Thursday, October 16, 2008

लाल बैलबॉटम और सूकड़ू का ठूकड़ू

दिसम्बर-जनवरी के दिन थे. स्कूल में दोएक हफ़्ते की सर्दियों की छुट्टियां हुईं. पड़ोस में रहने वाली डिग्री कालेज में अंग्रेज़ी पढ़ाने वाली मैडम का, लाल बैलबॉटम पहनने वाला भाई नैनीताल से इस बार अपने साथ गिटार ले कर आया हुआ था. अपनी दूरबीन और चश्मेदार आंखों के कारण मैल्कम फ़्रेज़र वाले वाक़ये के बाद वह रोलमॉडल्स की मेरी अस्थाई सूची में ऊंची जगह बनाने में कामयाब हो चुका था. लफ़त्तू अलबत्ता उस से तकरीबन नफ़रत करता था और बातचीत में उसका नाम आते ही अपने गालीज्ञान का निर्बाध प्रदर्शन करने लगता था.

छुट्टियों के कारण लफ़त्तू व सत्तू द्वारा संचालित होने वाला घुच्ची आन्दोलन कुछ दिन ठंडा पड़ गया और हमारी छत बहुत समय बाद बंटू, लफ़त्तू, सत्तू और यदा-कदा फ़ुच्ची की संगत में क्रिकेट के लम्बे-लम्बे सैशनों से आबाद रहने लगी.

एक रात लाल बैलबाटम के घर बढ़िया भीड़ जुटी. डिग्री कालिज के मास्टरों से लेकर जंगलात के बड़े अफ़सर इस भीड़ का हिस्सा थे. यह बेहद संभ्रान्त आयोजन था जिसमें किसी भी पड़ोसी को नहीं बुलाया गया. अगले रोज़ पता चला कि अंग्रेज़ी मैडम के यहां नये साल की पाल्टी हुई. अंग्रेज़ी गानों के रेकॉर्ड बजे, केक खाया गया और शराब तक पी गई. हां अंग्रेज़ी मैडम ने भी पी.

पाल्टी में भाग ले चुके भाग्यशाली लोगों के साथ जिस किसी का भी कैसा ही कोई संबंध था, वह अपने अपने आत्मविश्वास के हिसाब से इस बात को जल्दी-जल्दी समूचे रामनगर में फैला देना चाहता था कि शहर तरक्की की राह पर है. होली-दीवाली तक ठीक से न मना पाने वाले लोगों से आबाद रामनगर में दारू पी रही एक स्त्री की उपस्थिति में गमगमाए किसी घर से गिटार पर "हैप्पी न्यू ईयर" की आवाज़ के आने के मतलब को परम्परावादी, आधुनिकतावादी और उत्तर आधुनिकतावादी - तमाम कोणों से परखे जाने का सिलसिला चल निकला.

इस के बाद लफ़त्तू के मन में लाल बैलबाटम के लिए हिकारत और बढ़ गई, हालांकि मैं अब भी उस से ख़ासा इम्प्रेस्ड था. लाल बैलबाटम के अपनी छत पर गिटार पर झमझम करता रहता और अदा के तौर पर नाक तक बह आए चश्मे को अपनी सबसे छोटी उंगली से ऊपर करता. लफ़त्तू ने उन दिनों अपनी चाल में इस फ़ैशनेबल संगीतकार लौंडे की पैरोडी जोड़ ली थी और हमें देखते ही वह दाएं हाथ के अंगूठे और पहली उंगली को जोड़कर दूसरी बांह को सीधा कर उसे हवाई गिटार बना कर बजाता हुआ "झांय झप्पा, झांय झप्पा ... हब्बा हब्बा हब्बा हब्बा ..." गाना चालू कर देता. हम हंसते हंसते दोहरे हो जाते जब वह चश्मा ऊपर खिसकाने की एक्टिंग करता और आंख मार के कहता "हैप्पी नूई".

हम क्रिकेट खेल रहे थे जब एक दिन लाल बैलबाटम हमारी छत पर जाने कहां से अवतरित हो गया. उसने "हैलो" कहा और अपनी नाकें पोंछते हुए, हकबकाए हुए हम पहले एक दूसरे को फिर उसके गिटार को देखने लगे.

"मैं आप लोगों का खेल डिस्टर्ब नहीं करूंगा. दीदी की छत पर कुछ काम चल रहा है. मैं इतनी आवाज़ में वहां प्रैक्टिस नहीं कर सकता - अगले हफ़्ते मेरा म्यूज़िक का एग्ज़ाम है. आप खेलते रहिए, मैं एक कोने पर प्रैक्टिस करता रहूंगा."

"इत ते कै दो धाबू की थत पे कल्ले जो कन्ना ऐ." अम्पायर लफ़त्तू ने कर्री आवाज़ में आदेश जारी किया.

लाल बैलबाटम को ढाबू की छत का रास्ता दिखा दिया गया. हम से दो-चार साल बड़ा यह नैनीताली-लौंडा उतना ख़राब नहीं लगा मुझे जितना उसके बारे में अफ़वाहें उड़ाई जा चुकी थीं. मुझे अचरज हुआ कि बाजे वगैरह की कोई परीक्षा वगैरह भी होती है.

क़रीब तीन मिनट तक पड़े इस व्यवधान के दौरान केवल लफ़त्तू ही अपना कॉन्फ़ीडेन्स बचाए रख सका था. लाल बैलबाटम की संभ्रान्तता ने हमारी हवा निकाल दी थी. उसका चमचमाता गिटार, पीतल की चेन लगी तीस इंची मोहरी वाली लाल बैलबाटम हमारे तसव्वुर से कहीं आगे की चीज़ें थीं.

"अब तलो बेते! इश्टाट!" कहते हुए खीझे-भुनभुनाए लफ़त्तू ने खेल शुरू कराया. पर खेल में मन किसका लगना था.

"रुक ना एक मिनट! भइया का गिटार देख!" यह बहुत कम बोलने वाला बन्टू था जिसकी पूरे रामनगर में साख केवल इस वजह से थी कि उसके पापा मोटरसाइकिल चलाते थे और गरमियों में बाकायदा काला चश्मा पहन कर निकलते थे.

लफ़त्तू ने संभवतः अपमानित महसूस किया और मुझ से बोला: "बन्तू आउत! अब तेली बाली!"

मैंने बैट सम्हाला पर बॉलिंग कौन करता. बन्टू ढाबू की छत पर पहुंच कर अपने नए-नए बने भइया को देखता मंत्रमुग्ध खड़ा था.

एक नाटकीय फ़ैसला लेते हुए लफ़त्तू ने कहा: "तू खेल, मेली बौलिंग"

मुझे याद नहीं उस से पहले लफ़त्तू ने कभी खेल में हिस्सा लिया हो.

"तू दलना मत बेते, फ़ात्त नईं कलूंगा. इछपिन कलाऊंगा."

लफ़त्तू ने बहुत अदाएं झाड़ते हुए रबड़ की गेंद पर थूक लगाया, फ़िर उसे हवा में चूमा और "दै माता दी" कहते हुए रन अप चालू किया. ज़िगज़ैग लय में हौले हौले चलता हुआ वह पूरी मस्ती में गाता हुआ मेरी तरफ़ बढ़ रहा था: "बेल बातम ... बेल बातम ... भेल फ़ातम ... भेल फ़ातम ... "

" ... ल्ल्ले बेते! " कहकर उसने गेंद फेंकी और जो मेरे बैट से टकरा कर लप्पा कैच बनकर हवा में ऊंची उठी.

उधर लाल बैलबाटम का झांय झप्पा चालू था और इधर कैच लेने को नाचने की मुद्रा में बढ़ते लफ़त्तू की नवीन ज़िगज़ैग कविता: "बेल बातम ... बेल बातम ... भेल फ़ातम ... भेल फ़ातम ... "

"आउत है इम्पायल!" कहकर उसने अनुपस्थित अम्पायर की तरफ़ अपील की, ख़ुद ही वापस बॉलिंग-एन्ड पर जाकर अम्पायर बना और उंगली उठाकर आउट दे दिया.

"देखी मेली इछपिन! तल दुबाला खेल्ले बेते! आज तू पिड्डू पे पिड्डू ले ले!"

कमज़ोर खिलाड़ी के आउट हो जाने के बाद तक़रीबन भीख में दिया जाने वाला एक एक्स्ट्रा चान्स पिड्डू कहलाया जाता था.

लफ़त्तू की अनखेलेबल स्पिन, और ज़िगज़ैग कविता और लाल बैलबाटम की झांयझप्पा की वजह से मेरा मन उखड़ सा गया और मैं कुछ बहाना बना कर नीचे घर चला गया. पांच मिनट बाद छत पर पहुंचा तो लफ़त्तू और बैलबाटम वाकयुद्ध में लीन थे. घबराया बन्टू वाक़ई घबराया हुआ दिख रहा था.

मसला यूं हुआ था कि मेरी अनुपस्थिति में लफ़त्तू की "बेल बातम ... बेल बातम ... भेल फ़ातम ... भेल फ़ातम ... " परफ़ॉर्मेन्स अपने क्रिसेन्डो पर पहुंचने के बाद बैलबाटम की समझ में आ सकी कि यह दो कौड़ी का गंवार छोकरा उसकी मज़ाक उड़ा रहा है.

"मुदे पागल छमल्लिया तू! तू झांय झप्पा कल्लिया था तो मैंने कुत कई तुत्ते? मेला गाना ऐ, मुदे लोकने वाला तू कौन होता ऐ! तूतियम छल्फ़ेत! ... बी यो ओ ओ ओ ... ई"

लफ़त्तू ने मुझे देखकर बढ़े हुए हौसले के साथ नाचना चालू कर दिया: "बेल बातम ... बेल बातम ... भेल फ़ातम ... भेल फ़ातम ... "

यह शिर्क था, ब्लास्फ़ेमी थी, घोर पाप था. लाल बैलबाटम बोला: "ईडियट्स!" और गिटार को खोल में डालने लगा.

"ईदियत कितको बोल्लिया बे? इंग्लिछ मुदे बी आती ऐ! मैं ईदियत तो तू बिलैदी बाछ्केत! ..."

'इन कुत्तों के मुंह कौन लगे' की मुद्रा बना कर नैनीताल का हीरो जाने लगा तो लफ़त्तू ज़ोर से बोला: "लाल मूंग की तातली खागा बे, ... बिलैदी हुत्त!"

लफ़त्तू के पापा यदा-कदा अंग्रेज़ी में उसे 'ब्लेडी बास्केट' और 'ब्लेडी हुस्स' कह कर गरियाते थे. विरासत में अर्जित उसी ज्ञान की बदौलत आज उसने हमारी लाज बचाई. हमें शिकायत किये जाने की सूरत में घरवालों द्वारा मारे-पीटे जाने का थोड़ा सा ख़ौफ़ हुआ पर लाल बैलबाटम उस के बाद रामनगर कभी नज़र नहीं आया.

बहुत समय नहीं बीता था जब अंग्रेज़ी मैडम की नूई पार्टी के बाद संभवतः पड़ोस के असंतुष्टों की मांग पर लफ़त्तू के पापा ने अपने घर पर गीतों की संध्या जैसा कोई आयोजन रखा. इस में मेरे घर से मेरे पापा और मैंने शिरकत की.

लफ़त्तू लोगों के बाहर वाले कमरे के सारे कुर्सी मेज़ बाहर सड़क पर रख दिए गए थे और गद्दों दरियों पर महफ़िल जमी थी. जब हम ने प्रवेश किया तो संध्या शुरू हो गई थी. हारमोनियम की पेंपें और तबले की भद्दभद्द के ऊपर एक अंकल जी "जै मां सारदे" गा रहे थे.

लफ़त्तू ने मुझे अन्दर बुला लिया और परदे से लगा कर रखे एक स्टूल पर अपने साथ बिठा लिया. भीतर रसोई में औरतें और बरतन खटपट कर रहे थे. पके हुए भोजन की ख़ुशबू तैर रही थी. लफ़त्तू के पापा के दफ़्तर में काम करने वाले चन्दू भईया नामक चपरासी विशेष ड्यूटी में लगाए गए थे और वे बड़ों के कमरों में कांच के गिलास, पकौड़ी इत्यादि की सप्लाई में मुब्तिला थे.

पेंपें और भद्दभद्द के ऊपर उठने की कोशिश में लगे गायन के बोल समझ में नहीं आ रहे थे क्योंकि भीतर हर कोई कुछ बोल रहा था. अचानक सब चुप हो गए और लफ़त्तू के पिता ने अपनी जगह से अधलेटे कहा: "अरे आइये आइये मास्साब आइए!"
मुर्गादत्त मास्टर भीतर आ गए. उनके साथ दो लोग थे. एक सारस जैसे दीखता था दूसरा गोबर के निर्विकार-निर्लिप्त ढेर सा.

अचानक मुझे लगा कि लफ़त्तू के पापा भी बहुत बड़े आदमी हैं. मुर्गादत्त मास्साब का इतना ख़ौफ़ था कि मुझे लगता था वे सोते हुए भी संटी बगल में रखे रहते होंगे. पर यहां तो वे कुर्ता पाजामा पहन कर आए थे और चन्दू भैया द्वारा प्रस्तुत किए गए पदार्थ को स्वीकार भी कर ले रहे थे.

पेंपें और भद्दभद्द कुछ देर ठहर गई. मास्साब का स्टाइल था तो देसी पर भीषण पहाड़ी एक्सेन्ट में रंगा. मुर्गादत्त मास्साब ने अपने साथी सारस का परिचय कराया: "आप पंडित रामलायक निर्जन जी" और "आप" इस बार गोबरश्रेष्ठ का तआर्रुफ़ हो रहा था "डाक्साब. अभी तबादला हो के आए हैं पसू अस्पताल में सिरीनगर से. पंडिज्जी प्रिंसीपल साब की बुआ के ममेरे भाई के साले हैं. अरे अपने छोटे भाई हैं साब. छुट्टी के बाद यहां अपने कालिज में बच्चों को संस्कृत सिखलावेंगे. बड़े महात्मा आदमी हैं. आप के सौभाग्य जो पंडिज्जी आपके यहां आए. पंडिज्जी गाने भतेरे जानते हैं और सायरी बनाते हैं जभी तो उपनाम धरा है निर्जन."

अपने ऊपर पढ़े जा रहे क़सीदे को सुनते ही पंडित रामलायक निर्जन के चेहरे पर वाक़ई निर्जनता छा गई. उन्होंने एक घूंट में गिलास समझा और अपने को निर्जन वन में पहुंचा लिया.

आधे मिनट के बीतते न बीतते नाकदार, स्त्रैण आवाज़ में वे चालू थे: "मेरी जिन्नगानी पे तेरी याद का साया है पिरतमा!"

उनके पिरतमा कहने में कुछ था कि कई लोगों की हल्की हंसी छूट जा रही थी पर निर्जन वन में बैठे नायिका की याद के मारे पंडिज्जी हर किसी से बेज़ार थे. उन्होंने ठीक आधे घन्टे तक श्रोताओं की खाल में भुस भरा, पांच बार चन्दूपेय को उदरस्थ किया और इकत्तीसवें मिनट में "वाक वाक" करते कमरे के बाहर नाली-वाक पर निकल लिए.

गोबर डाक्टर जिस अनौपचारिक तरीके से भीतर के कमरों में आ-जा रहे थे, मुझे समझने में देर नहीं लगी कि वे लफ़त्तू लोगों के वही पूर्वपरिचित हैं जिनके तबादले के बारे में वह मुझे कुछ रोज़ पहले बता रहा था.

इसी अफ़रातफ़री में खाना लगा दिया गया. पिताजी घर से बुलावा आने पर जा चुके थे और मुझे देर होने की स्थिति में लफ़त्तू के साथ वहीं सो जाने को कहा गया था. हमारे पड़ोस के वैद्यजी भी नशे में आ चुके थे और "अहम लम्बामि! अहम लम्बामि!" कहते हुए लफ़त्तू के ऑलरेडी लधरे पापा पर लधरे जा रहे थे.

हारमोनियम मुर्गादत्त मास्साब ने थाम लिया था और वे रामलीला का "तेरा अभिमान सब जाता रहेगा ओ रावण! नए दुख रोज़ तू पाता रहेगा!" वाला विभीषण का डायलाग गाने लगे थे.

वैद्यजी अब हाल में आ गए थे. और खड़े हो कर झूमते हुए नाचने लगे थे. उनकी आंखों से आंसू गिर रहे थे. गाना ख़त्म होते ही उन्होंने एक बार हकबका कर मुर्गादत्त मास्साब को देखा फिर लफ़त्तू के पापा को. जैसे उन्हें कुछ याद आया और वे "अहम लम्बामि! अहम लम्बामि!" कहते हुए प्री-डायलाग स्थिति में लधर गए.

यह सब बहुत देर चलता रहा. पसू अस्पताल के डाक्साब के इसरार पर अन्ततः मुर्गादत्त मास्साब वापस घर जाने को तैयार हुए.

"चलो बच्चो! चलो गमलू! चलो कुच्चू! "

गमलू और कुच्चू हमारी उमर की दो बेहद सुन्दर जुड़वां बच्चियां निकलीं . दोनों ने गुलाबी स्कर्ट पहना हुआ था जिन पर गुड़िया बनी हुई थीं. "पापू, थक गया मैं!" कह कर उनमें से एक गोबर डाक्टर के पैरों से लिपट गई.

यह मेरी दूसरी मौत थी सकीना के बाद!

बहुत बाद में खाना खा चुकने के बाद, लफ़त्तू के पापा के इसरार पर चन्दू भइया ने हारमोनियम सम्हाल कर जब एक सायरी गाना शुरू किया तो मुझे उनकी आवाज़ में गाए जा रहे "सूकड़ू होता है इन्सा ठूकड़े खाने के बाद" सुनते हुए एक एपोकैलिप्टिक आवेग में अगले एक खरब युगों तक का अपना मुस्तकबिल ठूकड़ें खाते हुए सूकड़ू बनने की जद्दोजहद में फंसा दिख गया.

यह अलग बात है कि अगले कई सालों तक गमलू के चक्कर में लफ़त्तू द्वारा खाई गई ठूकड़ों का हिसाब आज भी किसी के पास नहीं है.