लफत्तू
के साथ दोस्ती बनाए रखने में कई सारे जोखिम थे. सबसे पहला तो यह कि इन्टर में पढ़ने
वाला मेरा भाई जब जब मुझे उसके साथ देखता मुझे बाकायदा हिदायत दी जाती थी कि इस टाइप
के लौंडों से हाथ भर दूरी बना कर रहना ही ठीक होता है. लफत्तू की धुनाई के बाद
मुझे लगता था कि किसी दिन उसके चक्कर में मैं बुरा फंसूगा और भाई या पिताजी के
हाथों पिटूंगा. सबसे बड़ा खतरा यह था कि उसके साथ लगातार देखे जाने से मेरी
रेपूटेशन खतरे में पड़ सकती थी और मैं होस्यार के बजाय ‘बदमास’ के तौर पर विख्यात हो सकता था. लेकिन इस
दोस्ती में जो एडवेन्चर का पुट था उस के कारण मैं लफत्तू की संगत के लालच में आ ही
जाता था.
उस
दिन लफत्तू अपने पिताजी के दफ्तर से पीतल का बड़ा सा ताला चाऊ कर लाया था. वह अपने
पिताजी को कोई जरूरी चिठ्ठी देने गया था. दफ्तर के चपरासी से लापरवाही में ताला मय
चाबी के एक बेन्च पर पड़ा रह गया था और दोपहर बीत जाने के बाद भी किसी की निगाह में
नहीं आया था. उल्लेखनीय है कि अपने घर से बाहर लफत्तू ने पहली बार हाथ आजमाया और
फतहयाब होकर आया था.
खेलमैदान
के एक तरफ हिमालय टॉकीज था और एक तरफ गाड़ी मिस्त्रियों की कालिखभरी दुकानों की
कतार. मैदान से हमारे घर की तरफ लगा हुआ प्राइवेट बस अड्डा था. मैं अपने साथ के
कुछ बच्चों के साथ घर के सामने स्थित इसी अड्डे पर खड़ा था. इस अड्डे से काशीपुर और
मुरादाबाद रूट की बसें चला करती थीं. शाम को पांच बजे तक सारी गाड़ियां अपना दिन
भर का काम करने के बाद अड्डे पर लग जाती थीं. उसके बाद गाड़ियों के क्लीनर
गाड़ियों में झाड़ू लगा कर सारा कचरा बाहर किया करते थे. यह कचरा हमारे लिए खजाने
की तरह होता था. हम में से कुछ बच्चों ने उन्हीं दिनों माचिस की डब्बियों के लेबल
इकठ्ठा करने का नया शौक पाला था. इस अय्याशीभरे शौक के चलते क्लीनरों के झाड़ू
लगाते समय अड्डे पर हमारी उपस्थिति अनिवार्य होती थी. कूड़ा बुहारते क्लीनर हमें
बेहद भद्दी गालियां दिया करते थे और कई बार किसी दुर्लभ लेबल को लेकर हम में
सरफुटव्वल तक हो जाता था लेकिन शौक़ तो शौक़ होता है साहब.
बहरहाल
क्लीनरगण अपने कार्य में व्यस्त थे और हम लोग आपस में डुप्लीकेट लेबलों की अदला-बदली
कर रहे थे जब लफत्तू हांफता हुआ मेरे पास आया. उसने बड़ी हिकारत से एक निगाह पहले
मुझ पर डाली फिर बाकी बच्चों पर. “बलबाद हो
जागा इन छालों के चक्कल में बेते …” कहते हुए उसने मुझे अपने
पीछे आने का इशारा किया. वह दूधिए वाली संकरी गली में घुस गया. उस्ताद के आदेश की
बेकद्री मैं नहीं कर सकता था. सो बेमन से उसके पीछे चल दिया. एक जगह थोड़ी सी तनहाई
मिली तो उसने जेब से एक एक के नोटों की पतली गड्डी बाहर निकाली और पूरे सात गिनाए.
“चल बमपकौड़ा खा के आते हैं.” उसने मेरे
कन्धे पर हाथ रखा और आंख मारी.
अपने
पापा के दफ्तर से ताला चु्राने की दास्तान उसने सुना तो दी लेकिन मेरी समझ में
नहीं आया कि सात रूपए वह कहां से चुरा कर लाया. “अले
याल बेच दिया थाले को”. वह ताले को एक गाड़ी मिस्त्री को बेच
आया था. “इत्ता बड़ा ताला था बेता … इत्ता
बड़ा” कहकर उसने ताले की नाप बढ़ा चढ़ा कर बताते हुए हाथ फैलाए.
“मैंने दस मांगे छाले से. उसके पास सात ई थे.” अब हम लोग उसी गाड़ी मिस्त्री की दुकान के आगे से निकल रहे थे. “वो ऐ उतकी दुकान.” लफत्तू ने इशारा किया लेकिन मेरी
हिम्मत उस तरफ देखने की नहीं हुई. यह बहुत बड़ा ज़ोखिम था जिसमें हमारे कारनामे के
सार्वजनिक हो जाने की प्रबल संभावना थी.
गाड़ी
मिस्त्री की दुकान से बीस तीस कदम चलने के बाद ही मैं अपनी निगाह ऊपर कर पाया. तब
तक हमारी मंजिले-मकसूद भी आ पहुंची थी. हिमालय टॉकीज़ सड़क से सटा हुआ था. उसके
प्रवेशद्वार से लगा कर खड़े किए गए एक ठेलानुमा खोखे में रामनगर का मशहूर बम पकौड़ा
मिलता था. इस ठेले का संचालन एक कलूटा और गंजा बौना किया करता था. जब वह अपने ठेले
पर नहीं होता था, उसे उसकी साइकिल पर सारे शहर का चक्कर लगाते देखा जाता था. बौना
होने के बावजूद वह हमेशा बड़ों की साइकिल चलाया करता था. और इस तकनीकी दिक्कत के
चलते वह साइकिल की गद्दी पर कभी बैठ ही नहीं पाता था. बाद के दिनों में उसने गद्दी
हटवा ही दी थी. वह सामर्थ्य भर तेज़-तेज़ कैंची चलाया करता. कभी उसके कैरियर पर आलू
की बोरी लदी होती उसी के जैसे उसके दो बच्चे बैठे होते.
क्रिकेट
की बॉल जितना होता था बौने का बम पकौड़ा. दुनिया का सबसे लज़ीज़ व्यंजन बनाने वाला
बौना एक दूसरा बिजनेस भी चलाता था. उसके ठेले से लगा हुआ था हिमालय टॉकीज़ का
प्रवेशद्वार. लकड़ी का वह चौड़ा गेट जमीन पर पहुंचने के करीब एक इंच पहले ख़त्म हो
जाता था. नतीज़तन फ़र्श और गेट के बीच एक झिरी सी थी. यह झिरी बहुत स्ट्रेटेजिक
लोकेशन पर थी. यदि अपना गाल फर्श पर लगाए श्रमपूर्वक उस पर आंख लगाई जाती तो भीतर
हॉल का पूरा पर्दा नजर आ जाता था. बौना स्कूल गोल करके आए बच्चों और स्कूल न जाने
वाले पिक्चरप्रेमी बच्चों को पांच पैसा प्रति पन्द्रह मिनट के हिसाब से झिरी पर
आंख लगाए पिक्चर देखने देता था. एक बार में पांच बच्चे बकौल लफत्तू इस लुफ्त का
मजा लूट सकते थे. दर्शक को पन्द्रह पैसे का एक बमपकौड़ा भी खरीदना होता था.
बच्चों
में यह बात मशहूर थी कि बौना इस तरह का सफल बिजनेस चलाने के कारण लखपति बन चुका था
यानी उसके पास हमारे पिताओं से ज्यादा प्रापर्टी थी. लोग कहते थे पीरूमदारा में
उसका एक बहुत बड़ा मकान था. लेकिन बौने के गंदे - संदे बच्चों की बहती नाक और खुद
बौने की भूरी पड़ चुकी छींट की धोती और खद्दर के फटे कुरते को देख कर इस बात पर
मुझे कभी कभी शक होता था.
हम
दोनों ने दो-दो बमपकौड़े टिकाये और तनिक दिलचस्पी से झिरी पर आंख लगाए एक बच्चे को
देखा. शाम का शो चल रहा था और इस शो में बौने का साइड बिजनेस मद्दा पड़ जाता था.
लफत्तू ने मुझे पिक्चर देखने का आमंत्रण दिया. ‘हिन्दुस्तान
की कसम’ लगी हुई थी.
जब
मैं शाम को घर पहुंचा तो मेरी सफेद कमीज बुरी तरह भूरी पड़ चुकी थी. मां ने पूछा तो
मैंने कहा कि मैं ऐसे ही गिर पड़ा था. उसके अगले पूरे हफ्ते तक मैं हर रोज़ गिरता
रहा. एक दिन पिक्चर बदल गई. “नया खेल लगा है बाबूजी.
देख लो आप दोनों के लिए दो जगे छोड़ रखी हैं मैंने.” बौना,
चोट्टे लफत्तू को बहुत अमीर समझने लगा था और उसकी चमचागीरी करता हुआ
उसे बाबूजी कहकर पुकारने लगा था.
इकत्तीस
साल हो गए लेकिन ‘हिन्दुस्तान की कसम’ मैं आज तक पूरी नहीं देख पाया.
10 comments:
क्या बात है अशोकदा ....मजा आ जाता है आपके रामनगर के किस्से पढ कर। छोटे शहरों के माहौल का बढिया चित्रण होता है।
भाई लपूझन्ना को ज़रा ग़ौर से पढूंगा.एक नज़र में तो जम रहा है, अभी भागना है.
हां भाई तीनों पीस पढ़ लिये.आगे भी लिखो.मस्त है.मस्त है गुरू.जय बोर्ची.
कस भैया..और मसाला नहीं है क्या.. और पढ़वाओ..
एक तो शहर रामनगर, फिर अशोक दा का बयान! उसे हम वली समझते जो न बादाख्वार होता !
वाह वाह मजा आ गया जी,क्या किस्से हैं दाज्यू. अब तो आपको स्ब्स्क्राइब कर लिया अब तो तुरंते पढुंगा.
बहुत जबर्दस्त लेखन है। बहुत से काम करने को हैं परन्तु आज तो इस श्रृखंला को पढ़ना ही है।
घुघूती बासूती
kya baat hai?..ramnagar ke rahne wale iska double maza le rahe hain.badhai
ganesh rawat
भाई वाह लफत्तू की संगति में बड़ा आनंद उठाया आपने. और वाह भाई वाह बमपकौड़ा..
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