Wednesday, September 17, 2008

बास्पीकरण और तत्तान के पीते थुपा धलमेन्दल

हैलन का डान्स देखने और बमपकौड़े का लुफ़्त उठाने के ऐवज में गोलू और लफ़त्तू की बच्चा पीठों को गोलू के इंग्लिछ मात्तर पापा उर्फ़ टोड मास्साब के बेशुमार सन्टी-प्रहार झेलने पड़े थे. इस सनसनीख़ेज़ घटना के उपरान्त कई दिनों तक कनिष्ठ व वरिष्ठ टोडद्वय स्कूल नहीं आए. इस बाबत लगातार फैलाई जा रही अफ़वाहों का बोगदा फूलता ही गया, हालांकि वस्तुस्थिति की ऑथेन्टिक जानकारी किसी को नहीं थी.

अंग्रेज़ी की कक्षाएं बन्द हो गई थीं और उस पीरियड में सीनियर बच्चों को पढ़ाने वाले एक बहुत बूढ़े मास्साब अरेन्जमेन्ट के बतौर तशरीफ़ लाया करने लगे. वे बहु्त शरीफ़ और मीठे थे. वे एक प्रागैतिहासिक चश्मा पहनते जिसकी एक डण्डी थी ही नहीं. डण्डी के बदले वे एक सुतलीनुमा मोटा धागा बांधे रहते थे जो उनके एक कान के ऊपर से होकर खोपड़ी के पीछे से होता हुआ दूसरे कान पर सुसज्जित डण्डी के छोर पर किसी जुगाड़ से फंसाया जाता था. चश्मे के शीशे बहुत मोटे होते थे और लगता था कि शेरसिंह की दुकान वाले चाय के गिलासों की पेंदियों को लेन्स का काम करने हेतु फ़िट किया गया हो. उनके पास 'गंगाजी का बखान' नामक एक कल्याणनुमा किताब हमेशा रहती थी. किताब के लेखक का नाम गंगाप्रसाद 'गंगापुत्र' अंकित था. वे उसी को सस्वर पढ़ते और भावातिरेक में आने पर अजीब सी आवाज़ें निकाल कर गाने लगते.

यह रहस्य कोई एक हफ़्ते बाद लालसिंह के सौजन्य से हम पर उजागर हुआ कि गंगाप्रसाद 'गंगापुत्र' कोई और नहीं स्वयं यही बूढ़े मास्साब हैं. मास्साब का शहर में यूं भी जलवा था कि 'गंगोत्री चिकित्सालय' नाम से वे एक आयुर्वेदिक, यूनानी दवाख़ाना चलाते थे. गंगाप्रसाद 'गंगापुत्र' आकंठ गंगाग्रस्त थे और हर पीरियड में अपने महाग्रंथ से हमारी ऐसीतैसी किया करते. वे थोड़ा सा तुतलाते थे और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी में लिखी अपनी ऋचाओं को सुनाने के उपरान्त उनकी संदर्भरहित व्याख्या किया करते: "कवि कैता है कि प्याली गंगे, मैं तो तेरा बच्चा हूं! और गंगामाता कवि से कैती है कि मेरे बच्चे मैं तो तेरी मां हूं! फिर कवि कैता है कि प्याली गंगे, हमने तुज पे कित्ते अत्याचार किए ..."

एक साइड से लफ़त्तू की दबी सी आवाज़ आती: "जित का बत्ता इत्ता बुड्डा है वो गंगा कित्ती बुड्डी होगी बेते! दला पूतो तो प्याली मात्तर ते!" गंगाप्रसाद 'गंगापुत्र' के कानों पर जूं भी नहीं रेंगती और उनका प्याली गंगे पुराण रेंगता जाता. लालसिंह ने यह भी बाद में बताया कि मास्साब को दिखाई भी बहुत कम देता है और सुनाई भी. लफ़त्तू ने गंगाप्रसाद 'गंगापुत्र' का नामकरण 'प्याली मात्तर' कर दिया था और यह नाम सीनियर्स तक में चर्चा का और जूनियर्स में लफ़त्तूकेन्द्रित ईर्ष्या का विषय बन गया.

इधर कुछ व्यक्तिगत कारणों से दुर्गादत्त मास्साब लम्बे अवकाश पर चले गए थे और टोड मास्साब की क्लास के तुरन्त बाद पड़ने वाले उनके वाले पीरियड में भी यदा-कदा प्याली मात्तर हमारी क्रूरतापूर्ण हर-हर गंगे किया करते थे. लफ़त्तू लगातार बोलता रहता था और पिक्चरों की कहानी सुनाना सीख चुकने के अपने नवीन टेलेंट पर हाथ साफ़ किया करता: "... उत के बाद बेते, हौलीतौप्तल छे धलमेन्दल भाल आया और उतने अदीत छे का - तुम थब को तालों तलप छे पुलित ने घेल लिया ऐ, अपनी पित्तौल नीते गेल दो. ... उतके बाद बेते अदीत एक तत्तान के पीते थुप के धलमेन्दल छे कैता है - मुदे मालने ते पैले अपनी अम्मा की लाछ ले दा इन्पैत्तल! ... धलमेन्दल कैता है कुत्ते थाले, मैं तेला खून पी दाऊंगा ... "

एक तरफ़ से तोतली हर-हर गंगे, दूसरी तरफ़ से धरमेन्दर और अजीत के क्लाइमैक्स वाले तोतले ही डायलॉग्स और बाकी दिशाओं से स्याही में डूबी नन्ही गेंदों का फेंका जाना - यह नित्य बन गया दृश्य जब एक दिन हमारी कक्षा के पास से टहलते जा रहे प्रिंसीपल साहब ने देखा तो वे पीतल के मूठवाली अपनी आभिजात्यपूर्ण संटी लेकर हम पर पिल पड़े. जब तीन चार बच्चों ने दहाड़ें मार-मार कर रोना चालू किया, तब जाकर प्याली मात्तर ने गंगपुराण बन्द किया और आंखें उठाकर नवागंतुक प्रिंसीपल साहब की आकृति को श्रमपूर्वक पहचाना. कुछ औपचारिक बातचीत के बाद दोनों गुरुवर कुछ गहन विचार विमर्श करते हुए कक्षा के बाहर दरवाज़े पर खड़े हो गए. इतने में प्रिंसीपल साहब के मामा यानी मुर्गादत्त मास्साब उर्फ़ परसुराम वहां से पान चबाते निकले. क्लास के बाहर खड़े प्रिंसीपल साहब और प्याली मात्तर को वार्तालापमग्न देख उन्होंने पीक थूकी और उक्त सम्मेलन में भागीदार बनने की नीयत से उस तरफ़ आने लगे.

दरवाज़े पर मुर्गादत्त मास्साब ने "प्रणाम कक्का" कहते हुए प्याली मात्तर के पैर इस शैली में छुए मानो उनकी जेब काट रहे हों या होली के टाइम किया जाने वाला आकस्मिक मज़ाक कर रहे हों. प्रिंसीपल साहब की तरफ़ उन्होंने एक बार को भी नहीं देखा और आधे मिनट से कम समय में सारी बात समझ कर प्रिंसीपल साहब के हाथ से संटी छीनी और "अभी देखिये कक्का" कहते हुए हम पर दुबारा हाथ साफ़ किया. "अपनी मां-भैंनो से पूछना हरामज़ादो मैं तुम्हारे साथ क्या-क्या कर सकूं हूं. और खबरदार जो साला एक भी भूतनी का रोया तो!" एक हाथ से संटी को मेज पर पटकते और दुसरे से अपने देबानन-स्टाइल केशझब्ब को सम्हालते उन्होंने इतनी तेज़ आवाज़ निकाली कि अगल-बगल की सारी क्लासों के अध्यापक बाहर आकर कक्षा छः (अ) की दिशा में ताकीकरण-कर्म में तल्लीन तथा व्यस्त हो गए.

घन्टा बजने के बाद मास्टरों के तिगड्डे के लिए हम जैसे मर गए. वे ख़रामा-ख़रामा मुर्गादत्त मास्साब का अनुसरण करते किसी दिशा में निकल पड़े. "छाला हलामी लाजेस्खन्ना का बाप!" औरों को बचाने के चक्कर में अपने पृष्ठक्षेत्र पर असंख्य संटियां खा चुके लफ़त्तू ने ज़मीन पर थूका. "इत्ते तो दुल्गादत्त मात्तर छई है याल!"

लफ़त्तू की दुआ सुनी गई और अगले रोज़ प्याली-गंगे की चाट का ठेला उठते ही अपने पुरातन धूल खाए कोट और हाथों मे सतत विराजमान कर्नल रंजीत समेत दुर्गादत्त मास्साब सशरीर उपस्थित थे.

"टेस्टूपें कल ले आबें सारे बच्चे! और दस-दस पैसे भी!" अटैन्डेन्स से उपरान्त यह कहकर वे उपन्यास पढ़ने ही वाले थे कि उन्हें पता नहीं क्या सूझा. उन्होंने उपन्यास जेब के हवाले किया और कुर्सी पर लधर गए. "मैं मुर्दाबाद गया था बच्चो! मुर्दाबाद भौत बड़ा सहर है. और हमाये रामनगर जैसे, आप समल्लें, सौ सहर आ जावेंगे उस में."

मुरादाबाद में दुर्गादत्त मास्साब की ससुराल थी जहां उनके ससुर दरोगा थे. इतनी सी बात बताने में उन्होंने बहुत ज़्यादा फ़ुटेज खाई और हमें छोटे क़स्बे का निवासी होने के अपराधभाव से लबरेज़ कर दिया. आख़िर में उन्होंने एक क़िस्सा सुनाया: "परसों मैं और मेरा साला जंगल कू गए सिकार पे. और सिकार पे क्या देखा तीन बब्बर सेर रस्ता घेरे खड़े हैं. जब तक कुछ समजते तो देखा कि दो बब्बर सेर पीछे से गुर्राने लगे. हमाये साले साब तो, आप समल्लें, व्हंई पे बेहोस हो गए. मैंने सोची कि दुर्गा आत्तो तेरी मौत हो गई. मुझे तुम सब बच्चों की याद भी आई. मैंने सोची अगर मैं मर गया तो तुमें बिग्यान कौन पढ़ाएगा. और टेस्टूपें भी बेकार जावेंगी. मैंने दो कदम आगे बढ़ाए तो सबसे बड़ा सेर बोला: 'मास्साब आप जाओ! हम तो सुल्ताना डाकू का रस्ता देख रये हैं.' अब मेरी जान में जान आई मगर साले साब तो बेहोस पड़े थे. तब उसी बड़े सेर ने हमाये पीछे खड़े एक सेर से कई कि साले साब को अपनी पीठ पे बिठा के जंगल के कोने तक छोड़िआवे. तो आप समल्लें कि जंगल का छोर आने को था कि साले साब को होस आ गया. मेरे पीछे सेर ऐसे चलै था जैसे कोई पालतू कुत्ता होवे. साले साब की घिग्घी बंध गई जब उन्ने खुद को सेर की पीठ पे देखा. ..."

क़िस्सा ख़त्म होते न होते घण्टा बजा और मास्साब ने हमें बताया कि कैसे साले साहब की जान बचाने की वजह वे से मुरादाबाद में रामनगर का झंडा फ़हरा कर लौटे हैं. सारे बच्चे नकली ठहाके लगा कर ताली पीटने लगे. उनका क़िस्सा कोरी गप्प था पर दुर्गादत्त मास्साब जैसे ज़ालिमसिंह के मुंह से उसे सुनना ख़ुशनुमा था. इस पूरे पीरियड में लफ़त्तू मास्साब के नए जुमले "आप समल्लें" को पकड़ने वाला पहला बच्चा था: "आप छमल्लें मात्ताब छमज लये हम थब तूतियम छल्फ़ेत हैं."

तूतियम छल्फ़ेत यानी चूतियम सल्फ़ेट हमारे जीवन में अग्रजों के रास्ते पहुंची पहली कैमिकल गाली थी. अगले ही दिन पता चला कि दुर्गादत्त मास्साब भी इस गाली के दीवाने थे.

अगले दिन अटैन्डेन्स दुर्गादत्त मास्साब ने ली. इस दौरान लालसिंह ने सारे बच्चों से दस-दस के सिक्के इकठ्ठे किये और बन्सल मास्साब की दुकान से जल्दी जल्दी दो थैलियां ले कर वापस लौटा. एक थैली में चीनी थी और दूसरी में नमक.

मास्साब के पीछे-पीछे हम सब क़तार बना कर परखनलियों की अपनी-अपनी जोड़ियां लेकर परजोगसाला की तरफ़ रवाना हुए. परजोगसाला-सहायक चेतराम ने मास्साब को नमस्ते की और हिकारत से हमें देखा. हलवाई के उपकरणों, भूतपूर्व बारूदा-बीकरों वाली मेज़ों और कंकाल वाली अल्मारियों के आगे एक बड़ा दरवाज़ा था. इसी के अन्दर थी परजोगसाला की रसायनविज्ञान-इकाई. विचित्रतम गंधों से भरपूर इस कमरे में तमाम शीशियों में पीले, हरे, नीले, लाल, बैंगनी द्रव भरे हुए थे. बीकर और कांच के अन्य उपकरणों की उपस्थिति में वह सचमुच साइंस सीखने वाली जगह लग रही थी.

तनिक ऊंचे एक प्लेटफ़ॉर्म पर मास्साब खड़े हुए. लालसिंह के हाथ से चीनी-नमक लेकर उसे चेतराम को थमा कर मास्साब ने गला खंखार कर कहना शुरू किया: "बच्चो, आज से हम बास्पीकरण सीखेंगे. चाय बनाते हुए जब पानी गरम किया जावे है तो उसमें से भाप लिकलती है. इसी भाप को साइंस में बास्प कहा जावे है. और अंग्रेज़ी में आप समल्लें इस का नाम इश्टीम होता है. चाय की गरम पानी को कटोरी से ढंक दिया जावै तो भाप बाहर नईं आ सकती और कटोरी गीली हो जा है. और जो चीज़ गीली होवै उसे द्रब कया जावे. द्रब से भाप बने तो बिग्यान में उसे बास्पीकरण कैते हैं और जब भाप से द्रब बने तो द्रबीकरण. आज हम परजोग करेंगे बास्पीकरण का."

चेतराम चीनी और नमक को अलग-अलग ढक्कन कटे गैलनों में पानी में घोल चुका था और मास्साब को देख रहा था. "अब सारे बच्चे अपनी टेस्टूपों में अलग - अलग नमक और चीनी का घोला ले लेवें और चेतराम जी से सामान इसू करा लें."

चेतराम ने हर बच्चे को परखनली पकड़ने वाला एक चिमटा और एक स्पिरिट-लैम्प इसू किया. हमने इन उपकरणों की मदद से दोनों परखनलियों के घोले को सुखाना था. यह कार्य बहुत जल्दी-जल्दी किया गया. स्पिरिट लैम्प की नीली लौ पर टेस्टूप में खदबदाते पानी को देखना मंत्रमुग्ध कर लेने वाला था. मास्साब बता चुके थे कि परजोग की कक्षा दो पीरियड्स तक चलनी थी. लफ़त्तू जैसा बेचैन शख़्स तक मन लगा कर परखनली पर निगाहें टिकाए था.

कुछ देर बाद सारा पानी सूख गया और परखनलियों के पेंदों में बर्फ़ जैसी सफ़ेद तलछट बची. यह नमक और चीनी था जिसे हमने बरास्ता बास्पीकरण नमक और चीनी से ही बनाया था. दूसरा घन्टा बजने में बहुत देर थी और स्पिरिट लैम्पों के साथ कुछ और करने की इच्छा बहुत बलवती हो रही थी. लफ़त्तू ने यहां भी अवांगार्द का काम किया और रंगीन शीशियों से दो एक द्रब निकालकर परखनली में गरम करना शुरू किया. लफ़त्तू की देखादेखी एक-एक कर सारे बच्चों ने अलग - अलग रसायन-निर्माण का प्रोजेक्ट उठा लिया. हवा में अजीबोग़रीब गंधें और धुंए फैलना शुरू होने लगे. इस का पहला क्लाइमैक्स एक मुन्ना टाइप बच्चे की टेस्टूप के 'फ़टाक' से फूटने के साथ हुआ.

इसे सुनते ही दुर्गादत्त मास्साब का "हरामज़ादो!" कहते हुए उपन्यास छोड़ना था और सारे बच्चों ने स्पिरिट लैम्पों से हटाकर अपनी टेस्टूपें लकड़ी के स्टैंडों में धंसा दीं. लाल आंखों से एक-एक बच्चे को घूरते दुर्गादत्त मास्साब सारी क्लास से कुछ कहने को जैसे ही लफ़त्तू के पास ठिठके, लफ़त्तू के बनाए रसायन वाली परखनली से तेज़-तेज़ धुंआ निकलना शुरू हुआ. मास्साब की पीठ उस तरफ़ थी. घबराया हुआ लफ़त्तू परजोगसाला से द्वार तक लपक चुका था. अचानक से परखनली और भी तेज़ फ़टाक के साथ चूर-चूर हो गई. मास्साब घबरा कर हवा में ज़रा सा उछले. पलटकर उन्होंने "साले चूतियम सल्फ़ेट! इधर आ हरामी!" कहकर लफ़त्तू को मारने को अपना हाथ उठाया पर तब तक लफ़त्तू संभवतः बौने के ठेले तक पहुंच चुका था.

"जिस साले ने मुझ से पूछे बिना एक भी सीसी छुई तो सारी सीसियां उसकी पिछाड़ी में घुसा दूंगा. अब चलो सालो फ़ील्ड पे ..."

लतियाते-फटकारते हमें फ़ील्ड ले जाया गया जहां तेज़ धूप में मुर्गा बना कर हमारे भीतर बची-खुची वैज्ञानिक-आत्मा के बास्पीकरण का सफल परजोग सम्पन्न हुआ.

23 comments:

मैथिली गुप्त said...

दिलचस्प, बेहद दिलचस्प, हमेशा की तरह

siddheshwar singh said...

अब समझ में आया वास्पीकरण का पूरा किस्सा. जे तो बड़ा गजब जा रिया है बाबूजी.जुग-जुग जीवो.इस नाचीज के लायक कोई सेवा? हुकुम करो सरकार!

Vineeta Yashsavi said...

बहुत ही उत्कृष्ट क़िस्सागोई. हमेशा की तरह यह किस्त भी मज़ेदार है.

डॉ .अनुराग said...

इसे कहते है किस्सागोई......वाकई....क्या बाँधा है आपने.........

Ek ziddi dhun said...

sulfate sab jagah isi tarh bola jaata tha. in maamlo mein globlisation pahle se hi hai. ganga leela aur lab majedaar raheen. school ka jamana jeevant ho gaya. shikaar ka kissa jara kam jama

महेन said...

दिन्दगी में बती-खुती तिन्ता बलाए हँसी बास्पीक्लत हो गई ये किछा पलकल। औल गालियाँ छुनकल तो गुजला हुआ जमाना याद आ गया भाई।

Tarun said...

दाज्यू, यह किस्त भी मजेदार रही

शिरीष कुमार मौर्य said...

भौत अच्छा अछोक दा!
जे साले मास्साब पीछा नाय छोडते ज़िन्दगी भर !
और फिर कुछ हम जैसे लोग अपने अतीत से प्रेरणा लेने के बजाए खुद ही मास्साब बन जाते है !

शायदा said...

क्‍या जब़र्दस्‍त लिखते हैं आप, बहुत मज़ा आया पढ़कर।

अनूप शुक्ल said...

अद्भुत! शानदार कहन कला। हम तो आपके मुरीद हो गये ये वाला लेख बांच के। सचमुच ऐसी किस्सागोई दुर्लभ है।

eSwami said...

प्योर अन-अडल्ट्रेटेड जादूबयानी! खुद आप भी वृत्तांत और पाठक के बीच खडे नहीं दिखते - कमाल है!

अफ़लातून said...

गजब ! लण्ठम नाइट्रेटों का अभाव था , इस्कूल में?

vineeta said...

आज पहली बार आपको पढने आई. एक लेख पढ़ा तो फ़िर सरे के सरे पड़ डाले...मुह और दिल से बस एक ही बात निकलती है...वाह वाह वाह मज़ा आ गया. ब्लॉग पर इतना मजेदार लेखन कभी नही पढ़ा था. कमाल की लेखन शेली है ...लफत्तू की तोतली जुबान मन को भा गयी ...जो दल गया वो मल गया बेते....

सोतड़ू said...

आर के लक्ष्मण के स्वामी (मालगुड़ी डेज़)के बाद ये इतनी बढ़िया चीज़ पढ़ रहा हूं। हालांकि स्वामी को पढ़ा नहीं देखा है लेकिन ये लप्पूझन्ना भी पूरी तस्वीरें बनाता है...

शानदार

मुनीश ( munish ) said...

eagerly awaiting for the published version sir ji! is mast mahaul mein in dino bhai manish joshi ki tippni miss kar raha hoon .

अजित वडनेरकर said...

ऐसे अद्भुत - कुसंस्कारी अध्यापकों की पढ़ाई को आपने याद रखा और अब हमें बंचवा रहे हैं इसका शुक्रिया।
किस्सागोई के हम मुरीद हैं...
जारी रहें...

IamTarun said...

Bahoot jyada Bahtereen bhai. wakai apni book bhi nikalo dost bahoot chalegi. really tumahare likhne mein jadu hai.

वर्षा said...

आखिर में तो हर पाठक के हाथ में परखनली होगी और सभी उसमें कुछ न कुछ कैमिकललोचा कर रहे होंगे। मज़ा आ गया।

विनय (Viney) said...

वाह! इस्वामी से इत्तेफ़ाक रखता हूँ और sotdoo जी से भी. आप हमें रामनगर ले जाते हैं. जैसे लक्ष्मन ले जाते थे मालगुडी. (वर्तनी की गलतियाँ गूगल के सर डालें)

गिरीश मेलकानी said...

ये लफ़त्तू कमाल का कैरेक्टर है. खूब किस्सा है. अगली किस्त का इन्तज़ार है.

एस. बी. सिंह said...

बहुत शानदार भाई हमें भी अपनी सुताई याद आगई। जय हो मास्टर मुर्गादत्त

Rudra Tiwari said...

Bhaiya,
Maja aa gaya... aur mai Sri Lafattu ji ka fan ho gaya hu ab to. Kasam se behad jaheen hai Laffatu Bhai.

sachmuch adbhut...

Unknown said...

Really amazing, interesting and unique writing. I know it'd been written 6 - 7 years ago but it's TIMELESS. Read all the previous episodes and still reading. Keep it up!