छमाही इम्त्यान पूरे होते न होते खेल मैदान और बस अड्डे से लगा सारा इलाका निमाईस और उरस के लिए तैयार होना शुरू कर देता था। निमाईस में बिजली का झूला लगता था, बुढ़िया के बाल खाने को मिलते थे, जलेबी-समोसे और अन्य लोकप्रिय व्यंजनों के असंख्य स्टाल लगते थे, रामनगर की जगत - विख्यात सिंघाड़े की कचरी और बाबा जी की टिक्की, बौने के बम-पकौडे के स्टाल से टक्कर लिया करते थे। खेल मैदान में बच्चों की भीड़ रहा करती। बस अड्डे से लगा इलाका वयस्कों के लिए टाइप बन जाया करता था।
इस वयस्क इलाके में नौटंकी चला करती थी और अजीब - अजीब गाने बजा करते थे। ये गाने किसी भी फ़िल्मी गाने जैसे नहीं होते थे। न ही इनकी धुनें रामलीला के गीतात्मक वार्तालापों से मिला करतीं। अलबत्ता ये गाने बेहद 'कैची' होते थे और पहले ही दिन इन में से एक मेरी ज़ुबान पर चढ़ गया। "मैं हूं नागिन तू है संपेरा, संपेरा बजाए बीन। लौंडा पटवारी का बड़ा नमकीन ..." वाला गीत मैं एक बार घर में गुनगुनाने की ज़ुर्रत कर बैठा तो बढ़िया करके धुनाई हुई। शुरू में मुझे लगा कि पड़ोस में रहने वाले पटवारी जी का अपमान न करने की नसीहत मुझे दी गई है लेकिन लफ़त्तू ने मेरे ज्ञानचक्षु खोलते हुए बताया कि नौटंकी एडल्ट चीज़ होती है और उस में माल टाइप का सामान डांस किया करता है।
एकाध दिन नौटंकी को लेकर मन में ढेरों बातें उबला कीं लेकिन खेल मैदान में चल रहे एक दूसरे शानदार तमाशे ने बचपन के एक पूरे हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया। एक साहब गोल गोल घेरे में सात दिन तक लगातार साइकिल चलाया करते थे। दिन के वक्त कभी कभी साइकिल पर कई तरह के करतब दिखाए जाते थे और वे अपने एक असिस्टेन्ट की मदद से दोपहर किसी वाज़िब मौके पर साइकिल में बैठे बैठे जंग खाए तसले में भरे पानी से नहाते और बाकायदे कपड़े भी बदला करते।
इन साहब के पास बस एक ही रेकॉर्ड था। 'जंगली' फ़िल्म का यह रेकॉर्ड लगातार-लगातार बजता रहता था और उसके चलते "अइयइया सुकू सुकू" मेरे सर्वप्रिय गीतों में से एक बन गया था। मैंने तब तक सिर्फ़ चार पिक्चरें देखी थीं ('हाथी मेरे साथी', 'बनफूल', 'मंगू' और 'दोस्ती')। "अइयइया सुकू सुकू" सुनते हुए मुझे लगता था कोई खिलंदड़ा पक्षी किसी पेड़ की ऊंची डाल पर बैठा बहुत-बहुत ख़ुश है। आज भी जब कभी 'जंगली' के गाने सुनता हूं, मुझे रामनगर में निमाइस के दिनों साइकिल चलाने वाले उन सज्जन की याद आ जाती है।
हमारे लिए ये साहब बहुत बड़े हीरो थे। जहां हम बच्चे कैची चलाने में दिक्कत महसूस करते थे, ये जनाब सारे के सारे काम साइकिल पर किया करते थे। लफ़त्तू के ख्याल से एक काम साइकिल पर बैठ कर कभी नहीं किया जा सकता था : "तत्ती कैते कल पागा कोई छाकिल में बेते!"
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
4 comments:
सही कैंची साहेब - अरे "सुनले बापू ये पैगाम" वाली फ़िल्म नहीं देखी थी क्या? (हमारे यहाँ स्कूल में दिखाई गई थी) - मलाल रहा कि लफ़त्तू की जैसी बात की पुष्टि के लिए परदरशनी में सबेरे सबेरे जाना कभी नहीं हो सका- मनीष
बेशक एक मौलिक पोस्ट,
और अति रोचक भी !
लपूझन्ना को एक पुस्तक के रूप में लाइए। आपके मास्साब के जासूसी उपन्यास से ज्यादा दिलचस्प रहेगी यह!
घुघूती बासूती
Post a Comment