किराए के जिस दोमंज़िला मकान में हम रहते थे वह तीन बराबर हिस्सों में बंटा हुआ था यानी तीन भाइयों के तीन हिस्से. हमारे और बगल वाले सैट के मालिक पास ही के चोरपानी नामक गांव में रहते थे. हिन्दुस्तान की तरफ़ के कोने वाले ही अपने मकान में रहते थे उनका बेटा बंटू मेरा हम उमर था और मेरा दोस्त था. हम लोग अक्सर छत पर खेला करते थे. अपनी खुराफ़ातों को अस्थाई निजात दे कर लफत्तू भी हमारे साथ हुआ करता था. छत का एक हिस्सा तीन बराबर हिस्सों में बंटा हुआ था और उन तीन हिस्सों के बीच दो-ढाई फ़ीट की दीवारें उठाई गई थीं. ये दीवारें बैडमिन्टन खेलते समय काम आती थीं. दीवारों के कारण खिलाड़ियों के लिए ऑटोमैटिकली पाले बन जाते थे. कभी-कभी तो इन तीन छतों पर एक साथ दो-दो मैच चल जाया करते थे. ऐसी स्थिति में बीच की छत कॉमन हो जाती.
शामों को बंटू की मम्मी, मेरी बहनें और पड़ोस में रहने वाली कुछ लड़कियां हमारे राकेट ले लेतीं और राकेट-चुड़िया का खेल खेलतीं. खेलने की उनकी शैली को बैडमिन्टन तो नहीं कहा जा सकता था. चुड़िया को राकेट से जैसे-तैसे मार पाने की कोशिश करती इन उत्साही खिलाड़िनों को देख कर लगता जैसे तनिक ऊंचे तार पर सुखाने के लिए उचक-उचक कर बरसात में भीग गया गद्दा या गलीचा फैलाने का जतन कर रही हों. वहां खड़ा होना आलस और बोरियत से भर देता था. सो हम लोग क्रिकेट खेलने लगते थे.
छत के तीन-पाला हिस्से के बाद तीनों सैटों के, तीन तरफ़ से खुले हुए तीन बड़े बड़े रोशनदान थे. रोशनदानों के बाद पानी की तीन ऊंची-ऊंची टंकियां थीं. इन टंकियों के बाद क़रीब चार फ़ुट चौड़ा और काफ़ी लम्बा हिस्सा था जो क्रिकेट खेलने के लिए बहुत मुफ़ीद था. यानी खेलने के पिच इतनी लम्बी थी कि बकौल लफ़त्तू वहां वेस्ट इंडिया के काले गेंदबाज़ों सरीखी फ़ाश्टमफ़ाश्टेश्ट बॉलिंग भी हो सकती थी. हमारी रसोई की चिमनी विकेट बनती जबकि बंटू वाली चिमनी से गेंदबाज़ी होती.
लफ़त्तू खेलता कभी नहीं था: न क्रिकेट, न फ़िटबाल न बैटमिन्डल. लेकिन वह मुझे अपना दोस्त मानता था और बावजूद इस तथ्य के कि मेरा बड़ा भाई उसे एकाधिक बार हमारे घर में उसे आया देख उसे अस्वीकृत और जलील कर चुका था, वह जैसे तैसे हर शाम हमारी छत पर पहुंच जाता था. वह अक्सर हरिया हकले की छत से होकर आया करता था.
हमारी छत से इस वाली तरफ़ ढाबू की छत थी. ढाबू की छत के बारे में कभी विस्तार से बताऊंगा. उसके आगे एक तरफ़ साईंबाबा की छत थी. इस मकान का धार्मिक महत्व वहां साईंबाबा नाम से कुख्यात एक लफ़ंडरशिरोमणि की वजह से था जो हर महीने नींद की चार-पांच नकली गोलियां खा कर आत्महत्या करने के नाटक के मंचन और प्रदर्शन में निपुण हो चुका था. लम्बे घुंघराले बालों और सदैव काले पॉलीएस्टर की खरगोश-शर्ट और काली ही बेलबाटम पहनने वाले साईंबाबा के बारे में एक बार मुझे लफ़त्तू ने कॉन्फ़ीडेन्शियल सूचना दी थी कि वह "बला लौंदियाबाज" है और हर महीने आत्महत्या-मंचन के पहले भवानीगंज में एक "पैतेवाले" सरदार जी के घर बढ़िया से धुन कर आता है. मैं अक्सर ही लफ़त्तू के आत्मविश्वास और 'एडल्ट' ज्ञान के अपार भंडार पर अचरज किया करता था. ढाबू की छत के दूसरी तरफ़ हरिया हकले की छत थी.
लफ़त्तू खेलता नहीं था सो अपनी उपस्थिति को जस्टीफ़ाइ करने के लिए वह स्वयंसेवक अम्पायर बन जाने का आधिकारिक काम सम्हाल लेता था. एक उंगली उठाकर आउट देता और दो उंगलियां उठाकर नॉट आउट. पहली बॉल "ट्राई" होती थी और इस में "ट्राईबॉल - कैच आउट - नो रन" का सनातन नियम चला करता था. खेल शुरू होने से पहले वह एक छोटे गोल पत्थर के एक तरफ़ थूक कर टॉस करता था जिसमें "गील" या "सूख" से पहले बल्लेबाज़ी करने वाला तय होता था.
ज़्यादा समय नहीं होता था जब छत के महिला खेल-मैदान वाले हिस्से से लफ़त्तू को पुकार लग जाया करती. "अभी लाया आन्तीजी" कहता लफ़त्तू चीते की फ़ुर्ती से पहले हमारी गेंद अपने कब्ज़े में लेता और तुरन्त सीढ़ियां उतरकर चुड़िया ले आता. गेंद अपने साथ ले जाने के पीछे उसका तर्क होता था कि वह अम्पायर है. बस. चुड़िया अक्सर किसी एक रोशनदान से नीचे गई होती और डेढ़-दो मिनट में लफ़त्तू अपनी आधिकारिक पोज़ीशन पर होता और गेंद थमा कर "दुबाला इस्टाट!" का आदेश पारित करता. लेकिन जब कभी चुड़िया दूसरी तरफ़ यानी सड़क पर गिर जाया करती, लफ़त्तू को बहुत काम करना पड़ता था. कोई पांच मिनट तक खेल रुका रहता और जब लफ़त्तू चुड़िया समेत लौटता, उस का चेहरा लाल पड़ा होता.
गेंद साथ ले जाने की उसकी आदत के चलते हमारा बहुत बखत खराब होता था और हम ने इस बाबत एकाध बार असफल वाद-विवाद प्रतियोगिताएं भी आयोजित कीं पर लफ़त्तू हमेशा "बेता, लूल तो लूल होता है" कह कर हमें चुपा देता. हमें उसकी धौंस इस लिए भी सहनी पड़ती थी कि उसके पास एक और अतिरिक्त प्रभार था.
बैटिंग करते हुए लेग साइड के शॉट तो टंकियों की दीवारों से टकराकर वापस पिच पर आ जाते पर ऑफ़ साइड वाले अक्सर ढाबू की छत पर पहुंच जाते या उससे भी आगे हरिया हकले या साईंबाबा की छत पर. छतों को अलग-अलग दिखाने भर मात्र की नीयत से बनीं दोएक फ़ुट की बाड़नुमा दीवारें थीं. लफ़त्तू की उपस्थिति हमारे खेल के लिए यों भी लाज़िम थी कि इन छतों से गेंद वापस लाने का काम भी उसी का था. कभी कभार वह हरिया हकले की छत के कोने पर जा कर कहता कि गेंद उछल कर सड़क से होती हुई दूधिए की गली में गोबर में जा गिरी है. हम दोनों परेशान हो कर उस के पास पहुंचते तो वह कुछ समय सस्पेन्स बनाने के बाद अपनी निक्कर के गुप्त हिस्से से गेंद बाहर निकाल कर दांत निपोरता, आंख मारता और ठठाकर हंसता: "तूतिया बना दिया छालों को ... तूतिया बना दिया छालों को".
इस खेल में दिक्कत शॉर्टपिच गेंदों पर होती थी. बैटिंग वाली चिमनी के पीछे ईंटों के खड़ंजे वाली दूधिये की बेहद संकरी गली थी. इस गली में स्थित पप्पी मान्टेसरी पब्लिक स्कूल हमारे विकेट के ठीक पीछे पड़ता था. स्कूल क्या था एक घर था जिसके पिछवाड़े हिस्से में चार-पांच कमरे निकाल कर कुछ बच्चों के बैठने की जगह बनाई गई थी. मकान के दूर वाले हिस्से में एक सिख परिवार रहता था. सरदारनी बहुत मुटल्ली थी और उनकी आधा या पौन दर्ज़न सुन्दर लड़कियां थीं. सबसे छोटी क़रीब पन्द्रह की रही होगी जबकी सबसे बड़ी कॉलेज पास कर चुकी थी और पप्पी मान्टेसरी पब्लिक स्कूल की प्रिंसीपल थी. सरदारनी की हर लड़की कोई न कोई उचित मौका देख कर घर से भाग चुकी थी. और रामनगर में यही इस घर का यू. एस. पी. माना जाता था. घर-पड़ोस की औरतें अक्सर इस घर की तारीफ़ में इतने क़सीदे काढ़ चुकी थीं कि उनसे कोई मेज़पोश बनाता तो सारे रामनगर के आसमान को उस से ढंका जा सकता था. लफ़त्तू उस घर के आगे से गुज़रता तो मुंह में दो उंगली घुसा कर सीटी बजाता और उन दिनों रामनगर में लोकप्रिय हुए लफ़ाड़ी-गान "बीयो ... ओ ... ओ ... ई" को ऊंचे स्वर में गाया करता. उसे किसी का ख़ौफ़ नहीं था. "जो दल ग्या बेते वो मल ग्या" - यह जुमला उसने इधर ही 'शोले' देखने के बाद से अपना अस्थाई तकियाक़लाम बना छोड़ा था.
पप्पी मान्टेसरी पब्लिक स्कूल वाली इमारत को हम सरदारनी का घर कहते थे. इस एक मंज़िला मकान की छत पर बहुत-बहुत बड़ा रोशनदान था. हमारी छत से उस रोशनदान के भीतर देखा जा सकता था. स्कूल में पढ़ने वाले क़रीब चालीसेक बच्चों की वहां असेम्बली लगती थी. असेम्बली के बाद मधुबाला जैसी दिखने वाली एक बहुत सुन्दर मास्टरनी वहीं पर बच्चों को अंग्रेज़ी की कविताएं रटाती थी. शाम को यही सब बच्चे ट्यूशन पढ़ने वहां आते और मधुबाला द्वारा कविता घोटाए जाने का कार्य पुनः सम्पन्न किया जाता. बहती नाकों वाले, अलग-अलग तरीकों से रोने वाले ये बच्चे बरास्ते सरदारनी के रोशनदान सामूहिक रूप से आसमान गुंजाने का काम किया करते:
"ब्रेस, ब्रेस, ब्रेसू टी
ब्रेसू अब्री डे
फ़ादर मदर ब्रादर सिस्टर
ब्रेसू अब्री डे
भात, भात, भातू आल
भातू अब्री डे
फ़ादर मदर ब्रादर सिस्टर
ब्रेसू अब्री डे ..."
(इन कालजयी महाकाव्यात्मक पंक्तियों में एक संस्कारी परिवार के समस्त संस्कारी सदस्यों से आयु-लिंग इत्यादि का भेद भुलाते हुए दन्तमंजन तथा स्नान में नित्य रत रहने का आह्वान किया जाता था)
अब मैं सकीना से मोब्बत और सादी के खयालात नहीं रखता था सो मधुबाला से आसिकी कर रहा था. इस दूसरे प्रेम प्रसंग में लफ़त्तू की बताई एडल्ट टिप्स के कुछ सुदूर रंग स्मृति में झलक दिखा जाते थे लेकिन समझ में ज़्यादा न आने के कारण वे अन्ततः किसी सलेटी किस्म के गुबार में ग़ायब हो जाते थे.
ख़ैर! शॉर्ट पिच गेंद सीधी उठती हुई सरदारनी के रोशनदान में घुस जाती थी: चाहे बल्ला लगे या ना लगे. इन गेंदों का रिट्रीवल असंभव होता था और हमें नई गेंदों के लिए बड़ों की चिरौरी करनी होती थी. दस पैसे देने से बड़ों के इन्कार कर दिये जाने की सूरत में मैं और बंटू गमी मनाने के मोड में आ जाते अलबत्ता लफ़त्तू का मूड बन जाता. वह गाने लगता. उसका तोतला गान मोम्म्द रफी के गाने "ताए कोई मुजे दंगली कए" से उठता हुआ किशोर दा के "मेले नेना छाबन बादो" से "दे दी हमें आज़ादी बिना लोती बिना दाल" जैसी पैरोडियों से होता नौटंकियों से सीखे "लौंदा पतवारी का" जैसे एडल्ट गानों तक पहुंचता. इस परफ़ॉरमेन्स का चरम, विकेटरूपी चिमनी से सटकर लफ़त्तू के खड़े हो जाने पर आता था. मैं और बंटू पीछे दुबक जाते. वहां पर खड़ा लफ़त्तू सरदारनी के घर की तरफ़ देखता हुआ बेशर्मी से ज़ोर-ज़ोर से गाता:
"खेल, खेल, खेलू बाल
खेलू अब्री डे
फ़ाद्ल मदल ब्लादल सिस्टल
खेलू अब्री डे ... "
अगले स्टैज़ा में वह खेल के 'ख' को 'भ' में बदल देता. कुमाऊंनी में इस से बनने वाले शब्द से अभिप्राय मनुष्य देह के पृष्ठभाग में अवस्थित उस क्षेत्रविशेष से है जिस पर अक्सर लातें पड़ती हैं और जो उत्तर भारत की अंतरंग पुरुष-भाषा की शब्दावली का विशिष्ट घटक होता है.
इसी को गाता-गुनगुनाता वह हमसे विदा लेता. सरदारनी उस के पापा से उसकी शिकायत कर चुकी होगी: यह उसे पता रहता था. पर हमारी तरफ़ आंख मार कर वह कहता: "जो दल ग्या बेते वो मल ग्या"
(यह पोस्ट 'आर्ट ऑफ़ रीडिंग' में कल लगी पोस्ट के कारण आज लिखी गई. इस लिहाज़ से मुनीश को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए. कल रात लिए गए वायदे के मुताबिक यह पोस्ट हरी मिर्च वाले मनीष जोशी और उन मित्रों के लिए सप्रेम समर्पित है जो मुझे इस ब्लॉग पर नियमित होने को कहा करते हैं. उम्मीद है अब मैं ऐसा कर पाऊंगा.
फ़ोटो 'आर्ट ऑफ़ रीडिंग' के सरगना इरफ़ान ने कुछ महीने पहले कबाड़ख़ाने पर इसी ब्लॉग के वास्ते लगाई थी. इरफ़ान का सूखरिया ...)
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19 comments:
सुंदरतम शैली में लिखा सुंदरतम लेख। मजेदार। बधाई।
वाह लपूझन्ना साहब,
देर लगी आने में, लेकिन शुक्र है आये तो.
अब आगे अधिक इन्तजार नहीं कराईयेगा.
Bhaee mujhe koee shreya na dekar LOOOL toda hai...khair
Lapu-lapu-lapu jhanna
lapu abree day
Fathal, Mathal,Bradar,sisatal
lapu abree dai.
---------------
Jai Borchee
vivid description coupled with phonetic accuracy capturing the jolly wild spirit of street urchin 'lafattu ' make it a compulsive reading for everyone grown up in small town culture of yore! excellent ..mindblowing!
बचे खुचे बालों की कसम - तर्ज़ में फश्किलाश ठैरी [ "भेली भेली गुद" कहूँगा तो मार के आसार हैं न जी [:-)] - मनीष
आनन्दप्रद..आप सब धन्य हैं!
एकदम्मै चुर्रैट है जी . बो क्या कैते हैंगे : फ़न्ने खां !
गली-कॉमरेड लफ़ट्टू का 'दल ग्या मल ग्या' एभलीडे होना मांगता .
बोफ़्फ़ाईन
बोफ़्फ़ाईन
बोफ़्फ़ाईन
बोफ़्फ़ाईन
लपूझन्ना, अर्थ नहीं जानती, ना ही पूछने की हिम्मत है़, न जाने क्या हो। परन्तु जो भी हो, गजब है, पिछले सारे लेख पढ़ने को बाध्य कर दिया। न जाने यह आज तक मैंने कैसे नहीं देखा था। हँसते, मुस्कराते सभी पढ़ डाले। आप और लपूझन्ना धन्य हैं। कुमाऊँनी होने के कारण लफ़त्तूजी के गीत को समझ सकी। हे हे हे !:D
घुघूती बासूती
घुघुती काखी
लपूझन्ना का अर्थ तो मुझे भी नहीं मालूम हुआ.
आपने इसे पूरा पढ़ डाला और हर एपीसोड पर कमेन्ट भी किए. अब मैं क्या कह सकने वाला हुआ कहा.
भिगोल और आल्ट वाले आपके सवाल का जवाब यहीं दे देता हूं - आपकी यूरोपियन ब्वारी मुझे यूरोप भर में जने कहां-कहां नक्से दिखा दिखा के घुमी लाने वाली हुई और जर्मन में "लाटा" भी कहने वाली ठैरी. आल्ट का पता नहीं. बुरुस-हुरुस मिल गए तो गुलाबी तोते जैसा कुछ बन ही जाने वाला हुआ.
बहुत नराई के साथ. आप जो हैं जहां हैं आपूंकैं राजीखुसी चानूं.
तुमर
लपूझन्ना (आब्बाबाहो!)
raag darbari ki yaad aa jati hai aap k lekh padh kar.
Mazedar....
Jis bakhubi se likha hai...bachpan yad aa gaya ....
Agar kisi ko lapujhanna ka matlab malum ho to kripaya majhe 'kishorjina.das098@gmail.com'par email kar de.
Super like
"लपूझन्ना"
मेरे ध्यान में जब जब यह शब्द आया तो लगा कि यह ज़रूर कुछ अजूबा सा है। एक दिन फितरती दिमाग़ में कुछ नहीं आया तो मुझे लगा कि किसी यूपी के भइय्या ने इसका कुछ न कुछ रिश्ता लेडीज के अंडरगारमेंट्स से निकाला होगा मसलन लपू के मायने दो गोल गोल नुमा आकार के लोबस् जिन्हें झीने कपड़े से ढक दिया गया हो जिसे शरीर के उभरे हुए भाग को ढकने के काम में लाया जाता हो। लेकिन मन में कुछ शंकाएं बनीं रहीं।
केएल ही पुस्तक प्पप्राप्त हुई है, हमारे भाई अश्वनी सारस्वत ने भए है। 200 rs का गिफ्ट किसी 2 लाख के गिफ्ट से बेहतर है। पांडे जी हमारे rk नारायण है, व राम नगर हमारा मलगुडी टाउन है, बहुत बहुत शुबकमानये पांडे जी।
अचानक एक पार्सल प्राप्त हुआ, उत्सुकता से खोला उसमें एक बहुत सुंदर मलट में एक पुस्तक है जिसमें बच्चे पहिया चला रहे हैं और नाम है लपूझन्ना। किताब देखकर एकदम मजा आ गया,लेखक का नाम देखा अशोक पांडे । अशोक पांडे जी का नाम से हमारे भाई अश्वनी सारस्वत का नाम याद आया धीरे से एक स्लिप निकली जिसमें अश्वनी सारस्वत का नाम था।
अश्वनी के द्वारा मुझे दी गई यह दूसरी गिफ्ट थी। पहली पुस्तक जो अश्वनी ने मुझे दी थी , वह थी श्री लाल शुक्ल की प्रसिद्ध राग दरबारी, जिसको मैंने करीब 3 बार पढ़ा और हर बार एक नया आनंद मिला। सोचा कि लपूझन्ना कुछ वैसे ही किताब होगी और अशोक पांडे जी का नाम तो साथ में था ही इससे पहले मैं पूजनीय अशोक पांडे जी का ब्लॉक सुतली वाला बम पढ़ चुका था और हंसते हंसते लोटपोट हो चुका था।
अशोक अशोक पांडे जी जो भी दिखते हैं वह कहीं ना कहीं हमें अपने बचपन में वापस ले जाता है उन गलियों में वापस ले जाता है जहां कभी हम खेले हैं, वह पड़ोस वाली दुकान पर ले जाता है जहां के समोसे वह जलेबियां आज भी मुह मे पानी लाती हैं, उन पुराने दोस्तों से मिलाने ले जाता है वा उन पुराने खेलों की तरफ ले जाता है, उन सब पुराने टीचरों से मिलाता है जिनके साथ हमने बचपन गुजारा है। वह सारे दोस्त जो कुछ अच्छा बुरा ना सोच कर दिन दिन भर साइकिल पर हम हमारे साथ शहर भर में घूमते थे, उन सब की याद दिलाता है। इसके साथ हमें प्रेरित करता है उसी पुरानी दुनिया में जाने को जहां से हमने अपनी यात्रा शुरू की थी।
इसी के साथ में एक और पुस्तक का जिक्र करना चाहूंगा वह है पाओलो कोएलो की अल्केमिस्ट, हमारे अशोक पांडे जी हमें उसी वर्ल्ड फेमस बुक अल्केमिस्ट की यात्रा कराते हैं जो कहती है आपको अपने जीवन में आगे बढ़ने के लिए दुनिया में घूमना पड़ेगा, बिरला विद्या मंदिर नैनीताल जाना पड़ेगा और सब जगह घूमने के बाद यही लगेगा की असली जिंदगी तो के चारों तरफ घूमती है और वह है, रामनगर की गलियां, बोने का बम पकोड़ा, वह पिक्चर हॉल के 15 मिनट के सीन, वह कुच्चू गमलू का इश्क, वह रामनगर का फुटबॉल मैच, टांडा के खिलाड़ियों का वर्णन और टांडा के खिलाड़ियों की विजय पर रामनगर की सड़कों के विजय यात्रा, मिठाई वाले का अपनी मिठाई को टांडा की जीत पर सड़क पर मुफ्त बांटना।
यही है हम सब की कहानी हम सब का बचपन जिसे हम सभी को जीने का मन करता है अपने उसी शहर में पुराने शहर में पुराने दोस्तों के साथ वही पुराने स्कूल में जहां से हमने आठवीं या दसवीं की है। वहाँ जाने का मन करता है। वही पुराने अध्यापकों से मिलने का मन करता है वही पुराने खेल खेलने का मन करता है वही पुरानी दुकानों में जाकर और पुराने पकवान पुरानी मिठाई गोलगप्पे टिक्की, लस्सी, गन्ने का रस सब पुरानी चीजें खाने का मन करता है। चलो अपना बचपन जिओ और एक लपूझन्ना पढ़ो।
स्पेशल कमेंट्स :
आर. के. नारायण को सबने पढ़ा होगा यहाँ रामनगर मालगुड़ी है। लेखक स्वामी के रोल में है लफतू मनि है, और बाकी सब स्वामी के दोस्तअलग अवतार में है। लेखक से अनुरोध है की अगला प्रकाशन रामनगर की कहानियाँ लिखें जिसमें लपूझन्ना के सारे कलाकार पुनः प्रस्तुत हो जब उनकी उम्र लगभग 50 की हो चुकी हो।
शुभ कामनाओ के साथ।
देव कान्त सारस्वत
अपर महाप्रबंधक
नेशनल थर्मल पावर कार्पोरेशन लीमिटेड (NTPC)
8004940465
मन करता था,की अशोक पांडे जी ने इतना कुछ लिखा हम सबका दिल खोल के मनोरंजन किया तो कुछ लपूझन्ना के लिए हम भी अपने शब्दों में कुछ लिखें। वह रामनगर का पाकिस्तान हमारे बरेली में भी बसता था। हमारे घर के पीछे ही वह मुसलमानो की बस्ती थी । वह सब जो रामनगर में मुसलमानों के बारे में सोचा जाता था वह सब हमारे बरेली में भी था। ईद आने पर पिता जी के मित्रों के यहाँ बड़े मन से बड़े इंतजार के साथ मेवा वाली सेवइयां खाने जाते थे और जब वह मुसलमान मित्र हमारे घर में चाय पीने आते थे तो उनके लिए चीनी मिट्टी के बर्तन अलग से निकाले जाते थे और उसने एक कप पर हल्का सा नेल पॉलिश लगा रहता था। वह का धीरे से छुपा के पिताजी के मुसलमान दोस्त को दिया जाता था तो कहानी सब जगह एक ही थी। यह घुच्ची का खेल बहुत समझने की कोशिश की लेकिन पूरी तरह समझ में नहीं आया। बड़ा मन है की किसी तरह हल्द्वानी जाके अशोक पांडे जी से यह घुच्ची का खेल सीखा जाए। लफत्तू का तुतला के बोलना शुरू में तो अजीब लगता था लेकिन बाद में आनंद आने लगा। बागड़ बिल्ला घुच्ची का उस्ताद था, पांडे जी क्या बताएंगे बागड़ बिल्ला आजकल कहां है। बात बोने के बम पकोड़े की करें तो अब शायद केवल एक प्रबल इच्छा हे है की अश्वनी को कहें की पांडे जी के साथ कम से कम एक बार बोने के बम पकौड़े की पार्टी जरूर करा दें। कर्नल रंजीत का उपन्यास शायद हम सबने बचपन में अपने चाचा, बुआ के पास देखा है उसकी याद ताजा हो गई। वह कछुए का किस्सा वाकई बहुत रोचक है दुर्गा दुर्गादत्त माटसाहब, लाल सिंह और कछुआ वाकई इनके साथ 10 दिन क्लास में कैसे निकल गए पता नहीं चला।
टांडा का फुटबॉल क्लब यह शायद इस उपन्यास का सबसे बेस्ट पार्ट है। रामनगर की टीम अच्छा खेलती थी,पर टांडा से अक्सर हारती थी। टांडा वालों को हराने के लिए इंडियन एयरलाइंस की टीम को दिल्ली से बुलाया गया, जो चैंपियन टीम थी। टांडा शुरू में मैच हार रहा था लेकिन रामनगर को काले खाँ का हारना मंजूर ना था। रामनगर वालो ने पवेलियन में बैठकर काले खाँ की टीम को जीता दिया। दलपत हलवाई ने सारी दुकान ठेले पर लादकर रोते हुए पूरे रामनगर को जलूस में मिठाई खिलाई। शिब्बन गोलकीपर ने काले खाँ को पूरे जुलूस में कंधे पर उठाए रखा। हमारा पेले कालेखा ही था।
ऑस्ट्रेलिया के राष्ट्रपति के लिए 9 फुट की खाट कुछ फेयरी टेल से कम मजेदार कहानी नहीं थी जोकि बचपन में हम अपनी दादी से कभी-कभी सुनते थे।
जोग्राफी के तिवारी माटसाहब और उनका प्यारा गंगाराम सब अनोखा है इस किताब में।
मुरादाबाद से आए हुए साइकिल वाले का 24 घंटे तक साइकिल चलाना सब की लाइफ का एक हिस्सा रहा है। विज्ञान का दूसरा चैप्टर और वह चने से चने के पौधे बनाना एक ज्ञानवर्धक किस्सा पुस्तक को एक दूसरे आयाम की तरफ ले जाता है। लफत्तू ना होकर भी इस किताब का नायक है जो अक्सर पिताजी के बटुए से पैसे चुरा कर घुच्ची खेलता है, बोने का बम पकौड़ा खाता है और पिक्चर देखता है। उसे डर नहीं है की कब टुनडे माटसाहब संटी से उसकी पिटाई करेंगे। किताब जगह-जगह मोड़ लेती है, बीच में लाल बेल बॉटम पहने अंग्रेजी मैडम का भाई गिटार बजाता हुआ प्रस्तुत होता है वह रामनगर वालों को सभ्यता सिखाने की कोशिश करता है पर रामनगर तो रामनगर है किसी की नहीं सुनता।
फिर वह अचानक से गोबर डॉक्टर की दो लड़कियां कुच्चू गमलू का आगमन होता है तो लफत्तू और पांडे जी का 10- 12 साल की लड़कियों से इश्क चलता है और फिर अचानक डॉक्टर का हल्द्वानी ट्रांसफर हो जाता है सब धरा का धरा रह जाता है कुच्चू गमलू पूरे उपन्यास में नायका का रोल अदा करती हैं।
काय पद्दा का गेम काफी रोचक लगा। मेरे इंजीन्यरिंग के 30साल के कैरियर में रत्तीपइयाँ नाम की गाड़ी का पहली बार नाम सुना पर अच्छा लगा और उसके बाद पता चला की यह रत्तीपइयाँ लेखक का आविष्कार है, जो शायद केवल रामनगर में ही चलता है फिर उसे कुच्चू गमलू को गिफ्ट देना वह भी मजबूरी में। फिर गोबर डॉक्टर के जाने के बाद कबाड़ में पुनः मिला। फिर उसे नदी के हवाले करके लेखक ने न जाने कितने प्रयोग किए हैं कि पूछो मत।
फिर आता है नया कलाकार कार टुंनाझरी जो कि लोकल बदमाश है और पिताजी से डरता है। इसके बाद शुरू होता है कायपद्दा का खेल जियाउल के साथ में, ज्याउल एक अच्छा और सीधा लड़का है, बागड़ बिल्ला उसे हमेशा चोर बना कर परेशान करता रहता है। फिर लफत्तू का घड़ी चुराना फिर बम पकौड़ा खाना और पिक्चर देखना।
बीच में मोहर्रम का जुलूस लोकल उत्सवों याद दिलाता रहता है अचानक से लफत्तू बीमार होता है और उसे इलाज के लिए मुरादाबाद जाना होता है। मोहर्रम के जुलूस में हमें बूंदी मिलती है जो लफत्तू का भाई खाने नहीं देता है।
हम सब ने शायद पेंसिल के छिलके से बचपन में रबड बनाई होगी, हमारा नायक भी पेंसिल के छिलकों से पिताजी से बचकर रबड़ खुशबू वाली बनाता है।
फिर नायक की तीसरी नायिका नसीम अंजुम का आना। नसीम अंजुम नायक की मझली बहन की सहेली है और उसके पिता फॉरेस्ट अफसर है समानता की थी कि दोनों को नैनीताल के बिरला विद्या मंदिर का टेस्ट देना था और बस इश्क की शुरुआत हो गई।
लफत्तू मुरादाबाद से आता है लेखक एक नया गेम चुस्सू सिखाता है। नसीम अंजुम के साथ टट्टी माटसाहब एग्जाम की तैयारी शुरू कराते हैं और एक नया खिलाड़ी मुन्ना खुड़ी का जन्म होता है टट्टी माटसाहब की कहानी भी अजीब है। बीच-बीच में लाल सिंह कुच्चू गमलू को हमेशा लेखक जिंदा रखता है। नसीम अंजुम इंटेलिजेंट सुंदर मुसलमान लड़की है और अब नायक उससे इश्क करता है। टट्टी माटसाहब जब घर आते हैं और उनका लड़का पूरे घर में टट्टी करता है और वह जो सीन है बहुत ही रोचक है ऐसा लगभग सभी घरो में कभी ना कभी होता है।
लकड़ी की रैक की कहानी जोकि मोहर्रम के ताजिए के जैसी है बार-बार हंसी दिलाती है नायक को जिसके चलते बिना मतलब में बेइज्जत होना पड़ता है। बाद में इस ताजिए से जाने क्या क्या अजीबो गरीब चीजे बनती है वह बची कतरने बोरों में भरी जाती है जो कि महीनों तक कमरों को गर्म करने के काम आती है। लेखक की कल्पना गजब की है।
और वह बचकानी कविता
हरी हरावे
लाल जीतावे
नीली पीली घर को जावे।
पुराने बचपन की याद दिलाती है गोटी पिल हो गई लूड़ो की दुनिया में ले जाते हैं।
एक और किस्सा सिक्के से चुंबक बनाना शायद हम सब ने बचपन में सिक्के से चुंबक बनाई होगी। पीतल के 4 सिक्के ट्रेन की पटरी पर रखना, घंटो ट्रेन का इंतजार करना फिर ट्रेन जाने के बाद उनको को ढूंढना, ना मिलने पर दुखी होकर वापस आना।
बीच बीच में , बागड़ बिल्ला अपनी उपस्थिति को हमेशा जिंदा रखता है।
कहानी के अंत में नायक का बिरला विद्या मंदिर नैनीताल में एडमिशन हो जाता है और सोने के लिए उसे नाइट सूट खरीदा पड़ता है जो उसके लिए अजीबो गरीब चीज है और जो कि बाद में चल पता चलता है कि उसे लेडीज नाईट सूट दे दिया गया है और वह उसे ही पहनता है। विद्या मंदिर का अनुशासन उसे एक अच्छा आदमी बनने के लिए प्रेरित करता है लेकिन उसका मान रामनगर में ही बसता है और वह इंतजार करता है कि जब अगली छुट्टी हो रामनगर जाए और छुट्टी होती है और नायक खुशी खुशी बैंड बाजे के साथ अपने घर रामनगर जाता है, जहां पर उसका लफत्तू दोस्त इंतजार कर रहा है लाल सिंह बत्तीसी दिखाता हुआ भागा- भागा आ रहा है बागड़ बिल्ला, बंटू, जगुवा व सत्तू सब उसके पीछे खड़े हैं।
आसमान से फूल झड़ने लगते हैं और कहानी अंत होता है।
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