजिल का लिंटर डाला जा रहा था जब भवनस्वामी की इकलौती बेटी पुस्पा का पैर सरिया में लिपझा और ऊंचाई से सड़क पर गिरने के कारण उसकी मौत हो गयी. कुछ बरस थमे रहने के बाद निर्माण का काम फिर से चालू होने के साथ ही तब तक भूत बन चुकी पुस्पा ने कामगारों को इतना तंग किया कि कुछ ही समय बाद पीरूमदारा वालों की कोठी का नाम सुनते ही रामनगर तो क्या मुरादाबाद-रामपुर तक के मिस्त्री-मजदूर डर के मारे हाथ खड़े कर देते.
पीरूमदारा वालों की इस कोठी में पुस्पा के अलावा कुल कितने भूत रहते थे इस बाबत रामनगर में विभिन्न मत चला करते थे. मोहल्ले के सबसे पुराने माने जाने वाले सियाबर बैद जी के हवाले से बताया जाता कि पुस्पा की मौत के दस-बारह बरस बाद उसके माँ-बाप भी भगवान के प्यारे होने के साथ ही भूत बन कर अपनी बेटी के साथ रहने आ गए. अपने लखुवा निवासी मामा को उद्धृत करता बागड़बिल्ला बड़े आत्मविश्वास से बताता था कि जिस दिन पुस्पा मरी थी, कपड़े की दुकान  पर काम करने वाले उसके प्रेमी ने उसी दिन सबके सामने जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी और वह भी पीरूमदारा वालों की कोठी में आ बसा था. बाद में इस प्रेतयुगल का ब्याह हुआ और उनके भूतिया बच्चे पैदा हुए. पुस्पा के माँ-बाप के दुनिया भर के रिश्तेदार-परिचितों पर तरह-तरह के अहसान थे जिन्हें तारने की नीयत से जो जब-जहां मरता गया तब-वहां से भूत बनकर सीधा खताड़ी मोहल्ले में आकर बसता गया. यों भूतों की आबादी एक से लेकर साठ-सत्तर तक बताई जाती थी.
एक बार हम कंचे खेल रहे थे जब जगुवा पौंक ने फुसफुस आवाज में बताकर हमें डराने की कोशिश की थी कि उसके पापा ने पिछली रात उस भुतहा कोठी में लाइटें जली देख कर चारदीवारी के भीतर जाकर देखा था. अन्दर दावत चल रही थी - “बाबू कैरे थे सौ से कम आदमी तो क्या ही होगा.”  
जगुवा की बात को हवा में उड़ाते हुए लफत्तू ने कहा था – “थबते पैली बात तो आप छमल्लें पीलूमदाले वाले भूत खाना नईं खाते. बिताले तत्ती कलने कां जाएंगे? औल दूथली बात ये कि भूत लाइत देखते ई थुप दाते हैं. आँखों में खुदली हो जाने वाली हुई बितालों को.”
जगुवा लफत्तू के अकाट्य तर्कों का जवाब सोच ही रहा था जब दार्शनिक मुद्रा धारण करता हुआ लफत्तू बोला -  “दब थब थालों ने भूती बन्ना था तो मकान बनाने की क्या जरूअत थी. मैदान केई एक कोने में पले लैते. जब मन कलता पित्तल देख आते, दब मन कलता बौने का बमपकौला थूत आते. कोई पैते जो क्या माँगता बितालों से.”
नसीम अंजुम मेरे घर पहुँच चुकी थी जबकि लालसिंह की दुकान में टंगी धुआंखाई, टूटे कांच वाली घड़ी की सुइयां बता रही थीं कि टट्टी मास्साब को आने में अभी पूरा एक घंटा बाकी था. जाहिर था वह मेरी बहनों के साथ गप्पें मारने की फुर्सत में आई थी. उसके लिए दिल में समाई हुई मेरी मोहब्बत आँखों के रास्ते बयान हो गयी होगी जिसे लाल सिंह ने तुरंत ताड़ लिया.
“भौस्सई दिख री जे लौंडिया बे! जेई हैगी मेरी भाभी?” लालसिंह जानता था मैं शरमा जाऊँगा. “अब जा क्यों ना रिया अपनी लेला के पास. यहाँ दुकान के धोरे खड़ा रेगा तो रामनगर की जो पब्लिक है ना भौत जालिम है साली. भले-भालों को फत्तर मार-मार के मजनू बना दिया करे बेटे.”
लालसिंह वाकई बहुत प्यारा था. उसकी हर मीठी झिड़की और छेड़ में मोहब्बत ठुंसी होती थी. उस पल मुझे एक बार मन हुआ कि सब कुछ छोड़छाड़ के लालसिंह के घर शिफ्ट हो जाऊं जहाँ मैं और नसीम अंजुम शादी करके उसकी सेवा करने अपना जीवन बिता देते जैसा एक पिक्चर में जानी राजकुमार ने किया था.
रामनगर आने के बाद पहली बार यह हुआ था कि अपना कोई रहस्य मैंने लफत्तू से साझा नहीं किया था. मैंने उसे नसीम अंजुम के बारे में बताने की कोशिश की तो थी लेकिन उसने सुनने से साफ़ इनकार कर दिया था. मेरे मन में अब तक वही फांस अटकी हुई थी. मुझे किसी भी तरह अपने गुरु लफत्तू की शरण में जाना था.  
थोड़ा संजीदा होकर मैंने लालसिंह से पूछ ही लिया, “ये लफत्तू जो बिना बात नाराज हो रहा मेरे से उसका क्या करूं यार लालसिंह?”
“करना क्या है! सीधा उसके घर जा और बता दे उसको अपनी और मुन्ना खुड्डी की करतूतों के बारे में. साले मंदिर से भी कोई पैसे चुराता है क्या? और हाँ ...” उसने सामने धरे एक मर्तबान को खोलते हुए उसमें से एक परचा निकाला और मुझे थमाते हुए कहा, “जाएगा तो लफत्तू से कहना इसमें उसके बैंक का हिसाब लिखा हुआ है. ब्याज लगा के पूरे उन्नीस रुपे सत्तर पैसे बन गए फरवरी के लास्ट तक.”
मैंने अचरज में भर कर इतनी लम्बी-चौड़ी रकम की तफसीलों वाले कागज़ को फैलाकर देखा. एक जगह मेरा नाम लिखा था और उसके आगे दो रुपये और कुछ पैसे लिखे हुए थे. मेरे कुछ पूछने से पहले ही लालसिंह बोला, “बौने के यहाँ जो तेरा हिसाब था वो किलियर किया मैंने इसमें से.” यानी मैं लफत्तू का देनदार बन चुका था. अब यह एक और मुसीबत आन पड़ी थी.
“हूं” कह कर मैंने परचा जेब में डाला और लफत्तू के घर की तरफ बढ़ चला. पता नहीं मन में कौन सा चोर बैठा हुआ था कि वहां जाने के बजाय मेरे कदम दूधिये वाली गली की तरफ मुड़ गए. पिछवाड़े के रास्ते से मैं पहले हाथीखाने पहुंचा और वहां से नहर वाला शॉर्टकट लेकर भवानीगंज.
भवानीगंज के निषिद्ध इलाके में घुसते ही मेरा मन हमेशा एक अजीब सी उत्तेजना से भर जाया करता था. ढंग से सोचा जाय तो वह दुश्मन का इलाका था जहां अकेले पाए जाने पर हमारे मोहल्ले वाले लौंडों की बात-बेबात ठुकाई किये जाने की परम्परा थी.
मुझे खुद समझ में नहीं आ रहा था कि मैं वहां गया ही क्यों था. अब भयभीत होने की वेला थी. मेरे कदमों में सुरक्षित ठिकाने तक पहुँचने की बेचैनी और घबराहट आ गयी. सड़क पर आँख गड़ाए मैं थाणे के नजदीक पहुँचने को ही था जब कानों में एक वयस्क आवाज पड़ी, “ओये हरी निक्कर वाले लौंडे!”
हरी निक्कर मैंने ही पहनी हुई थी. डरते-डरते मैंने आवाज की दिशा में देखा. अपनी दूकान के बाहर बुरादे और लकड़ी की छीलन को कट्टों में भरता अतीक बढ़ई मुझसे मुखातिब था.
“वो काणी आँख वाला लौंडा तेरा दोस्त है ना?” वह बागड़बिल्ले के बारे में पूछ रहा था.
“हाँ तो!” मैंने भरसक आवाज में मजबूती लाते हुए जवाब दिया.
“एक महीने से एक खाट दे के गया हुआ है रिपेरिंग के लिए. लेने ना आया अब तक. मिलेगा तो उस्से कहियो उठा के ले जाए फ़ौरन से पैले. साली रामनगर की दीमकें अपनी पे आ गयीं ना तो बारूदा बी ना बचेगा उसकी खाट का. कह दीयो उससे.”
अब मुझे बागड़बिल्ले पर गुस्सा आने लगा. एक तो साले के चक्कर में लफत्तू मुझसे उखड़ गया था ऊपर से दो कौड़ी का अतीक भड़ई चौराहे पर उसके नाम से मेरी बेइज्जती कर रहा था. उसकी बात का कोई उत्तर दिए बिना मैं तेज क़दमों से चलता हुआ असफाक डेरी सेन्टर और केन्द्र तक आ पहुंचा. यहाँ से घासमंडी दिखना शुरू हो जाती थी यानी अपना इलाका. ट्यूशन का समय हो रहा था और अब मुझे मोहब्बत पर ध्यान देना शुरू करना था.
घर पहुंचा तो कोहराम मचा हुआ था.
टट्टी मास्साब अपने पूरे कुनबे के साथ ट्यूशन पढ़ाने समय से आधा घंटा पहले घर पर पधार चुके थे. अर्थात उनके साथ गुरुमाता और डेढ़ साल का गुरुपुत्र मिंकू भी आया था. मुझे याद आया पिछली शाम टट्टी मास्साब के घर से निकलते हुए मेरी मां उनसे कह रही थी, “कभी भाभी को भी घर लाइए जोशी जी.” 
जोशी जी उर्फ़ मथुरादत्त जोशी उर्फ़ टट्टी मास्साब ने मां की इच्छा पूरी करने में ज़रा भी देर नहीं लगाई. उनके लिए चाय-नाश्ता बन रहा होगा जब मिंकू ने अपने पाजामे में टट्टी कर दी थी और सबकी निगाह से बचता-बचाता करीब दस मिनट तक बगैर पैजनिया बजाये इस कमरे से उस कमरे ठुमक चलत रामचंद्र करता रहा. जब तक उसके इस नैसर्गिक कर्म के भभके की भनक माँ-बहनों को लगी तब तक समूचा घर लिथड़ चुका था.
घर में घुसते ही मैंने पाया कि हाथ में पोंछा लिए जमीन घिसती एक अजनबी औरत के नेतृत्व में मेरे घर की सभी स्त्रियां कहीं न कहीं, एक हाथ से नाक दबाये दूसरे से पोंछा लगाने में मसरूफ थीं.
“यहाँ भी हाँ थोड़ा सा दिदी” लोहे की अलमारी की तरफ इशारा करती अजनबी औरत माँ से कह रही थी. नसीम अंजुम भी अपनी नाक दबाये हकबकाई हुई एक कोने में सिमटी खड़ी थी. टट्टी मास्साब के हाथों में पिद्दी पिछाड़ी उघाड़े उनका अभिमन्यु उलटा स्थापित थे और वे हाथ में उसका पाजामा लेकर “पानी कहाँ मिलेगा भाभीजी पानी” कह रहे थे.     
सारे घर में मिंकूनिर्मित खट्टी दुर्गन्ध फ़ैली हुई थी. मैं अन्दर घुसता उसके पहले ही बड़ी बहन ने मुझे घुड़की देते हुए कहा, “अभी वहीं रह बाहर.” उसने मुझे ऐसी निगाह से देखा जैसे कि सब कुछ मेरे ही कारण घटा हो जो एक लिहाज से सच भी था. टट्टी मास्साब मुझे पढ़ाने आये थे. मैंने तार्किक होकर सोचना शुरू किया तो पाया कि इस घटना के लिए मेरे माता-पिता जिम्मेदार थे. न उनके मन में मुझे हॉस्टल भेजने का ख़याल आता न ट्यूशन जैसी वाहियात चीज होती.
बड़ी बहन के कहने पर अब नसीम अंजुम भी दरवाजे से बाहर आकर मेरे साथ खड़ी हो गयी. अचानक मिंकूगंध के ऊपर से तैरता हुआ मुलायम खुशबू का एक झोंका मेरे आसपास की हवा में आकर ठहर गया. एक पल को मैं घर के भीतर चल रहे धत्कर्म को भूल गया. एक पल को यह भी भूल गया कि मैली हरी निक्कर, बूटों वाली आसमानी पोलीएस्टर कमीज और हवाई चप्पल पहने मैं अप्सरा सरीखी नसीम अंजुम की बगल में सकपकाया, शर्मिन्दा खड़ा किसी भिखारी जैसा लग रहा होऊँगा.
“देखिये नसीम अंजुम को आइडिया आया है कि जब तक आंटी लोग सफाई कर रहे हैं आप और मैं नीचे जाकर कल के लेसन को रिवाइज कर लेते हैं.” मुझे याद आया वह खुद को नसीम अंजुम कहकर संबोधित करती थी और अपने बारे में इस तरह बोलती थी जैसे खुद कोई और हो और नसीम अंजुम कोई और.
मैंने चौंक कर हाँ-हूँ किया तो बोली, “अरे कोई कतल करने को थोड़े ही कह रही हूँ आपसे. चलिए दो मिनट को नीचे चलते हैं.” उसने मेरा हाथ थामा और सीढ़ियां उतरती हुई मेरी माँ को सुनाते हुए कहने लगी, “आंटी हम ज़रा नीचे खड़े हैं. अशोक के साथ कल का लेसन रिवाइज कर लेते हैं ज़रा सा.”
हम जीने के सामने वाले ऊंचे चबूतरे पर खड़े थे जिसके ठीक सामने सड़क थी. बाईं तरफ सकीना का मोहल्ला था जबकि दाईं तरफ देखने पर घासमंडी और उसके सामने लालसिंह की दुकान नजर आती थी. नसीम अंजुम की कोमल गिरफ्त से अपना हाथ छुड़ा कर मैं दरवाजे की आड़ हो गया ताकि लालसिंह मुझे देख न ले.
“देखिये अंकल ने हमें बताया था कि आप बहुत ज्यादा होशियार हैं. कल हमने आपकी वो वाली कापी भी देखी थी जिसमें आप ने पोयट्री लिख राखी थी. हम तो कहते हैं नसीम अंजुम ने आज तक ऐसी हैण्डराइटिंग किसी की नहीं देखी. माशाअल्लाह आप तो आर्टिस्ट हैं.”
मैं शर्म, अपमान और झेंप से जमीन में गड़ता जा रहा था. मेरी वह कापी मेरी माशूका को दिखाने की पिताजी को ऐसी क्या जल्दी थी. मुझे मालूम था मेरी पोयट्री बहुत बचकानी थी और नसीम अंजुम अवश्य ही मेरा मखौल उड़ाने की नीयत से ऐसा कह रही थी.
“अच्छा हम बकबक बंद करते हैं अपनी. हमारी आदत ही ऐसी है ना. क्या करें. ये बताइये कल क्या पढ़ाया आपको सर ने. हमारी अम्मी बता रही थीं कि नसीम अंजुम नैनीताल के स्कूल में एडमीशन का इम्तहान बहोत बहोत मुश्किल होता है. हर किसी को नहीं मिल जाता एडमीशन. दुनिया भर के बच्चे आते हैं दुनिया भर के.”
वह एक दो मिनट ऐसे ही बोलती रही. सांस के थोड़ा सामान्य होते ही मैंने आँख उठाकर कुछ पल को नसीम अंजुम का चेहरा देखा. वह कल से भी ज्यादा खूबसूरत लग रही थी. उसके घुंघराले बालों की एक लट बार-बार उसके माथे पर ढुलक आती जिसे वापस करने के लिए वह बड़ी अदा से अपनी अंगूठी लगी उंगली का इस्तेमाल करती. मेरा कलेजा हलक में आ गया था और मुंह से बोल फूटना बंद हो चुका था. मुझे एक-एक कदम फूंक-फूंक कर उठाना होगा. यह खेल कुच्चू-गमलू वाले खेल जैसा सित्तिल नहीं होने वाला है गब्बर!  मेरा मन मुझे चेता रहा था. मैं मिमियाता हुआ कुछ कहता ऊपर से माँ की आवाज आई, “आ जाओ नसीम बेटे. आ जाओ तुम दोनों. सब साफ़ हो गया है अब.”
आँखें मिचमिचाते टट्टी मास्साब ने अपना आसन ग्रहण कर लिया था. गुरुपत्नी और गुरुपुत्र गुसलखाने में मुब्तिला थे जहाँ से चपत लगाने और गुरुपुत्र के ट्यां-ट्यां कर रोने की ध्वनियाँ रिस कर आ रही थीं.
टट्टी मास्साब ने हमसे कापियां निकलवा कर फिजूल चीजें लिखवाना शुरू किया, “नारवे की राद्धानी है ओसिलो जिम्बाब्वे की राद्धानी हरारी. कनेडा की मुदरा है डालर और जापान की मुदरा येन.”
“आजकल जन्नल नॉलेज पर बड़ा धियान दे रही सरकार तो जिस बच्चे ने सारी दुनिया की राद्धानियाँ और मुदराएं रट ली उसका आधा एडमीसन तो समझो वैसे ही हो गया.” स्वयं पर मुदित होते, इस्लामाबाद-वियेना लिखवाते हुए वे अपने आप को आश्वस्त करते जाते थे. मुझे यह सब पहले से ही रटा हुआ था. घर पर बड़े भाई-बहनों के लिए आने वाली कंपटीशन की किताबों में हर महीने इस लिस्ट से सामना होता था. बोर होकर मैंने कापी में स्कूल में सीखी चित्रकला का रियाज करते हुए स्कूल जाती हुई लड़की का वही चित्र बनाना शुरू किया जिसे बनाने में अब तक मुझे महारत हो गयी थी.
गंभीर होने का नाटक करते हुए मैं कापी को मेज के नीचे घुटनों पर धरे था. अचानक आँख उठी तो पाया नसीम अंजुम का ध्यान मेरी ड्राइंग पर था. उस एक पल में मैंने उसकी आँखों में प्रशंसा का भाव भी देख लिया. उसने मुझे खुद को देखता हुआ देखा तो सकपका गयी और टट्टी मास्साब को देखने का नाटक करने लगी.
सतत रो रहे गुरुपुत्र की ट्यां-ट्यां धीरे-धीरे प्वाप्वा-प्वाप्वा में बदलती जा रही थी और घर की हवा में पार्श्वसंगीत का काम कर रही थी. आखिरकार झल्ला कर हमारी क्लास को रोक कर टट्टी मास्साब अपनी पत्नी से मुखातिब होकर जोर से बोले, “अरे मार डालोगी क्या मिंकुवा को. लाओ यहाँ ले कर आओ.”
मिंकुवा को उसकी अनावृत्त पिछाड़ी समेत लाया गया. प्वाप्वा की गोदी में आते ही वह चुप हो गया. उसकी बड़ी-बड़ी काजल लगी आँखों के कोरों पर बड़े बड़े आंसू ठहरे हुए थे और वह टुकुर टुकुर हम दोनों को देखने लगा था. पुत्र के गोद में आते ही टट्टी मास्साब का पितृप्रेम जाग उठा और वे हमारी क्लास रोक कर उस से तुतला कर बोलने लगे, “त्या तिया बदमाथ बत्ते ने. तत्ती कल दी तत्ती. बदमाथ बत्ता दां बी दाता है तत्ती कल देता है. इत बत्ते की हम भौत पित्तीपित्ती कलेंगे. तत्ती कलता है बदमाथ ...”
पूत और पूत की तत्ती के प्रति उनके प्रेम का झरना सूरदास के भजनों की तरह अनवरत बह रहा था. मैंने मन ही मन रामनगर के हरामी लौंडों की आदमी को पहचानने की प्रतिभा को दाद दी. ऐसे वाहियात और मनहूस आदमी का नाम टट्टी मास्साब के अलावा कुछ और धरा गया होता तो ब्रह्माण्ड का संतुलन बिगड़ चुकना था.
अपनी गुलाबी पेन्सिल की नोंक चमकीली दांतों के बीच दबाये नसीम अंजुम मुझे देख कर हौले-हौले मुस्करा रही थी. क्या हुआ अगर अपनी माशूका के साथ इतने करीब होने का मौक़ा पहली बार तब मिल रहा है जब घर भर में मिंकू की दुर्गन्ध फ़ैली हुई है. क्या हुआ अगर मैं हरी निक्कर, आसमानी पोलीएस्टर कमीज और हवाई चप्पल पहने हुए उस राजकुमारी के सामने हौकलेट नजर आ रहा हूँ. मेरा चांस बन रहा था. बकौल लफत्तू खिचड़ी को अभी देर तक पकाते रहने की जरूरत थी.

Thursday, April 2, 2020

जीनातमान की चिठ्ठी और मुन्ना खुड्डी की दगाबाजी के बीच गमलू कुच्चू की याद


पिछले कुछ दिनों से हर दोपहर सजने वाली चुस्सू महफ़िल में भाग लेने की नीयत से मैं लफत्तू के घर पहुंचा. उसका मूड उखड़ा हुआ लग रहा था और उसने मुझसे कोई बात नहीं की. लेटा-लेटा अपने सिरहाने धरी दवाइयों की शीशियों को उलट-पुलट कर व्यस्त होने का दिखावा करता रहा. मैं उसे अपनी नई मोहब्बत और मुन्ना खुड्डी की हरामजदगी के बारे में बताना चाहता था लेकिन उसका चेहरा बता रहा था कि वह किसी भी तरह की बात करने के मूड में नहीं है. दो-चार मिनट की खामोशी के बाद उसने अनमनी सी आवाज निकालकर मुझसे कहा, “आज बन्तू और दगुवा नईं आने वाले है. तू बी अपने घल जा और पलाई कल. तुदको नैन्ताल जाने की तयारी कलनी है. यहाँ आके तैम बलबाद मत कल.” मैंने उसकी बात को सुने बगैर ही कहना शुरू किया, “याल लफत्तू कल शाम क्या हुआ ना. वो नसीम अंजुम नहीं है नसीम अंजुम ...” “मेले कद्दू में गयी नतीम अंदुम फतीम अंदुम. तू अपने घल जा. मुदको बुखाल आ ला थुबे थे. पल्छान मत कल.” मैं समझ गया लफत्तू किसी बात को लेकर उखड़ा हुआ था. मैंने रुआंसी सूरत बनाते हुए उसके कमरे से रुखसत ली. “अरे कहाँ जा रहा है बेटा. खीर बना रही हूँ तुम्हारे लिए.” मुझे जाता देख लफत्तू की मम्मी ने रसोई से बोलना शुरू किया. मैं बाहर वाले कमरे में आ चुका था जहाँ उसकी दोनों बहनें सांपसीढ़ी खेल रही थीं. मैं तेज-तेज चलता हुआ बाहर निकल आया. मुझे तुरंत लालसिंह के पास पहुँच कर अपना दुःख सुनाना था. टट्टी मास्साब के ट्यूशन में अभी बहुत देर थी. घासमंडी के विस्तार में लकड़ी-घास के गठ्ठर बिकने के लिए धरे जा चुके थे. जंगल से उन्हें इकठ्ठा कर के लाईं औरतें गपिया रही थीं. पशु अस्पताल के बाहर परित्यक्त पड़े खोमचे के नीचे रहने वाली चितकबरी कुतिया ने कुछ समय पहले बच्चे दिए थे. महीने भर के हो चुके ये आधा दर्जन पिल्ले दुनिया भर के खेल खेलने में मसरूफ रहा करते थे. फिलहाल वे कहीं से हासिल किये गए एक फटे कुरते को नेस्तनाबूद करने का प्रोजेक्ट उठाये हुए थे. लालसिंह दुकान पर नहीं था. मैंने दूर से देख लिया मुंह में बीड़ी लगाए उसके पापा आदतन केतली धो रहे रहे थे. मैं अपनी जगह पर थम गया और सोचने लगा संकट की इस घड़ी में अब किसके पास जाया जा सकता है. झूठा मुन्ना खुड्डी मेरे पैसे नहीं दे रहा था, शाम को एक घंटे टट्टी मास्साब की दुर्गन्ध झेलनी थी, नसीम अंजुम ने दिल की लपट में सुबह से ही अपनी हांडी चढ़ा दी थी और घर वाले मुझे सुबह-शाम उपदेश देने से बाज नहीं आ रहे थे. ऊपर से मेरे जीवन का सूरज, मेरा उस्ताद लफत्तू मुझसे नाराज हो गया था. मुझे रोने का मन करने लगा. मुझे एक पिक्चर का वह सीन भी याद आया जिसमें समुन्दर के किनारे खड़ा, डूबते सूरज को देखता हीरो मोहम्मद रफ़ी का एक उदास गाना गाता है. कुछ भी करने से लाचार सड़क पर ठिठका खड़ा मैं कुछ तय करता, बंटू की आवाज आई, “ऊपर आ जा. पापा बरेली से शोले का रिकॉर्ड लाये हैं. जल्दी आ जा. आइसक्रीम भी लाये हैं.” वह अपनी खिड़की से मुंह बाहर निकाल कर पुकार रहा था. जिस तरह सब कुछ लुट चुकने के बाद भी एक सच्चा आशिक अपनी महबूबा की उसी गली में बार-बार फेरा मारने जाता है, जहां उसे बोरा भर-भर गालियाँ खाने को मिलती हैं और लतियाया-दुत्कारा जाता है, ‘शोले’ के रेकॉर्ड का नाम सुनते ही मैं अपने सारे गम भूल गया और मेरे कदम बंटू के घर की तरफ खिंच गए जो रेकॉर्ड की सुई हाथ में थामे उसे काले चक्के पर रखने का इन्तजार कर रहा था. डायलॉग चल रहे थे और मैं दस मिनट के भीतर गब्बर के रामगढ़ पहुँच गया था. रेकॉर्ड का खोल थामे बंटू लगातार कमेंट्री कर रहा था, “इसमें अमीताच्चन और धरमेंदर ने भौत अच्छा काम किया है पापा बता रे थे. और जो ये सफ़ेद साड़ी वाली ज्या भादुड़ी है ना इसने बी. तुझे पता है अमीताच्चन और जया भादुड़ी सच्ची मुच्ची वाली शादी कर के अब रामगढ़ में ही रहते हैं. और जो ये ठाकुर है न ठाकुर मतलब संजीव कुमार बिलकुल इसके जैसा ही कुर्ता मामाजी लखनऊ से लेकर आने वाले हैं मेरे लिए. आजकल इंडिया आये हुए हैं ना ...” रेकॉर्ड भी बंटू का था और उसका खोल भी. मैंने उससे एक बार खोल दिखा देने की याचना की तो उसने मुझे खारिज करते हुए कहा, “गंदा हो जाएगा पापा कह रहे थे.” इतनी बेइज्जती के बावजूद मैं बैठा रहा और कनखियों से कंधे पर फीतों वाली काली कमीज पहने गब्बर के चेहरे को देखने की कोशिश करता रहा. मुझे उस क्षण का इन्तजार था जब गब्बर सांभा से पूछता है, “कितने आदमी थे?” रामनगर के पिक्चर हॉल मालिकों पर गुस्सा आना शुरू हुआ. जिस गब्बर सिंह को अब तक कई दफा देख चुकना था उसकी एक असल झलक तक देखने को मैं तरस रहा था. इसके बावजूद लफत्तू ने बड़े लौंडों से सुनी-सुनाई बातों की मदद से खुद को हमारे लिए गब्बर के रूप में स्थापित कर रखा था. रेकॉर्ड सुनते हुए मुझे यह बहुत शर्म का विषय लगा कि मेरी अन्तरंग पहचान मंडली में एक भी ऐसा नहीं था जिसने साक्षात शोले देख ली हो. बस बंटू के पापा देख चुके थे लेकिन एक तो वे बंटू के पापा थे दूसरे काला चश्मा पहनते थे. काशीपुर के चैती मेले में शोले को लगे हुए एक साल बीतने को आया था लेकिन रामनगर के पिक्चर हॉल वाले अभी तक उसे लेकर नहीं आये थे. हमने सुन रखा था कि पिक्चर में बहुत भयंकर फाइटिंग है और एक गब्बर सिंह है जिसके नाम का सिक्का पूरे देश में ऐसा चला है कि दारासिंह उसके आगे बच्चा नजर आता है. शुक्र था कुछ महीने पहले, जब लफत्तू बीमार नहीं चल रहा था, हमने बाकायदा भीतर बैठ कर हिमालय टाकीज में 'रोटी कपड़ा और मकान' तीन बार देखी थी. भुच्चशिरोमणि मनोज कुमार की इस पिक्चर के दो सबसे बड़े आकर्षण थे. पहला यह कि जिन दिनों 'रोटी कपड़ा और मकान' लगी थी, सदा काली बैलबॉटम धारण करने वाले साईंबाबा का एक रिश्तेदार लौंडा मुरादाबाद से आया हुआ था. वह बेहद सिपला और नक्शेबाज था और हमारा हमउम्र होने के कारण कभी-कभी अपनी बोरियत मिटाने की गरज से हमारे साथ क्रिकेट वगैरह खेलने आ जाता था. अपनी बातों से उसने हमें लगातार दीनताबोध से भरा कि मुरादाबाद के सामने रामनगर की औकात एक गाँव से ज्यादा कुछ नहीं. वह नौ बार शोले देख चुका था. उससे हमारी यारी होने का कोई नैसर्गिक चांस नहीं था लेकिन उससे अंतरंगता होने की सबसे बड़ी वजह पिक्चरों का वह कीड़ा था जिसने उसे भी उसकी देह में उसी गुप्त जगह पर काटा था जहां हम पहले ही से नासूर पाले बैठे थे. उसी ने बताया कि 'रोटी कपड़ा और मकान' नई पिक्चर है और उसने नहीं देख रखी है. हम रामनगर वालों के लिए यही तथ्य बहुत बड़े सम्मान का विषय था जिसे हम लम्बे वक्फे तक विक्टोरिया क्रॉस की तरह लटकाए घूमते रहे. 'रोटी कपड़ा और मकान' का दूसरा आकर्षण यह था कि उस में रामनगर के हर छोकरे की महबूबा जीनातमान थी और खूब थी. उसमें दुनिया भर में मशहूर, अचूक टौंचे वाला मदन पुरी भी था जिसके हरामीपन के हम सब मुरीद थे और जब तक वह स्क्रीन पर रहता हमारे भीतर मीठी ऐंठन जैसा कुछ लगातार चुभता रहता. असल में हम जीनातमान के आशिक होने के साथ साथ मदन पुरी के गुलाम भी थे. वैसा कमीना गद्दार हिन्दी की पिक्चरों में फिर कभी नहीं आया. उस समय तक हम अमीताच्चन और ससी कपूर जैसे लौंडे एक्टरों के बारे में ज्यादा मालूमात नहीं रखते थे अलबत्ता सतरूघन सिन्ना, राजेस खन्ना और देबानन के अलावा एक सीमा तक उस समय तक के सबसे मनहूस एक्टर राजेंदर कुमार को अपने नगर के पिक्चर हॉल मालिकों की कामचोरी और काइयांपन के कारण भली तरह पहचानने लगे थे क्योंकि वे बार-बार तीन-चार साल पुरानी फिल्म को नई पिक्चर कह कर एडवरटाइज करते थे और साल में दो-दो दफा 'मुग्लेआजम', 'लैला मंजूर' और 'मंगू' को दो-दो हफ्ते चलाने की गंदी आदत से लाचार थे. नतीजतन ये तीन फ़िल्में हमें रट गयी थीं. पिक्चर हॉल मालिकों के ऐसे घिनौने करतब ही अमूमन हमारी बातचीत के सबसे ज्वलंत विषय हुआ करते. इस मायने में 'रोटी कपड़ा और मकान' को रामनगर के हिसाब से काफी नई पिक्चर माना जा सकता था. हमने पिक्चर के जितने मजे लूट सकते थे लूटे. सारे गाने हमें रट गए और साथ होने पर हम दोस्त उन्हें गाया करते. इसके नतीजे में हमारे तोतले और जांबाज सेनापति लफत्तू ने एक नई सांस्कृतिक विधा का आविष्कार किया जिसके अंतर्गत वह 'हाय हाय ये मजबूली' पर अपनी जाँघों, सीने और माथे पर थाप मारता हुआ ऐसा कव्वालीनुमा कैबरे करता था कि उसके शुरू होने पर हमें शरमाकर मंडली में से अपने से छोटी उम्र के बच्चों को बाहर चले जाने को कहना पड़ता. वे शिकायत करते तो हम उनसे कहते - "बच्चों के मतलब का आइटम नहीं है बेटे!" एक दिन जब लफत्तू का यह कार्यक्रम चल रहा था, फुच्ची कप्तान ने गाने को बीच में टोक कर लफत्तू से उस लाइन का मतलब पूछा जिसमें जीनातमान दो टकियाँ दी नौकरी में अपने लाखों के सावन के जाने का उलाहना देती हुई भारत कुमार को लपलपा रही होती है. जाहिर है न लफत्तू को दो टकियाँ और लाखों के सावन का का अर्थ आता था न हम में से किसी और को. इतना ऊंचा काव्य समझने लायक बालिग अभी हम नहीं हुए थे. इसके बाद हुए लम्बे विचार-विमर्श के बाद तय पाया गया कि चूंकि मैं अपनी क्लास के सबसे होशियार बच्चे के तौर पर स्थापित हो चुका था, अगले दिन स्कूल में गंगाप्रसाद 'गंगापुत्र' मास्साब उर्फ़ प्याली मात्तर से मुझे इस सवाल का जवाब पूछना था. प्याली मात्तर ने अटेंडेंस ली ही थी, मैंने पूछ ही लिया. इसके बाद अपना सुतली वाला चश्मा उतार कर उन्होंने मुझे और आगे की सीट पर बैठे बच्चों को इतना मारा कि उनकी संटी टूट गयी. वे कांपते हुए चीख रहे थे, "एक तरफ जो है इन्द्रा गांधी ने इमरजन्टी लगा रखी है और तुम पिद्दियों की पिछाड़ी में सावन की आग लग रही है हरामजादो! अपने माँ-बापों से पूछना सालो ..." वे गालियाँ बकते जाते थे और संटियाँ मारते जाते थे. जाहिर है अपने माँ-बापों से क्या किसी से भी इस खतरनाक गाने का अर्थ पूछने की हिम्मत हममें से किसी की भी न थी. हाँ कई हफ़्तों तक हम इस एक बात को लेकर असमंजस में रहे कि हमारी जानेमन, हमारे ख़्वाबों की मलिका जीनातमान ऐसा हौकलेट गाना गाने को राजी कैसे हो गयी जिसका जिक्र भर करने से बुढ्ढा प्याली मात्तर जल्लाद में बदल गया. “प्याली मात्तर और इन्द्रा गांधी सई लोग नईं हैं बेते!” – लफत्तू ने फैसला सुनाया था. ‘शोले’ का रेकॉर्ड बज रहा था और मेरा दिमाग लफत्तू के साथ बिठाये स्वर्णिम समय की स्मृतियों में गोते खा रहा था. अचानक गब्बर का वह डायलॉग आ गया, “जो डर गया वो मर गया!” पिछले कुछ समय से इस डायलॉग पर सिर्फ और सिर्फ लफत्तू का कॉपीराइट था और मैं बेचैन होने लगा. बंटू कमेंट्री करता जा रहा था, “मामाजी बता रे थे जब ठाकुर और धरमेंदर-अमीताच्चन वाले सीन की शूटिंग चल रही थी तो वहां इतनी भीड़ इकठ्ठी हो गयी थी कि सरकार को डर के मारे दिल्ली से दो हजार पुलिसवाले बुलाने पड़ गए थे. बंटू मेरे व्याकुल मन के भीतर लगातार मठ्ठा डाल रहा था और मैं उकताने लगा था जब भाग्यवश सड़क से “बीयोओओओई!” का हांका लगा. मैंने झटपट खिड़की से झांक कर देखा. अपनी आधी आँख को चौथाई मारता बागड़बिल्ला खड़ा था और बाहर आने का इशारा कर रहा था. मैं जाने लगा तो बंटू बोला, “रुक ना. इतनी गर्मी में कहाँ जा रहा है! अभी मम्मी लोग आ जाएंगे तो आइसक्रीम खिलाऊंगा. पापा कह रहे थे ...” मैंने मन ही मन बंटू के पापा को अपने कद्दू पर बिठाया और मिनट से पहले बागड़बिल्ला और मैं लालसिंह की दुकान पर बैठे दूध-बिस्कुट का आनंद लूट रहे थे. बाजार से सौदा-पत्तर निबटा कर लालसिंह लौट आया था और मुझे छेड़ रहा था, “बड़ा कैरी माल आया था बे तेरे घर में. कौन है ये नई लौंडिया?” अब मुझे लालसिंह पर गुस्सा आने लगा. वह मेरी माशूका को लौंडिया कह रहा था. मैंने अधखाया बिस्कुट चीकट मेज पर रखा और बाहर निकलने लगा, “लौंडिया नहीं है तेरी भाभी है यार लालसिंग. हर बात में इतनी मजाक ठीक नहीं होती हाँ!” “अबे हरामी!” लालसिंह ने उसी मोहब्बत से मुझे पुचकारा जिसके चलते वह मुझे अपने माँ-बाप से बड़ा अभिभावक लगता था. “इधर आ के बैठ और अपना बिस्कुट ख़तम कर. ऐसे मेरी बात का बुरा मानेगा तो हो गया तेरा नैनताल जाना.” अब तक बागड़बिल्ले ने अपनी जेब से एक कागज़ का टुकड़ा निकाल लिया था. उसने मुझे पढ़ने को दिया. देखते ही मैं फुच्ची कप्तान की हैण्डराइटिंग पहचान गया. “क्या है?” मैंने उखड़ते हुए पूछा. “चिठ्ठी है. फुच्ची ने कहा है तू ठीक कर देना.” “किसको लिखनी है?” मैंने पूछा तो उसने दो उँगलियों की मदद से किया जाने वाला वही अश्लील संकेत किया और लार टपकाता, मुदित होता हुआ बोला, “जीनातमान को. और किसको.” मैंने गौर किया जीनातमान का नाम आते ही लालसिंह चौकन्ना हो गया. उसने मेरे हाथ से कागज़ छीना और उसका मजमून देखने के बाद बागड़बिल्ले को लताड़ लगाई, “और कोई काम नहीं रह गया इस लौंडे को कि साले उस भुसकैट देसी लौंडे के लिए लवलेटर लिखता रहे. बिचारे को पढ़ाई करनी है. इम्त्यान देना है. नैनताल के हौस्टिल में जाना है. फुच्ची का क्या है. आज साला अपने बाप के साथ छर्री कप-पलेट बेच रहा है कल कच्छे-बंडी बेचने लगेगा. हुंह! कबी साला मधुबाला के लिए चिठ्ठी लिखो कभी उस बिचारी लड़की के लिए.” इसमें कोई शक नहीं था कि इन परम हरामी किस्म के यार-दोस्तों की संगत ने मुझे भी परम हरामी बना दिया था. हालांकि अभी मुझे पक्का नहीं था लेकिन लालसिंह की आवाज की टोन से शक होने लग गया था कि मामला एक फूल दो माली टाइप का है. “अब देख लेना यार” कहता हुआ बागड़बिल्ला जाने लगा, “मुझे भवानीगंज जाना है. बाबू ने दो हप्ते से एक खाट दे रक्खी रिपेर करने को. साला बना केई नईं दे रहा कब से...” बागड़बिल्ला नज़रों से गायब हुआ तो लालसिंह मेरी बगल में आकर बैठ गया. “देख यार. तू होशियार लौंडा है. कुछ दिन ढंग से पढ़-हढ़ ले और जा नैनताल के हौस्टिल. इस साले रामनगर में रखा ही क्या हुआ. भूसा हुआ साला भूसा. यहाँ रहेगा तो मेरी तरह कप-पलेट धोता रहेगा. और कुछ नहीं. और ज़रा ये इस टाइप के लौंडों से दूर रहा कर. मैं अभी लफत्तू के घर से आ रहा हूँ. उसकी मम्मी ने बकरी का दूध मंगाया था. बड़ी मुश्किल से बम्बाघेर में मिला साला.” इसके बाद लालसिंह ने मुझे सूचित किया कि लफत्तू मुझसे नाराज था. जगुवा पौंक और बागड़बिल्ले की चुगलखोरी की पुरानी आदत की वजह से लफत्तू को पिछली रात ही पता चल गया था कि मैंने और मुन्ना खुड्डी ने उस दिन चम्बल भ्रमण के बाद मंदिर लूटा था और यह भी कि लूट की रकम में से मुझे अपना हिस्सा नहीं दिया गया था. “और ये तेरी भाभी वाला क्या चक्कर है बे?” उसने मेरी पसलियों को कोंचते हुए पूछा. जीवन हजार आशंकाओं और भयों से भर रहा था. कुछ ही देर में टट्टी मास्साब ट्यूशन पढ़ाने आने वाले थे. नसीम अंजुम के आने से पहले मुझे अपने आपको भरसक स्मार्ट बना लेना था. बिना बात के लफत्तू नाराज हो गया था. मेरी निगाह सामने पशु अस्पताल के गेट पर चली गयी. खेलने से थक चुके पिल्ले अपनी माँ से चिपके हुए दूध पी रहे थे. और भीतर देखने पर वह घर नजर आता था जिसमें कुच्चू और गमलू रहते थे. कुच्चू और गमलू जिनमें से एक के लिए इतने महीनों बाद भी बीमार लफत्तू का दिल अब तक धड़कता था. मैं लगातार स्वार्थी होता जा रहा था. मैं अपने उस्ताद की बातों पर कम ध्यान दे रहा था. अभी तीन दिन पहले ही तो वह उदास होकर मुझ से पूछ रहा था, “कुत्तू-गम्लू क्या कल्ले होंगे यार हल्द्वानी में. कां होंगे बिताले?” मैं अचानक ओट में जाने को मजबूर हो गया. एक चमकदार तितली से सजे बालों का जूड़ा बनाए, हाथों में दो कापियां लिए, नीले रंग का स्कर्ट-टॉप पहने टक-टक करती नसीम अंजुम मेरे घर की तरफ जा रही थी. लालसिंह भी उसे ही देख रहा था.

Tuesday, March 31, 2020

तत्ती मात्तर की जहरीली सांस और अंगूठी वाली लड़की से आशिकी



शहर में हमारे स्कूल के अलावा दसवीं तक का एक सरकारी स्कूल भी था जिसे नार्मल स्कूल कहा जाता था. बहुत मोटे कांच का चश्मा पहनने वाले छोटे कद के मथुरादत्त जोशी वहीं प्रिन्सिपल थे और अंगरेजी पढ़ाते थे. मेरे पिताजी की उनसे पुरानी जान-पहचान थी और ज़माना उन्हें टट्टी मास्साब कहता था. इस नाम के पीछे एक छोटी सी कथा थी जिसे रामनगर का बच्चा-बच्चा जानता था. कई बरस पहले यूं हुआ कि उनके पढ़ाये सारे बच्चे हाईस्कूल बोर्ड में अंगरेजी के परचे में फेल हो गए. उन्होंने असेम्बली से पहले इन सारे बच्चों को धूप में मुर्गा बनाया और बाद में उन्हें सार्वजनिक फटकार लगाते हुए एक लंबा सा लेक्चर पिलाया जिसका अंत इस ब्रह्मवाक्य में हुआ – “तुम सालों ने मेरी साल भर की मेहनत को टट्टी बना दिया.”

तब से टट्टी मास्साब का ये हाल बन गया था कि रामनगर बाजार में वे जहाँ भी जाते कोई न कोई शरारती लड़का उनके पीछे से आकर कहता “टट्टी” और भाग जाता. वे पलट कर देखते, मोटे कांच के पीछे से अपनी छोटी-छोटी आँखों को मिचमिचाते और दुर्वासा का पार्ट खेलना शुरू करते. ऐसा करते हुए वे उस लड़के के खानदान की महिलाओं को बहुत शिद्दत से तब तक याद करते रहते जब तक कि कोई शरीफ आदमी उन्हें किसी दूसरे काम में न उलझा लेता.      

फिलहाल  पिछले कुछ दिनों से मैं देख रहा था कि रात का खाना खाते समय माँ पिताजी से बार-बार मेरी आगे की पढ़ाई और भविष्य को लेकर कोई न कोई बात छेड़ देती. मुझे नैनीताल के किसी हॉस्टल में डालने की बात भी चला करती. इसी का परिणाम हुआ कि टट्टी मास्साब मुझे ट्यूशन पढ़ाने आने लगे.

पहली शाम उन्होंने ग्रामर का जो चैप्टर पढ़ाना शुरू किया वह मुझे पहले से ही आता था. मैंने हूँ-हाँ करते हुए वह पूरा घंटा बड़ी मुश्किल से बिताया. मैंने पांच मिनट के अंदर ताड़ लिया था कि उनकी निगाह बहुत कमजोर है. वे मुझसे लिखने को कहते और मैं कॉपी में आड़ी-तिरछी लाइनें खींचता रहता. सबसे बड़ी मुश्किल उनकी सांस से थी जिसकी स्थाई तुर्शी नित्य एक क्विंटल प्याज के सेवन से अर्जित की गयी थी. मैं भरसक खुद को उनकी सांस से दूर रखने की कोशिश करता रहा लेकिन उनका भभका तमाम सुरक्षा दीवारों को भेदता हुआ नथुनों में किसी जहरबुझे तीर की तरह घुस जाता.

उनके घर से बाहर निकलते ही मैंने लफत्तू के घर की तरफ दौड़ लगा दी.

लफत्तू अकेला लेटा हुआ पंखे को तक रहा था. मुझे देख कर उसने उठने की कोशिश की लेकिन एक कराह के साथ उसका सिर तकिये पर ढह गया. मैंने गौर से उसे देखना शुरू किया. तेज बुखार की वजह से उसका चेहरा लाल पड़ा हुआ था. मरियल टहनियों की तरह उसकी बांहें उसकी कमीज से बाहर निकली हुई थीं. मैंने उसका हाथ थमा और इधर-उधर देखते हुए पूछा – “आंटी लोग कहाँ हैं?”

“पता नईं बेते. अबी तक तो यईं थे थब.”

औपचारिकता करना कभी किसी ने नहीं सिखाया था. यह भी नहीं पता था कि मरीज से उसका हाल कैसे पूछा जाता है. मैं अचानक बहुत रुआंसा हो गया और तकरीबन सुबकते हुए मैंने अपने दूसरे हाथ को उसके गाल पर लगाया. वह तप रहा था.
उसने मेरे हाथ पर अपना जलता हुआ, हड़ियल हो चुका हाथ रख दिया. मेरी रुलाई फूट पड़ी.

“क्या कल्लाए बेते. पल्छान क्यों होरा. गब्बल भौत जल्दी बित्तर से भाल आके थाकुल के कुत्तों के तुकले-तुकले कल देगा. दल मत मुदे कुत नी होगा.”

मैं और जोर से रोने लगा और सुबकते हुए उसे बताने लगा कि मुझे नैनीताल हॉस्टल भेजने की तैयारी चल रही है और यह भी कि आज शाम से मुझे टट्टी मास्साब ने ट्यूशन पढ़ाना भी शुरू कर दिया है.

दो तीन मिनट हम दोनों चुप रहे. उसकी पलकें गीली होने लगी थीं. उसने गाल पर धरे मेरे हाथ को अपने हाथ से खूब कस लिया. थोड़ी देर बाद उसके गला खंखारते हुए किसी अभिभावक की तरह मुझे समझाना शुरू किया -

“तू तो वैतेई इत्ता होस्यार है बेते. तत्ती मात्तर बी कोई मात्तर है. जो बुड्डा अपनी तत्ती बी साफ नईं  कर सकता गब्बल के दोत्त को क्या खा पलाएगा. औल ...” वह श्रमपूर्वक उठ बैठा और अपनी लय में आता हुआ बोला, “नैन्ताल कोई थाला इंग्लित मात्तरानी के बाप के जो क्या है कि थाला कोई लामनगल वाला वां नईं जा सकता. वां जाके उसके लाल बैलबौटम भाई की भेल पे दो लात माल के कैना कि बेते भौत नक्तेबाजी ना झाड़, गब्बल तेले नैन्ताल को लूटने आने वाला है. बत के रइयो ...”

नैनीताल जा कर इंग्लिश मास्टरानी और उसके भाई के साथ पुराना हिसाब चुकता करने की संभावना से मैं थोड़ा खुश हुआ और गौर से लफत्तू का चेहरा देखने लगा. बीमारी ने उसके चेहरे को क्लांत बना दिया था लेकिन उसकी पिचकी नाक और चमकती आँखों की नक्शेबाजी ज़रा भी कम नहीं हुई थी.

मुझे कुछ काम याद आया और मैं जाने के लिए उठा.

“ओये!” मैं दरवाजे पर पहुंचा ही था कि लफत्तू ने मुझे आवाज दी, “बीयोईईई...” वह आँख मार रहा था.

“बीयोईईई...” मैंने उस्ताद का अनुसरण किया.

बाहर लफत्तू की मां और उसकी दोनों बहनें खड़े थे. उनके माथे पर लगा ताजा टीका बता रहा था वे किसी मंदिर से वापस आ रहे थे. मुझे देख कर उसकी माँ ने मुस्कराते हुए मेरे सिर पर हाथ फिराया और कहा – “दिन में एक बार तो आ जाया अपने दोस्त का हाल समाचार पूछने. मम्मी कैसी हैं तेरी?”   

लालसिंह चाय के गिलास धोने में मसरूफ था. दुकान के सामने से मुझे गुजरता देखते ही वह चिल्लाया, “तेरे घर पे माल आया है बे और तू यहाँ घासमंडी में डोई रहा है. जल्दी जा तेरा भाई तेरे बारे में पूछ रहा था अभी.”

मेरे घर पर कौन आया हो सकता है. यह सोचता हुआ मैं वापस घर का जीना चढ़ने लगा. वैसे मुझे अभी मुन्ना खुड्डी से मिलने जाना था. उसने पिछली लूट का मेरा हिस्सा मुझे अभी तक नहीं दिया था.

दरवाजा खुला हुआ था और बैठक के कमरे से आवाजें आ रही थीं. किसी बिल्ली की तरह दबे पांव अन्दर घुसा ही था कि नाक में रसोई से आती खुशबू घुसी. ऐसे खुशबू बहुत ख़ास मौकों पर आती थी. जब भी घर में कोई महत्वपूर्ण मेहमान आया होता, माँ बाजार से डबलरोटी मंगवा कर ब्रेड पकौड़े बनाया करती. कुंदन दी हट्टी से दही-इमरती भी मंगाया जाता. 

मैं बैठक में जाने के बजाय रसोई में चला गया. तीनों बहनें मां की मदद करने के नाम पर भीड़ बनाए खड़ी थीं. ट्रे में कप-प्लेट सजाकर रखे हुए थे.

“था कहाँ तू? इतनी देर से तुझे ढूंढ रहे हैं सारे मोहल्ले में. इत्ती सारी चीजें लानी थी बाजार से!” मुझे घुड़कते हुए माँ ने कहा, “और ये भिसौण जैसी शकल बना के कहाँ से आ रहा है. चल जल्दी से हाथ-मूं धो के बैठक में जा. वो जंगलात वाले तेरे बाबू के कोई दोस्त आये हैं. जा के अच्छे से नमस्ते कहना उनको. ऐसे ही मत बैठ जाना गोबर के थुपड़े जैसा.”

मेरे दिमाग में दस तरह की चीजें चल रही थीं और माँ मुझे हाथ-मुंह धोने को कह रही थी. मैं अनमना होकर फिर से बाहर निकलने की फिराक में था कि बैठक से पिताजी की आवाज आई, “अरे ज़रा अपने लाड़ले को भेजो तो!”

इसके पहले कि माँ दुबारा से डांट लगाती मैं खुद ही नजरें झुकाए बैठक की तरफ चल दिया. अब होना यह था कि नए मेहमानों के सामने मेरी नुमाइश की जानी थी और मुझसे बहुत सारी चीजें सुनाने को कहा जाना था जिसके बाद मेहमानों ने “आपका बच्चा तो बहुत होशियार है पांडे जी!” कहते हुए ब्रेड पकौड़ों पर हाथ साफ़ करते जाना था. हर दो-चार महीनों में होने वाले इस कार्यक्रम से मुझे ऊब होती थी. मैं होशियार हूँ तो क्या. मेरे कद्दू से!

बैठक में घुसते ही मुझे काठ मार गया. मेरी बहनों की नयी-नयी बनी दोस्त नसीम अंजुम लाल रंग का घेरदार फ्रॉक पहने बाप जैसे दिखाई देते एक आदमी और हेमामालिनी जैसी दिखाई देती एक औरत के साथ चुपचाप बैठी थी. पिताजी उन्हें कुछ बता रहे थे.

मैं अपनी घर की पोशाक यानी निक्कर और पोलीयेस्टर की कमीज पहने था.

“आओ पोंगा पंडित!” पिताजी को मेरी सार्वजनिक भद्द पीटनी होती तो वे मुझे इसी नाम से पुकारा करते. मुझे बहुत गुस्सा आता था.

मैं सकुचाता हुआ तखत के कोने पर बैठ गया और फर्श पर निगाह गड़ाए अपनी नुमाइश लगाए जाने का इन्तजार करने लगा. पिताजी मेरे बारे में कुछ भी आंय-बांय बोलते इसके पहले ही मां और बहनें चाय-नाश्ते की ट्रे ले कर आ गए. भीड़ की वजह से अचानक माहौल बदल गया. “अरे भाभी जी” “अरे भाईसाब” “लो बेटे” जैसे शब्दों से बैठक का कमरा गुंजायमान हो गया. मैंने मौका ताड़ा और बाहर सटकने की तैयारी करने लगा. 

उठते हुए मैंने एक नजर नसीम अंजुम पर डाली. वह मुझे ही देख रही थी. उसने अपने हाथ में ब्रेड पकौड़ा थामा हुआ था और उसकी अंगूठी का वही जालिम नगीना खिड़की से आती धूप में जगमगा रहा था और उसकी चमक की अस्थाई उसकी नाक की ऐन नोंक के ऊपर स्थापित थी. वह मुझे देख रही थी और उसके चेहरे पर शरारत भरी मुस्कराहट थी. मैंने गौर किया वह बहुत खूबसूरत थी. रामनगर और पिक्चर वाली दोनों मधुबालाओं से अधिक खूबसूरत. सकीना से और कुच्चू-गमलू से अधिक खूबसूरत. मैं हैरान हो रहा था कि जब पिछली बार वह हमारे घर पर आई थी तो इस बात पर  मेरा ध्यान क्यों नहीं गया. सेकेण्ड के एक हिस्से में मुझे अपने दिल का फिर से चकनाचूर होना महसूस हुआ. पहली नज़र की मोहब्बत का तकाजा था कि मुझे वहीं बैठा रहना था लेकिन मैं उस नाजनीना के सामने किसी भी कीमत पर अपनी बेइज्जती नहीं कराना चाहता था. मौका देखते ही मैंने दौड़ लगा दी और बाहर सड़क पर आ गया.

मुन्ना वहीं मिला जहाँ उस वक्त उसे होना था. वह और फुच्ची अपने बाप के ठेले पर खड़े गाहकी निबटा रहे थे. उसके पापा ने स्टील के कपों का धंधा शुरू किया था जो चल निकला था. उनके अपने गांव ढकियाचमन से थोड़ा आगे मौजूद हापुड़ की किसी फैक्ट्री में बनने वाले ये कप समूचे भारत की रसोइयों में फैल गए थे. मेरे घर में भी आधा दर्जन आ चुके थे. ये कप कम हुआ करते थे धोखा ज्यादा. पहली बार ऐसे कप में चाय दिए जाने पर मेहमान कहता था – “अरे इतनी सारी!” इन कपों को बनाने वाले वैज्ञानिकों ने स्टील की दो परतों को इस तरह कप की सूरत में ढालने का कारनामा अंजाम दिया था कि दो परतों के बीच ढेर सारी हवा होती थी. नतीजतन मुख्य चषक का आयतन बाहर से दीखने वाले चषक के आयतन का एक चौथाई हुआ करता था. उसमें उतनी ही चाय आती थी जिसे दो घूँट में निबटाया जा सके. हाँ पेश किये जाते समय वह अपनी असल मात्रा से कई गुना नजर आती. इसके अलावा पीने वाली जगह पर जहाँ ज्यादातर कपों की दो परतों के बीच जोड़ होता था, चाय डालने के बाद छोटे-छोटे बुलबुलों की खदबद भी शुरू हो जाती थी. यह वैज्ञानिक प्रक्रिया होती थी जिसे देखना दुर्गादत्त मास्साब के मुझ काबिल चेले के लिए खासी दिलचस्पी पैदा करता था.

ये कप जिस दौर में रामनगर की बाजार में आया था, देश में इमरजेंसी चल रही थी. इमरजेंसी का अर्थ मुझे इतना ही मालूम था कि वह कोई ऐसी चीज है जिसकी वजह से जनता को बहुत काम करना पड़ रहा है. मेरे पिताजी भी अक्सर सुबह जल्दी दफ्तर जाते और देर में लौटा करते. इमरजेंसी का दूसरा मतलब नसबंदी नाम की कोई अश्लील चीज भी थी जिसका मतलब समझने लायक हम नहीं हुए थे अलबत्ता उसे लेकर हमसे थोड़ी अधिक उम्र के लौंडे एक दूसरे के साथ वयस्क किस्म के मजाक किया करते थे. 

मुन्ना ने मुझे देखा और आँख मार कर इशारा किया कि मैं बौने के ठेले पर उसका इन्तजार करूं. मैं वहां जाने के बजाय नजदीक ही खेल मैदान की चहारदीवारी पर बैठ गया और दिन भर में घटी चीजों की बाबत सोचने लगा.

टट्टी मास्टर से पढ़ने में ज़रा भी मजा नहीं आया था. मां-पिताजी से जल्दी ही इस बारे में निर्णायक बातचीत करनी पड़ेगी वरना प्याज की बदबू के कारण मेरी मौत तय थी. बीमार लफत्तू की शकल सामने घूमने लगी तो मैंने उससे ध्यान हटाने की कोशिश की. मैदान का मेरी तरफ वाला हिस्सा किराए की साइकिल का लुत्फ़ लूट रहे बच्चों  से भरा हुआ था. घुटे सिर वाला मेरी उम्र का एक लड़का केवल धारीदार पट्टे का पाजामा पहने बड़ों की साइकिल पर कैंची चलाना सीख रहा था. मैंने गौर से उसे देखना शुरू किया. साइकिल चलाना मुझे लफत्तू ने ही सिखाया था. दिमाग लौट कर वापस उसी के बारे में सोचने लगा. अगर लफत्तू सचमुच में मर गया तो मेरा क्या होगा. इस विचार के आते ही मैं व्याकुल हो गया और झटपट अपनी जगह से उठ कर बौने की शरण में पहुँच गया.

मैं दूसरा बमपकौड़ा दबा रहा था कि सामने से लचम-लचम चलता आता मुन्ना नमूदार हुआ.

“क्या गुरु मने अकेले अकेले” उसने आँख मारने की रामनगरी अदा सीख ली थी.

उसने पहले तो मेरे पैसों से एक बमपकौड़ा सूता और जब डकैती के पैसों के बंटवारे की बात आई तो कहने लगा – “दखिये हम भूल गए थे और सुबह जब अम्मा ने हमारा पजामा धोने के लिए लिया तो हमें खयाल ही नहीं रहा. पहले तो अम्मा ने जेब से सारी रकम निकाल ली और उसके बाद बाबू को बता दिया. बहुत मार खाए हैं कसम से सुबे-सुबे.”

वह साफ झूठ बोल रहा था लेकिन मेरे पास मन मसोस कर रह जाने के कोई चारा न था. मैं तय कर चुका था कि इस मामले में सुनवाई करवाने के लिए हाईकोर्ट यानी लालसिंह के पास जाना पडेगा.

झूठ बोलने की मक्कारी वाली टोन को जारी रखते हुए उसने मुझसे पूछा – “चम्बल चलिएगा?

पैसों का नुकसान होने के कारण मेरा मूड उखड़ गया था और होमवर्क करने का बहाना बनाकर मैंने मुन्ना खुड्डी से विदा ली. सूरज के ढलने में अभी बहुत समय था. मैदान के दूर वाले छोर पर पहुँचते ही मैंने घर की दिशा में देखा. लफत्तू और मेरी बहनें छत पर बैटमिन्डल खेल रही थीं, बैठक के कमरे की बत्ती जली हुई थी और बस अड्डे के बीचोबीच खड़े बरगद के पेड़ पर घर लौटते हजारों कौओं की कांव-कांव ने आसमान को पाट रखा था.

अचानक मुझे थकान महसूस हुई और मैंने घर जाना तय किया. घर में घुसते ही पिताजी ने धर लिया. आदर्श पुत्र के गुणों और सामाजिक आचरण के नियमों के विषय पर ढेर सारे लेक्चर पिलाए गए और अंत में सूचित किया गया कि कल से टट्टी मास्साब के साथ मेरे साथ नसीम अंजुम भी ट्यूशन पढ़ा करेगी क्योंकि उसे भी नैनीताल के हॉस्टल में भेजा जाने वाला है.
“दिमागदार लड़की है. उसके साथ कुछ दिन पढ़ाई करोगे तो थोड़ा शऊर आ जाएगा तुम्हें. वरना ...” मुझे फिर से पोंगा पंडित कहा जा रहा था लेकिन मैंने सिर्फ नसीम अंजुम सुना.

अब मुझे सचमुच एकांत चाहिए था. मां-पिताजी की निगाहों से किसी तरह बचता-बचाता मैं पीछे के रास्ते से सीधा ढाबू की छत पर पहुँच गया.

नसीम अंजुम! नसीम अंजुम! नसीम अंजुम! – हर कदम के साथ मेरा दिल धप-धप कर रहा था. मुझे खुद नहीं पता था मेरे हरजाई दिल के भीतर का वास्तविक प्रेम इसी अपूर्व सुन्दरी के लिए कहीं छिपा हुआ था. वह बहुत बातूनी थी लेकिन उससे ज्यादा खूबसूरत थी. उसका ऊंचा खानदान और कपड़ों के चयन में उसकी नफीस पसंद उसे मेरे लिए आदर्श प्रेमिका बनाते थे. अगले कुछ दिन उसके साथ ट्यूशन पढ़ने का मौक़ा मिल रहा था और मेरे पास ऊंचे दर्जे की इस दुर्लभ मोहब्बत को सैट कर लेने का सुनहरी मौक़ा था. इस उपलब्धि के लिए हर रोज एक घंटे तक टट्टी मास्साब की जहरीली दुर्गन्ध झेलने का पराक्रम दिखाना होगा.

लफत्तू के पापा अक्सर हमें आधे-पौन घंटे के उपदेश देने के बाद उपसंहार करते हुए कहा करते थे – “मरे बिना स्वर्ग जो क्या मिल सकने वाला हुआ रे बौड़मो!” उनकी बात पहली दफा समझ में आ रही थी.